नैगमनय के भेद: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="III.2.1" id="III.2.1"> नैगमनय | <li><span class="HindiText" name="III.2.1" id="III.2.1"> नैगमनय सामान्य के लक्षण<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.2.1.1" id="III.2.1.1">निगम अर्थात् | <li> <span class="HindiText" name="III.2.1.1" id="III.2.1.1">निगम अर्थात् संकल्पग्राही</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/141/2<span class="SanskritText"> अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:।</span>=<span class="HindiText">अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। (रा.वा./1/33/2/95/13); (श्लो.वा./4/1/33/श्लो.17/230); (ह.पु./58/43); (त.सा./1/44)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/33/2/95/12<span class="SanskritText"> निर्गच्छन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगम: निगमे कुशलो भवो वा नैगम:।</span>=<span class="HindiText">उसमें अर्थात् आत्मा में जो उत्पन्न हो या अवतारमात्र निगम कहलाता है। उस निगम में जो कुशल हो अर्थात् निगम या संकल्प को जो विषय करे उसे नैगम कहते हैं।</span><br /> | ||
श्लो.वा.4/1/33/श्लो.18/230 <span class="SanskritText">संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजन:।</span>=<span class="HindiText">नैगम शब्द को भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धितका अण् प्रत्यय कर बनाया गया है। निगम का अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है। (आ.प./9); (नि.सा./ता.वृ./19)।</span><br /> | |||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./271 <span class="PrakritGatha">जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समट्ठं च। संपडि कालाविट्ठं सो हु णओ णेगमो णेओ।271।</span>=<span class="HindiText">जो नय अतीत, अनागत और वर्तमान को विकल्परूप से साधता है वह नैगमनय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.1.2" id="III.2.1.2"> ‘नैकं गमो’ अर्थात् द्वैतग्राही</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.1.2" id="III.2.1.2"> ‘नैकं गमो’ अर्थात् द्वैतग्राही</span><br /> | ||
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.21/232 <span class="SanskritText">यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मत:। धर्मयोर्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणो:।</span>=<span class="HindiText">जो एक को विषय नहीं करता उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् जो मुख्य गौणरूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है वह नैगम नय है। (ध.9/4,1,45/181/2); (ध.13/5,5,7/199/1); (स्या.म./28/-311/3,317/2)।</span><br /> | |||
स्या.म./28/315/14 में उद्धृत=<span class="SanskritText">अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नय:।</span>=<span class="HindiText">अभिन्न ज्ञान का कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा नैगमनय मानता है।<br /> | |||
देखें [[ आगे नय#III.3.2 | आगे नय - III.3.2 ]](संग्रह व व्यवहार दोनों को विषय करता है।)<br /> | |||
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<li> <span class="HindiText" name="III.2.1" id="III.2.1"> | <li> <span class="HindiText" name="III.2.1" id="III.2.1">‘संकल्पग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/141/2 <span class="SanskritText">कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति। स आह प्रस्थमानेतुमिति। नासौ तदा प्रस्थपर्याय: संनिहित: तदभिनिवृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार:। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति स आह ओदनं पचामीति। न तदौदनपर्याय:, संनिहित:, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवं प्रकारो लोकसंव्यवहारोऽअंनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचर:।</span>= | ||
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<li><span class="HindiText"> हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई | <li><span class="HindiText"> हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है, ‘आप किस काम के लिए जा रहे हैं।’ वह कहता है कि प्रस्थ लेने के लिए जा रहा हूं। उस समय वह प्रस्थ पर्याय, सन्निहित नहीं है। केवल उसके बनाने का संकल्प होने से उसमें (जिस काठ को लेने जा रहा है उस काठ में) प्रस्थ-व्यवहार किया गया है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> इसी प्रकार ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है, कि ‘आप | <li><span class="HindiText"> इसी प्रकार ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है, कि ‘आप क्या कर रहे हैं। उसने कहा, भात पका रहा हूं। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार का जितना लोकव्यवहार है वह अनिष्पन्न अर्थ के आलम्बन से संकल्पमात्र को विषय करता है, वह सब नैगमनय का विषय है। (रा.वा./1/33/2/95/13); (श्लो.वा./4/1/33/श्लो.18/230)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.3" id="III.2.3"> ‘द्वैतग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.3" id="III.2.3"> ‘द्वैतग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण</span><br /> | ||
ष.खं./ | ष.खं./12/4,2,9/सू.2/295 1. <span class="PrakritText">णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सिया जीवस्स वा।2</span>।=<span class="HindiText">नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् जीव के होती है। (यहां जीव तथा उसका कर्मानुभव दोनों का ग्रहण किया है। वेदना प्रधान है और जीव गौण)।</span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.10/4,2,3/सू.1/13 2. <span class="PrakritText">णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा दंसणावरणीयवेयणा वेयणीवेयणा...। </span>=<span class="HindiText">नैगम व व्यवहारनय से वेदना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय...(आदि आठ भेदरूप है)। (यहां वेदना सामान्य गौण और ज्ञानावरणीय आदि भेद प्रधान–ऐसे दोनों का ग्रहण किया है।)</span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.1/13-14/257/297/1 3‒<span class="PrakritText">जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो तत्तो पुधभूदो संतो कधं कोहो। होंत ऐसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किन्तु णइगमणओ अइवसहाइरिएण जेणाबलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कधं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है? उत्तर‒यदि यहां पर संग्रह आदि नयों का अवलम्बन लिया होता, तो ऐसा होता, अर्थात् संग्रह आदि नयों की अपेक्षा क्रोध से भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते हैं। किन्तु यतिवृषभाचार्य ने चूंकि यहां नैगमनय का अवलम्बन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न‒दोष कैसे नहीं है ? उत्तर‒क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है। (और भी दे0‒उपचार/5/3)</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/171/5 4.