दर्शन उपयोग 2: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> ज्ञान व दर्शन में | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> ज्ञान व दर्शन में अन्तर</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,4/145/3<span class="SanskritText"> दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसङ्गयोरनात्मधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञानदर्शनयोरविशेष: स्यादिति चेन्न, अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् ।</span> <span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–‘‘जिसके द्वारा देखा जाये अर्थात् अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं’’, दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने से, चक्षु इन्द्रिय व आलोक भी देखने में सहकारी होने से, उनमें दर्शन का लक्षण चला जाता है, इसलिए अतिप्रसंग दोष आता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं आता, क्योंकि इन्द्रिय और आलोक आत्मा के धर्म नहीं हैं। यहां चक्षु से द्रव्य चक्षु का ही ग्रहण करना चाहिए। <strong>प्रश्न–</strong>जिसके द्वारा देखा जाये, जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने पर, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात् दोनों एक हो जाते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान माना है, इसलिए इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> अन्तर्मुख व बहिर्मुख चित्प्रकाश का तात्पर्य–अनाकार व साकार ग्रहण</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,4/145/6<span class="SanskritText"> सवतो व्यतिरिक्तबाह्यार्थावगति: प्रकाश इत्यन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्जानात्यनेनात्मानं बाह्यार्थमिति च ज्ञानमिति सिद्धत्वादेकत्वम्, ततो न ज्ञानदर्शनयोर्भेद इति चेन्न, ज्ञानादिव दर्शनात् प्रतिकर्मव्यवस्थाभावात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अपने से ‘भिन्न बाह्यपदार्थों के ज्ञान को प्रकाश कहते हैं, इसलिए अन्तर्मुख चैतन्य और बहिर्मुख प्रकाश के होने पर जिसके द्वारा यह जीव अपने स्वरूप को और परपदार्थों को जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार की व्याख्या के सिद्ध हो जाने से ज्ञान और दर्शन में एकता आ जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञान के द्वारा ‘यह घट है’, यह पट है’ इत्यादि विशेष रूप से प्रतिनियत व्यवस्था होती है उस तरह दर्शन के द्वारा नहीं होती है, इसलिए इन दोनों में भेद है।</span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.1/1-15/306/337/2 <span class="PrakritText">अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं णव्वदे। अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText">अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग को दर्शन स्वीकार किया है। <strong>प्रश्न</strong>–दर्शन उपयोग का विषय अन्तरंग पदार्थ है यह कैसे जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–यदि दर्शनोपयोग का विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता।<br /> | ||
देखें [[ आकार#2.3 | आकार - 2.3 ]](‘मैं इस पदार्थ को जानता हूं’ इस प्रकार का पृथग्भूत कर्ता कर्म नहीं पाये जाने से अन्तरंग व निराकार उपयोग विषयाकार नहीं होता)</span><br /> | |||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./44/189/7 <span class="SanskritText">यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति। तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिर्विषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद् ज्ञानं भण्यते।</span> =<span class="HindiText">जैसे कोई पुरुष पहिले घट के विषय का विकल्प (मैं इस घट को जानता हूं अथवा घट लाल है, इत्यादि) करता हुआ बैठा है। फिर उसी पुरुष का चित्त जब पट के जानने के लिए होता है, तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर जो स्वरूप में प्रयत्न अर्थात् अवलोकन करता है, उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनन्तर ‘यह पट है’ इस प्रकार से निश्चय रूप जो बाह्य विषय रूप से पदार्थग्रहणस्वरूप विकल्प को करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> केवल | <li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong> केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान–ऐसा नहीं है</strong> </span><br>ध.1/1,1,4/146/3<span class="SanskritText"> तर्ह्यस्त्वन्तर्बाह्यसामान्यग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलम्भात् । सीऽप्यवस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, ‘हंदि दुवे णत्थि उवजोगा’ इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थक्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात् । तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थों को नहीं जानता तो) अन्तरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है, और अन्तर्बाह्य विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रम के बिना भी सामान्य व विशेष का ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘छद्मस्थों के दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं’ इस कथन के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। (इस सम्बन्धी विशेष देखो आगे ‘दर्शन/3’), (ध.13/5,5,19/208/3); (ध.6/1,9-1,16/33/8) 2. दूसरी बात यह है कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पड़ता है। (क.