मंत्र: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li class="HindiText"> मत्र-तत्र की शक्ति | <li class="HindiText"> मत्र-तत्र की शक्ति पौद्गलिक है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मत्रशक्ति का माहात्म्य।<br /> | <li class="HindiText"> मत्रशक्ति का माहात्म्य।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मत्र-सिद्धि तथा उसके द्वारा अनेक चमत्कारिक कार्य होने का | <li class="HindiText"> मत्र-सिद्धि तथा उसके द्वारा अनेक चमत्कारिक कार्य होने का सिद्धान्त–देखें [[ ध्यान#2.4 | ध्यान - 2.4]],5।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पूजापाठ आदि के लिए कुछ यत्र–देखें | <li class="HindiText"> पूजापाठ आदि के लिए कुछ यत्र–देखें [[ य ]]त्र ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ध्यान योग्य कुछ मत्रों का निर्देश–देखें | <li class="HindiText"> ध्यान योग्य कुछ मत्रों का निर्देश–देखें [[ पदस्थ ]]।2<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मत्र में स्वाहाकार नहीं होता–देखें | <li class="HindiText"> मत्र में स्वाहाकार नहीं होता–देखें [[ स्वाहा ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> णमोकारमत्र के वाचक एकाक्षरी आदि मत्र–देखें | <li class="HindiText"> णमोकारमत्र के वाचक एकाक्षरी आदि मत्र–देखें [[ पदस्थ ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> णमोकारमत्र का | <li class="HindiText"> णमोकारमत्र का माहात्म्य।–देखें [[ पूजा#2.4 | पूजा - 2.4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> आचार्यादि तीनों में | <li class="HindiText"> आचार्यादि तीनों में कथंचित् भेद व अभेद–देखें [[ साधु#6 | साधु - 6]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> मत्र तत्र की शक्ति | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> मत्र तत्र की शक्ति पौद्गलिक है </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,82/349/8 <span class="PrakritText">जोणिपाहुड़े भणिदमंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वो।</span> = <span class="HindiText">योनिप्राभृत में कहे गए मत्र-तत्ररूप शक्तियों का नाम पुद्गलानुभाग है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> मत्रशक्ति का माहात्म्य</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> मत्रशक्ति का माहात्म्य</strong> </span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./184/419/18 <span class="SanskritText">अचिन्त्यं हि तपोविद्यामणिमन्त्रौषधिशक्त्यतिशयमाहात्म्यं दृष्टस्वभावत्वात्। स्वभावोऽतर्कगोचर इति समस्तवादिसंयत्वात्। </span>= <span class="HindiText">विद्या, मणि, मत्र, औषध आदि की अचिन्त्य शक्ति का माहात्म्य प्रत्यक्ष देखने में आता है। स्वभाव तर्क का विषय नहीं, ऐसा वादियों को सम्मत है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मत्र, तत्र आदि की सिद्धि का मोक्षमार्ग में निषेध</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> मत्र, तत्र आदि की सिद्धि का मोक्षमार्ग में निषेध</strong></span><br /> | ||
र.सा./ | र.सा./109 <span class="PrakritGatha">जोइसविज्जामंत्तोपजीणं वा य वस्सववहारं। धणधण्णपडिग्गहणं समणाणं दूसणं होइ।109। </span>= <span class="HindiText">जो मुनि ज्योतिष शात्र से वा किसी अन्य विद्या से वा मत्र-तत्रों से अपनी उपजीविका करता है, जो वैश्योंके से व्यवहार करता है और धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है वह मुनि समस्त मुनियों को दूषित करने वाला है।</span><br /> | ||
ज्ञा. | ज्ञा.4/52-55 <span class="SanskritText">वश्याकर्षणविद्वेषं मारणोच्चाटनं तथा। जलानलविषस्तम्भो रसकर्म रसायनम्।52। पुरक्षोभेन्द्रजालं च बलस्तम्भो जयाजयौ। विद्याच्छेदस्तथा वेधं ज्योतिर्ज्ञानं चिकित्सितम्।53। यक्षिणीमत्रपातालसिद्धय: कालवञ्चना। पादुकाञ्जननिस्त्रिंशभूतभोगीन्द्रसाधनं।54। इत्यादिविक्रियाकर्मरञ्जितैर्दुष्टचेष्टितैः। आत्मानमपि न ज्ञातं नष्टं लोकद्वयच्युतैः।55।</span> = <span class="HindiText">वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन, तथाजल अग्नि विष आदि का स्तम्भन, रसकर्म, रसायन।52। नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्रजालसाधन, सेना का स्तम्भन करना, जीतहार का विधान बताना, विद्या के छेदने का विधान साधना, वेधना, ज्योतिष का ज्ञान, वैद्यकविद्यासाधन।53। यक्षिणीमत्र, पातालसिद्धि के विधान का अभ्यास करना, कालवंचना (मृत्यु जीतने का मत्र साधना), पादुकासाधन (खड़ाऊँ पहनकर आकाश या जल में विहार करने की विद्या साधना) करना, अदृस्य होने तथा गड़े हुए धन देखने के अंजन का साधना, शस्त्रादि का साधना, भूतसाधन, सर्पसाधन।54। इत्यादि विक्रियारूप कार्यों में अनुरक्त होकर दुष्ट चेष्टा करने वाले जो हैं उन्होंने आत्मज्ञान से भी हाथ धोया और अपने दोनों लोक का कार्य भी नष्ट किया। ऐसे पुरुषों के ध्यान की सिद्धि होना कठिन है।55।</span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./40/10 <span class="SanskritText">क्षुद्रध्यानपरप्रपञ्चचतुरा रागानलोद्धीपिताः, मुद्रामण्डलयत्रमत्रकरणैराराधयन्त्यादृताः। कामक्रोधवशीकृतानिह सुरान् संसारसौख्यार्थिनो, दुष्टाशाश्रिहता: पतन्ति नरके भोगार्तिभिर्वञ्चिता:।10।</span> = <span class="HindiText">जो पुरुष खोटे ध्यान के उत्कृष्ट प्रपंचों को विस्तार करने में चतुर हैं वे इस लोक में रागरूप अग्नि से प्रज्वलित होकर मुद्रा, मण्डल, यत्र, मत्र आदि साधनों के द्वारा कामक्रोध से वशीभूत कुदेवों का आदर से आराधन करते हैं। सो, सांसारिक सुख के चाहनेवाले और दुष्ट आशा से पीड़ित तथा भोगों की पीड़ा से वंचित होकर वे नरक में पड़ते हैं।120।<br /> | ||
और भी | और भी दे0–मत्र, तत्र ज्योतिष आदि विद्याओं का प्रयोग करने वाला साधु संसक्त है (देखें [[ संसक्त ]]), वह लौकिक है (देखें [[ लौकिक ]])। आहार के दातार को मत्र, तत्रादि बताना साधु के आहार का मत्रोपजीवी नाम का एक दोष है। (देखें [[ आहार#II.4 | आहार - II.4]])। इसी प्रकार वसतिका के दातार को उपरोक्त प्रयोग बताना वसतिका का मत्रोपजीवी नामक दोष है। (देखें [[ वसतिका ]])।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> साधु को आजीविका करने का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> साधु को आजीविका करने का निषेध</strong> </span><br /> | ||
ज्ञा./ | ज्ञा./4/56-57 <span class="SanskritGatha">यतित्वं जीवनोपायं कुर्वन्त: किं न लज्जित:। मातु: पण्यमिवालम्ब्य यथा केचिद्गतघृणा:।56। नित्रपा: कर्म कुर्वन्ति यतित्वेऽप्यतिनिन्दितम्। ततो विराध्य सन्मार्गं विशन्ति नरकोदरे।57।</span> = <span class="HindiText">कई निर्दय निर्लज्ज साधुपन में भी अतिशय निन्दा योग्य कार्य करते हैं। वे समीचीन मार्ग का विरोध करके नरक में प्रवेश करते हैं। जैसे कोई अपनी माता को वेश्या बनाकर उससे धनोपार्जन करते हैं, तैसे ही जो मुनि होकर उस मुनिदीक्षा को जीवन का उपाय बनाते हैं, और उसके द्वारा धनोपार्जन करते हैं वे अतिशय निर्दय तथा निर्लज्ज हैं।56-57।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> परिस्थितिवश मंत्र प्रयोग की आज्ञा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> परिस्थितिवश मंत्र प्रयोग की आज्ञा</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./306/520/17<span class="SanskritText"> स्तेनैरुपद्रूयमाणानां तथा श्वापदै:, दुष्टैर्वा भूमिपालै:, नदीरोधकै: मार्या च तदुपद्रवनिरास: विद्यादिभि... वैयावृत्त्यमुक्तम्।</span> = <span class="HindiText">जिन मुनियों को चोर से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुँचा हो, नदी के द्वारा रुक गये हों, भारी रोग से पीड़ित हो गये हों, तो उनका उपद्रव विद्यादिकों से नष्ट करना उनकी वैयावृत्ति है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> पूजाविधानादि के लिए सामान्य मत्रों का निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> पूजाविधानादि के लिए सामान्य मत्रों का निर्देश</strong> <br /> | ||
