निंदा: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> निन्दा व निन्दन का लक्षण</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/25/339/12 <span class="SanskritText">तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा निन्दा।</span>=<span class="HindiText">सच्चे या झूठे दोषों को प्रगट करने की इच्छा निन्दा है। (रा.वा./6/25/1/530/28)।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./306/388/12 <span class="SanskritText">आत्मसाक्षिदोषप्रकटनं निन्दा।</span> =<span class="HindiText">आत्मसाक्षी पूर्वक अर्थात् स्वयं अपने किये दोषों को प्रगट करना या उन सम्बन्धी पश्चात्ताप करना निन्दा कहलाती है। (का.अ./टी./48/22/15)।</span><br /> | ||
न्या.द./भाष्य/2/1/64/101/ <span class="SanskritText">अनिष्टफलवादो निन्दा।</span> =<span class="HindiText">अनिष्ट फल के कहने को निन्दा कहते हैं।</span><br /> | |||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./473<span class="SanskritGatha"> निन्दनं तत्र दुर्वाररागादौ दुष्टकर्मणि। पश्चात्तापकरो बन्धो ना [नो] पेक्ष्यो नाप्यु (प्य) पेक्षित:।473।</span> =<span class="HindiText">दुर्वार रागादिरूप दुष्ट कर्मों का पश्चात्ताप कारक बन्ध अनिष्ट होकर भी उपेक्षित नहीं होता। अर्थात् अपने दोषों का पश्चात्ताप करना निन्दन है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> पर निन्दा व आत्म प्रशंसा का निषेध</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./मू./गा.नं. <span class="PrakritGatha"> | भ.आ./मू./गा.नं. <span class="PrakritGatha">अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।359। ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स। धन्ति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव।362। सगणे व परगणे वा परपरिवादं च मा करेज्जाह। अच्चासादणविरदा होह सदा वज्जभीरू य।369। दटठूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजंपणभएण।372।</span>=<span class="HindiText">हे मुनि ! तुम सदा के लिए अपनी प्रशंसा करना छोड़ दो; क्योंकि, अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से तुम्हारा यश नष्ट हो जायेगा। जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है वह जगत् में तृण के समान हलका होता है।359। अपनी स्तुति आप करने से पुरुष के जो गुण नहीं हैं वे उत्पन्न नहीं हो सकते। जैसे कि कोई नपुंसक स्त्रीवत् हावभाव दिखाने पर भी स्त्री नहीं हो जाता नपुंसक ही रहता है।362। हे मुनि ! अपने गण में या परगण में तुम्हें अन्य मुनियों की निन्दा करना कदापि योग्य नहीं है। पर की विराधना से विरक्त होकर सदा पापों से विरक्त होना चाहिए।369। सत्पुरुष दूसरों का दोष देखकर उसको प्रगट नहीं करते हैं, प्रत्युत लोकनिन्दा के भय से उनके दोषों को अपने दोषों के समान छिपाते हैं। दूसरों का दोष देखकर वे स्वयं लज्जित हो जाते हैं।372।</span><br /> | ||
र.सा./ | र.सा./114 <span class="PrakritGatha">ण सहंति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमाहप्पं। जिब्भणिमित्त कुणंति ते साहू सम्मउम्मुक्का।114।</span> =<span class="HindiText">जो साधु दूसरे के बड़प्पन को सहन नहीं कर सकता और स्वादिष्ट भोजन मिलने के निमित्त अपनी महिमा को स्वयं बखान करता है, उसे सम्यक्त्व रहित जानो।</span><br /> | ||
कुरल | कुरल काव्य/19/2 <span class="SanskritGatha">शुभादशुभसंसक्तो नूनं निन्द्यस्ततोऽधिक:। पुर: प्रियंवद: किंतु पृष्ठे निन्दापरायण:।2।</span> =<span class="HindiText">सत्कर्म से विमुख हो जाना और कुकर्म करना निस्सन्देह बुरा है। परन्तु किसी के मुख पर तो हंसकर बोलना और पीठ-पीछे उसकी निन्दा करना उससे भी बुरा है।</span><br /> | ||
