जीवंधर: Difference between revisions
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| == सिद्धांतकोष से == | ||
―(म.पु./75/श्लो.नं.) राजा सत्यन्धर का पुत्र था। श्मशान में जन्म हुआ था, गन्धोत्कट सेठ अपने मृत पुत्र को छोड़कर वहां से इनको उठा लाया। आ.आर्यवर्मा से शिक्षा प्राप्त की। अनेकों कन्याओं को स्वयंवरों में जीता।228। पिता के घातक मन्त्री काष्ठांगार को मारकर राज्य प्राप्त किया।666। अन्त में दीक्षाधार (679-682) मोक्ष सिधारे (685-687)। पूर्वभव नं.2 में आप पुण्डरीकिणी नगरी के राजा जयन्धर के ‘जयद्रथ’ नाम के पुत्र थे। इन्होंने एक हंस के बच्चे को आकाश से पकड़ लिया था तथा उसके पिता (हंस) को मार दिया था। उसी के फलस्वरूप इस भव में जन्मते ही इनका पिता मारा गया, तथा 16 वर्ष तक माता से पृथक् रहना पड़ा।534-542।–तहां से चयकर पूर्वभव नं.1 में सहस्रार स्वर्ग में देव हुए।543-544। और वर्तमान भव में जीवन्धर हुए। | |||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> हेमांगद देश में राजपुर नगर के राजा सत्यधर और रानी विजया का पुत्र । इसकी गर्भावस्था में ही मंत्री काष्ठांगारिक ने अपने पुत्र कालांगारिक के सहयोग से राजा सत्यधर को मारकर राज्य प्रान्त कर लिया था । गर्भिणी अवस्था मे ही सत्यधर ने अपनी रानी विजया को उसके स्वप्न का फल बताते हुए कहा था कि उसके मरने के बाद उसका पुत्र महान् राजा होगा और उसे आठ लाभ होंगे । सत्यधर का नगर सेठ गन्धोत्कट था । उसके पुत्र होते ही मर जाते थे । इससे वह दुखी था । एक दिन वहाँ आये हुए मुनि शीलगुप्त से धर्म का श्रवण करने के पश्चात् गन्धोत्कट ने अपने दीर्घायु पुत्र होने के विषय मे प्रश्न किया मुनि ने बताया कि अबकी बार जब वह उसके मृत पुत्र को श्मशान मे ले जायगा तो उसे वहाँ एक शिशु की प्राप्ति होगी । वह शिशु बड़ा होकर महान् राजा होगा और वैराग्य से मुनि बनकर संसार से मुक्त होगा । वहाँ एक यक्षी इस बात को सुन रही थी । उसे विजया का उपकार करने का निदान हुआ । उसने गरुडयन्त्र का रूप बनाया और वह राजा सत्यधर के पास पहुँची । सत्यधर को काष्ठांगारिक के षड्यन्त्र का पता चल गया था इसलिए उसने विजया को गरुडयन्त्र पर बैठाकर वहाँ से अन्यत्र भेज दिया । गरुडयन्त्र रूपिणी यक्षी उसे श्मशान में ले गयी । वहीं विजया के पुत्र हुआ । उसी समय गन्धोत्कट अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान में वहीं आ गया । यक्षी के कहने से विजया ने गन्धोत्कट को अपना पुत्र यह कहते हुए दे दिया कि वह उसका पालन गुप्तरूप से करे । मुनि की भविष्यवाणी को फलवती हुई समझकर उसने वह पुत्र ले लिया और उसे अपने घर ले गया । अपनी पत्नी सुनन्दा को उसे देते हुए सेठ ने कहा कि उसका पुत्र मृत नहीं, जीवित था यह सुनकर सुनन्दा बहुत प्रसन्न हुई और अपने इस पुत्र का लालन-पोषण बड़े स्नेह से करने लगी । सेठ ने इस पुत्र का नाम जीवन्धर रखा । जीवन्धर की प्राप्ति के पश्चात् गन्धोत्कट के एक पुत्र का जन्म हुआ । उसका नाम नन्दाढ रखा गया ।</p> | |||
