शरीर का कथंचित् इष्टानिष्टपना: Difference between revisions
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="III" name="III">३. शरीर का कथंचित् इष्टानिष्टपना</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="III" name="III">३. शरीर का कथंचित् इष्टानिष्टपना</strong></p> | ||
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<span class="HeadingTitle HindiText"><strong id="III.1" name="III.1">१. शरीर दु:ख का कारण है</strong></span></p> | |||
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स.श./मू./१५ <span class="SanskritText">मूलं संसारदु:खस्य देह एवात्मधीस्तत:। त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्वहिरव्यापृतेन्द्रिय:।१५।</span> | स.श./मू./१५ <span class="SanskritText">मूलं संसारदु:खस्य देह एवात्मधीस्तत:। त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्वहिरव्यापृतेन्द्रिय:।१५।</span> | ||
<span class="HindiText">=इस शरीर में आत्मबुद्धि का होना संसार के दु:खों का मूल कारण है। इसलिए शरीर में आत्मत्व को छोड़कर बाह्य इन्द्रिय विषयों से प्रवृत्ति को रोकता हुआ आत्मा अन्तरंग में प्रवेश करे।१५।</span></p> | |||
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<span class="SanskritText">आ.अनु./१९५ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च मानहानिप्रयासभयपापकुयोनिदा: स्यु-र्मूलं ततस्तनुरनर्थपरंपराणाम् ।१९५।</span> | |||
<span class="HindiText">=प्रारम्भ में शरीर उत्पन्न होता है, इससे दुष्ट इन्द्रियाँ होती हैं, वे अपने-अपने विषयों को चाहती हैं। और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गति को देने वाले हैं। इस प्रकार से समस्त अनर्थों की मूल परम्परा का कारण शरीर है।१९५।</span></p> | |||
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<span class="SanskritText">ज्ञा.२/६/१०-११ शरीरमेतदादाय त्वया दु:खं विसह्यते। जन्मन्यस्मिंस्ततस्तद्धि नि:शेषानर्थमन्दिरम् ।१०। भवोद्भवानि दु:खानि यानि यानीह देहिभि:। सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम् ।११।</span><span class="HindiText">=हे आत्मन् ! तूने इस संसार में शरीर को ग्रहण करके दु:ख पाये वा सहे हैं, इसी से तू निश्चय जान कि यह शरीर ही समस्त अनर्थों का घर है, इसके संसर्ग से सुख का लेश भी नहीं मान।१०। इस जगत् में संसार से उत्पन्न जो-जो दु:ख जीवों को सहने पड़ते हैं वे सब इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं, इस शरीर से निवृत्त होने पर कोई भी दु:ख नहीं है।११।</span></p> | |||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.2" name="III.2">२. शरीर वास्तव में अपकारी है</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.2" name="III.2">२. शरीर वास्तव में अपकारी है</strong></p> | ||
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<span class="PrakritText">इ.उ./१९ यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकं। यद् देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकं।१९।</span> | |||
<span class="HindiText">=जो अनशनादि तप जीव का उपकारक है वह शरीर का अपकारक है, और जो धन, | |||
वस्त्र, भोजनादि शरीर का उपकारक है वह जीव का अपकारक है।१९।</span></p> | वस्त्र, भोजनादि शरीर का उपकारक है वह जीव का अपकारक है।१९।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">अन.ध./४/१४१ योगाय कायमनुपालयतोऽपि युक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽन्यथाक्षसुखजीवितरन्ध्रलाभात्, तृष्णा सरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोद्रिम् ।१४१।</span> | |||
<span class="HindiText">=योग-रत्नत्रयात्मक धर्म की सिद्धि के लिए संयम के पालन में विरोध न आवे इस तरह से रक्षा करते हुए भी शक्ति और युक्ति के साथ शरीर में लगे ममत्व को दूर करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार साधारण भी नदी जरा से भी छिद्र को पाकर दुर्भेद्य भी पर्वत में प्रवेशकर जर्जरित कर देती है उसी प्रकार तुच्छ तृष्णा भी समीचीन तप रूप पर्वत को छिन्न-भिन्नकर जर्जरित कर डालेगी।१४१।</span></p> | |||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.3" name="III.3">३. धर्मार्थी के लिए शरीर उपकारी है</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.3" name="III.3">३. धर्मार्थी के लिए शरीर उपकारी है</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">ज्ञा.२/६/९ तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभि:। विरज्य जन्मन: स्वार्थे यै: शरीरं कदर्थितम् ।९।</span><span class="HindiText">=इस शरीर के प्राप्त होने का फल उन्होंने लिया है, जिन्होंने संसार से विरक्त होकर, इसे अपने कल्याण मार्ग में पुण्यकर्मों से क्षीण किया।९।</span></p> | |||
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<span class="SanskritText">अन.ध./४/१४० शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षितव्यं प्रयत्नत:। इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति तण्डुल:।१४०।</span> | |||