त.सु./ | त.सु./6/25 <span class="SanskritText">परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।25।</span> =<span class="HindiText">परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन या ढंकना और असद्गुणों का प्रगट करना ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/22/337/4<span class="SanskritText"> एतदुभयमशुभनामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यं। च शब्देन...परनिन्दात्मप्रशंसादि: समुच्चीयते।</span> =<span class="HindiText">ये दोनों (योगवक्रता और विसंवाद) अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण जानने चाहिए। सूत्र में आये हुए ‘च’ पद से दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करने आदि का समुच्चय होता है। अर्थात् इनसे भी अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है। (रा.वा./6/22/4/528/21)।</span><br /> | ||
आ.अनु./ | आ.अनु./249 <span class="SanskritText">स्वान् दोषान् हन्तुमुद्युक्तस्तपोभिरतिदुर्धरै:। तानेव पोषयत्यज्ञ: परदोषकथाशनै:।249। </span>=<span class="HindiText">जो साधु अतिशय दुष्कर तपों के द्वारा अपने निज दोषों को नष्ट करने में उद्यत है, वह अज्ञानतावश दूसरों के दोषों के कथनरूप भोजनों के द्वारा उन्हीं दोषों को पुष्ट करता है।<br /> | ||
देखें [[ कषाय#1.7 | कषाय - 1.7 ]](परनिन्दा व आत्मप्रशंसा करना तीव्र कषायी के चिह्न हैं।)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> स्वनिन्दा और परप्रशंसा की इष्टता</strong> </span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./6/26 <span class="SanskritText">तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।26।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/26/340/7 क: <span class="SanskritText">पुनरसौ विपर्यय:। आत्मनिन्दा परप्रशंसा सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च। </span>=<span class="HindiText">उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा आत्मनिन्दा सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्चगोत्र के आस्रव हैं। (रा.वा./6/26/531/17)।</span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./112 <span class="PrakritGatha">अप्पाणं जो णिंदइ गुणवंताणं करेइ बहुमाणं। मण इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ।112।</span> =<span class="HindiText">जो मुनि अपने स्वरूप में तत्पर होकर मन और इन्द्रियों को वश में करता है, अपनी निन्दा करता है और सम्यक्त्व व्रतादि गुणवन्तों की प्रशंसा करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।</span><br /> | ||
भा.पा./टी./ | भा.पा./टी./69/213 पर उद्धृत–<span class="SanskritGatha">मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य। यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रतं चरति। </span>=<span class="HindiText">जो परहित में निरत है और पर के दोष कहने में जिसकी जिह्वा मौन व्रत का आचरण करती है, उस पुरुष सिंह के पाप नहीं होता।<br /> | ||
देखें | देखें [[ उपगूहन ]](अन्य के दोषों को ढांकना सम्यग्दर्शन का अंग है।)<br /> | ||
<strong>* | <strong>* सम्यग्दृष्टि सदा अपनी निन्दा गर्हा करता है–देखें [[ सम्यग्दृष्टि#5 | सम्यग्दृष्टि - 5]]।</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> अन्य मतावलम्बियों का घृणास्पद अपमान</strong> </span><br /> | ||
द.पा./मू./ | द.पा./मू./12 <span class="PrakritGatha">जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोहि पुण दुल्लहा तेसिं।12।</span>=<span class="HindiText">स्वयं दर्शन भ्रष्ट होकर भी जो अन्य दर्शनधारियों को अपने पांव में पड़ाते हैं अर्थात् उनसे नमस्कारादि कराते हैं, ते परभवविषै लूले व गूंगे होते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त होते हैं। तिनको रत्नत्रयरूप बोधि दुर्लभ है।</span><br /> | ||