म.पु./ | म.पु./40/श्लो.नं. का भावार्थ–निम्नलिखित मत्र सामान्य हैं क्योंकि सभी क्रियाओं में काम आते हैं।91। | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> भूमिशुद्धि के लिए</strong></span><span class="SanskritText">‘नीरजसे नम: | <li><span class="HindiText"><strong> भूमिशुद्धि के लिए</strong></span><span class="SanskritText">‘नीरजसे नम:’।5।</span><span class="HindiText"> विघ्नशान्ति के लिए </span><span class="SanskritText">‘दर्पमथनाय नम:’।6। </span><span class="HindiText"> और तदनन्तर गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप और नैवेद्य द्वारा भूमिका संस्कार करने के लिए क्रम से–</span><span class="SanskritText">शीलगन्धाय नम:, विमलाय नम:, अक्षताय नम:, श्रुतधूपाय नम:, ज्ञानोद्योताय नम:, परमसिद्धाय नम:,</span><span class="HindiText"> ये मत्र बोल बोल वह वह पदार्थ चढ़ावे।7-10। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> तदनन्तर पीठिकामत्र</strong> पढ़े–</span><span class="SanskritText">सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम: | <li><span class="HindiText"><strong> तदनन्तर पीठिकामत्र</strong> पढ़े–</span><span class="SanskritText">सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:।11। परमजाताय नम:, अनुपमजाताय नम:।12। स्वप्रधानाय नम:, अचलाय नम:, अक्षयाय नम:।13। अव्याबाधाय नम:, अनन्तज्ञानायं नम:, अनन्तवीर्याय नम:, अनन्तसुखाय नम:, नीरजसे नम:, निर्मलाय नम:, अच्छेद्याय नम:, अभेद्याय नम:, अजराय नम:, अप्रमेयाय नम:, अगर्भवासाय नम:, अक्षोभ्याय नम:, अविलीनाय नम:, परमघनाय नम:।14-17। परमकाष्ठयोगाय नमो नम:।18। लोकाग्रवासिने नमो नम:, परमसिद्धेभ्यो नमो नम:, अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नम:।19। केवलिसिद्धेभ्यो नमो नम:, अन्त:कृत्सिद्धेभ्योनमो नम:, परम्परसिद्धेम्यो नम:, अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नम:, अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नम:, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्य आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्हं, निर्वाणपूजार्हं अग्नीन्द्र स्वाहा।20-23। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> (इसके | <li><span class="HindiText"> (इसके पश्चात् <strong>काम्यमंत्र</strong> बोलना चाहिए) </span><span class="SanskritText">सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।24-25।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> तत्पश्चात् क्रम से <strong>जातिमत्र</strong>, निस्तारकमंत्र, ऋषिमत्र, सुरेन्द्रमत्र, परमराजादि मत्र, परमेष्ठी मत्र, इन छ: प्रकार के मत्रों का उच्चारण करना चाहिए।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>जातिमत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सत्यजन्मन: शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मन: शरणं प्रपद्यामि, अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि अनुपमजन्मन: शरणं प्रपद्यामि, | <li><span class="HindiText"><strong>जातिमत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सत्यजन्मन: शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मन: शरणं प्रपद्यामि, अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि अनुपमजन्मन: शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते सरस्वति सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।27-30। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> निस्तारमत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, | <li><span class="HindiText"><strong> निस्तारमत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, स्नातकाय स्वाहा, श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।।31-37। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> ऋषि म</strong><strong>त्र–</strong> </span><span class="SanskritText">सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:, निर्ग्रन्थाय नम:, वीतरागाय नम:, महाव्रताय नम:, त्रिगुप्ताय नम:, महायोगाय नम:, विविध-योगाय नम:, विविधर्द्धये नम:, अङ्गधराय नम:, पूर्वधराय नम:, गणधराय नम:, परमर्षिभ्यो नमो नम:, अनुपम जाताय नमो नम:, सम्यग्दृष्टे | <li><span class="HindiText"><strong> ऋषि म</strong><strong>त्र–</strong> </span><span class="SanskritText">सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:, निर्ग्रन्थाय नम:, वीतरागाय नम:, महाव्रताय नम:, त्रिगुप्ताय नम:, महायोगाय नम:, विविध-योगाय नम:, विविधर्द्धये नम:, अङ्गधराय नम:, पूर्वधराय नम:, गणधराय नम:, परमर्षिभ्यो नमो नम:, अनुपम जाताय नमो नम:, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु,।38-46। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> सुरेन्द्रमत्र</strong>:–</span><span class="SanskritText">सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्यार्चिर्जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते | <li><span class="HindiText"><strong> सुरेन्द्रमत्र</strong>:–</span><span class="SanskritText">सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्यार्चिर्जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।47-55। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> परमराजादिमत्र–</strong></span><span class="SanskritText">सत्यजातायस्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयार्चजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमजाताय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं | <li><span class="HindiText"><strong> परमराजादिमत्र–</strong></span><span class="SanskritText">सत्यजातायस्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयार्चजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमजाताय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।56-62। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> परमेष्ठी मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:, परमजाताय नम:, परमार्हताय नम:, परमरूपाय नम:, परमतेजसे नम:, परमगुणाय नम:, परमयोगिने नम:, परमभाग्याय नम:, परमर्द्धये नम:, परमप्रसादाय नम:, परमकांक्षिताय नम:, परमविजयाय नम:, परमविज्ञाय नम:, परमदर्शनाय नम:, परमवीर्याय नम:, परमसुखाय नम:, सर्वज्ञाय नम:, अर्हते नम:, परमेष्ठिने नमो नम:, परमनेत्रे नमो नम:, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा, सेवाफलं | <li><span class="HindiText"><strong> परमेष्ठी मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:, परमजाताय नम:, परमार्हताय नम:, परमरूपाय नम:, परमतेजसे नम:, परमगुणाय नम:, परमयोगिने नम:, परमभाग्याय नम:, परमर्द्धये नम:, परमप्रसादाय नम:, परमकांक्षिताय नम:, परमविजयाय नम:, परमविज्ञाय नम:, परमदर्शनाय नम:, परमवीर्याय नम:, परमसुखाय नम:, सर्वज्ञाय नम:, अर्हते नम:, परमेष्ठिने नमो नम:, परमनेत्रे नमो नम:, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।63-76। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> पीठिका मत्र से परमेष्ठीमत्र तक के ये उपरोक्त सात प्रकार के मत्र गर्भाधानादि क्रियाएँ करते समय <strong>क्रियामत्र</strong>, गणधर कथित सूत्र में <strong>साधनमत्र</strong>, और देव पूजनादि नित्य कर्म करते समय <strong>आहुति मत्र</strong> कहलाते | <li><span class="HindiText"> पीठिका मत्र से परमेष्ठीमत्र तक के ये उपरोक्त सात प्रकार के मत्र गर्भाधानादि क्रियाएँ करते समय <strong>क्रियामत्र</strong>, गणधर कथित सूत्र में <strong>साधनमत्र</strong>, और देव पूजनादि नित्य कर्म करते समय <strong>आहुति मत्र</strong> कहलाते हैं।78-79।<strong>7</strong></span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> गर्भाधानादि क्रियाओं के लिए विशेष मत्रों का निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> गर्भाधानादि क्रियाओं के लिए विशेष मत्रों का निर्देश</strong> <br /> | ||