<p> सत्यंधर को विजया रानी से छोटी दो रानियाँ थी― भामारति और अनंगपताका । इनमें भामारति के पुत्र का नाम मधुर और अनंगपताका के पुत्र का नाम बकुल था । इन रानियों के व्रत धारण कर लेने से इसके दोनों भाइयो का लालन-पालन भी गन्धोत्कट सेठ को ही करना पड़ा । देवसेन, बुद्धिषेण, वरदत्त और मधुमुख क्रमश: सेनापति, पुरोहित श्रेष्ठी और मंत्री के पुत्र थे । इसका बाल्यकाल इन्हीं सातों के साथ बीता । सिंहपुर के राजा आर्यवर्मा संयमी हो गया था पर जठराग्नि के कारण यह संयम से च्युत होकर तापस के वेष में भ्रमण करते हुए गन्धोत्कट के यहाँ आया वहाँ क्रीडा करते हुए जीवन्धर के चातुर्य से प्रभावित हुआ । उसने गन्धोत्कट से इसे शिक्षित करने के लिए माँगा । गंधोत्कट भी सिंहवर्मा से प्रभावित था । उसने जीवन्धर को उसे दे दिया । अपने चातुर्य से इसने गोपेन्द्र की कन्या गोदावरी का विवाह नन्दाढ से कराया था । इसके भी आठ विवाह हुए । विवाही गयी कन्याओं में एक विद्याधर कन्या और शेष भूमिगोचरियों की कन्याएँ थी । विद्याधर कन्या का नाम गन्धर्वदत्ता था । इसकी अन्य पत्नियाँ थी― सुरमंजरी, पद्मोत्तमा, क्षेमसुन्दरी, हेमाभा, विमला, गुणमाला और रत्नवती गन्धर्वदत्ता से विवाह करने के पश्चात् जीवन्धर राजपुर से बाहर चुपचाप चला गया था । उसके इम तरह नगर से चले जाने के कारण उसके मित्र उसे ढूँढते हुए दण्डकवन पहुँचे । यहाँ एक तपस्वियों के आश्रम में इनकी विजया माता से भेट हुई । इन्होंने विजया को बताया कि जीवन्धर कही चला गया है । ये वहाँ से हेमाभनगर आये । यहाँ इनकी जीवन्धर से भेंट हुई । ये सब जीवन्धर के साथ दण्डकवन में जीवन्धर की माता विजया से मिले । विजया ने इसे इसके पिता राजा सत्यंधर के मारे जाने की कथा बतायी और उससे कहा कि वह अपने खोये हुए राज्य को काष्ठांगारिक से पुन: प्राप्त करे । माता को आश्वस्त कर जीवन्धर राजपुर आ गया । अपना परिचय देकर इसने सामंतों को अपने पक्ष में कर लिया । सेना तैयार की और काष्ठांगारिक को चक्र से मार डाला । हर्षित होकर उपस्थित राजाओं ने इसका राज्याभिषेक किया । इसी समय इसने गन्धर्वदत्ता को महारानी बनाया । इसके भाई नन्दाढ के साथ इसकी माता विजयादेवी और हेमाभा आदि रानियां भी आ गयी । परिवार के सभी जन सुख से रहने लगे । <span class="GRef"> महापुराण 75.188-673 </span>एक दिन यह दो बन्दरों को परस्पर लड़ते हुए देखकर संसार से विरक्त हो गया और गन्धर्वदत्ता के पुत्र वसुन्धरा को राज्य सौंप कर नन्दाढ मधुर आदि भाइयों के साथ संयमी हो गया । इसकी आठों रानियों तथा उनकी माताओं ने रानी विजया के साथ चन्दना आर्यिका के समीप उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया । घातिया कर्म नष्ट कर वह केवली हुआ तथा महावीर के निर्वाण के पश्चात् यह भी विपुलाचल से ही मोक्ष को प्राप्त हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 75. 676-687 </span>दूसरे पूर्वभव में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा जयन्धर का जयद्रथ नामक पुत्र था । इसने एक हंस के बच्चे को पकड़ लिया था तथा इसके किसी साथी ने हंस-शिशु को मार डाला था । उसी के फलस्वरूप सहस्रार स्वर्ग में देव को पर्याय से इस भव में जन्मते ही इसके पिता का मरण हुआ और 16 वर्ष तक इसे माता से पृथक् रहना पड़ा । <span class="GRef"> महापुराण 75.534-544 </span></p> | |||