पा.1/322/351/3) (ध.1/1,1,4/148/2); (ध.6/1,9-1,16/33/9), (देखें [[ सामान्य ]]) 3. उस (अवस्तु) का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूं ऐसा भेद) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेष को ग्रहण करने वाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन को भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। (ध.6/1,9-1,16/33/10), (द्र.सं./टी./44/190/8) 4. और इस प्रकार दोनों उपयोगों का ही अभाव प्राप्त होता है। (देखें [[ आगे शीर्षक नं#4 | आगे शीर्षक नं - 4]]) 5. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के बिना वस्तु का ग्रहण होने में विरोध आता है) </span>(ध.13/5,5,19/208/4) ध.6/1,9-1,16/33/6 <span class="SanskritText">बाह्यार्थसामान्यग्रहणं दर्शनमिति केचिदाचक्षते; तन्न; सामान्यग्रहणास्तित्वं प्रत्यविशेषत: श्रुतमन:पर्यययोरपि दर्शनस्यास्तित्वप्रसंगात् ।</span>=<span class="HindiText">6. बाह्य पदार्थ को सामान्य रूप से ग्रहण करना दर्शन है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि सामान्य ग्रहण के अस्तित्व के प्रति कोई विशेषता न होने से, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शन के अस्तित्व का प्रसंग आता है। (तथा इन दोनों के दर्शन माने नहीं गये हैं (देखें [[ आगे दर्शन#4 | आगे दर्शन - 4]])</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong> ज्ञान व दर्शन को केवल | <li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong> ज्ञान व दर्शन को केवल सामान्य या विशेषग्राही मानने से द्रव्य का जानना ही अशक्य है</strong> </span><br>ध.7/2,1,56/97/1<span class="PrakritText"> ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं चेव जेण सयलत्थसामण्ण केवलदंसणस्स विसओ होज्ज, संसारावत्थाए आवग्गवसेण कमेण पवट्टमाणणाणदंसणाणं दव्वागमाभावप्पसंगादो। कुदो। ण णाणं दव्वपरिच्छेदयं, सामण्णविदिरित्तविसेसेसु तस्स वावारादो। ण दंसणं पि दव्वपरिच्छेदयं, तस्स विसेसविदिरित्तसामण्णम्मि वावारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वग्गहणाभावो, किंतु ण केवलिम्हि वि दव्वग्गहणमत्थि, सामण्णविसेसेसु एयंत दुरंतपञ्चसंठिएसु वावदाणं केवलदंसणणाणाणं दव्वम्मि, वावारविरोहादो। ण च एयंत सामण्णविसेसा अत्थि जेण तेसिं विसओ होज्ज। असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिंगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडिविसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तण्णिबंधणादो।</span> =<span class="HindiText">अशेष विशेषमात्र को ग्रहण करने वाला केवलज्ञान हो, ऐसा नहीं है, जिससे कि सकल पदार्थों का ज्ञान सामान्य धर्म केवल दर्शन का विषय हो जाये। क्योंकि ऐसा मानने से, ज्ञान दर्शन की क्रमप्रवृत्ति वाली संसारावस्था में द्रव्य के ज्ञान का अभाव होने का प्रसंग आता है। कैसे ?–ज्ञान तो द्रव्य को न जान सकेगा, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में ही उसका व्यापार परिमित हो गया है। दर्शन भी द्रव्य को नहीं जान सकता, क्योंकि विशेषों से रहित केवल सामान्य में उसका व्यापार परिमित हो गया है। केवल संसारावस्था में ही नहीं किन्तु केवली में भी द्रव्य का ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योंकि, एकान्तरूपी दुरन्तपथ में स्थित सामान्य व विशेष में प्रवृत्त हुए केवलदर्शन और केवलज्ञान का (उभयरूप) द्रव्यमात्र में व्यापार मानने में विरोध आता है। एकान्तत: पृथक् सामान्य व विशेष तो होते नहीं हैं, जिससे कि वे क्रमश: केवलदर्शन और केवलज्ञान के विषय हो सकें। और यदि असत् को भी प्रमेय मानोगे तो गधे का सींग भी प्रमेय कोटि में आ जायेगा, क्योंकि अभाव की अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता नहीं रही। प्रमेय के न होने पर प्रमाण भी नहीं रहता, क्योंकि प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है। (क.पा./1/1-20/322/353/1; 324/356/1)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong> | <li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong> सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अन्तरंग ग्रहण दर्शन और बाह्यग्रहण ज्ञान है</strong> </span><br> ध.1/1,1,4/147/2 <span class="SanskritText">तत: सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । </span>=<span class="HindiText">अत: सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है। (क.पा./1/1-20/325/356/9)</span><br>ध.1/1,1,131/380/3 <span class="SanskritText">अन्तरङ्गार्थोऽपि सामान्यविशेषात्मक इति। तद्विधिप्रतिषेधसामान्ययोरुपयोगस्य क्रमेण प्रवृत्त्यनुपपत्तेरक्रमेण तत्रोपयोगस्य प्रवृत्तिरङ्गीकर्तव्या। तथा च न सोऽन्तरङ्गोपयोगोऽपि दर्शनं तस्य सामान्यविशेषविषयत्वादिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । </span>=<span class="HindiText">अन्तरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है, इसलिए विधि सामान्य और प्रतिषेध सामान्य में उपयोग की क्रम से प्रवृत्ति नहीं बनती है, अत: उनमें उपयोग की अक्रम से प्रवृत्ति स्वीकार करनी चाहिए। अर्थात् दोनों का युगपत् ही ग्रहण होता है। <strong>प्रश्न</strong>–इस कथन को मान लेने पर वह अन्तरंग उपयोग दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि (यहां) उस अन्तरंग उपयोग को सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को विषय करने वाला मान लिया गया है (जबकि उसका लक्षण केवल सामान्य को विषय करना है (देखें [[ दर्शन#1.3.2 | दर्शन - 1.3.2]])। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहां पर सामान्य विशेषात्मक आत्मा का सामान्य शब्द के वाच्यरूप से ग्रहण किया है। (विशेष देखें [[ आगे दर्शन#3 | आगे दर्शन - 3]])। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong> दर्शन व ज्ञान की | <li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong> दर्शन व ज्ञान की स्व-पर ग्राहकता का समन्वय</strong> </span><br>नि.सा./मू./161-171 <span class="PrakritGatha">णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव। अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णदे जदि हि।161। णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं। ण हव्वदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।162। अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।163। णाणं परप्पयासं ववहारणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयएण दंसण तम्हा।164। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।165। </span>=<span class="HindiText">एकान्त से ज्ञान को परप्रकाशक, दर्शन को स्वप्रकाशक तथा आत्मा को स्वपरप्रकाशक यदि कोई माने तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा मानने में विरोध आता है।161। ज्ञान को एकान्त से परप्रकाशक मानने पर वह दर्शन से भिन्न ही एक पदार्थ बन बैठेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।162। इसी प्रकार ज्ञान की अपेक्षा आत्मा को एकान्त से परप्रकाशक मानने पर भी वह दर्शन से भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।163। (ऐसे ही दर्शन को या आत्मा को एकान्त से स्वप्रकाशक मानने पर वे ज्ञान से भिन्न हो जायेंगे, क्योंकि ज्ञान को वह सर्वथा स्वप्रकाशक न मान सकेगा। अत: इसका समन्वय अनेकान्त द्वारा इस प्रकार किया जाना चाहिए, कि–) क्योंकि व्यवहारनय से अर्थात् भेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों परप्रकाशक हैं, इसलिए दर्शन भी पर प्रकाशक है। इसी प्रकार, क्योंकि निश्चयनय से अर्थात् अभेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों स्वप्रकाशक हैं इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है।165। (तात्पर्य यह कि दर्शन, ज्ञान व आत्मा ये तीनों कोई पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ तो हैं नहीं जो कि एक का धर्म दूसरे से सर्वथा अस्पृष्ट रहे। तीनों एक पदार्थस्वरूप होने के कारण एक रस हैं। अत: ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय की अथवा दर्शन द्रष्टा दृश्य की भेद विवक्षा होने पर तीनों ही परप्रकाशक हैं तथा उन्हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्टा है और वही दृश्य है। अत: ये तीनों ही स्वप्रकाशक हैं।) (अथवा–जब दर्शन के द्वारा आत्मा का ग्रहण होता है, तब स्वत: ज्ञान का तथा उसमें प्रतिबिम्बित पर पदार्थों का भी ग्रहण कैसे न होगा, होगा ही।) (देखें [[ आगे शीर्षक नं#07 | आगे शीर्षक नं - 07]]); (केवलज्ञान/6/9) (देखें [[ अगले दोनों उद्धरण भी ]]) </span> ध.6/1,9-1,16/34/4 <span class="SanskritText">तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्वावभास: केवलदर्शनम्, परावभास: केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञानदर्शनयो: साम्यमिति इति चेन्न, ज्ञेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात् । </span>=<span class="HindiText">इसलिए (उपरोक्त व्याख्या के अनुसार) आत्मा ही (वास्तव में) स्व-पर अवभासक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभास को केवल दर्शन कहते हैं और पर प्रतिभास को केवलज्ञान कहते हैं। (क.पा.1/1-20/326/358/2); (ध.7/2,1,56/99/10) <strong>प्रश्न</strong>–उक्त प्रकार की व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन में समानता कैसे रह सकेगी ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभव के ज्ञान को प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है। (ध.1/1,1,135/385/7)</span><br> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./44/189/11 <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–यद्यात्मग्राहकं दर्शनं, परग्राहकं ज्ञानं भण्यते, तर्हि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति। अत्र परिहार:। नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति। जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति। कस्मादिति चेत् – यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहक:, पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। तथैवाभेदेनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है, वैसे ही जैनमत में भी ‘ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है’ ऐसा दूषण आता है ? <strong>उत्तर</strong>–नैयायिकमत में ज्ञान और दर्शन दो अलग-अलग गुण नहीं माने गये हैं, इसलिए उनके यहां तो उपरोक्त दूषण प्राप्त हो सकता है; परन्तु जैनसिद्धान्त में ‘आत्मा’ ज्ञान गुण से तो परपदार्थ को जानता है, और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है, इस कारण यहां वह दूषण प्राप्त नहीं होता। <strong>प्रश्न</strong>–यह दूषण क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–जैसे कि एक ही अग्नि दहनगुण से जलाता होने से दाहक कहलाता है, और पाचन गुण से पकाता होने से पाचक कहलाता है। इस प्रकार विषय भेद से वह एक भी दाहक व पाचक रूप दो प्रकार का है। उसी प्रकार अभेदनय से एकही चैतन्य भेदनय की विवक्षा में जब आत्मग्रहण रूप से प्रवृत्त हुआ तब तो उसका नाम दर्शन हुआ; जब परपदार्थ को ग्रहण करने रूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्य का नाम ज्ञान हुआ; इस प्रकार विषयभेद से वह एक भी चैतन्य दो प्रकार का होता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong> दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थों का ग्रहण होता है</strong></span><br> द्र.