म.पु./ | म.पु./40/श्लोक नं. का भावार्थ–गर्भाधानादि क्रियाओं (देखें [[ संस्कार#2 | संस्कार - 2]]) में से प्रत्येक में काम आने वाले अपने अपने जो विशेष मत्र हैं वे निम्न प्रकार हैं।91। | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> गर्भाधान क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सज्जातिभागी भव, | <li><span class="HindiText"><strong> गर्भाधान क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव।92-95। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> प्रीति क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, | <li><span class="HindiText"><strong> प्रीति क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव।96। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> सुप्रीति क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी | <li><span class="HindiText"><strong> सुप्रीति क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी भव।97-100।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> धृति क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सज्जातिदातृभागीभव, | <li><span class="HindiText"><strong> धृति क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सज्जातिदातृभागीभव, सद्गृहिदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यदातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव।101। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> मोदक्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सज्जातिकल्याणभागी भव, | <li><span class="HindiText"><strong> मोदक्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गृहिकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्रकल्याणभागी भव, सुरेन्द्रकल्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भव, यौवराज्यकल्याणभागी भव, महाराज्यकल्याणभागी भव, परमराज्यकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव।102-107।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> प्रियोद्भव क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText"> | <li><span class="HindiText"><strong> प्रियोद्भव क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परमनेमिविजयाय स्वाहा, आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा।108-109। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> जन्म</strong>-<strong>संस्कार क्रिया के मत्र–</strong>योग्य आशीर्वाद आदि देने के | <li><span class="HindiText"><strong> जन्म</strong>-<strong>संस्कार क्रिया के मत्र–</strong>योग्य आशीर्वाद आदि देने के पश्चात् निम्न प्रकार मत्र प्रयोग करे–नाभिनाल काटते समय–‘घातिंजयो भव;’ उबटन लगाते समय–‘हे जात, श्रीदेव्य: ते जातिक्रियां कुर्वन्तु’;स्नान कराते समय–त्वं मन्दराभिषेकार्हो भव’, सिरपर अक्षत क्षेपण करते समय–‘चिरं जीव्या:; सिर पर घी क्षेपण करते समय–‘नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नं’; माता का स्तन मुँह में देते समय–‘विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूया:, गर्भमल को भूमि के गर्भ में रखते समय–‘सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमात: सर्वमात: वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा, त्वत्पुत्रा इव मत्पुत्रा: चिरंजीविनीभूयास:;’माता को स्नान कराते समय–‘सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि ऊर्जितपुण्ये ऊर्जितपुण्ये जिनमात: जिनमात: स्वाहा;’ बालक को ताराओं से व्याप्त आकाश का दर्शन कराते समय–‘अनन्तज्ञानदर्शी भव’।110-131।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> नामकर्मक्रिया के मत्र</strong>–‘</span><span class="SanskritText">दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव’, विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी | <li><span class="HindiText"><strong> नामकर्मक्रिया के मत्र</strong>–‘</span><span class="SanskritText">दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव’, विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी भव।132-133। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> बहिर्यान क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, | <li><span class="HindiText"><strong> बहिर्यान क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव,सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, आर्हन्त्यनिष्क्रान्तिभागी भव।134-139। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> निषद्या क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी | <li><span class="HindiText"><strong> निषद्या क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव।140। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> अन्नप्राशन क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव,, अक्षीणमृतभागी भव, | <li><span class="HindiText"><strong> अन्नप्राशन क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव,, अक्षीणमृतभागी भव,।141-142। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> व्युष्टिक्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">उपनयनजन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्द्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, आर्हन्त्यवर्षवर्द्धनभागी | <li><span class="HindiText"><strong> व्युष्टिक्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">उपनयनजन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्द्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, आर्हन्त्यवर्षवर्द्धनभागी भव।143-146। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>चौल या केशक्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">उपनयनमुण्डभागी भव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी | <li><span class="HindiText"><strong>चौल या केशक्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">उपनयनमुण्डभागी भव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव।147-151। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> लिपिसंख्यान क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थ पारगामी | <li><span class="HindiText"><strong> लिपिसंख्यान क्रिया के मत्र</strong>–</span><span class="SanskritText">शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थ पारगामी भव।152। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> उपनीति क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्रलिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong> उपनीति क्रिया के मत्र–</strong></span><span class="SanskritText">परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्रलिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> व्रत चर्या आदि आगे की क्रियाओं के मत्र</strong> –शात्र परम्परा के अनुसार समझ लेने | <li><span class="HindiText"><strong> व्रत चर्या आदि आगे की क्रियाओं के मत्र</strong> –शात्र परम्परा के अनुसार समझ लेने चाहिए।217।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> णमोकारमत्र निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> णमोकारमत्र निर्देश</strong> </span><br /> | ||