मो.पा./मू./ | मो.पा./मू./79 <span class="PrakritGatha">जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाही य जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।79। </span>=<span class="HindiText">जो अंडज, रोमज आदि पांच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं, अर्थात् उनमें से किसी प्रकार का वस्त्र ग्रहण करते हैं और परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं (अर्थात् श्वेताम्बर साधु), जो याचनाशील हैं, और अध: कर्मयुक्त आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।</span><br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./7<span class="SanskritGatha"> त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते।7।</span>=<span class="HindiText">आपके अनेकान्तमत रूप अमृत से बाह्य सर्वथा एकान्तवादी तथा आप्तपने के अभिमान से दग्ध हुए (सांख्यादि मत) अन्य मतावलम्बियों के द्वारा मान्य तत्त्व प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित हैं।</span><br /> | ||
द.पा./टी./ | द.पा./टी./2/3/12<span class="SanskritText"> मिथ्यादृष्टय: किल वदन्ति व्रतै: किं प्रयोजनं, ...मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरं, ...शासनदेवता न पूजनीया...इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्वते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते। ...यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भि: गूथलिप्ताभिर्मुखे ताडनीया:...तत्र पापं नास्ति।</span><br /> | ||
भा.पा./टी./ | भा.पा./टी./141/287/3<span class="SanskritText"> लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजनप्रतिबन्धकत्वात् तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणं महापापमुत्पद्यते।</span><br /> | ||
मो.पा./टी./ | मो.पा./टी./2/305/12 <span class="SanskritText">ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या:। ...ते लौंका:, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्त्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविध्नहेतुत्वात् ।</span>= | ||
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<li> <span class="HindiText"> | <li> <span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि (श्वेताम्बर व स्थानकवासी) ऐसा कहते हैं कि–व्रतों से क्या प्रयोजन आत्मा ही साध्य है। मयूरपिच्छी रखना ठीक नहीं, सूत की पिच्छी ही ठीक है, शासनदेवता पूजनीय नहीं है, आत्मा ही देव है। इत्यादि सूत्रविरुद्ध कहते हैं। वे मिथ्यादृष्टि तथा चार्वाक मतावलम्बी नास्तिक हैं। यदि समझाने पर भी वे अपने कदाग्रह को न छोड़ें तो समर्थ जो आस्तिक जन हैं वे विष्ठा से लिप्त जूता उनके मुख पर देकर मारें। इसमें उनको कोई भी पाप का दोष नहीं है। </span></li> | ||
<li class="HindiText"> लौंका अर्थात् | <li class="HindiText"> लौंका अर्थात् स्थानकवासी पापिष्ठ मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक व पूजन का निषेध करते हैं। उनके साथ सम्भाषण करना योग्य नहीं है। क्योंकि उनके साथ संभाषण करने से महापाप उत्पन्न होता है। </li> | ||
<li class="HindiText"> जो | <li class="HindiText"> जो गृहस्थ अर्थात् गृहस्थवत् वस्त्रादि धारी होते हुए भी किंचित् मात्र आत्मभावना को प्राप्त करके ‘हम ध्यानी हैं’ ऐसा कहते हैं, उन्हें जिनधर्मविराधक मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। वे स्थानकवासी या ढूंढियापंथी हैं। सवेरे-सवेरे उनका नाम लेना तथा उनका मुंह देखना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इष्ट वस्तु भोजन आदि की भी प्राप्ति में विघ्न पड़ जाता है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अन्यमत मान्य देवी देवताओं की निन्दा</strong> </span><br /> | ||
अ.ग.श्रा./ | अ.ग.श्रा./4/69-76 <span class="SanskritGatha">हिंसादिवादकत्वेन न वेदो धर्मकाङ्क्षिभि:। वृकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधै:।69। न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा:। रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादियोगत:।71। आश्लिष्टास्ते ऽखिलैर्दोषै: कामकोपभयादिभि:। आयुधप्रमदाभूषाकमण्डलल्वादियोगत:।73। </span>=<span class="HindiText">धर्म के वांछक पण्डितों को, खारपट के उपदेश के समान, हिंसादि का उपदेश देने वाले वेद को प्रमाण नहीं करना चाहिए।69। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर न विरागी हैं और न सर्वज्ञ, क्योंकि वे राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि सहित हैं।71। ब्रह्मदि देव काम क्रोध भय इत्यादि समस्त दोषों से युक्त हैं, क्योंकि उनके पास आयुध स्त्री आभूषण कमण्डलु इत्यादि पाये जाते हैं।73।<br /> | ||
