मणिकेतु: Difference between revisions
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(म.पु./48/श्लो. नं.)–एक देव था। सगर चक्रवर्ती के जीव (देव) का मित्र था।(80-82) मनुष्य भव में सगर चक्रवर्ती को सम्बोधकर उसे विरक्त किया और तब उसने दीक्षा ले ली।82-131। तदनन्तर अपना परिचय देकर देवलोक को चला गया।134-136। | |||
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<p> जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह सम्बन्धी वत्सकावती देश में पृथिवीनगर के राजा जयसेन के साले महारुत का जीव― अच्युत स्वर्ग का देव । पूर्वभव का इसका बहनोई जयसेन भी संन्यासमरण करके इसी स्वर्ग में महाबल नाम का देव हुआ था । मणिकेतु और महाबल दोनों ने परस्पर पृथिवी पर प्रथम अवतरित होने वाले को सम्बोध कर दीक्षा धारण कराने हेतु प्रेरणा देने की प्रतिज्ञा की थी । महाबल देव इसके पूर्व स्वर्ग से च्युत हुआ पृथिवी पर महाबल का नाम सगर चक्रवर्ती रखा गया । स्वर्ग में की गयी प्रतिज्ञा के अनुसार इसने युक्तिपूर्वक सगर के पास जाकर उसे दीक्षा धारण करा दी थी । अन्त में इसने अपने द्वारा किये गये मायावी व्यवहार को सगर और उसके पुत्रों के समक्ष प्रकट करके उससे क्षमायाचना की थी । इस प्रकार यह अपना कार्य सिद्ध करके संतुष्ट होकर स्वर्ग लौट गया था । <span class="GRef"> महापुराण 48.58-69, 82-136 </span></p> | |||
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Revision as of 21:45, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == (म.पु./48/श्लो. नं.)–एक देव था। सगर चक्रवर्ती के जीव (देव) का मित्र था।(80-82) मनुष्य भव में सगर चक्रवर्ती को सम्बोधकर उसे विरक्त किया और तब उसने दीक्षा ले ली।82-131। तदनन्तर अपना परिचय देकर देवलोक को चला गया।134-136।
पुराणकोष से
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह सम्बन्धी वत्सकावती देश में पृथिवीनगर के राजा जयसेन के साले महारुत का जीव― अच्युत स्वर्ग का देव । पूर्वभव का इसका बहनोई जयसेन भी संन्यासमरण करके इसी स्वर्ग में महाबल नाम का देव हुआ था । मणिकेतु और महाबल दोनों ने परस्पर पृथिवी पर प्रथम अवतरित होने वाले को सम्बोध कर दीक्षा धारण कराने हेतु प्रेरणा देने की प्रतिज्ञा की थी । महाबल देव इसके पूर्व स्वर्ग से च्युत हुआ पृथिवी पर महाबल का नाम सगर चक्रवर्ती रखा गया । स्वर्ग में की गयी प्रतिज्ञा के अनुसार इसने युक्तिपूर्वक सगर के पास जाकर उसे दीक्षा धारण करा दी थी । अन्त में इसने अपने द्वारा किये गये मायावी व्यवहार को सगर और उसके पुत्रों के समक्ष प्रकट करके उससे क्षमायाचना की थी । इस प्रकार यह अपना कार्य सिद्ध करके संतुष्ट होकर स्वर्ग लौट गया था । महापुराण 48.58-69, 82-136