ष.ख. | ष.ख.1/1,1/सूत्र 1/8 <span class="PrakritText">णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।1। इदि</span> = <span class="HindiText">अरिहंतो को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, और लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> णमोकार मंत्र का इतिहास</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,1/41/7 <span class="PrakritText">इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्ध-मंगलं। यतोन्इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं इदि एत्तस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध ‘णमोअरिहंताणं’ इच्चादि देवदाणमोक्कारदंसणादो।</span> = <span class="HindiText">यह जीवस्थान नाम का प्रथम खण्डागम ‘निबद्ध मंगल’ है, क्योंकि, ‘इमेसिं चोदसण्हं जीवसमासाणं’ इत्यादि जीवस्थान के इस सूत्र के पहले ‘णमो अरिहंताणं’ इत्यादि रूप से देवता नमस्कार निबद्धरूप से देखने में आता है।<strong>नोट</strong>– | ||
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<li class="HindiText"> इस प्रकार धवलाकार इस मंत्र या सूत्र को निबद्ध मंगल स्वीकार करते हैं। निबद्ध मंगल का अर्थ है स्वयं ग्रन्थकार द्वारा रचित ( देखें | <li class="HindiText"> इस प्रकार धवलाकार इस मंत्र या सूत्र को निबद्ध मंगल स्वीकार करते हैं। निबद्ध मंगल का अर्थ है स्वयं ग्रन्थकार द्वारा रचित (देखें [[ मंगल#1.4 | मंगल - 1.4]])। अत: स्पष्ट है कि उनको इस मत्र को प्रथम खण्ड के कर्त्ता आचार्य पुष्पदन्त की रचना मानना इष्ट है। यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि सम्भवत: आचार्य पुष्पदन्तने इस सूत्र को कहीं अन्यत्र से लेकर यहाँ रख दिया है और यह उनकी अपनी रचना नहीं है; क्योंकि इसका स्पष्टीकरण ध.9/4,1,44/103/4 पर की गयी चर्चा से हो जाता है। वहाँ धवलाकारने ही उस ग्रन्थ के आदि में निबद्ध ‘णमो जिणाणं’ आदि चवालीस मंगलात्मक सूत्रों को निबद्ध मंगल स्वीकार करने में विरोध बताया है, और उसका हेतु दिया है यह कि वे सूत्र महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के आदि में गौतम स्वामी ने रचे थे, वहाँ से लेकर भूतबलि भट्टारक ने उन्हें वहाँ लिख दिया है। यद्यपि पुन: धवलाकार ने उन सूत्रों को वहाँनिबद्ध मंगल भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, और उसमें हेतु दिया है यह कि दोनों का एक ही अभिप्राय होने के कारण गौतम स्वामी और भूतबलि क्योंकि एक ही हैं, इसलिए वे सूत्र भूतबलि आचार्य के द्वारा रचित ही मान लेने चाहिए। परन्तु उनका यह समाधान कुछ युक्त प्रतीत नहीं होता। अत: निबद्ध मंगल बताकर धवलाकार ने इस णमोकार मत्र को <strong>पुष्पदन्त आचार्य की मौलिक रचना</strong> स्वीकार की है। (ध.2/प्र. 34-35/H.L. Jain. </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> श्वेताम्बराम्नाय के ‘महानिशोथ सूत्र/अध्याय 5’ के अनुसार ‘पंचममंगलसूत्र’ सूत्रत्व की अपेक्षा गणधर द्वारा और अर्थ की अपेक्षा भगवान् वीर द्वारा रचा गया है। पीछे से श्री बडूरसामी (वैरस्वामी या वज्रस्वामी) ने इसे वहाँ लिख दिया है। महानिशीथ सूत्र से पहले की रची गयी, श्वेताम्बराम्नायके आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिण्डनिर्युक्ति नामक चार मूल सूत्रों की, भद्रबाहुस्वामी कृत चूर्णिकाओं में णमोकार मत्र पाया जाता है। इससे संभावना है कि यही णमोकार मंत्र महानिशीथ सूत्र में पंच मंगलसूत्र के नाम से निर्दिष्ट है और वह <strong>वज्रसूरिसे बहुत पहले की रचना है</strong>। (ध. 2/प्र.36/H.L. Jain) </li> | ||
<li class="HindiText"><strong> | <li class="HindiText"><strong> श्वेताम्बराम्नाय के अत्यन्तप्राचीन भगवतीसूत्र नामक मूल ग्रन्थ</strong> में यह पंच णमोकार मत्र पाया जाता है। परन्तु वहाँ ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ के स्थान पर ‘णमो बंभीए लिवीए’ (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) ऐसा पद पाया जाता है। इसके अतिरिक्त उड़ीसा की <strong>हाथीगुफा</strong> में जो कलिंग नरेश खारवेल का शिलालेख पायाजाता है और जिसका समय ईस्वी पूर्व अनुमान किया जाता है, उसमें आदि मगंल इस प्रकार पाया जाता है- ‘णमो अरहंताणं। णमो सवसिधाणं।’ यह पाठ भेद प्रासंगिक है या किसी परिपाटी को लिये हुए है, यह विषय विचारणीय है (ध.2/प्र.41/15/H.L. Jain)। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> श्वेताम्बराम्नाय में किसी किसी के मत से णमोकार सूत्र अनार्ष है–(अभिधान राजेन्द्र कोश पृ. 1835) (ध.2/प्र. 41/22/H.L. Jain)।</li> | ||
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</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> णमोकार मंत्र की उच्चारण व ध्यान विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> णमोकार मंत्र की उच्चारण व ध्यान विधि</strong> </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./9/22-23/866 <span class="SanskritGatha">जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे।हृतपङ्कजे प्रवेश्यान्तर्निरुध्य मनसानिलम्।22। पृथग् द्विद्वयेकगाथांशचिन्तान्ते रेचयेच्छनै:। नवकृत्व: प्रथौक्तैवं दहत्यंह: सुधीर्महत्।23।</span> = <span class="HindiText">प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके आनन्द से विकसित हृदयकमल में रोककर जिनेन्द्र मुद्रा द्वारा णमोकार मत्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए। तथा गाथा के दो दो और एक अंश का क्रम से पृथक्-पृथक् चिन्तवन् करके अन्त में उस प्राणवायु का धीरे-धीरे रेचन करना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्राणायाम का प्रयोग करने वाला संयमी महान् पापकर्मों को भी क्षय कर देता है। पहले भाग में (श्वास में) णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं इन दो पदों का, दूसरे भाग में णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो पदों का तथा तीसरे भाग में णमो लोए सव्वसाहूणं इस पद का ध्यान करना चाहिए। (विशेष/देखें [[ पदस्थ ]]/71)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">मत्र में प्रयुक्त ‘सर्व’ शब्द का अर्थ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.4" id="2.4"></a>मत्र में प्रयुक्त ‘सर्व’ शब्द का अर्थ</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./512<span class="PrakritGatha"> णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साधवो। समा सव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधवो।512।</span> = <span class="HindiText">निर्वाण के साधनीभूत मूलगुण आदिक में सर्वकाल अपने आत्मा को जोड़तेहैं और सब जीवों में समभाव को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते हैं।</span><br>ध.1/1,1,1/52/1 <span class="SanskritText">सर्वनमस्कारेष्वत्रतनसर्वलोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचरार्हदादिदेवताप्रणमनार्थम्।</span> = <span class="HindiText">पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार करने में, इस नमोकार मत्र में जो ‘सर्व’ और ‘लोक’ पद हैं वे अन्तदीपक हैं, अत: सम्पूर्ण क्षेत्र में रहने वाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि देवताओं को नमस्कार करने के लिए उन्हें प्रत्येक नमस्कारात्मक पद के साथ जोड़ देना चाहिए।(भ.आ./वि./754/918/21)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> चत्तारि दण्डक में ‘साधु’ शब्द से आचार्य आदि तीनों का ग्रहण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> चत्तारि दण्डक में ‘साधु’ शब्द से आचार्य आदि तीनों का ग्रहण</strong> </span><br /> | ||