देखें [[ विनय#4 | विनय - 4 ]](कुदेव, कुगुरु, कुशस्त्र की पूजा भक्ति आदि का निषेध।) <br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="6" id="6"> | <li class="HindiText"><strong name="6" id="6"> मिथ्यादृष्टियों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग</strong></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="655"> | <table border="1" cellspacing="0" cellpadding="0" width="655"> | ||
Line 47: | Line 47: | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"><strong>नं.</strong> </p></td> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText"><strong>नं.</strong> </p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText"><strong>प्रमाण </strong> </p></td> | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText"><strong>प्रमाण </strong> </p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"><strong> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText"><strong>व्यक्ति </strong> </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText"><strong>उपाधि </strong> </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText"><strong>उपाधि </strong> </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">1</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">मू.आ./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">मू.आ./951</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText">एकल विहारी साधु </p></td> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">एकल विहारी साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप श्रमण </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप श्रमण </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">2</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">र.सा./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">र.सा./108</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">स्वच्छन्द साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">राज्य सेवक </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">3</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">चा.पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">चा.पा./मू./10</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">सम्यक्त्वचरण से भ्रष्टसाधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">ज्ञानमूढ </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">ज्ञानमूढ </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">4</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">भा.पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">भा.पा./मू./71</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">मिथ्यादृष्टि नग्न साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">इक्षु | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">इक्षु पुष्पसम नट श्रमण </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">5</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">भा.पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">भा.पा./मू./74</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText">भावविहीन साधु </p></td> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">भावविहीन साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप व तिर्यगालय भाजन </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप व तिर्यगालय भाजन </p></td> | ||