<span class="SanskritText"> परस्परविभिन्नोभयविषयालम्बनो नैगमनय:; शब्द–शील-कर्म-कार्य-कारणाधाराधेय-भूत-भावि-भविष्यद्वर्तमान-मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् ।</span>=<span class="HindiText">परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलम्बन करने वाला नैगमनय है। अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, भूत, भविष्यत्, वर्तमान, मेय व उन्मेयादि का आश्रयकर स्थित उपचार से उत्पन्न होने वाला है, वह नैगमनय कहा जाता है। (क.पा./1/13-14/183/221/1)।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,3,12/13/1 5.<span class="PrakritText"> धम्मदव्वं धम्मदव्वेण पुस्सज्जदि, असंगहियणेगमणयमस्सिदूण लोगागासपदेसमेत्तधम्मदव्वपदेसाणं पुध-पुध लद्धदव्वववएसाणमण्णोण्णं पासुवलंभादो। अधम्मदव्वमधम्मदव्वेण पुसिज्जदि, तक्खंध-देस-पदेस-परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पत्तदव्वभावाणमेयत्तदंसणादो।</span>=<span class="HindiText">धर्म द्रव्य धर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण और पृथक्-पृथक् द्रव्य संज्ञा को प्राप्त हुए धर्मद्रव्य के प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखा जाता है। अधर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यभाव को प्राप्त हुए अधर्मद्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश, और परमाणुओं का एकत्व देखा जाता है।</span><br /> | ||
स्या.म./28/317/2 6. <span class="SanskritText">धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मंधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगम:। सत् चैतन्यमात्मनीति धर्मयो:। वस्तुपर्यायवद्द्रव्यमिति धर्मिणो:। क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणो:।</span> =<span class="HindiText">दो धर्म और दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा को नैगमनय कहते हैं। जैसे (1) सत् और चैतन्य दोनों आत्मा के धर्म हैं। यहां सत् और चैतन्य धर्मों में चैतन्य विशेष्य होने से प्रधान धर्म है और सत् विशेषण होने से गौण धर्म है। (2) पर्यायवान् द्रव्य को वस्तु कहते हैं। यहां द्रव्य और वस्तु दो धर्मियों में द्रव्य मुख्य और वस्तु गौण है। अथवा पर्यायवान् वस्तु को द्रव्य कहते हैं, यहां वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (3) विषयासक्तजीव क्षण भरके लिए सुखी हो जाता है। यहां विषयासक्त जीवरूप धर्मी मुख्य और सुखरूप धर्म गौण है।</span><br /> | |||
स्या.म./28/311/3 <span class="SanskritText">तत्र नैगम: सत्तालक्षणं महासामान्यं, अवान्तरसामान्यानि च, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि; तथान्त्यान् विशेषान् सकलासाधारणरूपलक्षणान्, अवान्तरविशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावृत्तनक्षमान् सामान्यान् अत्यन्तविनिर्लुठितस्वरूपानभिप्रैति।</span>=<span class="HindiText">नैगमनय सत्तारूप महासामान्य को; अवान्तरसामान्य को; द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि को; सकल असाधारणरूप अन्त्य विशेषों को; तथा पररूप से व्यावृत और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को, अत्यन्त एकमेकरूप से रहने वाले सर्वधर्मों को (मुख्य गौण करके) जानता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.4" id="III.2.4"> नैगमनय के भेद</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.4" id="III.2.4"> नैगमनय के भेद</span><br /> | ||
श्लो.वा./4/1/33/48/239/18 <span class="SanskritText">त्रिविधस्तावन्नैगम:। पर्यायनैगम: द्रव्यनैगम:, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति। तत्र प्रथमस्त्रेधा। अर्थपर्यायनैगमो व्यञ्जनपर्यायनैगमोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमश्च इति। द्वितीयो द्विधा-शुद्धद्रव्यनैगम: अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति। तृतीयश्चतुर्धा। शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगम: साभास उदाहृत: परीक्षणीय:। </span>=<span class="HindiText">नैगमनय तीन प्रकार का है‒पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम, द्रव्यपर्यायनैगम। तहां पर्यायनैगम तीन प्रकार का है‒अर्थपर्यायनैगम, व्यञ्जनपर्यायनैगम और अर्थव्यञ्जनपर्यायनैगम। द्रव्यनैगमनय दो प्रकार का है‒ शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगम। द्रव्यपर्यायनैगम चार प्रकार है‒शुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम। ऐसे नौ प्रकार का नैगमनय और इन नौ ही प्रकार का नैगमाभास उदाहरण पूर्वक कहे गये हैं। (क.पा.1/13-14/202/244/1); (ध.9/4,1,45/181/3)।</span><br /> | |||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात् ।</span>=<span class="HindiText">भूत, भावि और वर्तमानकाल के भेद से (संकल्पग्राही) नैगमनय तीन प्रकार का है। (नि.सा./ता.वृ./19)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.5" id="III.2.5"> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.5" id="III.2.5"> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">अतीते वर्तमानारोपणं यत्र स भूतनैगमो। ...भाविनि भूतवत्कथनं यत्र स भाविनैगमो। ... कर्तुमारब्धमीषन्निष्पन्नमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो। </span>=<span class="HindiText">अतीत कार्य में ‘आज हुआ है’ ऐसा वर्तमान का आरोप या उपचार करना भूत नैगमनय है। होने वाले कार्य को ‘हो चुका’ ऐसा भूतवत् कथन करना भावी नैगमनय है। और जो कार्य करना प्रारम्भ कर दिया गया है, परन्तु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है, कुछ निष्पन्न है और कुछ अनिष्पन्न उस कार्य को ‘हो गया’ ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है। (न.च.वृ./206-208); (न.च./श्रुत/पृ.12)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.6" id="III.2.6"> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के उदाहरण<br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.6" id="III.2.6"> भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के उदाहरण<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.6.1" id="III.2.6.1"> भूत नैगम</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.6.1" id="III.2.6.1"> भूत नैगम</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">भूतनैगमो यथा, अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षंगत:।</span> =<span class="HindiText">आज दीपावली के दिन भगवान् वर्द्धमान मोक्ष गये हैं, ऐसा कहना भूत नैगमनय है। (न.च.वृ./206); (न.च./श्रुत/पृ.10)।</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./19 <span class="SanskritText">भूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यञ्जनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति। पूर्वकाले ते भगवन्त: संसारिण इति व्यवहारात् ।