भा.पा./मू. व टी./ | भा.पा./मू. व टी./122/273-274 <span class="PrakritText">झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए।122।</span><span class="SanskritText">–मंगलचउसरणलोयपरियरिए मंगललोकोत्तमशरणभूतानीत्यर्थ:। ... अर्हन्मंगलं अर्हल्लोकोत्तमा: अर्हच्छरणं। सिद्धमंगलं सिद्धलोकोत्तमा: सिद्धशरणं। साधुमंगलं साधुलोकोत्तमा: साधुशरणं। साधुशब्देनाचार्योपाध्यायसर्वसाधवो लभ्यन्ते। तथा केवलिप्रणीतधर्ममंगलं धर्मलोकोत्तमा: धर्मशरणं चेति द्वादशमत्रा: सूचिताः चतुःशब्देनेति ज्ञातव्यं। </span>= ‘<span class="HindiText">मंगलचऊसरणलोयपरियरिए’ इस पद से मंगल, लोकोत्तम, व शरणभूत अर्थ होता है। अथवा ‘चउ’ शब्द से बारह मत्र सूचित होते हैं। यथा–अर्हन्तमंगलं, अर्हन्तलोकोत्तमा, अर्हन्तशरणं, सिद्धमंगलं, सिद्धलोकोत्तमा, सिद्धशरणं, साधुमंगलं, साधुलोकोत्तमा, साधुशरणं और केवलिप्रणीतधर्ममंगलं, धर्मलोकोत्तमा, धर्मशरणं। यहाँ साधु शब्द से आचार्य उपाध्याय व सर्व साधु का ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार पंचगुरुओं को ध्याना चाहिए।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">अर्हन्त को पहले नमस्कार | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.6" id="2.6"></a>अर्हन्त को पहले नमस्कार क्यों</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,1/53/7 <span class="SanskritText">विगताशेषलेपेषु सिद्धेषु सत्स्वर्हतां सलेपनामादौ किमिति नमस्कार: क्रियत इति चेन्नैष दोष:, गुणाधिकसिद्धेषु श्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वात्। असत्यर्हत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चैतत्प्रसादादित्युपकारापेक्षयावादावर्हन्नमस्कार: क्रियते। न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्ते: श्रेयोहेतुत्वात्। अद्वैतप्रधाने गुणीभूतद्वैते द्वैतनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च। आप्तश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वख्यापानार्थं वार्हतमादौ नमस्कार:।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सर्व प्रकार के कर्मलेप से रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहंतों को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>– | ||
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<li class="HindiText"> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सबसे अधिक गुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरहिंत परमेष्ठी ही हैं। (स्या. मं./ | <li class="HindiText"> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सबसे अधिक गुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरहिंत परमेष्ठी ही हैं। (स्या. मं./31/339/11) </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा, यदि अरिहंत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम, और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। किन्तु अरिहन्त परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है (द्र.सं./टी. | <li class="HindiText"> अथवा, यदि अरिहंत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम, और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। किन्तु अरिहन्त परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है (द्र.सं./टी.1/6/2)।</li> | ||
<li class="HindiText"> और ऐसा करना पक्षपात दोषोत्पादक भी नहीं है, किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है। </li> | <li class="HindiText"> और ऐसा करना पक्षपात दोषोत्पादक भी नहीं है, किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है। </li> | ||
<li class="HindiText"> तथा द्वैत को गौण करके अद्वैत की प्रधानता से किये गये नमस्कार में द्वैतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता है ( | <li class="HindiText"> तथा द्वैत को गौण करके अद्वैत की प्रधानता से किये गये नमस्कार में द्वैतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता है (अर्थात् यहाँ परमेष्ठियों के व्यक्तियों को नमस्कार नहीं किया गया है बल्कि उनके गुणों का नमस्कार किया गया है। और उन गुणों की अपेक्षा पाँचों में कोई भेद नहीं है।) </li> | ||
<li class="HindiText"> आप्तकी श्रद्धा से ही आप्त, आगम और पदार्थों के विषय में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बात के प्रसिद्ध करने के लिए भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है।</li> | <li class="HindiText"> आप्तकी श्रद्धा से ही आप्त, आगम और पदार्थों के विषय में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बात के प्रसिद्ध करने के लिए भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है।</li> | ||
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Revision as of 21:46, 5 July 2020
मत्रशक्ति सर्वसम्मत है। णमोकार मत्र जैन का मूल मत्र है।
- मत्र सामान्य निर्देश
- मत्र-तत्र की शक्ति पौद्गलिक है।
- मत्रशक्ति का माहात्म्य।
- मत्र-सिद्धि तथा उसके द्वारा अनेक चमत्कारिक कार्य होने का सिद्धान्त–देखें ध्यान - 2.4,5।
- मत्र, तत्र आदि की सिद्धि का मोक्षमार्ग में निषेध।
- साधु को आजीविका करने का निषेध।
- परिस्थितिवश मत्रप्रयोग की आज्ञा।
- पूजाविधानादि के लिए सामान्य मत्रों का निर्देश।
- गर्भाधानादि क्रियाओं के लिए विशेष मत्रों का निर्देश।
- मत्र-तत्र की शक्ति पौद्गलिक है।
- णमोकार मत्र
- णमोकारमत्र निर्देश।
- णमोकारमत्र के वाचक एकाक्षरी आदि मत्र–देखें पदस्थ ।
- णमोकारमत्र का माहात्म्य।–देखें पूजा - 2.4।
- णमोकारमत्र का इतिहास।
- णमोकारमत्र की उच्चारण व ध्यान विधि।
- मत्र में प्रयुक्त ‘सर्व’ शब्द का अर्थ।
- चत्तारिदण्डक में ‘साधु’ शब्द से आचार्य आदि तीनों का ग्रहण।
- अर्हंत को पहिले नमस्कार क्यों ?
- आचार्यादि तीनों में कथंचित् भेद व अभेद–देखें साधु - 6।
- णमोकारमत्र निर्देश।
- मत्र सामान्य निर्देश
- मत्र तत्र की शक्ति पौद्गलिक है
ध.13/5,5,82/349/8 जोणिपाहुड़े भणिदमंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वो। = योनिप्राभृत में कहे गए मत्र-तत्ररूप शक्तियों का नाम पुद्गलानुभाग है। - मत्रशक्ति का माहात्म्य
गो.जी./जी.प्र./184/419/18 अचिन्त्यं हि तपोविद्यामणिमन्त्रौषधिशक्त्यतिशयमाहात्म्यं दृष्टस्वभावत्वात्। स्वभावोऽतर्कगोचर इति समस्तवादिसंयत्वात्। = विद्या, मणि, मत्र, औषध आदि की अचिन्त्य शक्ति का माहात्म्य प्रत्यक्ष देखने में आता है। स्वभाव तर्क का विषय नहीं, ऐसा वादियों को सम्मत है।