Line 82: | Line 82: | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p> </p></td> | <td width="43" valign="top"><p> </p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">भा.पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">भा.पा./मू./143</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">मिथ्यादृष्टि साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">चल शव </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">चल शव </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">6</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">मो.पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">मो.पा./मू./79</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">श्वेताम्बर साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">मोक्षमार्ग | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">मोक्षमार्ग भ्रष्ट </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">7</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">मो.पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">मो.पा./मू./100</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">मिथ्यादृष्टि का ज्ञान व चारित्र </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">बाल श्रुत बाल चरण </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">बाल श्रुत बाल चरण </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">8</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">लिंग पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">लिंग पा./मू./3,4</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">द्रव्य लिंगी नग्न साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पापमोहितमति नारद, तिर्यंच </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पापमोहितमति नारद, तिर्यंच </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">9</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">लिंग.पा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">लिंग.पा./मू./4-18</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">द्रव्यलिंगी नग्न साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">तिर्यग्योनि </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">तिर्यग्योनि </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">10</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">प्र.सा./मू./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">प्र.सा./मू./269</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">मन्त्रोपजीवि नग्न साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">लौकिक </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">लौकिक </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">11</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText"> देखें | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">देखें [[ भव्य#2 | भव्य - 2]]</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">मिथ्यादृष्टि सामान्य </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">अभव्य </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">12</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText"> देखें | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">देखें [[ मिथ्यादृष्टि#5 | मिथ्यादृष्टि - 5]]</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText">बाह्य | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">बाह्य क्रियावलम्बी साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप जीव </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">पाप जीव </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">13</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">स.सा./आ./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">स.सा./आ./321 </p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">आत्मा को कर्मों आदि का कर्त्ता मानने वाले </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">लौकिक </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">लौकिक </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">14</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">स.