सं./टी./ | <li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong> दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थों का ग्रहण होता है</strong></span><br> द्र.सं./टी./44/191/3 <span class="SanskritText">अथ मतं–यदि दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्त्तते तदान्धवत् सर्वजनानामन्धत्वं प्राप्नोतीति। नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्वं परिच्छिनत्तीति। अयं तु विशेष:–दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवतीति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अन्धे की तरह सब मनुष्यों के अन्धेपने की प्राप्ति होती है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि यद्यपि बाह्य विषय में दर्शन का अभाव है, तो भी आत्मज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जनाता है। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है, कि–जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त जो ज्ञान है, वह भी दर्शन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है; और जब दर्शन से ज्ञान को ग्रहण किया तो ज्ञान का विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी (स्वत:) ग्रहण कर लिया (या हो गया)। (और भी–देखें [[ दर्शन#5.8 | दर्शन - 5.8]]) </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.8" id="2.8"><strong> दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है</strong> </span><br>ध. | <li><span class="HindiText" name="2.8" id="2.8"><strong> दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है</strong> </span><br>ध.1/1,1,135/385/8 <span class="SanskritText">स्वजीवस्थपर्यायैर्ज्ञानद्दर्शनमधिकमिति चेन्न, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् । न; अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(ज्ञान केवल बाह्य पदार्थों को ही ग्रहण करता है, आत्मा को नहीं; जबकि दर्शन आत्मा को व कथंचित् बाह्य पदार्थों को भी ग्रहण करता है। तो) जीव में रहने वाली स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा ज्ञान से दर्शन अधिक है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञान के साथ दर्शन की समानता कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong>–समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा करने वाले उन दोनों में ( कथंचित् ) समानता मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.9" id="2.9"><strong> दर्शन और अवग्रह ज्ञान में | <li><span class="HindiText" name="2.9" id="2.9"><strong> दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अन्तर</strong> </span><br>रा.वा./1/15/13/61/13<span class="SanskritText"> कश्चिदाह–यदुक्तं भवता विषय-विषयिसंनिपाते दर्शनं भवति, तदनन्तरमवग्रह इति; तदयुक्तम्; अवैलक्षण्यात् । ...अत्रोच्यंते–न; वैलक्षण्यात् । कथम् । इह चक्षुषा...किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोकनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते, बालवत् । यथा जातमात्रस्य बालस्य प्राथमिक उन्मेषोऽसौ अविभावितरूपद्रव्यविशेषालोचनाद्दर्शनं विवक्षितं तथा सर्वेषाम् । ततो द्वित्रादिसमयभाविषून्मेषेषु... ‘रूपमिदम्’ इति विभावितविशेषोऽवग्रह:। यत् प्रथमसमयोन्मेषितस्य बालस्य दर्शनं तद् यदि अवग्रहजातीयत्वात् ज्ञानमिष्टम्; तन्मिथ्याज्ञानं वा स्यात्, सम्यग्ज्ञानं वा। मिथ्याज्ञानत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मकं (वा) स्यात् । तत्र न तावत् संशयविपर्ययात्मकं वाऽचेष्टि; तस्य सम्यग्ज्ञानपूर्वकत्वात् । प्राथमिकत्वाच्च तत्रास्तीति। न वानध्यवसायरूपम्; जात्यन्धबधिरशब्दवत् वस्तुमात्रप्रतिपत्ते:। न सम्यग्ज्ञानम्, अर्थाकारावलम्बनाभावात् । किं च–कारणनानात्वात् कार्यनानात्वसिद्धे:। यथा मृत्तन्तुकारणभेदात् घटपटकार्यभेद: तथा दर्शनज्ञानावरणक्षयोपशमकारणभेदात् तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–विषय विषयी के सन्निपात होने पर प्रथम क्षण में दर्शन होता है और तदनन्तर अवग्रह, आपने जो ऐसा कहा है, सो युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों के लक्षणों में कोई भेद नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–1. नहीं, क्योंकि दोनों के लक्षण भिन्न हैं। वह इस प्रकार कि–चक्षु इन्द्रिय से ‘यह कुछ है’ इतना मात्र आलोकन दर्शन कहा गया है। इसके बाद दूसरे आदि समयों में ‘यह रूप है’ ‘यह पुरुष है’ इत्यादि रूप से विशेषांश का निश्चय अवग्रह कहलाता है। जैसे कि जातमात्र बालक का ज्ञान जातमात्र बालक के प्रथम समय में होने वाले सामान्यालोचन को यदि अवग्रह जातीय ज्ञान कहा जाये तो प्रश्न होता है कि कौन-सा ज्ञान है–मिथ्याज्ञान या सम्यग्ज्ञान ? मिथ्याज्ञान है तो संशयरूप है या विपर्ययरूप या अनध्यवसाय रूप ? तहां वह संशय और विपर्यय तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान पूर्वक होते हैं। अर्थात् जिसने पहले कभी स्थाणु, पुरुष आदि का निश्चय किया है उसे ही वर्तमान में देखे गये पदार्थ में संशय या विपर्यय हो सकता है। परन्तु प्राथमिक होने के कारण उस प्रकार का सम्यग्ज्ञान यहां होना सम्भव नहीं है। यह ज्ञान अनध्यवसायरूप भी नहीं है; क्योंकि जन्मान्ध और जन्मवधिर की तरह रूपमात्र व शब्दमात्र का तो स्पष्ट बोध हो ही रहा है। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसे किसी भी अर्थ विशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है। (ध.9/4,1,45/145/6)। 2. जिस प्रकार मिट्टी और तन्तु ऐसे विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण घट व पट भिन्न हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दर्शन व ज्ञान में भेद है। (और भी देखें [[ दर्शन#5.5 | दर्शन - 5.5]])। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="2.10" id="2.10"><strong> दर्शन व संग्रहनय में | <li><span class="HindiText" name="2.10" id="2.10"><strong> दर्शन व संग्रहनय में अन्तर</strong> </span><br>श्लो.वा.3/1/15/15/445/25 <span class="SanskritText">न हि सन्मात्रग्राही संग्रहो नयो दर्शनं स्यादित्यतिव्याप्ति: शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपत्ते: श्रुतभेदा नया इति वचनात् । </span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण वस्तुओं की संग्रहीत केवल सत्ता को ग्रहण करने वाला संग्रहनय दर्शनोपयोग हो जायेगा, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह संग्रहनय तो श्रुतज्ञान का भेद है। अविशद प्रतिभासवाला होने से उसे नयपना बन रहा है। और ग्रन्थों में श्रुतज्ञान के भेद को नयज्ञान कहा गया है।</span></li></ol></li> | ||
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Revision as of 21:41, 5 July 2020
- ज्ञान व दर्शन में अन्तर
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं है
ध.1/1,1,4/145/3 दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसङ्गयोरनात्मधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञानदर्शनयोरविशेष: स्यादिति चेन्न, अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् । =प्रश्न–‘‘जिसके द्वारा देखा जाये अर्थात् अवलोकन किया जाये उसे दर्शन कहते हैं’’, दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने से, चक्षु इन्द्रिय व आलोक भी देखने में सहकारी होने से, उनमें दर्शन का लक्षण चला जाता है, इसलिए अतिप्रसंग दोष आता है ? उत्तर–नहीं आता, क्योंकि इन्द्रिय और आलोक आत्मा के धर्म नहीं हैं। यहां चक्षु से द्रव्य चक्षु का ही ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न–जिसके द्वारा देखा जाये, जाना जाये उसे दर्शन कहते हैं। दर्शन का इस प्रकार लक्षण करने पर, ज्ञान और दर्शन में कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात् दोनों एक हो जाते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान माना है, इसलिए इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।
- अन्तर्मुख व बहिर्मुख चित्प्रकाश का तात्पर्य–अनाकार व साकार ग्रहण
ध.1/1,1,4/145/6 सवतो व्यतिरिक्तबाह्यार्थावगति: प्रकाश इत्यन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्जानात्यनेनात्मानं बाह्यार्थमिति च ज्ञानमिति सिद्धत्वादेकत्वम्, ततो न ज्ञानदर्शनयोर्भेद इति चेन्न, ज्ञानादिव दर्शनात् प्रतिकर्मव्यवस्थाभावात् । =प्रश्न–अपने से ‘भिन्न बाह्यपदार्थों के ज्ञान को प्रकाश कहते हैं, इसलिए अन्तर्मुख चैतन्य और बहिर्मुख प्रकाश के होने पर जिसके द्वारा यह जीव अपने स्वरूप को और परपदार्थों को जानता है उसे ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार की व्याख्या के सिद्ध हो जाने से ज्ञान और दर्शन में एकता आ जाती है, इसलिए उनमें भेद सिद्ध नहीं हो सकता है ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस तरह ज्ञान के द्वारा ‘यह घट है’, यह पट है’ इत्यादि विशेष रूप से प्रतिनियत व्यवस्था होती है उस तरह दर्शन के द्वारा नहीं होती है, इसलिए इन दोनों में भेद है।
क.पा.1/1-15/306/337/2 अंतरंगविसयस्स उवजोगस्स दंसणत्तब्भुवगमादो। तं कथं णव्वदे। अणायारत्तण्णहाणुववत्तीदो। =अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग को दर्शन स्वीकार किया है। प्रश्न–दर्शन उपयोग का विषय अन्तरंग पदार्थ है यह कैसे जाना जाता है ? उत्तर–यदि दर्शनोपयोग का विषय अन्तरंग पदार्थ न माना जाये तो वह अनाकार नहीं बन सकता।
देखें आकार - 2.3 (‘मैं इस पदार्थ को जानता हूं’ इस प्रकार का पृथग्भूत कर्ता कर्म नहीं पाये जाने से अन्तरंग व निराकार उपयोग विषयाकार नहीं होता)
द्र.सं./टी./44/189/7 यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थं चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति। तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिर्विषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद् ज्ञानं भण्यते। =जैसे कोई पुरुष पहिले घट के विषय का विकल्प (मैं इस घट को जानता हूं अथवा घट लाल है, इत्यादि) करता हुआ बैठा है। फिर उसी पुरुष का चित्त जब पट के जानने के लिए होता है, तब वह पुरुष घट के विकल्प से हटकर जो स्वरूप में प्रयत्न अर्थात् अवलोकन करता है, उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनन्तर ‘यह पट है’ इस प्रकार से निश्चय रूप जो बाह्य विषय रूप से पदार्थग्रहणस्वरूप विकल्प को करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है। - केवल सामान्य ग्राहक दर्शन और केवल विशेषग्राही ज्ञान–ऐसा नहीं है