</span>=<span class="HindiText">भूत नैगमनय की अपेक्षा से भगवन्त सिद्धों को भी व्यञ्जनपर्यायवानपना और अशुद्धपना सम्भावित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार है।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./14/48/9 <span class="SanskritText">अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् ...परमात्मावस्थायां पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति।</span>=<span class="HindiText">अन्तरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा और परमात्मा की अवस्था में अन्तरात्मा व बहिरात्मा दोनों घी के घड़ेवत् भूतपूर्व न्याय से जानने चाहिए।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" name="III.2.6.2" id="III.2.6.2">भावी नैगमनय<br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.2.6.2" id="III.2.6.2">भावी नैगमनय<br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 भावि नैगमो यथा‒अर्हन् सिद्ध एव।=भावी नैगमनय की अपेक्षा अर्हन्त भगवान् सिद्ध ही हैं।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./207 <span class="PrakritGatha">णिप्पण्णमिव पजंपदि भाविपदत्थं णरो अणिप्पण्णं। अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइगमत्ति णओ।207।</span>=<span class="HindiText">जो पदार्थ अभी अनिष्पन्न है, और भावी काल में निष्पन्न होने वाला है, उसे निष्पन्नवत् कहना भावी नैगमनय है। जैसे‒जो अभी प्रस्थ नहीं बना है ऐसे काठ के टुकड़े को ही प्रस्थ कह देना। (न.च./श्रुत/पृ.11) (और भी‒देखें [[ पीछे संकल्पग्राही नैगम का उदाहरण ]])।</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,10,2/303/5 <span class="SanskritText">उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश:, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशान्तयो:, तत्र तदभावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धे:। </span>...<span class="PrakritText">भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे।</span>=<span class="HindiText">प्रश्न‒उदीर्ण कर्मपुद्गलस्कन्ध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म पुद्गलस्कन्धों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगमनय में व्युत्पत्ति बैठ जाती है। <br>देखें [[ अपूर्वकरण#4 | अपूर्वकरण - 4 ]](भूत व भावी नैगमनय से 8वें गुणस्थान में उपशामक व क्षपक संज्ञा बन जाती है, भले ही वहां एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता। </span>द्रं.सं/टी./14/48/8 <span class="SanskritText">बहिरात्मावस्थायामन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम्, अन्तरात्मावस्थायां...परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।</span>=<span class="HindiText">बहिरात्मा की दशा में अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से तो रहते ही हैं, परन्तु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। इसी प्रकार अन्तरात्मा की दशा में परमात्मस्वरूप शक्तिरूप से तो रहता ही है, परन्तु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहता है। </span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./621<span class="SanskritGatha"> तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिण:। गुरव: स्युर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।621। </span>=<span class="HindiText">देव होने से पहले भी, छद्मस्थ रूप में विद्यमान मुनि को देवरूप का धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है। वास्तव में तो देव ही गुरु हैं। ऐसा भावि नैगमनय से ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेष में तो किसी भी प्रकार गुरु संज्ञा घटित होती नहीं। </span></li> | ||
<li> <span class="HindiText" name="III.2.6.3" id="III.2.6.3">वर्तमान नैगमनय </span><br /> | <li> <span class="HindiText" name="III.2.6.3" id="III.2.6.3">वर्तमान नैगमनय </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">वर्तमाननैगमो यथा‒ओदन: पच्यते।</span>=<span class="HindiText">वर्तमान नैगमनय से अधपके चावलों को भी ‘भात पकता है’ ऐसा कह दिया जाता है।</span> (न.च./श्रुत/पृ.11)। न.च.वृ./208 <span class="PrakritGatha">परद्धा जा किरिया पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धा। लोएसे पुच्छमाणे भण्णइ तं वट्टमाणणयं।208।</span>=<span class="HindiText">पाकक्रिया के प्रारम्भ करने पर ही किसी के पूछने पर यह कह दिया जाता है, कि भात पक गया है या भात पकाता हूं, ऐसा वर्तमान नैगमनय है। (और भी देखें [[ पीछे संकल्पग्राही नैगमनय का उदाहरण ]])। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.7" id="III.2.7"> पर्याय, | <li><span class="HindiText" name="III.2.7" id="III.2.7"> पर्याय, द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य के लक्षण </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/181/2 <span class="SanskritText">न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्धपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: पर्यायार्थिकनैगम:; द्रव्यार्थिकनयद्वयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:; द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: नैगमो द्वन्द्वज:। </span>=<span class="HindiText">जो एक को विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनों को विषय करे वह नैगमनय है’ इस न्याय से जो शुद्ध व अशुद्ध दोनों पर्यायार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला हो वह पर्यायार्थिकनैगमनय है। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्वंद्वज अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नैगमनय है। </span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.1/13-14/202/244/3 <span class="SanskritText">युक्त्यवष्टम्भबलेन संग्रहव्यवहारनयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:। ऋजुसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टम्भबलेन प्रतिपन्न: पर्यायार्थिकनैगम:। द्रव्यार्थिकनयविषयं पर्यायार्थिकविषयं च प्रतिपन्न: द्रव्यपर्यायार्थिकनैगम:।</span>=<span class="HindiText">युक्तिरूप आधार के बल से संग्रह और व्यवहार इन दोनों (शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक) नयों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। ऋजुसूत्र आदि चार नयों के विषय को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिक नय है तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दोनों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय है। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="III.2.8" id="III.2.8"> | <li><span class="HindiText" name="III.2.8" id="III.2.8"> द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण | ||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.8.1" id="III.2.8.1"> अर्थ, | <li><span class="HindiText" name="III.2.8.1" id="III.2.8.1"> अर्थ, व्यञ्जन व तदुभय पर्याय नैगम </span><br /> | ||