सा./आ./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">स.सा./आ./85</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">आत्मा को कर्मों आदि का कर्त्ता मानने वाले </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">सर्वज्ञ मत से बाहर </p></td> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">सर्वज्ञ मत से बाहर </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">15</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">नि.सा./ता.वृ./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">नि.सा./ता.वृ./143/क.244</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">अन्यवश साधु </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">राजवल्लभ नौकर </p></td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr> | <tr> | ||
<td width="43" valign="top"><p class="HindiText"> | <td width="43" valign="top"><p class="HindiText">16</p></td> | ||
<td width="168" valign="top"><p class="HindiText">यो.सा./ | <td width="168" valign="top"><p class="HindiText">यो.सा./8/18-19</p></td> | ||
<td width="204" valign="top"><p class="HindiText">लोक दिखावे को धर्म करने वाले </p></td> | <td width="204" valign="top"><p class="HindiText">लोक दिखावे को धर्म करने वाले </p></td> | ||
<td width="240" valign="top"><p class="HindiText">मूढ़, लोभी, क्रूर, डरपोक, मूर्ख, | <td width="240" valign="top"><p class="HindiText">मूढ़, लोभी, क्रूर, डरपोक, मूर्ख, भवाभिनन्दी </p></td> | ||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
- निन्दा व निन्दन का लक्षण
स.सि./6/25/339/12 तथ्यस्य वातथ्यस्य वा दोषस्योद्भावनं प्रति इच्छा निन्दा।=सच्चे या झूठे दोषों को प्रगट करने की इच्छा निन्दा है। (रा.वा./6/25/1/530/28)।
स.सा./ता.वृ./306/388/12 आत्मसाक्षिदोषप्रकटनं निन्दा। =आत्मसाक्षी पूर्वक अर्थात् स्वयं अपने किये दोषों को प्रगट करना या उन सम्बन्धी पश्चात्ताप करना निन्दा कहलाती है। (का.अ./टी./48/22/15)।
न्या.द./भाष्य/2/1/64/101/ अनिष्टफलवादो निन्दा। =अनिष्ट फल के कहने को निन्दा कहते हैं।
पं.ध./उ./473 निन्दनं तत्र दुर्वाररागादौ दुष्टकर्मणि। पश्चात्तापकरो बन्धो ना [नो] पेक्ष्यो नाप्यु (प्य) पेक्षित:।473। =दुर्वार रागादिरूप दुष्ट कर्मों का पश्चात्ताप कारक बन्ध अनिष्ट होकर भी उपेक्षित नहीं होता। अर्थात् अपने दोषों का पश्चात्ताप करना निन्दन है।
- पर निन्दा व आत्म प्रशंसा का निषेध
भ.आ./मू./गा.नं. अप्पपसंसं परिहरह सदा मा होह जसविणासयरा। अप्पाणं थोवंतो तणलहुहो होदि हु जणम्मि।359। ण य जायंति असंता गुणा विकत्थंतयस्स पुरिसस्स। धन्ति हु महिलायंतो व पंडवो पंडवो चेव।362। सगणे व परगणे वा परपरिवादं च मा करेज्जाह। अच्चासादणविरदा होह सदा वज्जभीरू य।369। दटठूण अण्णदोसं सप्पुरिसो लज्जिओ सयं होइ। रक्खइ य सयं दोसं व तयं जणजंपणभएण।372।=हे मुनि ! तुम सदा के लिए अपनी प्रशंसा करना छोड़ दो; क्योंकि, अपने मुख से अपनी प्रशंसा करने से तुम्हारा यश नष्ट हो जायेगा। जो मनुष्य अपनी प्रशंसा आप करता है वह जगत् में तृण के समान हलका होता है।359। अपनी स्तुति आप करने से पुरुष के जो गुण नहीं हैं वे उत्पन्न नहीं हो सकते। जैसे कि कोई नपुंसक स्त्रीवत् हावभाव दिखाने पर भी स्त्री नहीं हो जाता नपुंसक ही रहता है।362। हे मुनि ! अपने गण में या परगण में तुम्हें अन्य मुनियों की निन्दा करना कदापि योग्य नहीं है। पर की विराधना से विरक्त होकर सदा पापों से विरक्त होना चाहिए।369। सत्पुरुष दूसरों का दोष देखकर उसको प्रगट नहीं करते हैं, प्रत्युत लोकनिन्दा के भय से उनके दोषों को अपने दोषों के समान छिपाते हैं। दूसरों का दोष देखकर वे स्वयं लज्जित हो जाते हैं।372।
र.सा./114 ण सहंति इयरदप्पं थुवंति अप्पाण अप्पमाहप्पं। जिब्भणिमित्त कुणंति ते साहू सम्मउम्मुक्का।114। =जो साधु दूसरे के बड़प्पन को सहन नहीं कर सकता और स्वादिष्ट भोजन मिलने के निमित्त अपनी महिमा को स्वयं बखान करता है, उसे सम्यक्त्व रहित जानो।