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Revision as of 21:41, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == ―(म.पु./75/श्लो.नं.) राजा सत्यन्धर का पुत्र था। श्मशान में जन्म हुआ था, गन्धोत्कट सेठ अपने मृत पुत्र को छोड़कर वहां से इनको उठा लाया। आ.आर्यवर्मा से शिक्षा प्राप्त की। अनेकों कन्याओं को स्वयंवरों में जीता।228। पिता के घातक मन्त्री काष्ठांगार को मारकर राज्य प्राप्त किया।666। अन्त में दीक्षाधार (679-682) मोक्ष सिधारे (685-687)। पूर्वभव नं.2 में आप पुण्डरीकिणी नगरी के राजा जयन्धर के ‘जयद्रथ’ नाम के पुत्र थे। इन्होंने एक हंस के बच्चे को आकाश से पकड़ लिया था तथा उसके पिता (हंस) को मार दिया था। उसी के फलस्वरूप इस भव में जन्मते ही इनका पिता मारा गया, तथा 16 वर्ष तक माता से पृथक् रहना पड़ा।534-542।–तहां से चयकर पूर्वभव नं.1 में सहस्रार स्वर्ग में देव हुए।543-544। और वर्तमान भव में जीवन्धर हुए।
पुराणकोष से
हेमांगद देश में राजपुर नगर के राजा सत्यधर और रानी विजया का पुत्र । इसकी गर्भावस्था में ही मंत्री काष्ठांगारिक ने अपने पुत्र कालांगारिक के सहयोग से राजा सत्यधर को मारकर राज्य प्रान्त कर लिया था । गर्भिणी अवस्था मे ही सत्यधर ने अपनी रानी विजया को उसके स्वप्न का फल बताते हुए कहा था कि उसके मरने के बाद उसका पुत्र महान् राजा होगा और उसे आठ लाभ होंगे । सत्यधर का नगर सेठ गन्धोत्कट था । उसके पुत्र होते ही मर जाते थे । इससे वह दुखी था । एक दिन वहाँ आये हुए मुनि शीलगुप्त से धर्म का श्रवण करने के पश्चात् गन्धोत्कट ने अपने दीर्घायु पुत्र होने के विषय मे प्रश्न किया मुनि ने बताया कि अबकी बार जब वह उसके मृत पुत्र को श्मशान मे ले जायगा तो उसे वहाँ एक शिशु की प्राप्ति होगी । वह शिशु बड़ा होकर महान् राजा होगा और वैराग्य से मुनि बनकर संसार से मुक्त होगा । वहाँ एक यक्षी इस बात को सुन रही थी । उसे विजया का उपकार करने का निदान हुआ । उसने गरुडयन्त्र का रूप बनाया और वह राजा सत्यधर के पास पहुँची । सत्यधर को काष्ठांगारिक के षड्यन्त्र का पता चल गया था इसलिए उसने विजया को गरुडयन्त्र पर बैठाकर वहाँ से अन्यत्र भेज दिया । गरुडयन्त्र रूपिणी यक्षी उसे श्मशान में ले गयी । वहीं विजया के पुत्र हुआ । उसी समय गन्धोत्कट अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान में वहीं आ गया । यक्षी के कहने से विजया ने गन्धोत्कट को अपना पुत्र यह कहते हुए दे दिया कि वह उसका पालन गुप्तरूप से करे । मुनि की भविष्यवाणी को फलवती हुई समझकर उसने वह पुत्र ले लिया और उसे अपने घर ले गया । अपनी पत्नी सुनन्दा को उसे देते हुए सेठ ने कहा कि उसका पुत्र मृत नहीं, जीवित था यह सुनकर सुनन्दा बहुत प्रसन्न हुई और अपने इस पुत्र का लालन-पोषण बड़े स्नेह से करने लगी । सेठ ने इस पुत्र का नाम जीवन्धर रखा । जीवन्धर की प्राप्ति के पश्चात् गन्धोत्कट के एक पुत्र का जन्म हुआ । उसका नाम नन्दाढ रखा गया ।