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.28-35/34 <span class="SanskritText">अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावत:। क्वचिद्वस्तुन्यभिप्राय: प्रतिपत्तु: प्रजायते।28। यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिण:। इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया गुण:।29। संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचो गति:।30। कश्चिद्वयञ्जनपर्यायौ विषयीकुरुतेऽञ्जसा। गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगम:।32। सच्चैतन्यं नरीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावत:। प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धित:।33। अर्थव्यञ्जनपर्यायौ गोचरीकुरुते पर:। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधत:।35।</span>=<span class="HindiText">एक वस्तु में दो अर्थपर्यायों को गौण मुख्यरूप से जानने के लिए नयज्ञानों का जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे अर्थ पर्यायनैगम नय कहते हैं। जैसे कि शरीरधारी आत्मा का सुखसंवेदन प्रतिक्षणध्वंसी है। यहां उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सत्ता सामान्य की अर्थपर्याय तो विशेषण हो जाने से गौण है, और संवेदनरूप अर्थपर्याय विशेष्य होने से मुख्य है। अन्यथा किसी कथन द्वारा इस अभिप्राय की ज्ञप्ति नहीं हो सकती।28-30। एक धर्मी में दो व्यंजनपर्यायों को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला व्यंजनपर्यायनैगमनय है। जैसे ‘आत्मा में सत्त्व और चैतन्य है’। यहां विशेषण होने के कारण सत्ता की गौणरूप से और विशेष्य होने के कारण चैतन्य को प्रधानरूप से ज्ञप्ति होती है।32-33। एक धर्मी में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्यायों को विषय करने वाला अर्थव्यञ्जनपर्याय नैगमनय है, जैसे कि धर्मात्मा व्यक्ति में सुखपूर्वक जीवन वर्त रहा है। (यहां धर्मात्मारूप धर्मी में सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और जीवीपनारूप व्यञ्जनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है।35। (रा.वा./हिं/1/33/198-199)/<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.8.2" id="III.2.8.2"> शुद्ध व अशुद्ध | <li><span class="HindiText" name="III.2.8.2" id="III.2.8.2"> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम</span><br /> | ||
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.37-39/236 <span class="SanskritText">शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रैति यो नय:। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारत:।37। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्य:...।38। यस्तु पर्यायवद्द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णय:। व्यवहारनयाज्जात: सोऽशुद्धद्रव्यनैगम:।39।</span> =<span class="HindiText">शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्य को विषय करने वाले संग्रह व व्यवहार नय से उत्पन्न होने वाले अभिप्राय ही क्रम से शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगमनय हैं। जैसे कि अन्वय का निश्चय हो जाने से सम्पूर्ण वस्तुओं को ‘सत् द्रव्य’ कहना शुद्धद्रव्य नैगमनय है।37-38। (यहां ‘सत्’ तो विशेषण होने के कारण गौण है और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) जो नय ‘पर्यायवान् द्रव्य है’ अथवा ‘गुणवान् द्रव्य है’ इस प्रकार निर्णय करता है, वह व्यवहारनय से उत्पन्न होने वाला अशुद्धद्रव्यनैगमनय है। (यहां ‘पर्यायवान्’ तथा ‘गुणवान्’ ये तो विशेषण होने के कारण गौण हैं और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) (रा.वा./हि./1/33/198) नोट‒(संग्रह व्यवहारनय तथा शुद्ध, अशुद्ध द्रव्यनैगमनय में अन्तर के लिए‒देखें [[ आगे नय#III.3 | आगे नय - III.3]])।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.8.3" id="III.2.8.3"> शुद्ध व अशुद्ध | <li><span class="HindiText" name="III.2.8.3" id="III.2.8.3"> शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम </span><br /> | ||
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.41-46/237 <span class="SanskritGatha">शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमोऽस्ति परो यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ।41। क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चय:। विनिर्दिष्टोऽर्थपर्यायोऽशुद्धद्रव्यार्थनैगम:।43। गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ। नैगमोऽन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णय:।45। विद्यते चापरो शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ। अर्थीकरोति य: सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते।46। </span>=<span class="HindiText">(शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक अर्थपर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय-नैगमनय है) जैसे कि संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत्स्वरूप होता हुआ क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है। (यहां उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप सत्पना तो शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थपर्याय है। तहां विशेषण होने के कारण सत् तो गौण है और विशेष्य होने के कारण सुख मुख्य है।41।) (अशुद्ध द्रव्य व उसकी किसी एक अर्थ पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्यअर्थपर्याय-नैगमनय है।) जैसे कि संसारी जीव क्षणमात्र को सुखी है। (यहां सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और संसारी जीवरूप अशुद्धद्रव्य विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।43। शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक व्यंजनपर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है। जैसे कि यह सत् सामान्य चैतन्यस्वरूप है। (यहां सत् सामान्यरूप शुद्धद्रव्य तो विशेषण होने के कारण गौण है और उसकी चैतन्यपनेरूप व्यंजनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।45। अशुद्धद्रव्य और उसकी किसी एक व्यञ्जन पर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्य-व्यञ्जनपर्याय-नैगमनय है। जैसे ‘मनुष्य गुणी है’ ऐसा कहना। (यहां ‘मनुष्य’ रूप अशुद्धद्रव्य तो विशेष्य होने के कारण मुख्य है और ‘गुणी’ रूप व्यंजनपर्याय विशेषण होने के कारण गौण है।46।) (रा.वा./हि/1/33/199)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.9" id="III.2.9"> नैगमाभास | <li><span class="HindiText" name="III.2.9" id="III.2.9"> नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण </span><br /> | ||