कुरल काव्य/19/2 शुभादशुभसंसक्तो नूनं निन्द्यस्ततोऽधिक:। पुर: प्रियंवद: किंतु पृष्ठे निन्दापरायण:।2। =सत्कर्म से विमुख हो जाना और कुकर्म करना निस्सन्देह बुरा है। परन्तु किसी के मुख पर तो हंसकर बोलना और पीठ-पीछे उसकी निन्दा करना उससे भी बुरा है।
त.सु./6/25 परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।25। =परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का आच्छादन या ढंकना और असद्गुणों का प्रगट करना ये नीच गोत्र के आस्रव हैं।
स.सि./6/22/337/4 एतदुभयमशुभनामकर्मास्रवकारणं वेदितव्यं। च शब्देन...परनिन्दात्मप्रशंसादि: समुच्चीयते। =ये दोनों (योगवक्रता और विसंवाद) अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारण जानने चाहिए। सूत्र में आये हुए ‘च’ पद से दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करने आदि का समुच्चय होता है। अर्थात् इनसे भी अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है। (रा.वा./6/22/4/528/21)।
आ.अनु./249 स्वान् दोषान् हन्तुमुद्युक्तस्तपोभिरतिदुर्धरै:। तानेव पोषयत्यज्ञ: परदोषकथाशनै:।249। =जो साधु अतिशय दुष्कर तपों के द्वारा अपने निज दोषों को नष्ट करने में उद्यत है, वह अज्ञानतावश दूसरों के दोषों के कथनरूप भोजनों के द्वारा उन्हीं दोषों को पुष्ट करता है।
देखें कषाय - 1.7 (परनिन्दा व आत्मप्रशंसा करना तीव्र कषायी के चिह्न हैं।)
- स्वनिन्दा और परप्रशंसा की इष्टता
त.सू./6/26 तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य।26।
स.सि./6/26/340/7 क: पुनरसौ विपर्यय:। आत्मनिन्दा परप्रशंसा सद्गुणोद्भावनमसद्गुणोच्छादनं च। =उनका विपर्यय अर्थात् परप्रशंसा आत्मनिन्दा सद्गुणों का उद्भावन और असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक ये उच्चगोत्र के आस्रव हैं। (रा.वा./6/26/531/17)।
का.अ./मू./112 अप्पाणं जो णिंदइ गुणवंताणं करेइ बहुमाणं। मण इंदियाण विजई स सरूवपरायणो होउ।112। =जो मुनि अपने स्वरूप में तत्पर होकर मन और इन्द्रियों को वश में करता है, अपनी निन्दा करता है और सम्यक्त्व व्रतादि गुणवन्तों की प्रशंसा करता है, उसके बहुत निर्जरा होती है।
भा.पा./टी./69/213 पर उद्धृत–मा भवतु तस्य पापं परहितनिरतस्य पुरुषसिंहस्य। यस्य परदोषकथने जिह्वा मौनव्रतं चरति। =जो परहित में निरत है और पर के दोष कहने में जिसकी जिह्वा मौन व्रत का आचरण करती है, उस पुरुष सिंह के पाप नहीं होता।
देखें उपगूहन (अन्य के दोषों को ढांकना सम्यग्दर्शन का अंग है।)
* सम्यग्दृष्टि सदा अपनी निन्दा गर्हा करता है–देखें सम्यग्दृष्टि - 5।
- अन्य मतावलम्बियों का घृणास्पद अपमान
द.पा./मू./12 जे दंसणेसु भट्टा पाए पाडंति दंसणधराणं। ते होंति लल्लमूआ बोहि पुण दुल्लहा तेसिं।12।=स्वयं दर्शन भ्रष्ट होकर भी जो अन्य दर्शनधारियों को अपने पांव में पड़ाते हैं अर्थात् उनसे नमस्कारादि कराते हैं, ते परभवविषै लूले व गूंगे होते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त होते हैं। तिनको रत्नत्रयरूप बोधि दुर्लभ है।
मो.पा./मू./79 जे पंचचेलसत्ता ग्रंथग्गाही य जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।79। =जो अंडज, रोमज आदि पांच प्रकार के वस्त्रों में आसक्त हैं, अर्थात् उनमें से किसी प्रकार का वस्त्र ग्रहण करते हैं और परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं (अर्थात् श्वेताम्बर साधु), जो याचनाशील हैं, और अध: कर्मयुक्त आहार करते हैं वे मोक्षमार्ग से च्युत हैं।
आप्त.मी./7 त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते।7।=आपके अनेकान्तमत रूप अमृत से बाह्य सर्वथा एकान्तवादी तथा आप्तपने के अभिमान से दग्ध हुए (सांख्यादि मत) अन्य मतावलम्बियों के द्वारा मान्य तत्त्व प्रत्यक्षप्रमाण से बाधित हैं।
द.पा./टी./2/3/12 मिथ्यादृष्टय: किल वदन्ति व्रतै: किं प्रयोजनं, ...मयूरपिच्छं किल रुचिरं न भवति, सूत्रपिच्छं रुचिरं, ...शासनदेवता न पूजनीया...इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्वते मिथ्यादृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते। ...यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समर्थैरास्तिकैरुपानद्भि: गूथलिप्ताभिर्मुखे ताडनीया:...तत्र पापं नास्ति।