- मत्र, तत्र आदि की सिद्धि का मोक्षमार्ग में निषेध
र.सा./109 जोइसविज्जामंत्तोपजीणं वा य वस्सववहारं। धणधण्णपडिग्गहणं समणाणं दूसणं होइ।109। = जो मुनि ज्योतिष शात्र से वा किसी अन्य विद्या से वा मत्र-तत्रों से अपनी उपजीविका करता है, जो वैश्योंके से व्यवहार करता है और धनधान्य आदि सबका ग्रहण करता है वह मुनि समस्त मुनियों को दूषित करने वाला है।
ज्ञा.4/52-55 वश्याकर्षणविद्वेषं मारणोच्चाटनं तथा। जलानलविषस्तम्भो रसकर्म रसायनम्।52। पुरक्षोभेन्द्रजालं च बलस्तम्भो जयाजयौ। विद्याच्छेदस्तथा वेधं ज्योतिर्ज्ञानं चिकित्सितम्।53। यक्षिणीमत्रपातालसिद्धय: कालवञ्चना। पादुकाञ्जननिस्त्रिंशभूतभोगीन्द्रसाधनं।54। इत्यादिविक्रियाकर्मरञ्जितैर्दुष्टचेष्टितैः। आत्मानमपि न ज्ञातं नष्टं लोकद्वयच्युतैः।55। = वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन, तथाजल अग्नि विष आदि का स्तम्भन, रसकर्म, रसायन।52। नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्रजालसाधन, सेना का स्तम्भन करना, जीतहार का विधान बताना, विद्या के छेदने का विधान साधना, वेधना, ज्योतिष का ज्ञान, वैद्यकविद्यासाधन।53। यक्षिणीमत्र, पातालसिद्धि के विधान का अभ्यास करना, कालवंचना (मृत्यु जीतने का मत्र साधना), पादुकासाधन (खड़ाऊँ पहनकर आकाश या जल में विहार करने की विद्या साधना) करना, अदृस्य होने तथा गड़े हुए धन देखने के अंजन का साधना, शस्त्रादि का साधना, भूतसाधन, सर्पसाधन।54। इत्यादि विक्रियारूप कार्यों में अनुरक्त होकर दुष्ट चेष्टा करने वाले जो हैं उन्होंने आत्मज्ञान से भी हाथ धोया और अपने दोनों लोक का कार्य भी नष्ट किया। ऐसे पुरुषों के ध्यान की सिद्धि होना कठिन है।55।
ज्ञा./40/10 क्षुद्रध्यानपरप्रपञ्चचतुरा रागानलोद्धीपिताः, मुद्रामण्डलयत्रमत्रकरणैराराधयन्त्यादृताः। कामक्रोधवशीकृतानिह सुरान् संसारसौख्यार्थिनो, दुष्टाशाश्रिहता: पतन्ति नरके भोगार्तिभिर्वञ्चिता:।10। = जो पुरुष खोटे ध्यान के उत्कृष्ट प्रपंचों को विस्तार करने में चतुर हैं वे इस लोक में रागरूप अग्नि से प्रज्वलित होकर मुद्रा, मण्डल, यत्र, मत्र आदि साधनों के द्वारा कामक्रोध से वशीभूत कुदेवों का आदर से आराधन करते हैं। सो, सांसारिक सुख के चाहनेवाले और दुष्ट आशा से पीड़ित तथा भोगों की पीड़ा से वंचित होकर वे नरक में पड़ते हैं।120।
और भी दे0–मत्र, तत्र ज्योतिष आदि विद्याओं का प्रयोग करने वाला साधु संसक्त है (देखें संसक्त ), वह लौकिक है (देखें लौकिक )। आहार के दातार को मत्र, तत्रादि बताना साधु के आहार का मत्रोपजीवी नाम का एक दोष है। (देखें आहार - II.4)। इसी प्रकार वसतिका के दातार को उपरोक्त प्रयोग बताना वसतिका का मत्रोपजीवी नामक दोष है। (देखें वसतिका )। - साधु को आजीविका करने का निषेध
ज्ञा./4/56-57 यतित्वं जीवनोपायं कुर्वन्त: किं न लज्जित:। मातु: पण्यमिवालम्ब्य यथा केचिद्गतघृणा:।56। नित्रपा: कर्म कुर्वन्ति यतित्वेऽप्यतिनिन्दितम्। ततो विराध्य सन्मार्गं विशन्ति नरकोदरे।57। = कई निर्दय निर्लज्ज साधुपन में भी अतिशय निन्दा योग्य कार्य करते हैं। वे समीचीन मार्ग का विरोध करके नरक में प्रवेश करते हैं। जैसे कोई अपनी माता को वेश्या बनाकर उससे धनोपार्जन करते हैं, तैसे ही जो मुनि होकर उस मुनिदीक्षा को जीवन का उपाय बनाते हैं, और उसके द्वारा धनोपार्जन करते हैं वे अतिशय निर्दय तथा निर्लज्ज हैं।56-57। - परिस्थितिवश मंत्र प्रयोग की आज्ञा
भ.आ./वि./306/520/17 स्तेनैरुपद्रूयमाणानां तथा श्वापदै:, दुष्टैर्वा भूमिपालै:, नदीरोधकै: मार्या च तदुपद्रवनिरास: विद्यादिभि... वैयावृत्त्यमुक्तम्। = जिन मुनियों को चोर से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुँचा हो, नदी के द्वारा रुक गये हों, भारी रोग से पीड़ित हो गये हों, तो उनका उपद्रव विद्यादिकों से नष्ट करना उनकी वैयावृत्ति है। - पूजाविधानादि के लिए सामान्य मत्रों का निर्देश
म.पु./40/श्लो.नं. का भावार्थ–निम्नलिखित मत्र सामान्य हैं क्योंकि सभी क्रियाओं में काम आते हैं।91।- भूमिशुद्धि के लिए‘नीरजसे नम:’।5। विघ्नशान्ति के लिए ‘दर्पमथनाय नम:’।6। और तदनन्तर गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप और नैवेद्य द्वारा भूमिका संस्कार करने के लिए क्रम से–शीलगन्धाय नम:, विमलाय नम:, अक्षताय नम:, श्रुतधूपाय नम:, ज्ञानोद्योताय नम:, परमसिद्धाय नम:, ये मत्र बोल बोल वह वह पदार्थ चढ़ावे।7-10।
- तदनन्तर पीठिकामत्र पढ़े–सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:।11। परमजाताय नम:, अनुपमजाताय नम:।12। स्वप्रधानाय नम:, अचलाय नम:, अक्षयाय नम:।13। अव्याबाधाय नम:, अनन्तज्ञानायं नम:, अनन्तवीर्याय नम:, अनन्तसुखाय नम:, नीरजसे नम:, निर्मलाय नम:, अच्छेद्याय नम:, अभेद्याय नम:, अजराय नम:, अप्रमेयाय नम:, अगर्भवासाय नम:, अक्षोभ्याय नम:, अविलीनाय नम:, परमघनाय नम:।14-17। परमकाष्ठयोगाय नमो नम:।18। लोकाग्रवासिने नमो नम:, परमसिद्धेभ्यो नमो नम:, अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नम:।19। केवलिसिद्धेभ्यो नमो नम:, अन्त:कृत्सिद्धेभ्योनमो नम:, परम्परसिद्धेम्यो नम:, अनादिपरम्परसिद्धेभ्यो नम:, अनाद्यनुपमसिद्धेभ्यो नमो नम:, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्य आसन्नभव्य निर्वाणपूजार्हं, निर्वाणपूजार्हं अग्नीन्द्र स्वाहा।20-23।
- (इसके पश्चात् काम्यमंत्र बोलना चाहिए) सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।24-25।
- तत्पश्चात् क्रम से जातिमत्र, निस्तारकमंत्र, ऋषिमत्र, सुरेन्द्रमत्र, परमराजादि मत्र, परमेष्ठी मत्र, इन छ: प्रकार के मत्रों का उच्चारण करना चाहिए।
- जातिमत्र–सत्यजन्मन: शरणं प्रपद्यामि, अर्हज्जन्मन: शरणं प्रपद्यामि, अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामि, अर्हत्सुतस्य शरणं प्रपद्यामि, अनादिगमनस्य शरणं प्रपद्यामि अनुपमजन्मन: शरणं प्रपद्यामि, रत्नत्रयस्य शरणं प्रपद्यामि, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे ज्ञानमूर्ते ज्ञानमूर्ते सरस्वति सरस्वति स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।27-30।
- निस्तारमत्र–सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, षट्कर्मणे स्वाहा, ग्रामयतये स्वाहा, अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा, स्नातकाय स्वाहा, श्रावकाय स्वाहा, देवब्राह्मणाय स्वाहा, सुब्राह्मणाय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे निधिपते निधिपते वैश्रवण वैश्रवण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्यु विनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।।31-37।
- ऋषि मत्र– सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:, निर्ग्रन्थाय नम:, वीतरागाय नम:, महाव्रताय नम:, त्रिगुप्ताय नम:, महायोगाय नम:, विविध-योगाय नम:, विविधर्द्धये नम:, अङ्गधराय नम:, पूर्वधराय नम:, गणधराय नम:, परमर्षिभ्यो नमो नम:, अनुपम जाताय नमो नम:, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे भूपते भूपते नगरपते नगरपते कालश्रमण कालश्रमण स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु,।38-46।
- सुरेन्द्रमत्र:–सत्यजाताय स्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, दिव्यजाताय स्वाहा, दिव्यार्चिर्जाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, सौधर्माय स्वाहा, कल्पाधिपतये स्वाहा, अनुचराय स्वाहा, परम्परेन्द्राय स्वाहा, अहमिन्द्राय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे कल्पपते कल्पपते दिव्यमूर्ते दिव्यमूर्ते वज्रनामन् वज्रनामन् स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।47-55।