स्या.म./28/317/5 <span class="SanskritText">धर्मद्वयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धिर्नैगमाभास:। यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तपृथग्भूते इत्यादि:। </span>=<span class="HindiText">दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को नैगमाभास कहते हैं। जैसे‒आत्मा में सत् और चैतन्य परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="III.2.10" id="III.2.10">नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण</span><br /> | <li><span class="HindiText" name="III.2.10" id="III.2.10">नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण</span><br /> | ||
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.नं./पृष्ठ 235-239 <span class="SanskritGatha">सर्वथा सुखसंवित्त्योर्नानात्वेऽभिमति: पुन:। स्वाश्रयाच्चार्थपर्यायनैगमाभोऽप्रतीतित:।31। तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योन्यं स्वाश्रयादपि। ज्ञेयो व्यञ्जनपर्यायनैगमाभो विरोधत:।34। भिन्ने तु सुखजीवित्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। सोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमाभास एव न:।36। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नय:।38। तद्भेदैकान्तवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते। तथोक्तेर्बहिरन्तश्च प्रत्यक्षादिविरोधत:।40। सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमति:। दुर्नीति: स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदु:।42। सुखजीवभिदोक्तिस्तु सर्वथा मानबाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधैरसंशयात् ।44। भिदाभिदाभिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापत:। पूर्ववन्नैगमाभासौ प्रत्येतव्यौ तयोरपि।47।</span>= | |||
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<li><span class="HindiText"> (नैगमाभास के | <li><span class="HindiText"> (नैगमाभास के सामान्य लक्षणवत् यहां भी धर्मधर्मी आदि में सर्वथा भेद दर्शाकर पर्यायनैगम व द्रव्यनैगम आदि के आभासों का निरूपण किया गया है।) जैसे‒</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> शरीरधारी | <li><span class="HindiText"> शरीरधारी आत्मा में सुख व संवेदन का सर्वथा नानापने का अभिप्राय रखना अर्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि द्रव्य के गुणों का परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ ऐसा भेद प्रतीतिगोचर नहीं है।31।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> आत्मा से सत्ता और चैतन्य का अथवा सत्ता और चैतन्य का परस्पर में अत्यन्त भेद मानना व्यञ्जनपर्याय नैगमाभास है।34। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> धर्मात्मा पुरुष में सुख व जीवनपने का सर्वथा भेद मानना अर्थव्यञ्जनपर्याय-नैगमाभास है।36। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> सब | <li><span class="HindiText"> सब द्रव्यों में अन्वयरूप से रहने का निश्चय किये बिना द्रव्यपने और सत्पने को सर्वथा भेदरूप कहना शुद्धद्रव्यनैगमाभास है।38।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> पर्याय व पर्यायवान् में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध- | <li><span class="HindiText"> पर्याय व पर्यायवान् में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध-द्रव्यनैगमाभास है। क्योंकि घट पट आदि बहिरंग पदार्थों में तथा आत्मा ज्ञान आदि अन्तरंग पदार्थों में इस प्रकार का भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है।40। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> सुखस्वरूप अर्थपर्याय से सत्त्वस्वरूप शुद्धद्रव्य को सर्वथा भिन्न मानना शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि इस प्रकार का भेद अनेक बाधाओं सहित है।42। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> सुख और जीव को सर्वथा भेदरूप से कहना | <li><span class="HindiText"> सुख और जीव को सर्वथा भेदरूप से कहना अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि गुण व गुणी में सर्वथा भेद प्रमाणों से बाधित है।44। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> सत् व | <li><span class="HindiText"> सत् व चैतन्य के सर्वथा भेद या अभेद का अभिप्राय रखना शुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय-नैगमाभास है।47। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> मनुष्य व गुणी का सर्वथा भेद या अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय नैगमाभास है।47। <br /> | ||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
- नैगमनय सामान्य के लक्षण
- निगम अर्थात् संकल्पग्राही
स.सि./1/33/141/2 अनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रग्राही नैगम:।=अनिष्पन्न अर्थ में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला नय नैगम है। (रा.वा./1/33/2/95/13); (श्लो.वा./4/1/33/श्लो.17/230); (ह.पु./58/43); (त.सा./1/44)।
रा.वा./1/33/2/95/12 निर्गच्छन्ति तस्मिन्निति निगमनमात्रं वा निगम: निगमे कुशलो भवो वा नैगम:।=उसमें अर्थात् आत्मा में जो उत्पन्न हो या अवतारमात्र निगम कहलाता है। उस निगम में जो कुशल हो अर्थात् निगम या संकल्प को जो विषय करे उसे नैगम कहते हैं।
श्लो.वा.4/1/33/श्लो.18/230 संकल्पो निगमस्तत्र भवोऽयं तत्प्रयोजन:।=नैगम शब्द को भव अर्थ या प्रयोजन अर्थ में तद्धितका अण् प्रत्यय कर बनाया गया है। निगम का अर्थ संकल्प है, उस संकल्प में जो उपजे अथवा वह संकल्प जिसका प्रयोजन हो वह नैगम नय है। (आ.प./9); (नि.सा./ता.वृ./19)।
का.अ./मू./271 जो साहेदि अदीदं वियप्परूवं भविस्समट्ठं च। संपडि कालाविट्ठं सो हु णओ णेगमो णेओ।271।=जो नय अतीत, अनागत और वर्तमान को विकल्परूप से साधता है वह नैगमनय है।
- ‘नैकं गमो’ अर्थात् द्वैतग्राही
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.21/232 यद्वा नैकं गमो योऽत्र सतां नैगमो मत:। धर्मयोर्धर्मिणोर्वापि विवक्षा धर्मधर्मिणो:।=जो एक को विषय नहीं करता उसे नैगमनय कहते हैं। अर्थात् जो मुख्य गौणरूप से दो धर्मों को, दो धर्मियों को अथवा धर्म व धर्मी दोनों को विषय करता है वह नैगम नय है। (ध.9/4,1,45/181/2); (ध.13/5,5,7/199/1); (स्या.म./28/-311/3,317/2)।
स्या.म./28/315/14 में उद्धृत=अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते नैगमो नय:।=अभिन्न ज्ञान का कारण जो सामान्य है, वह अन्य है और विशेष अन्य है, ऐसा नैगमनय मानता है।
देखें आगे नय - III.3.2 (संग्रह व व्यवहार दोनों को विषय करता है।)
- निगम अर्थात् संकल्पग्राही
- ‘संकल्पग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण
स.सि./1/33/141/2 कश्चित्पुरुषं परिगृहीतपरशुं गच्छन्तमवलोक्य कश्चित्पृच्छति किमर्थं भवान्गच्छतीति। स आह प्रस्थमानेतुमिति। नासौ तदा प्रस्थपर्याय: संनिहित: तदभिनिवृत्तये संकल्पमात्रे प्रस्थव्यवहार:। तथा एधोदकाद्याहरणे व्याप्रियमाणं कश्चित्पृच्छति किं करोति भवानिति स आह ओदनं पचामीति। न तदौदनपर्याय:, संनिहित:, तदर्थे व्यापारे स प्रयुज्यते। एवं प्रकारो लोकसंव्यवहारोऽअंनभिनिवृत्तार्थसंकल्पमात्रविषयो नैगमस्य गोचर:।=- हाथ में फरसा लिये जाते हुए किसी पुरुष को देखकर कोई अन्य पुरुष पूछता है, ‘आप किस काम के लिए जा रहे हैं।’ वह कहता है कि प्रस्थ लेने के लिए जा रहा हूं। उस समय वह प्रस्थ पर्याय, सन्निहित नहीं है। केवल उसके बनाने का संकल्प होने से उसमें (जिस काठ को लेने जा रहा है उस काठ में) प्रस्थ-व्यवहार किया गया है।