भा.पा./टी./141/287/3 लौंकास्तु पापिष्ठा मिथ्यादृष्टयो जिनस्नपनपूजनप्रतिबन्धकत्वात् तेषां संभाषणं न कर्तव्यं तत्संभाषणं महापापमुत्पद्यते।
मो.पा./टी./2/305/12 ये गृहस्था अपि सन्तो मनागात्मभावनामासाद्य वयं ध्यानिन इति ब्रुवते ते जिनधर्मविराधका मिथ्यादृष्टयो ज्ञातव्या:। ...ते लौंका:, तन्नामग्रहणं तन्मुखदर्शनं प्रभातकाले न कर्त्तव्यं इष्टवस्तुभोजनादिविध्नहेतुत्वात् ।=- मिथ्यादृष्टि (श्वेताम्बर व स्थानकवासी) ऐसा कहते हैं कि–व्रतों से क्या प्रयोजन आत्मा ही साध्य है। मयूरपिच्छी रखना ठीक नहीं, सूत की पिच्छी ही ठीक है, शासनदेवता पूजनीय नहीं है, आत्मा ही देव है। इत्यादि सूत्रविरुद्ध कहते हैं। वे मिथ्यादृष्टि तथा चार्वाक मतावलम्बी नास्तिक हैं। यदि समझाने पर भी वे अपने कदाग्रह को न छोड़ें तो समर्थ जो आस्तिक जन हैं वे विष्ठा से लिप्त जूता उनके मुख पर देकर मारें। इसमें उनको कोई भी पाप का दोष नहीं है।
- लौंका अर्थात् स्थानकवासी पापिष्ठ मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक व पूजन का निषेध करते हैं। उनके साथ सम्भाषण करना योग्य नहीं है। क्योंकि उनके साथ संभाषण करने से महापाप उत्पन्न होता है।
- जो गृहस्थ अर्थात् गृहस्थवत् वस्त्रादि धारी होते हुए भी किंचित् मात्र आत्मभावना को प्राप्त करके ‘हम ध्यानी हैं’ ऐसा कहते हैं, उन्हें जिनधर्मविराधक मिथ्यादृष्टि जानना चाहिए। वे स्थानकवासी या ढूंढियापंथी हैं। सवेरे-सवेरे उनका नाम लेना तथा उनका मुंह देखना नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से इष्ट वस्तु भोजन आदि की भी प्राप्ति में विघ्न पड़ जाता है।
- अन्यमत मान्य देवी देवताओं की निन्दा
अ.ग.श्रा./4/69-76 हिंसादिवादकत्वेन न वेदो धर्मकाङ्क्षिभि:। वृकोपदेशवन्नूनं प्रमाणीक्रियते बुधै:।69। न विरागा न सर्वज्ञा ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा:। रागद्वेषमदक्रोधलोभमोहादियोगत:।71। आश्लिष्टास्ते ऽखिलैर्दोषै: कामकोपभयादिभि:। आयुधप्रमदाभूषाकमण्डलल्वादियोगत:।73। =धर्म के वांछक पण्डितों को, खारपट के उपदेश के समान, हिंसादि का उपदेश देने वाले वेद को प्रमाण नहीं करना चाहिए।69। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर न विरागी हैं और न सर्वज्ञ, क्योंकि वे राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि सहित हैं।71। ब्रह्मदि देव काम क्रोध भय इत्यादि समस्त दोषों से युक्त हैं, क्योंकि उनके पास आयुध स्त्री आभूषण कमण्डलु इत्यादि पाये जाते हैं।73।
देखें विनय - 4 (कुदेव, कुगुरु, कुशस्त्र की पूजा भक्ति आदि का निषेध।)
- मिथ्यादृष्टियों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग
नं. |
प्रमाण |
व्यक्ति |
उपाधि |
1 |
मू.आ./951 |
एकल विहारी साधु |
पाप श्रमण |
2 |
र.सा./108 |
स्वच्छन्द साधु |
राज्य सेवक |
3 |
चा.पा./मू./10 |
सम्यक्त्वचरण से भ्रष्टसाधु |
ज्ञानमूढ |
4 |
भा.पा./मू./71 |
मिथ्यादृष्टि नग्न साधु |
इक्षु पुष्पसम नट श्रमण |
5 |
भा.पा./मू./74 |
भावविहीन साधु |
पाप व तिर्यगालय भाजन |
|
भा.पा./मू./143 |
मिथ्यादृष्टि साधु |
चल शव |
6 |
मो.पा./मू./79 |
श्वेताम्बर साधु |
मोक्षमार्ग भ्रष्ट |
7 |
मो.पा./मू./100 |
मिथ्यादृष्टि का ज्ञान व चारित्र |
बाल श्रुत बाल चरण |
8 |
लिंग पा./मू./3,4 |
द्रव्य लिंगी नग्न साधु |
पापमोहितमति नारद, तिर्यंच |
9 |
लिंग.पा./मू./4-18 |
द्रव्यलिंगी नग्न साधु |
तिर्यग्योनि |
10 |
प्र.सा./मू./269 |
मन्त्रोपजीवि नग्न साधु |
लौकिक |
11 |
देखें भव्य - 2 |
मिथ्यादृष्टि सामान्य |
अभव्य |
12 |
देखें मिथ्यादृष्टि - 5 |
बाह्य क्रियावलम्बी साधु |
पाप जीव |
13 |
स.सा./आ./321 |
आत्मा को कर्मों आदि का कर्त्ता मानने वाले |
लौकिक |
14 |
स.सा./आ./85 |
आत्मा को कर्मों आदि का कर्त्ता मानने वाले |
सर्वज्ञ मत से बाहर |
15 |
नि.सा./ता.वृ./143/क.244 |
अन्यवश साधु |
राजवल्लभ नौकर |
16 |
यो.सा./8/18-19 |
लोक दिखावे को धर्म करने वाले |
मूढ़, लोभी, क्रूर, डरपोक, मूर्ख, भवाभिनन्दी |