सत्यंधर को विजया रानी से छोटी दो रानियाँ थी― भामारति और अनंगपताका । इनमें भामारति के पुत्र का नाम मधुर और अनंगपताका के पुत्र का नाम बकुल था । इन रानियों के व्रत धारण कर लेने से इसके दोनों भाइयो का लालन-पालन भी गन्धोत्कट सेठ को ही करना पड़ा । देवसेन, बुद्धिषेण, वरदत्त और मधुमुख क्रमश: सेनापति, पुरोहित श्रेष्ठी और मंत्री के पुत्र थे । इसका बाल्यकाल इन्हीं सातों के साथ बीता । सिंहपुर के राजा आर्यवर्मा संयमी हो गया था पर जठराग्नि के कारण यह संयम से च्युत होकर तापस के वेष में भ्रमण करते हुए गन्धोत्कट के यहाँ आया वहाँ क्रीडा करते हुए जीवन्धर के चातुर्य से प्रभावित हुआ । उसने गन्धोत्कट से इसे शिक्षित करने के लिए माँगा । गंधोत्कट भी सिंहवर्मा से प्रभावित था । उसने जीवन्धर को उसे दे दिया । अपने चातुर्य से इसने गोपेन्द्र की कन्या गोदावरी का विवाह नन्दाढ से कराया था । इसके भी आठ विवाह हुए । विवाही गयी कन्याओं में एक विद्याधर कन्या और शेष भूमिगोचरियों की कन्याएँ थी । विद्याधर कन्या का नाम गन्धर्वदत्ता था । इसकी अन्य पत्नियाँ थी― सुरमंजरी, पद्मोत्तमा, क्षेमसुन्दरी, हेमाभा, विमला, गुणमाला और रत्नवती गन्धर्वदत्ता से विवाह करने के पश्चात् जीवन्धर राजपुर से बाहर चुपचाप चला गया था । उसके इम तरह नगर से चले जाने के कारण उसके मित्र उसे ढूँढते हुए दण्डकवन पहुँचे । यहाँ एक तपस्वियों के आश्रम में इनकी विजया माता से भेट हुई । इन्होंने विजया को बताया कि जीवन्धर कही चला गया है । ये वहाँ से हेमाभनगर आये । यहाँ इनकी जीवन्धर से भेंट हुई । ये सब जीवन्धर के साथ दण्डकवन में जीवन्धर की माता विजया से मिले । विजया ने इसे इसके पिता राजा सत्यंधर के मारे जाने की कथा बतायी और उससे कहा कि वह अपने खोये हुए राज्य को काष्ठांगारिक से पुन: प्राप्त करे । माता को आश्वस्त कर जीवन्धर राजपुर आ गया । अपना परिचय देकर इसने सामंतों को अपने पक्ष में कर लिया । सेना तैयार की और काष्ठांगारिक को चक्र से मार डाला । हर्षित होकर उपस्थित राजाओं ने इसका राज्याभिषेक किया । इसी समय इसने गन्धर्वदत्ता को महारानी बनाया । इसके भाई नन्दाढ के साथ इसकी माता विजयादेवी और हेमाभा आदि रानियां भी आ गयी । परिवार के सभी जन सुख से रहने लगे । महापुराण 75.188-673 एक दिन यह दो बन्दरों को परस्पर लड़ते हुए देखकर संसार से विरक्त हो गया और गन्धर्वदत्ता के पुत्र वसुन्धरा को राज्य सौंप कर नन्दाढ मधुर आदि भाइयों के साथ संयमी हो गया । इसकी आठों रानियों तथा उनकी माताओं ने रानी विजया के साथ चन्दना आर्यिका के समीप उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया । घातिया कर्म नष्ट कर वह केवली हुआ तथा महावीर के निर्वाण के पश्चात् यह भी विपुलाचल से ही मोक्ष को प्राप्त हुआ । महापुराण 75. 676-687 दूसरे पूर्वभव में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा जयन्धर का जयद्रथ नामक पुत्र था । इसने एक हंस के बच्चे को पकड़ लिया था तथा इसके किसी साथी ने हंस-शिशु को मार डाला था । उसी के फलस्वरूप सहस्रार स्वर्ग में देव को पर्याय से इस भव में जन्मते ही इसके पिता का मरण हुआ और 16 वर्ष तक इसे माता से पृथक् रहना पड़ा । महापुराण 75.534-544