- इसी प्रकार ईंधन और जल आदि के लाने में लगे हुए किसी पुरुष से कोई पूछता है, कि ‘आप क्या कर रहे हैं। उसने कहा, भात पका रहा हूं। उस समय भात पर्याय सन्निहित नहीं है, केवल भात के लिए किये गये व्यापार में भात का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार का जितना लोकव्यवहार है वह अनिष्पन्न अर्थ के आलम्बन से संकल्पमात्र को विषय करता है, वह सब नैगमनय का विषय है। (रा.वा./1/33/2/95/13); (श्लो.वा./4/1/33/श्लो.18/230)।
- ‘द्वैतग्राही’ लक्षण विषयक उदाहरण
ष.खं./12/4,2,9/सू.2/295 1. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सिया जीवस्स वा।2।=नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् जीव के होती है। (यहां जीव तथा उसका कर्मानुभव दोनों का ग्रहण किया है। वेदना प्रधान है और जीव गौण)।
ष.खं.10/4,2,3/सू.1/13 2. णेगमववहाराणं णाणावरणीयवेयणा दंसणावरणीयवेयणा वेयणीवेयणा...। =नैगम व व्यवहारनय से वेदना ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय...(आदि आठ भेदरूप है)। (यहां वेदना सामान्य गौण और ज्ञानावरणीय आदि भेद प्रधान–ऐसे दोनों का ग्रहण किया है।)
क.पा.1/13-14/257/297/1 3‒जं मणुस्सं पडुच्च कोहो समुप्पणो सो तत्तो पुधभूदो संतो कधं कोहो। होंत ऐसो दोसो जदि संगहादिणया अवलंबिदा, किन्तु णइगमणओ अइवसहाइरिएण जेणाबलंबिदो तेण ण एस दोसो। तत्थ कधं ण दोसो। कारणम्मि णिलीणकज्जब्भुवगमादो।=प्रश्न‒जिस मनुष्य के निमित्त से क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह मनुष्य उस क्रोध से अलग होता हुआ भी क्रोध कैसे कहला सकता है? उत्तर‒यदि यहां पर संग्रह आदि नयों का अवलम्बन लिया होता, तो ऐसा होता, अर्थात् संग्रह आदि नयों की अपेक्षा क्रोध से भिन्न मनुष्य आदिक क्रोध नहीं कहलाये जा सकते हैं। किन्तु यतिवृषभाचार्य ने चूंकि यहां नैगमनय का अवलम्बन लिया है, इसलिए यह कोई दोष नहीं है। प्रश्न‒दोष कैसे नहीं है ? उत्तर‒क्योंकि नैगमनय की अपेक्षा कारण में कार्य का सद्भाव स्वीकार किया गया है। (और भी दे0‒उपचार/5/3)
ध.9/4,1,45/171/5 4. परस्परविभिन्नोभयविषयालम्बनो नैगमनय:; शब्द–शील-कर्म-कार्य-कारणाधाराधेय-भूत-भावि-भविष्यद्वर्तमान-मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् ।=परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयों का अवलम्बन करने वाला नैगमनय है। अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, भूत, भविष्यत्, वर्तमान, मेय व उन्मेयादि का आश्रयकर स्थित उपचार से उत्पन्न होने वाला है, वह नैगमनय कहा जाता है। (क.पा./1/13-14/183/221/1)।
ध.13/5,3,12/13/1 5. धम्मदव्वं धम्मदव्वेण पुस्सज्जदि, असंगहियणेगमणयमस्सिदूण लोगागासपदेसमेत्तधम्मदव्वपदेसाणं पुध-पुध लद्धदव्वववएसाणमण्णोण्णं पासुवलंभादो। अधम्मदव्वमधम्मदव्वेण पुसिज्जदि, तक्खंध-देस-पदेस-परमाणूणमसंगहियणेगमणएण पत्तदव्वभावाणमेयत्तदंसणादो।=धर्म द्रव्य धर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा लोकाकाश के प्रदेशप्रमाण और पृथक्-पृथक् द्रव्य संज्ञा को प्राप्त हुए धर्मद्रव्य के प्रदेशों का परस्पर में स्पर्श देखा जाता है। अधर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य के द्वारा स्पर्श को प्राप्त होता है, क्योंकि असंग्राहिक नैगमनय की अपेक्षा द्रव्यभाव को प्राप्त हुए अधर्मद्रव्य के स्कन्ध, देश, प्रदेश, और परमाणुओं का एकत्व देखा जाता है।
स्या.म./28/317/2 6. धर्मयोर्धर्मिणोर्धर्मंधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जनभावेन यद्विवक्षणं स नैकगमो नैगम:। सत् चैतन्यमात्मनीति धर्मयो:। वस्तुपर्यायवद्द्रव्यमिति धर्मिणो:। क्षणमेकं सुखी विषयासक्तजीव इति धर्मधर्मिणो:। =दो धर्म और दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधानता और गौणता की विवक्षा को नैगमनय कहते हैं। जैसे (1) सत् और चैतन्य दोनों आत्मा के धर्म हैं। यहां सत् और चैतन्य धर्मों में चैतन्य विशेष्य होने से प्रधान धर्म है और सत् विशेषण होने से गौण धर्म है। (2) पर्यायवान् द्रव्य को वस्तु कहते हैं। यहां द्रव्य और वस्तु दो धर्मियों में द्रव्य मुख्य और वस्तु गौण है। अथवा पर्यायवान् वस्तु को द्रव्य कहते हैं, यहां वस्तु मुख्य और द्रव्य गौण है। (3) विषयासक्तजीव क्षण भरके लिए सुखी हो जाता है। यहां विषयासक्त जीवरूप धर्मी मुख्य और सुखरूप धर्म गौण है।
स्या.म./28/311/3 तत्र नैगम: सत्तालक्षणं महासामान्यं, अवान्तरसामान्यानि च, द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादीनि; तथान्त्यान् विशेषान् सकलासाधारणरूपलक्षणान्, अवान्तरविशेषांश्चापेक्षया पररूपव्यावृत्तनक्षमान् सामान्यान् अत्यन्तविनिर्लुठितस्वरूपानभिप्रैति।=नैगमनय सत्तारूप महासामान्य को; अवान्तरसामान्य को; द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व आदि को; सकल असाधारणरूप अन्त्य विशेषों को; तथा पररूप से व्यावृत और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को, अत्यन्त एकमेकरूप से रहने वाले सर्वधर्मों को (मुख्य गौण करके) जानता है।
- नैगमनय के भेद
श्लो.वा./4/1/33/48/239/18 त्रिविधस्तावन्नैगम:। पर्यायनैगम: द्रव्यनैगम:, द्रव्यपर्यायनैगमश्चेति। तत्र प्रथमस्त्रेधा। अर्थपर्यायनैगमो व्यञ्जनपर्यायनैगमोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमश्च इति। द्वितीयो द्विधा-शुद्धद्रव्यनैगम: अशुद्धद्रव्यनैगमश्चेति। तृतीयश्चतुर्धा। शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगम:, अशुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगमश्चेति नवधा नैगम: साभास उदाहृत: परीक्षणीय:। =नैगमनय तीन प्रकार का है‒पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम, द्रव्यपर्यायनैगम। तहां पर्यायनैगम तीन प्रकार का है‒अर्थपर्यायनैगम, व्यञ्जनपर्यायनैगम और अर्थव्यञ्जनपर्यायनैगम। द्रव्यनैगमनय दो प्रकार का है‒ शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगम। द्रव्यपर्यायनैगम चार प्रकार है‒शुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम, अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगम, अशुद्ध द्रव्यव्यञ्जनपर्यायनैगम। ऐसे नौ प्रकार का नैगमनय और इन नौ ही प्रकार का नैगमाभास उदाहरण पूर्वक कहे गये हैं। (क.पा.1/13-14/202/244/1); (ध.9/4,1,45/181/3)।
आ.प./5 नैगमस्त्रेधा भूतभाविवर्तमानकालभेदात् ।=भूत, भावि और वर्तमानकाल के भेद से (संकल्पग्राही) नैगमनय तीन प्रकार का है। (नि.सा./ता.वृ./19)।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के लक्षण
आ.प./5 अतीते वर्तमानारोपणं यत्र स भूतनैगमो। ...भाविनि भूतवत्कथनं यत्र स भाविनैगमो। ... कर्तुमारब्धमीषन्निष्पन्नमनिष्पन्नं वा वस्तु निष्पन्नवत्कथ्यते यत्र स वर्तमाननैगमो। =अतीत कार्य में ‘आज हुआ है’ ऐसा वर्तमान का आरोप या उपचार करना भूत नैगमनय है। होने वाले कार्य को ‘हो चुका’ ऐसा भूतवत् कथन करना भावी नैगमनय है। और जो कार्य करना प्रारम्भ कर दिया गया है, परन्तु अभी तक जो निष्पन्न नहीं हुआ है, कुछ निष्पन्न है और कुछ अनिष्पन्न उस कार्य को ‘हो गया’ ऐसा निष्पन्नवत् कथन करना वर्तमान नैगमनय है। (न.च.वृ./206-208); (न.च./श्रुत/पृ.12)।