- परमराजादिमत्र–सत्यजातायस्वाहा, अर्हज्जाताय स्वाहा, अनुपमेन्द्राय स्वाहा, विजयार्चजाताय स्वाहा, नेमिनाथाय स्वाहा, परमजाताय स्वाहा, परमार्हताय स्वाहा, अनुपमाय स्वाहा, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे उग्रतेजः उग्रतेजः दिशांजय दिशांजय नेमिविजय नेमिविजय स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।56-62।
- परमेष्ठी मत्र–सत्यजाताय नम:, अर्हज्जाताय नम:, परमजाताय नम:, परमार्हताय नम:, परमरूपाय नम:, परमतेजसे नम:, परमगुणाय नम:, परमयोगिने नम:, परमभाग्याय नम:, परमर्द्धये नम:, परमप्रसादाय नम:, परमकांक्षिताय नम:, परमविजयाय नम:, परमविज्ञाय नम:, परमदर्शनाय नम:, परमवीर्याय नम:, परमसुखाय नम:, सर्वज्ञाय नम:, अर्हते नम:, परमेष्ठिने नमो नम:, परमनेत्रे नमो नम:, सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे त्रिलोकविजय त्रिलोकविजय धर्ममूर्ते धर्ममूर्ते धर्मनेमे धर्मनेमे स्वाहा, सेवाफलं षट्परमस्थानं भवतु, अपमृत्युविनाशनं भवतु, समाधिमरणं भवतु।63-76।
- पीठिका मत्र से परमेष्ठीमत्र तक के ये उपरोक्त सात प्रकार के मत्र गर्भाधानादि क्रियाएँ करते समय क्रियामत्र, गणधर कथित सूत्र में साधनमत्र, और देव पूजनादि नित्य कर्म करते समय आहुति मत्र कहलाते हैं।78-79।7
- गर्भाधानादि क्रियाओं के लिए विशेष मत्रों का निर्देश
म.पु./40/श्लोक नं. का भावार्थ–गर्भाधानादि क्रियाओं (देखें संस्कार - 2) में से प्रत्येक में काम आने वाले अपने अपने जो विशेष मत्र हैं वे निम्न प्रकार हैं।91।- गर्भाधान क्रिया के मत्र–सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव।92-95।
- प्रीति क्रिया के मत्र–त्रैलोक्यनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव।96।
- सुप्रीति क्रिया के मत्र–अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी भव।97-100।
- धृति क्रिया के मत्र–सज्जातिदातृभागीभव, सद्गृहिदातृभागी भव, मुनीन्द्रदातृभागी भव, सुरेन्द्रदातृभागी भव, परमराज्यदातृभागी भव, आर्हन्त्यदातृभागी भव, परमनिर्वाणदातृभागी भव।101।
- मोदक्रिया के मत्र–सज्जातिकल्याणभागी भव, सद्गृहिकल्याणभागी भव, वैवाहकल्याणभागी भव, मुनीन्द्रकल्याणभागी भव, सुरेन्द्रकल्याणभागी भव, मन्दराभिषेककल्याणभागी भव, यौवराज्यकल्याणभागी भव, महाराज्यकल्याणभागी भव, परमराज्यकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव।102-107।
- प्रियोद्भव क्रिया के मत्र–दिव्यनेमिविजयाय स्वाहा, परमनेमिविजयाय स्वाहा, आर्हन्त्यनेमिविजयाय स्वाहा।108-109।
- जन्म-संस्कार क्रिया के मत्र–योग्य आशीर्वाद आदि देने के पश्चात् निम्न प्रकार मत्र प्रयोग करे–नाभिनाल काटते समय–‘घातिंजयो भव;’ उबटन लगाते समय–‘हे जात, श्रीदेव्य: ते जातिक्रियां कुर्वन्तु’;स्नान कराते समय–त्वं मन्दराभिषेकार्हो भव’, सिरपर अक्षत क्षेपण करते समय–‘चिरं जीव्या:; सिर पर घी क्षेपण करते समय–‘नश्यात् कर्ममलं कृत्स्नं’; माता का स्तन मुँह में देते समय–‘विश्वेश्वरीस्तन्यभागी भूया:, गर्भमल को भूमि के गर्भ में रखते समय–‘सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे सर्वमात: सर्वमात: वसुन्धरे वसुन्धरे स्वाहा, त्वत्पुत्रा इव मत्पुत्रा: चिरंजीविनीभूयास:;’माता को स्नान कराते समय–‘सम्यग्दृष्टे सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्ये विश्वेश्वरि विश्वेश्वरि ऊर्जितपुण्ये ऊर्जितपुण्ये जिनमात: जिनमात: स्वाहा;’ बालक को ताराओं से व्याप्त आकाश का दर्शन कराते समय–‘अनन्तज्ञानदर्शी भव’।110-131।
- नामकर्मक्रिया के मत्र–‘दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव’, विजयाष्टसहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनामभागी भव।132-133।
- बहिर्यान क्रिया के मत्र–उपनयनिष्क्रान्तिभागी भव, वैवाहनिष्क्रान्तिभागी भव, मुनीन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव,सुरेन्द्रनिष्क्रान्तिभागी भव, मन्दराभिषेकनिष्क्रान्तिभागी भव, यौवराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, महाराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, परमराज्यनिष्क्रान्तिभागी भव, आर्हन्त्यनिष्क्रान्तिभागी भव।134-139।
- निषद्या क्रिया के मत्र–दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनभागी भव, परमसिंहासनभागी भव।140।
- अन्नप्राशन क्रिया के मत्र–दिव्यामृतभागी भव, विजयामृतभागी भव,, अक्षीणमृतभागी भव,।141-142।
- व्युष्टिक्रिया के मत्र–उपनयनजन्मवर्षवर्धनभागी भव, वैवाहनिष्ठवर्षवर्द्धनभागी भव, मुनीन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, सुरेन्द्रजन्मवर्षवर्द्धनभागी भव, मन्दराभिषेकवर्षवर्द्धनभागी भव, यौवराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, महाराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, परमराज्यवर्षवर्द्धनभागी भव, आर्हन्त्यवर्षवर्द्धनभागी भव।143-146।
- चौल या केशक्रिया के मत्र–उपनयनमुण्डभागी भव, निर्ग्रन्थमुण्डभागी भव, निष्क्रान्तिमुण्डभागी भव, परमनिस्तारककेशभागी भव, परमेन्द्रकेशभागी भव, परमराज्यकेशभागी भव, आर्हन्त्यराज्यकेशभागी भव।147-151।
- लिपिसंख्यान क्रिया के मत्र–शब्दपारगामी भव, अर्थपारगामी भव, शब्दार्थ पारगामी भव।152।
- उपनीति क्रिया के मत्र–परमनिस्तारकलिङ्गभागी भव, परमर्षिलिङ्गभागी भव, परमेन्द्रलिङ्गभागी भव, परमराज्यलिङ्गभागी भव, परमार्हन्त्यलिङ्गभागी भव, परमनिर्वाणलिङ्गभागी भव।
- व्रत चर्या आदि आगे की क्रियाओं के मत्र –शात्र परम्परा के अनुसार समझ लेने चाहिए।217।
- मत्र तत्र की शक्ति पौद्गलिक है
- णमोकार मंत्र
- णमोकारमत्र निर्देश
ष.ख.1/1,1/सूत्र 1/8 णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।1। इदि = अरिहंतो को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, और लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो। - णमोकार मंत्र का इतिहास
ध.1/1,1,1/41/7 इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्ध-मंगलं। यतोन्इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं इदि एत्तस्स सुत्तस्सादीए णिबद्ध ‘णमोअरिहंताणं’ इच्चादि देवदाणमोक्कारदंसणादो। = यह जीवस्थान नाम का प्रथम खण्डागम ‘निबद्ध मंगल’ है, क्योंकि, ‘इमेसिं चोदसण्हं जीवसमासाणं’ इत्यादि जीवस्थान के इस सूत्र के पहले ‘णमो अरिहंताणं’ इत्यादि रूप से देवता नमस्कार निबद्धरूप से देखने में आता है।नोट–- इस प्रकार धवलाकार इस मंत्र या सूत्र को निबद्ध मंगल स्वीकार करते हैं। निबद्ध मंगल का अर्थ है स्वयं ग्रन्थकार द्वारा रचित (देखें मंगल - 1.4)। अत: स्पष्ट है कि उनको इस मत्र को प्रथम खण्ड के कर्त्ता आचार्य पुष्पदन्त की रचना मानना इष्ट है। यहाँ यह भी नहीं कहा जा सकता कि सम्भवत: आचार्य पुष्पदन्तने इस सूत्र को कहीं अन्यत्र से लेकर यहाँ रख दिया है और यह उनकी अपनी रचना नहीं है; क्योंकि इसका स्पष्टीकरण ध.9/4,1,44/103/4 पर की गयी चर्चा से हो जाता है। वहाँ धवलाकारने ही उस ग्रन्थ के आदि में निबद्ध ‘णमो जिणाणं’ आदि चवालीस मंगलात्मक सूत्रों को निबद्ध मंगल स्वीकार करने में विरोध बताया है, और उसका हेतु दिया है यह कि वे सूत्र महाकर्म प्रकृतिप्राभृत के आदि में गौतम स्वामी ने रचे थे, वहाँ से लेकर भूतबलि भट्टारक ने उन्हें वहाँ लिख दिया है। यद्यपि पुन: धवलाकार ने उन सूत्रों को वहाँनिबद्ध मंगल भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, और उसमें हेतु दिया है यह कि दोनों का एक ही अभिप्राय होने के कारण गौतम स्वामी और भूतबलि क्योंकि एक ही हैं, इसलिए वे सूत्र भूतबलि आचार्य के द्वारा रचित ही मान लेने चाहिए। परन्तु उनका यह समाधान कुछ युक्त प्रतीत नहीं होता। अत: निबद्ध मंगल बताकर धवलाकार ने इस णमोकार मत्र को पुष्पदन्त आचार्य की मौलिक रचना स्वीकार की है। (ध.2/प्र. 34-35/H.L. Jain.