ध.1/1,1,4/146/3 तर्ह्यस्त्वन्तर्बाह्यसामान्यग्रहणं दर्शनम्, विशेषग्रहणं ज्ञानमिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनो विक्रमेणोपलम्भात् । सीऽप्यवस्तु न कश्चिद्विरोध इति चेन्न, ‘हंदि दुवे णत्थि उवजोगा’ इत्यनेन सह विरोधात् । अपि च न ज्ञानं प्रमाणं सामान्यव्यतिरिक्तविशेषस्यार्थक्रियाकर्तृत्वं प्रत्यसमर्थत्वतोऽवस्तुनो ग्रहणात् । न तस्य ग्रहणमपि सामान्यव्यतिरिक्ते विशेषे ह्यवस्तुनि कर्तृकर्मरूपाभावात् । तत् एव न दर्शनमपि प्रमाणम् । =प्रश्न–यदि ऐसा है तो (यदि दर्शन द्वारा प्रतिनियत घट पट आदि पदार्थों को नहीं जानता तो) अन्तरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन है, और अन्तर्बाह्य विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, ऐसा मान लेना चाहिए ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि सामान्य और विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो होने दो, क्योंकि क्रम के बिना भी सामान्य व विशेष का ग्रहण मानने में कोई विरोध नहीं है ? उत्तर–1. ऐसा नहीं है, क्योंकि, ‘छद्मस्थों के दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं’ इस कथन के साथ पूर्वोक्त कथन का विरोध आता है। (इस सम्बन्धी विशेष देखो आगे ‘दर्शन/3’), (ध.13/5,5,19/208/3); (ध.6/1,9-1,16/33/8) 2. दूसरी बात यह है कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थ क्रिया करने में असमर्थ है। और जो अर्थ क्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तु रूप पड़ता है। (क.पा.1/322/351/3) (ध.1/1,1,4/148/2); (ध.6/1,9-1,16/33/9), (देखें सामान्य ) 3. उस (अवस्तु) का ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता, और केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि, सामान्य रहित केवल विशेष में कर्ता कर्म रूप व्यवहार (मैं इसको जानता हूं ऐसा भेद) नहीं बन सकता है। इस तरह केवल विशेष को ग्रहण करने वाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से केवल सामान्य को ग्रहण करने वाले दर्शन को भी प्रमाण नहीं मान सकते हैं। (ध.6/1,9-1,16/33/10), (द्र.सं./टी./44/190/8) 4. और इस प्रकार दोनों उपयोगों का ही अभाव प्राप्त होता है। (देखें आगे शीर्षक नं - 4) 5. (द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय के बिना वस्तु का ग्रहण होने में विरोध आता है) (ध.13/5,5,19/208/4) ध.6/1,9-1,16/33/6 बाह्यार्थसामान्यग्रहणं दर्शनमिति केचिदाचक्षते; तन्न; सामान्यग्रहणास्तित्वं प्रत्यविशेषत: श्रुतमन:पर्यययोरपि दर्शनस्यास्तित्वप्रसंगात् ।=6. बाह्य पदार्थ को सामान्य रूप से ग्रहण करना दर्शन है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि सामान्य ग्रहण के अस्तित्व के प्रति कोई विशेषता न होने से, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान, इन दोनों को भी दर्शन के अस्तित्व का प्रसंग आता है। (तथा इन दोनों के दर्शन माने नहीं गये हैं (देखें आगे दर्शन - 4) - ज्ञान व दर्शन को केवल सामान्य या विशेषग्राही मानने से द्रव्य का जानना ही अशक्य है
ध.7/2,1,56/97/1 ण चासेसविसेसमेत्तग्गाही केवलणाणं चेव जेण सयलत्थसामण्ण केवलदंसणस्स विसओ होज्ज, संसारावत्थाए आवग्गवसेण कमेण पवट्टमाणणाणदंसणाणं दव्वागमाभावप्पसंगादो। कुदो। ण णाणं दव्वपरिच्छेदयं, सामण्णविदिरित्तविसेसेसु तस्स वावारादो। ण दंसणं पि दव्वपरिच्छेदयं, तस्स विसेसविदिरित्तसामण्णम्मि वावारादो। ण केवलं संसारावत्थाए चेव दव्वग्गहणाभावो, किंतु ण केवलिम्हि वि दव्वग्गहणमत्थि, सामण्णविसेसेसु एयंत दुरंतपञ्चसंठिएसु वावदाणं केवलदंसणणाणाणं दव्वम्मि, वावारविरोहादो। ण च एयंत सामण्णविसेसा अत्थि जेण तेसिं विसओ होज्ज। असंतस्स पमेयत्ते इच्छिज्जमाणे गद्दहसिंगं पि पमेयत्तमल्लिएज्ज, अभावं पडिविसेसाभावादो। पमेयाभावे ण पमाणं पि, तस्स तण्णिबंधणादो। =अशेष विशेषमात्र को ग्रहण करने वाला केवलज्ञान हो, ऐसा नहीं है, जिससे कि सकल पदार्थों का ज्ञान सामान्य धर्म केवल दर्शन का विषय हो जाये। क्योंकि ऐसा मानने से, ज्ञान दर्शन की क्रमप्रवृत्ति वाली संसारावस्था में द्रव्य के ज्ञान का अभाव होने का प्रसंग आता है। कैसे ?–ज्ञान तो द्रव्य को न जान सकेगा, क्योंकि सामान्य रहित केवल विशेष में ही उसका व्यापार परिमित हो गया है। दर्शन भी द्रव्य को नहीं जान सकता, क्योंकि विशेषों से रहित केवल सामान्य में उसका व्यापार परिमित हो गया है। केवल संसारावस्था में ही नहीं किन्तु केवली में भी द्रव्य का ग्रहण नहीं हो सकेगा, क्योंकि, एकान्तरूपी दुरन्तपथ में स्थित सामान्य व विशेष में प्रवृत्त हुए केवलदर्शन और केवलज्ञान का (उभयरूप) द्रव्यमात्र में व्यापार मानने में विरोध आता है। एकान्तत: पृथक् सामान्य व विशेष तो होते नहीं हैं, जिससे कि वे क्रमश: केवलदर्शन और केवलज्ञान के विषय हो सकें। और यदि असत् को भी प्रमेय मानोगे तो गधे का सींग भी प्रमेय कोटि में आ जायेगा, क्योंकि अभाव की अपेक्षा दोनों में कोई विशेषता नहीं रही। प्रमेय के न होने पर प्रमाण भी नहीं रहता, क्योंकि प्रमाण तो प्रमेयमूलक ही होता है। (क.पा./1/1-20/322/353/1; 324/356/1) - सामान्य विशेषात्मक उभयरूप ही अन्तरंग ग्रहण दर्शन और बाह्यग्रहण ज्ञान है
ध.1/1,1,4/147/2 तत: सामान्यविशेषात्मकबाह्यार्थग्रहणं ज्ञानं तदात्मकस्वरूपग्रहणं दर्शनमिति सिद्धम् । =अत: सामान्य विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है यह सिद्ध हो जाता है। (क.पा./1/1-20/325/356/9)
ध.1/1,1,131/380/3 अन्तरङ्गार्थोऽपि सामान्यविशेषात्मक इति। तद्विधिप्रतिषेधसामान्ययोरुपयोगस्य क्रमेण प्रवृत्त्यनुपपत्तेरक्रमेण तत्रोपयोगस्य प्रवृत्तिरङ्गीकर्तव्या। तथा च न सोऽन्तरङ्गोपयोगोऽपि दर्शनं तस्य सामान्यविशेषविषयत्वादिति चेन्न, सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । =अन्तरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है, इसलिए विधि सामान्य और प्रतिषेध सामान्य में उपयोग की क्रम से प्रवृत्ति नहीं बनती है, अत: उनमें उपयोग की अक्रम से प्रवृत्ति स्वीकार करनी चाहिए। अर्थात् दोनों का युगपत् ही ग्रहण होता है। प्रश्न–इस कथन को मान लेने पर वह अन्तरंग उपयोग दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि (यहां) उस अन्तरंग उपयोग को सामान्य विशेषात्मक पदार्थ को विषय करने वाला मान लिया गया है (जबकि उसका लक्षण केवल सामान्य को विषय करना है (देखें दर्शन - 1.3.2)। उत्तर–नहीं, क्योंकि, यहां पर सामान्य विशेषात्मक आत्मा का सामान्य शब्द के वाच्यरूप से ग्रहण किया है। (विशेष देखें आगे दर्शन - 3)। - दर्शन व ज्ञान की स्व-पर ग्राहकता का समन्वय