- भूत भावी व वर्तमान नैगमनय के उदाहरण
- भूत नैगम
आ.प./5 भूतनैगमो यथा, अद्य दीपोत्सवदिने श्रीवर्द्धमानस्वामी मोक्षंगत:। =आज दीपावली के दिन भगवान् वर्द्धमान मोक्ष गये हैं, ऐसा कहना भूत नैगमनय है। (न.च.वृ./206); (न.च./श्रुत/पृ.10)।
नि.सा./ता.वृ./19 भूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यञ्जनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति। पूर्वकाले ते भगवन्त: संसारिण इति व्यवहारात् ।=भूत नैगमनय की अपेक्षा से भगवन्त सिद्धों को भी व्यञ्जनपर्यायवानपना और अशुद्धपना सम्भावित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार है।
द्र.सं./टी./14/48/9 अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घृतघटवत् ...परमात्मावस्थायां पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति।=अन्तरात्मा की अवस्था में बहिरात्मा और परमात्मा की अवस्था में अन्तरात्मा व बहिरात्मा दोनों घी के घड़ेवत् भूतपूर्व न्याय से जानने चाहिए।
- भावी नैगमनय
आ.प./5 भावि नैगमो यथा‒अर्हन् सिद्ध एव।=भावी नैगमनय की अपेक्षा अर्हन्त भगवान् सिद्ध ही हैं।
न.च.वृ./207 णिप्पण्णमिव पजंपदि भाविपदत्थं णरो अणिप्पण्णं। अप्पत्थे जह पत्थं भण्णइ सो भाविणइगमत्ति णओ।207।=जो पदार्थ अभी अनिष्पन्न है, और भावी काल में निष्पन्न होने वाला है, उसे निष्पन्नवत् कहना भावी नैगमनय है। जैसे‒जो अभी प्रस्थ नहीं बना है ऐसे काठ के टुकड़े को ही प्रस्थ कह देना। (न.च./श्रुत/पृ.11) (और भी‒देखें पीछे संकल्पग्राही नैगम का उदाहरण )।
ध.12/4,2,10,2/303/5 उदीर्णस्य भवतु नाम प्रकृतिव्यपदेश:, फलदातृत्वेन परिणतत्वात् । न बध्यमानोपशान्तयो:, तत्र तदभावादिति। न, त्रिष्वपि कालेषु प्रकृतिशब्दसिद्धे:। ...भूदभविस्सपज्जायाणं वट्टमाणत्तब्भुवगमादो वा णेगमणयम्मि एसा वुप्पत्ती घडदे।=प्रश्न‒उदीर्ण कर्मपुद्गलस्कन्ध की प्रकृति संज्ञा भले ही हो, क्योंकि, वह फलदान स्वरूप से परिणत है। बध्यमान और उपशान्त कर्म पुद्गलस्कन्धों की यह संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, उनमें फलदान स्वरूप का अभाव है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, तीनों ही कालों में प्रकृति शब्द की सिद्धि की गयी है। भूत व भविष्यत् पर्यायों को वर्तमानरूप स्वीकार कर लेने से नैगमनय में व्युत्पत्ति बैठ जाती है।
देखें अपूर्वकरण - 4 (भूत व भावी नैगमनय से 8वें गुणस्थान में उपशामक व क्षपक संज्ञा बन जाती है, भले ही वहां एक भी कर्म का उपशम या क्षय नहीं होता। द्रं.सं/टी./14/48/8 बहिरात्मावस्थायामन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम्, अन्तरात्मावस्थायां...परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च।=बहिरात्मा की दशा में अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूप से तो रहते ही हैं, परन्तु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहते हैं। इसी प्रकार अन्तरात्मा की दशा में परमात्मस्वरूप शक्तिरूप से तो रहता ही है, परन्तु भाविनैगमनय से व्यक्तिरूप से भी रहता है।
पं.ध./उ./621 तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिण:। गुरव: स्युर्गुरोर्न्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक् ।621। =देव होने से पहले भी, छद्मस्थ रूप में विद्यमान मुनि को देवरूप का धारी होने करि गुरु कह दिया जाता है। वास्तव में तो देव ही गुरु हैं। ऐसा भावि नैगमनय से ही कहा जा सकता है। अन्य अवस्था विशेष में तो किसी भी प्रकार गुरु संज्ञा घटित होती नहीं। - वर्तमान नैगमनय
आ.प./5 वर्तमाननैगमो यथा‒ओदन: पच्यते।=वर्तमान नैगमनय से अधपके चावलों को भी ‘भात पकता है’ ऐसा कह दिया जाता है। (न.च./श्रुत/पृ.11)। न.च.वृ./208 परद्धा जा किरिया पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धा। लोएसे पुच्छमाणे भण्णइ तं वट्टमाणणयं।208।=पाकक्रिया के प्रारम्भ करने पर ही किसी के पूछने पर यह कह दिया जाता है, कि भात पक गया है या भात पकाता हूं, ऐसा वर्तमान नैगमनय है। (और भी देखें पीछे संकल्पग्राही नैगमनय का उदाहरण )।
- भूत नैगम
- पर्याय, द्रव्य व उभयरूप नैगमसामान्य के लक्षण
ध.9/4,1,45/181/2 न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्धपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: पर्यायार्थिकनैगम:; द्रव्यार्थिकनयद्वयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:; द्रव्यपर्यायार्थिकनयद्वयविषय: नैगमो द्वन्द्वज:। =जो एक को विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनों को विषय करे वह नैगमनय है’ इस न्याय से जो शुद्ध व अशुद्ध दोनों पर्यायार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला हो वह पर्यायार्थिकनैगमनय है। शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के विषय को ग्रहण करने वाला द्वंद्वज अर्थात् द्रव्य पर्यायार्थिक नैगमनय है।
क.पा.1/13-14/202/244/3 युक्त्यवष्टम्भबलेन संग्रहव्यवहारनयविषय: द्रव्यार्थिकनैगम:। ऋजुसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टम्भबलेन प्रतिपन्न: पर्यायार्थिकनैगम:। द्रव्यार्थिकनयविषयं पर्यायार्थिकविषयं च प्रतिपन्न: द्रव्यपर्यायार्थिकनैगम:।=युक्तिरूप आधार के बल से संग्रह और व्यवहार इन दोनों (शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिक) नयों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यार्थिक नैगमनय है। ऋजुसूत्र आदि चार नयों के विषय को स्वीकार करने वाला पर्यायार्थिक नय है तथा द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दोनों के विषय को स्वीकार करने वाला द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय है।
- द्रव्य व पर्याय आदि नैगमनय के भेदों के लक्षण व उदाहरण
- अर्थ, व्यञ्जन व तदुभय पर्याय नैगम
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.28-35/34 अर्थपर्याययोस्तावद्गुणमुख्यस्वभावत:। क्वचिद्वस्तुन्यभिप्राय: प्रतिपत्तु: प्रजायते।28। यथा प्रतिक्षणं ध्वंसि सुखसंविच्छरीरिण:। इति सत्तार्थपर्यायो विशेषणतया गुण:।29। संवेदनार्थपर्यायो विशेष्यत्वेन मुख्यताम् । प्रतिगच्छन्नभिप्रेतो नान्यथैवं वचो गति:।30। कश्चिद्वयञ्जनपर्यायौ विषयीकुरुतेऽञ्जसा। गुणप्रधानभावेन धर्मिण्येकत्र नैगम:।32। सच्चैतन्यं नरीत्येवं सत्त्वस्य गुणभावत:। प्रधानभावतश्चापि चैतन्यस्याभिसिद्धित:।33। अर्थव्यञ्जनपर्यायौ गोचरीकुरुते पर:। धार्मिके सुखजीवित्वमित्येवमनुरोधत:।35।=एक वस्तु में दो अर्थपर्यायों को गौण मुख्यरूप से जानने के लिए नयज्ञानों का जो अभिप्राय उत्पन्न होता है, उसे अर्थ पर्यायनैगम नय कहते हैं। जैसे कि शरीरधारी आत्मा का सुखसंवेदन प्रतिक्षणध्वंसी है। यहां उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप सत्ता सामान्य की अर्थपर्याय तो विशेषण हो जाने से गौण है, और संवेदनरूप अर्थपर्याय विशेष्य होने से मुख्य है। अन्यथा किसी कथन द्वारा इस अभिप्राय की ज्ञप्ति नहीं हो सकती।28-30। एक धर्मी में दो व्यंजनपर्यायों को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला व्यंजनपर्यायनैगमनय है। जैसे ‘आत्मा में सत्त्व और चैतन्य है’। यहां विशेषण होने के कारण सत्ता की गौणरूप से और विशेष्य होने के कारण चैतन्य को प्रधानरूप से ज्ञप्ति होती है।32-33। एक धर्मी में अर्थ व व्यंजन दोनों पर्यायों को विषय करने वाला अर्थव्यञ्जनपर्याय नैगमनय है, जैसे कि धर्मात्मा व्यक्ति में सुखपूर्वक जीवन वर्त रहा है। (यहां धर्मात्मारूप धर्मी में सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और जीवीपनारूप व्यञ्जनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है।35। (रा.वा./हिं/1/33/198-199)/