- श्वेताम्बराम्नाय के ‘महानिशोथ सूत्र/अध्याय 5’ के अनुसार ‘पंचममंगलसूत्र’ सूत्रत्व की अपेक्षा गणधर द्वारा और अर्थ की अपेक्षा भगवान् वीर द्वारा रचा गया है। पीछे से श्री बडूरसामी (वैरस्वामी या वज्रस्वामी) ने इसे वहाँ लिख दिया है। महानिशीथ सूत्र से पहले की रची गयी, श्वेताम्बराम्नायके आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन और पिण्डनिर्युक्ति नामक चार मूल सूत्रों की, भद्रबाहुस्वामी कृत चूर्णिकाओं में णमोकार मत्र पाया जाता है। इससे संभावना है कि यही णमोकार मंत्र महानिशीथ सूत्र में पंच मंगलसूत्र के नाम से निर्दिष्ट है और वह वज्रसूरिसे बहुत पहले की रचना है। (ध. 2/प्र.36/H.L. Jain)
- श्वेताम्बराम्नाय के अत्यन्तप्राचीन भगवतीसूत्र नामक मूल ग्रन्थ में यह पंच णमोकार मत्र पाया जाता है। परन्तु वहाँ ‘णमो लोए सव्वसाहूणं’ के स्थान पर ‘णमो बंभीए लिवीए’ (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) ऐसा पद पाया जाता है। इसके अतिरिक्त उड़ीसा की हाथीगुफा में जो कलिंग नरेश खारवेल का शिलालेख पायाजाता है और जिसका समय ईस्वी पूर्व अनुमान किया जाता है, उसमें आदि मगंल इस प्रकार पाया जाता है- ‘णमो अरहंताणं। णमो सवसिधाणं।’ यह पाठ भेद प्रासंगिक है या किसी परिपाटी को लिये हुए है, यह विषय विचारणीय है (ध.2/प्र.41/15/H.L. Jain)।
- श्वेताम्बराम्नाय में किसी किसी के मत से णमोकार सूत्र अनार्ष है–(अभिधान राजेन्द्र कोश पृ. 1835) (ध.2/प्र. 41/22/H.L. Jain)।
- णमोकार मंत्र की उच्चारण व ध्यान विधि
अन.ध./9/22-23/866 जिनेन्द्रमुद्रया गाथां ध्यायेत् प्रीतिविकस्वरे।हृतपङ्कजे प्रवेश्यान्तर्निरुध्य मनसानिलम्।22। पृथग् द्विद्वयेकगाथांशचिन्तान्ते रेचयेच्छनै:। नवकृत्व: प्रथौक्तैवं दहत्यंह: सुधीर्महत्।23। = प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके आनन्द से विकसित हृदयकमल में रोककर जिनेन्द्र मुद्रा द्वारा णमोकार मत्र की गाथा का ध्यान करना चाहिए। तथा गाथा के दो दो और एक अंश का क्रम से पृथक्-पृथक् चिन्तवन् करके अन्त में उस प्राणवायु का धीरे-धीरे रेचन करना चाहिए। इस प्रकार नौ बार प्राणायाम का प्रयोग करने वाला संयमी महान् पापकर्मों को भी क्षय कर देता है। पहले भाग में (श्वास में) णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं इन दो पदों का, दूसरे भाग में णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं इन दो पदों का तथा तीसरे भाग में णमो लोए सव्वसाहूणं इस पद का ध्यान करना चाहिए। (विशेष/देखें पदस्थ /71)। - <a name="2.4" id="2.4"></a>मत्र में प्रयुक्त ‘सर्व’ शब्द का अर्थ
मू.आ./512 णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुंजंति साधवो। समा सव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधवो।512। = निर्वाण के साधनीभूत मूलगुण आदिक में सर्वकाल अपने आत्मा को जोड़तेहैं और सब जीवों में समभाव को प्राप्त होते हैं, इसलिए वे सर्वसाधु कहलाते हैं।
ध.1/1,1,1/52/1 सर्वनमस्कारेष्वत्रतनसर्वलोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचरार्हदादिदेवताप्रणमनार्थम्। = पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार करने में, इस नमोकार मत्र में जो ‘सर्व’ और ‘लोक’ पद हैं वे अन्तदीपक हैं, अत: सम्पूर्ण क्षेत्र में रहने वाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि देवताओं को नमस्कार करने के लिए उन्हें प्रत्येक नमस्कारात्मक पद के साथ जोड़ देना चाहिए।(भ.आ./वि./754/918/21)। - चत्तारि दण्डक में ‘साधु’ शब्द से आचार्य आदि तीनों का ग्रहण
भा.पा./मू. व टी./122/273-274 झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए।122।–मंगलचउसरणलोयपरियरिए मंगललोकोत्तमशरणभूतानीत्यर्थ:। ... अर्हन्मंगलं अर्हल्लोकोत्तमा: अर्हच्छरणं। सिद्धमंगलं सिद्धलोकोत्तमा: सिद्धशरणं। साधुमंगलं साधुलोकोत्तमा: साधुशरणं। साधुशब्देनाचार्योपाध्यायसर्वसाधवो लभ्यन्ते। तथा केवलिप्रणीतधर्ममंगलं धर्मलोकोत्तमा: धर्मशरणं चेति द्वादशमत्रा: सूचिताः चतुःशब्देनेति ज्ञातव्यं। = ‘मंगलचऊसरणलोयपरियरिए’ इस पद से मंगल, लोकोत्तम, व शरणभूत अर्थ होता है। अथवा ‘चउ’ शब्द से बारह मत्र सूचित होते हैं। यथा–अर्हन्तमंगलं, अर्हन्तलोकोत्तमा, अर्हन्तशरणं, सिद्धमंगलं, सिद्धलोकोत्तमा, सिद्धशरणं, साधुमंगलं, साधुलोकोत्तमा, साधुशरणं और केवलिप्रणीतधर्ममंगलं, धर्मलोकोत्तमा, धर्मशरणं। यहाँ साधु शब्द से आचार्य उपाध्याय व सर्व साधु का ग्रहण हो जाता है। इस प्रकार पंचगुरुओं को ध्याना चाहिए।
- <a name="2.6" id="2.6"></a>अर्हन्त को पहले नमस्कार क्यों
ध.1/1,1,1/53/7 विगताशेषलेपेषु सिद्धेषु सत्स्वर्हतां सलेपनामादौ किमिति नमस्कार: क्रियत इति चेन्नैष दोष:, गुणाधिकसिद्धेषु श्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वात्। असत्यर्हत्याप्तागमपदार्थावगमो न भवेदस्मदादीनाम्, संजातश्चैतत्प्रसादादित्युपकारापेक्षयावादावर्हन्नमस्कार: क्रियते। न पक्षपातो दोषाय शुभपक्षवृत्ते: श्रेयोहेतुत्वात्। अद्वैतप्रधाने गुणीभूतद्वैते द्वैतनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च। आप्तश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वख्यापानार्थं वार्हतमादौ नमस्कार:। = प्रश्न–सर्व प्रकार के कर्मलेप से रहित सिद्ध परमेष्ठी के विद्यमान रहते हुए अघातिया कर्मों के लेप से युक्त अरिहंतों को आदि में नमस्कार क्यों किया जाता है ? उत्तर–- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सबसे अधिक गुणवाले सिद्धों में श्रद्धा की अधिकता के कारण अरहिंत परमेष्ठी ही हैं। (स्या. मं./31/339/11)
- अथवा, यदि अरिहंत परमेष्ठी न होते तो हम लोगों को आप्त, आगम, और पदार्थ का परिज्ञान नहीं हो सकता था। किन्तु अरिहन्त परमेष्ठी के प्रसाद से हमें इस बोध की प्राप्ति हुई है। इसलिए उपकार की अपेक्षा भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है (द्र.सं./टी.1/6/2)।
- और ऐसा करना पक्षपात दोषोत्पादक भी नहीं है, किन्तु शुभ पक्ष में रहने से वह कल्याण का ही कारण है।
- तथा द्वैत को गौण करके अद्वैत की प्रधानता से किये गये नमस्कार में द्वैतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता है (अर्थात् यहाँ परमेष्ठियों के व्यक्तियों को नमस्कार नहीं किया गया है बल्कि उनके गुणों का नमस्कार किया गया है। और उन गुणों की अपेक्षा पाँचों में कोई भेद नहीं है।)
- आप्तकी श्रद्धा से ही आप्त, आगम और पदार्थों के विषय में दृढ़ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बात के प्रसिद्ध करने के लिए भी आदि में अरिहंतों को नमस्कार किया गया है।
- णमोकारमत्र निर्देश