नि.सा./मू./161-171 णाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव। अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णदे जदि हि।161। णाणं परप्पयासं तइया णाणेण दंसणं भिण्णं। ण हव्वदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।162। अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दंसणं भिण्णं। ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिदं तम्हा।163। णाणं परप्पयासं ववहारणयएण दंसणं तम्हा। अप्पा परप्पयासो ववहारणयएण दंसण तम्हा।164। णाणं अप्पपयासं णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा अप्पा अप्पपयासो णिच्छयणयएण दंसणं तम्हा।165। =एकान्त से ज्ञान को परप्रकाशक, दर्शन को स्वप्रकाशक तथा आत्मा को स्वपरप्रकाशक यदि कोई माने तो वह ठीक नहीं है, क्योंकि वैसा मानने में विरोध आता है।161। ज्ञान को एकान्त से परप्रकाशक मानने पर वह दर्शन से भिन्न ही एक पदार्थ बन बैठेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।162। इसी प्रकार ज्ञान की अपेक्षा आत्मा को एकान्त से परप्रकाशक मानने पर भी वह दर्शन से भिन्न हो जायेगा, क्योंकि दर्शन को वह सर्वथा परद्रव्यगत नहीं मानता।163। (ऐसे ही दर्शन को या आत्मा को एकान्त से स्वप्रकाशक मानने पर वे ज्ञान से भिन्न हो जायेंगे, क्योंकि ज्ञान को वह सर्वथा स्वप्रकाशक न मान सकेगा। अत: इसका समन्वय अनेकान्त द्वारा इस प्रकार किया जाना चाहिए, कि–) क्योंकि व्यवहारनय से अर्थात् भेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों परप्रकाशक हैं, इसलिए दर्शन भी पर प्रकाशक है। इसी प्रकार, क्योंकि निश्चयनय से अर्थात् अभेद विवक्षा से ज्ञान व आत्मा दोनों स्वप्रकाशक हैं इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है।165। (तात्पर्य यह कि दर्शन, ज्ञान व आत्मा ये तीनों कोई पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ तो हैं नहीं जो कि एक का धर्म दूसरे से सर्वथा अस्पृष्ट रहे। तीनों एक पदार्थस्वरूप होने के कारण एक रस हैं। अत: ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय की अथवा दर्शन द्रष्टा दृश्य की भेद विवक्षा होने पर तीनों ही परप्रकाशक हैं तथा उन्हीं में अभेद विवक्षा होने पर जो ज्ञान है, वही ज्ञाता है, वही ज्ञेय है, वही दर्शन है, वही द्रष्टा है और वही दृश्य है। अत: ये तीनों ही स्वप्रकाशक हैं।) (अथवा–जब दर्शन के द्वारा आत्मा का ग्रहण होता है, तब स्वत: ज्ञान का तथा उसमें प्रतिबिम्बित पर पदार्थों का भी ग्रहण कैसे न होगा, होगा ही।) (देखें आगे शीर्षक नं - 07); (केवलज्ञान/6/9) (देखें अगले दोनों उद्धरण भी ) ध.6/1,9-1,16/34/4 तस्मादात्मा स्वपरावभासक इति निश्चेतव्यम् । तत्र स्वावभास: केवलदर्शनम्, परावभास: केवलज्ञानम् । तथा सति कथं केवलज्ञानदर्शनयो: साम्यमिति इति चेन्न, ज्ञेयप्रमाणज्ञानात्मकात्मानुभवस्य ज्ञानप्रमाणत्वाविरोधात् । =इसलिए (उपरोक्त व्याख्या के अनुसार) आत्मा ही (वास्तव में) स्व-पर अवभासक है, ऐसा निश्चय करना चाहिए। उसमें स्वप्रतिभास को केवल दर्शन कहते हैं और पर प्रतिभास को केवलज्ञान कहते हैं। (क.पा.1/1-20/326/358/2); (ध.7/2,1,56/99/10) प्रश्न–उक्त प्रकार की व्यवस्था मानने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन में समानता कैसे रह सकेगी ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, ज्ञेयप्रमाण ज्ञानात्मक आत्मानुभव के ज्ञान को प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है। (ध.1/1,1,135/385/7)
द्र.सं./टी./44/189/11 अत्राह शिष्य:–यद्यात्मग्राहकं दर्शनं, परग्राहकं ज्ञानं भण्यते, तर्हि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति। अत्र परिहार:। नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं प्राप्नोति। जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति। कस्मादिति चेत् – यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहक:, पचतीति पाचको, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। तथैवाभेदेनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते। =प्रश्न–यदि अपने को ग्रहण करने वाला दर्शन और पर पदार्थ को ग्रहण करने वाला ज्ञान है, तो नैयायिकों के मत में जैसे ज्ञान अपने को नहीं जानता है, वैसे ही जैनमत में भी ‘ज्ञान आत्मा को नहीं जानता है’ ऐसा दूषण आता है ? उत्तर–नैयायिकमत में ज्ञान और दर्शन दो अलग-अलग गुण नहीं माने गये हैं, इसलिए उनके यहां तो उपरोक्त दूषण प्राप्त हो सकता है; परन्तु जैनसिद्धान्त में ‘आत्मा’ ज्ञान गुण से तो परपदार्थ को जानता है, और दर्शन गुण से आत्मा को जानता है, इस कारण यहां वह दूषण प्राप्त नहीं होता। प्रश्न–यह दूषण क्यों नहीं होता ? उत्तर–जैसे कि एक ही अग्नि दहनगुण से जलाता होने से दाहक कहलाता है, और पाचन गुण से पकाता होने से पाचक कहलाता है। इस प्रकार विषय भेद से वह एक भी दाहक व पाचक रूप दो प्रकार का है। उसी प्रकार अभेदनय से एकही चैतन्य भेदनय की विवक्षा में जब आत्मग्रहण रूप से प्रवृत्त हुआ तब तो उसका नाम दर्शन हुआ; जब परपदार्थ को ग्रहण करने रूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्य का नाम ज्ञान हुआ; इस प्रकार विषयभेद से वह एक भी चैतन्य दो प्रकार का होता है। - दर्शन में भी कथंचित् बाह्य पदार्थों का ग्रहण होता है