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्य नैगम
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.37-39/236 शुद्धद्रव्यमशुद्धं च तथाभिप्रैति यो नय:। स तु नैगम एवेह संग्रहव्यवहारत:।37। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्य:...।38। यस्तु पर्यायवद्द्रव्यं गुणवद्वेति निर्णय:। व्यवहारनयाज्जात: सोऽशुद्धद्रव्यनैगम:।39। =शुद्धद्रव्य या अशुद्धद्रव्य को विषय करने वाले संग्रह व व्यवहार नय से उत्पन्न होने वाले अभिप्राय ही क्रम से शुद्धद्रव्यनैगम और अशुद्धद्रव्यनैगमनय हैं। जैसे कि अन्वय का निश्चय हो जाने से सम्पूर्ण वस्तुओं को ‘सत् द्रव्य’ कहना शुद्धद्रव्य नैगमनय है।37-38। (यहां ‘सत्’ तो विशेषण होने के कारण गौण है और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) जो नय ‘पर्यायवान् द्रव्य है’ अथवा ‘गुणवान् द्रव्य है’ इस प्रकार निर्णय करता है, वह व्यवहारनय से उत्पन्न होने वाला अशुद्धद्रव्यनैगमनय है। (यहां ‘पर्यायवान्’ तथा ‘गुणवान्’ ये तो विशेषण होने के कारण गौण हैं और ‘द्रव्य’ विशेष्य होने के कारण मुख्य है।) (रा.वा./हि./1/33/198) नोट‒(संग्रह व्यवहारनय तथा शुद्ध, अशुद्ध द्रव्यनैगमनय में अन्तर के लिए‒देखें आगे नय - III.3)।
- शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यपर्याय नैगम
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.41-46/237 शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमोऽस्ति परो यथा। सत्सुखं क्षणिकं शुद्धं संसारेऽस्मिन्नितीरणम् ।41। क्षणमेकं सुखी जीवो विषयीति विनिश्चय:। विनिर्दिष्टोऽर्थपर्यायोऽशुद्धद्रव्यार्थनैगम:।43। गोचरीकुरुते शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ। नैगमोऽन्यो यथा सच्चित्सामान्यमिति निर्णय:।45। विद्यते चापरो शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्ययौ। अर्थीकरोति य: सोऽत्र ना गुणीति निगद्यते।46। =(शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक अर्थपर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य अर्थपर्याय-नैगमनय है) जैसे कि संसार में सुख पदार्थ शुद्ध सत्स्वरूप होता हुआ क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है। (यहां उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप सत्पना तो शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थपर्याय है। तहां विशेषण होने के कारण सत् तो गौण है और विशेष्य होने के कारण सुख मुख्य है।41।) (अशुद्ध द्रव्य व उसकी किसी एक अर्थ पर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्यअर्थपर्याय-नैगमनय है।) जैसे कि संसारी जीव क्षणमात्र को सुखी है। (यहां सुखरूप अर्थपर्याय तो विशेषण होने के कारण गौण है और संसारी जीवरूप अशुद्धद्रव्य विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।43। शुद्धद्रव्य व उसकी किसी एक व्यंजनपर्याय को गौण मुख्य रूप से विषय करने वाला शुद्धद्रव्य-व्यंजनपर्याय-नैगमनय है। जैसे कि यह सत् सामान्य चैतन्यस्वरूप है। (यहां सत् सामान्यरूप शुद्धद्रव्य तो विशेषण होने के कारण गौण है और उसकी चैतन्यपनेरूप व्यंजनपर्याय विशेष्य होने के कारण मुख्य है)।45। अशुद्धद्रव्य और उसकी किसी एक व्यञ्जन पर्याय को गौण मुख्यरूप से विषय करने वाला अशुद्धद्रव्य-व्यञ्जनपर्याय-नैगमनय है। जैसे ‘मनुष्य गुणी है’ ऐसा कहना। (यहां ‘मनुष्य’ रूप अशुद्धद्रव्य तो विशेष्य होने के कारण मुख्य है और ‘गुणी’ रूप व्यंजनपर्याय विशेषण होने के कारण गौण है।46।) (रा.वा./हि/1/33/199)
- अर्थ, व्यञ्जन व तदुभय पर्याय नैगम
- नैगमाभास सामान्य का लक्षण व उदाहरण
स्या.म./28/317/5 धर्मद्वयादीनामैकान्तिकपार्थक्याभिसन्धिर्नैगमाभास:। यथा आत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तपृथग्भूते इत्यादि:। =दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म व एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को नैगमाभास कहते हैं। जैसे‒आत्मा में सत् और चैतन्य परस्पर अत्यन्त भिन्न हैं ऐसा कहना। (विशेष देखो अगला शीर्षक)
- नैगमाभास विशेषों के लक्षण व उदाहरण
श्लो.वा./4/1/33/श्लो.नं./पृष्ठ 235-239 सर्वथा सुखसंवित्त्योर्नानात्वेऽभिमति: पुन:। स्वाश्रयाच्चार्थपर्यायनैगमाभोऽप्रतीतित:।31। तयोरत्यन्तभेदोक्तिरन्योन्यं स्वाश्रयादपि। ज्ञेयो व्यञ्जनपर्यायनैगमाभो विरोधत:।34। भिन्ने तु सुखजीवित्वे योऽभिमन्येत सर्वथा। सोऽर्थव्यञ्जनपर्यायनैगमाभास एव न:।36। सद्द्रव्यं सकलं वस्तु तथान्वयविनिश्चयात् । इत्येवमवगन्तव्यस्तद्भेदोक्तिस्तु दुर्नय:।38। तद्भेदैकान्तवादस्तु तदाभासोऽनुमन्यते। तथोक्तेर्बहिरन्तश्च प्रत्यक्षादिविरोधत:।40। सत्त्वं सुखार्थपर्यायाद्भिन्नमेवेति संमति:। दुर्नीति: स्यात्सबाधत्वादिति नीतिविदो विदु:।42। सुखजीवभिदोक्तिस्तु सर्वथा मानबाधिता। दुर्नीतिरेव बोद्धव्या शुद्धबोधैरसंशयात् ।44। भिदाभिदाभिरत्यन्तं प्रतीतेरपलापत:। पूर्ववन्नैगमाभासौ प्रत्येतव्यौ तयोरपि।47।=- (नैगमाभास के सामान्य लक्षणवत् यहां भी धर्मधर्मी आदि में सर्वथा भेद दर्शाकर पर्यायनैगम व द्रव्यनैगम आदि के आभासों का निरूपण किया गया है।) जैसे‒
- शरीरधारी आत्मा में सुख व संवेदन का सर्वथा नानापने का अभिप्राय रखना अर्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि द्रव्य के गुणों का परस्पर में अथवा अपने आश्रयभूत द्रव्य के साथ ऐसा भेद प्रतीतिगोचर नहीं है।31।
- आत्मा से सत्ता और चैतन्य का अथवा सत्ता और चैतन्य का परस्पर में अत्यन्त भेद मानना व्यञ्जनपर्याय नैगमाभास है।34।
- धर्मात्मा पुरुष में सुख व जीवनपने का सर्वथा भेद मानना अर्थव्यञ्जनपर्याय-नैगमाभास है।36।
- सब द्रव्यों में अन्वयरूप से रहने का निश्चय किये बिना द्रव्यपने और सत्पने को सर्वथा भेदरूप कहना शुद्धद्रव्यनैगमाभास है।38।
- पर्याय व पर्यायवान् में सर्वथा भेद मानना अशुद्ध-द्रव्यनैगमाभास है। क्योंकि घट पट आदि बहिरंग पदार्थों में तथा आत्मा ज्ञान आदि अन्तरंग पदार्थों में इस प्रकार का भेद प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध है।40।
- सुखस्वरूप अर्थपर्याय से सत्त्वस्वरूप शुद्धद्रव्य को सर्वथा भिन्न मानना शुद्धद्रव्यार्थपर्यायनैगमाभास है। क्योंकि इस प्रकार का भेद अनेक बाधाओं सहित है।42।
- सुख और जीव को सर्वथा भेदरूप से कहना अशुद्धद्रव्यार्थपर्याय नैगमाभास है। क्योंकि गुण व गुणी में सर्वथा भेद प्रमाणों से बाधित है।44।
- सत् व चैतन्य के सर्वथा भेद या अभेद का अभिप्राय रखना शुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय-नैगमाभास है।47।
- मनुष्य व गुणी का सर्वथा भेद या अभेद मानना अशुद्ध द्रव्य व्यञ्जनपर्याय नैगमाभास है।47।