द्र.सं./टी./44/191/3 अथ मतं–यदि दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्त्तते तदान्धवत् सर्वजनानामन्धत्वं प्राप्नोतीति। नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्वं परिच्छिनत्तीति। अयं तु विशेष:–दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवतीति। =प्रश्न–यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अन्धे की तरह सब मनुष्यों के अन्धेपने की प्राप्ति होती है ? उत्तर–ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि यद्यपि बाह्य विषय में दर्शन का अभाव है, तो भी आत्मज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जनाता है। उसका विशेष खुलासा इस प्रकार है, कि–जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त जो ज्ञान है, वह भी दर्शन द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है; और जब दर्शन से ज्ञान को ग्रहण किया तो ज्ञान का विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी (स्वत:) ग्रहण कर लिया (या हो गया)। (और भी–देखें दर्शन - 5.8) - दर्शन का विषय ज्ञान की अपेक्षा अधिक है
ध.1/1,1,135/385/8 स्वजीवस्थपर्यायैर्ज्ञानद्दर्शनमधिकमिति चेन्न, इष्टत्वात् । कथं पुनस्तेन तस्य समानत्वम् । न; अन्योन्यात्मकयोस्तदविरोधात् । =प्रश्न–(ज्ञान केवल बाह्य पदार्थों को ही ग्रहण करता है, आत्मा को नहीं; जबकि दर्शन आत्मा को व कथंचित् बाह्य पदार्थों को भी ग्रहण करता है। तो) जीव में रहने वाली स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा ज्ञान से दर्शन अधिक है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, यह बात इष्ट ही है। प्रश्न–ज्ञान के साथ दर्शन की समानता कैसे हो सकती है ? उत्तर–समानता नहीं हो सकती यह बात नहीं है, क्योंकि एक दूसरे की अपेक्षा करने वाले उन दोनों में ( कथंचित् ) समानता मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है। - दर्शन और अवग्रह ज्ञान में अन्तर
रा.वा./1/15/13/61/13 कश्चिदाह–यदुक्तं भवता विषय-विषयिसंनिपाते दर्शनं भवति, तदनन्तरमवग्रह इति; तदयुक्तम्; अवैलक्षण्यात् । ...अत्रोच्यंते–न; वैलक्षण्यात् । कथम् । इह चक्षुषा...किंचिदेतद्वस्तु इत्यालोकनमनाकारं दर्शनमित्युच्यते, बालवत् । यथा जातमात्रस्य बालस्य प्राथमिक उन्मेषोऽसौ अविभावितरूपद्रव्यविशेषालोचनाद्दर्शनं विवक्षितं तथा सर्वेषाम् । ततो द्वित्रादिसमयभाविषून्मेषेषु... ‘रूपमिदम्’ इति विभावितविशेषोऽवग्रह:। यत् प्रथमसमयोन्मेषितस्य बालस्य दर्शनं तद् यदि अवग्रहजातीयत्वात् ज्ञानमिष्टम्; तन्मिथ्याज्ञानं वा स्यात्, सम्यग्ज्ञानं वा। मिथ्याज्ञानत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मकं (वा) स्यात् । तत्र न तावत् संशयविपर्ययात्मकं वाऽचेष्टि; तस्य सम्यग्ज्ञानपूर्वकत्वात् । प्राथमिकत्वाच्च तत्रास्तीति। न वानध्यवसायरूपम्; जात्यन्धबधिरशब्दवत् वस्तुमात्रप्रतिपत्ते:। न सम्यग्ज्ञानम्, अर्थाकारावलम्बनाभावात् । किं च–कारणनानात्वात् कार्यनानात्वसिद्धे:। यथा मृत्तन्तुकारणभेदात् घटपटकार्यभेद: तथा दर्शनज्ञानावरणक्षयोपशमकारणभेदात् तत्कार्यदर्शनज्ञानभेद इति।=प्रश्न–विषय विषयी के सन्निपात होने पर प्रथम क्षण में दर्शन होता है और तदनन्तर अवग्रह, आपने जो ऐसा कहा है, सो युक्त नहीं है, क्योंकि दोनों के लक्षणों में कोई भेद नहीं है ? उत्तर–1. नहीं, क्योंकि दोनों के लक्षण भिन्न हैं। वह इस प्रकार कि–चक्षु इन्द्रिय से ‘यह कुछ है’ इतना मात्र आलोकन दर्शन कहा गया है। इसके बाद दूसरे आदि समयों में ‘यह रूप है’ ‘यह पुरुष है’ इत्यादि रूप से विशेषांश का निश्चय अवग्रह कहलाता है। जैसे कि जातमात्र बालक का ज्ञान जातमात्र बालक के प्रथम समय में होने वाले सामान्यालोचन को यदि अवग्रह जातीय ज्ञान कहा जाये तो प्रश्न होता है कि कौन-सा ज्ञान है–मिथ्याज्ञान या सम्यग्ज्ञान ? मिथ्याज्ञान है तो संशयरूप है या विपर्ययरूप या अनध्यवसाय रूप ? तहां वह संशय और विपर्यय तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान पूर्वक होते हैं। अर्थात् जिसने पहले कभी स्थाणु, पुरुष आदि का निश्चय किया है उसे ही वर्तमान में देखे गये पदार्थ में संशय या विपर्यय हो सकता है। परन्तु प्राथमिक होने के कारण उस प्रकार का सम्यग्ज्ञान यहां होना सम्भव नहीं है। यह ज्ञान अनध्यवसायरूप भी नहीं है; क्योंकि जन्मान्ध और जन्मवधिर की तरह रूपमात्र व शब्दमात्र का तो स्पष्ट बोध हो ही रहा है। इसे सम्यग्ज्ञान भी नहीं कह सकते, क्योंकि उसे किसी भी अर्थ विशेष के आकार का निश्चय नहीं हुआ है। (ध.9/4,1,45/145/6)। 2. जिस प्रकार मिट्टी और तन्तु ऐसे विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण घट व पट भिन्न हैं, उसी प्रकार दर्शनावरण और ज्ञानावरण के क्षयोपशमरूप विभिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दर्शन व ज्ञान में भेद है। (और भी देखें दर्शन - 5.5)। - दर्शन व संग्रहनय में अन्तर
श्लो.वा.3/1/15/15/445/25 न हि सन्मात्रग्राही संग्रहो नयो दर्शनं स्यादित्यतिव्याप्ति: शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपत्ते: श्रुतभेदा नया इति वचनात् । =सम्पूर्ण वस्तुओं की संग्रहीत केवल सत्ता को ग्रहण करने वाला संग्रहनय दर्शनोपयोग हो जायेगा, ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह संग्रहनय तो श्रुतज्ञान का भेद है। अविशद प्रतिभासवाला होने से उसे नयपना बन रहा है। और ग्रन्थों में श्रुतज्ञान के भेद को नयज्ञान कहा गया है।
- दर्शन के लक्षण में देखने का अर्थ ज्ञान नहीं है