<span class="HindiText">='धर्म के साधन शरीर की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए', इस शिक्षा को प्रवचन का तुष समझना चाहिए। 'आत्मसिद्धि के लिए शरीररक्षा का प्रयत्न सर्वथा निरुपयोगी है।' इस शिक्षा को प्रवचन का तण्डुल समझना चाहिए।</span></p> | |||
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<span class="SanskritText">अन.ध./७/९ शरीमाद्यं किल धर्मसाधनं, तदस्य यस्येत् स्थितयेऽशनादिना। तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं, न वानुधावन्त्यनुबद्धतृड्वशात् ।९।</span>=<span class="HindiText">रत्नरूप धर्म का साधन शरीर है अत: शयन, भोजनपान आदि के द्वारा इसके स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस बात को सदा लक्ष्य में रखना चाहिए कि भोजनादिक में प्रवृत्ति ऐसी और उतनी हो जिससे इन्द्रियाँ अपने अधीन रहें। ऐसा न हो कि अनादिकाल की वासना के वशवर्ती होकर उन्मार्ग की तरफ दौड़ने लगें।९।</span></p> | |||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.4" name="III.4">४. शरीर ग्रहण का प्रयोजन</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.4" name="III.4">४. शरीर ग्रहण का प्रयोजन</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">आ.अनु./७० अवश्यं नश्वरैरेभिरायु: कायादिभिर्यदि। शाश्वतं पदमायाति मुधायातमवैहि ते।७०।</span> =<span class="HindiText">इसलिए यदि अवश्य नष्ट होने वाले इन आयु और शरीरादिकों के द्वारा तुझे अविनश्वर पद प्राप्त होता है तो तू उसे अनायास ही आया समझ/७।</span></p> | |||
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<strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.5" name="III.5">५. शरीर बन्ध बताने का प्रयोजन</strong></p> | <strong class="HeadingTitle HindiText" id="III.5" name="III.5">५. शरीर बन्ध बताने का प्रयोजन</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">पं.का./ता.वृ./३४/७३/१० अत्र य एव देहाद्भिन्नोऽनन्तज्ञानादिगुण: शुद्धात्मा भणित: स एव शुभाशुभसंकल्पविकल्पपरिहारकाले सर्वत्र प्रकारेणोपादेयो भवतीत्यभिप्राय:।</span>=<span class="HindiText">यहाँ जो यह देह से भिन्न अनन्त ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न शुद्धात्मा कहा गया है, वह आत्मा ही शुभ व अशुभ संकल्प विकल्प के परिहार के समय सर्वप्रकार से उपादेय होता है, ऐसा अभिप्राय है।</span></p> | |||
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<span class="SanskritText">द्र.सं./टी./१०/२७/७ इदमत्र तात्पर्यम्-देहममत्वनिमित्तेन देहं गृहीत्वा संसारे परिभ्रमति तेन कारणेन देहादिममत्वं त्यक्त्वा निर्मोहनिजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्येति।</span> =<span class="HindiText">तात्पर्य यह है-जीव देह के साथ ममत्व के निमित्त से देह को ग्रहणकर संसार में भ्रमण करता है, इसलिए देह आदि के ममत्व को छोड़कर निर्मोह अपने शुद्धात्मा में भावना करनी चाहिए।</span></p> | |||
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Revision as of 14:15, 31 January 2016
३. शरीर का कथंचित् इष्टानिष्टपना
१. शरीर दु:ख का कारण है
स.श./मू./१५ मूलं संसारदु:खस्य देह एवात्मधीस्तत:। त्यक्त्वैनां प्रविशेदन्तर्वहिरव्यापृतेन्द्रिय:।१५। =इस शरीर में आत्मबुद्धि का होना संसार के दु:खों का मूल कारण है। इसलिए शरीर में आत्मत्व को छोड़कर बाह्य इन्द्रिय विषयों से प्रवृत्ति को रोकता हुआ आत्मा अन्तरंग में प्रवेश करे।१५।
आ.अनु./१९५ आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च मानहानिप्रयासभयपापकुयोनिदा: स्यु-र्मूलं ततस्तनुरनर्थपरंपराणाम् ।१९५। =प्रारम्भ में शरीर उत्पन्न होता है, इससे दुष्ट इन्द्रियाँ होती हैं, वे अपने-अपने विषयों को चाहती हैं। और वे विषय मानहानि, परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गति को देने वाले हैं। इस प्रकार से समस्त अनर्थों की मूल परम्परा का कारण शरीर है।१९५।
ज्ञा.२/६/१०-११ शरीरमेतदादाय त्वया दु:खं विसह्यते। जन्मन्यस्मिंस्ततस्तद्धि नि:शेषानर्थमन्दिरम् ।१०। भवोद्भवानि दु:खानि यानि यानीह देहिभि:। सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम् ।११।=हे आत्मन् ! तूने इस संसार में शरीर को ग्रहण करके दु:ख पाये वा सहे हैं, इसी से तू निश्चय जान कि यह शरीर ही समस्त अनर्थों का घर है, इसके संसर्ग से सुख का लेश भी नहीं मान।१०। इस जगत् में संसार से उत्पन्न जो-जो दु:ख जीवों को सहने पड़ते हैं वे सब इस शरीर के ग्रहण से ही सहने पड़ते हैं, इस शरीर से निवृत्त होने पर कोई भी दु:ख नहीं है।११।
२. शरीर वास्तव में अपकारी है
इ.उ./१९ यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकं। यद् देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकं।१९। =जो अनशनादि तप जीव का उपकारक है वह शरीर का अपकारक है, और जो धन, वस्त्र, भोजनादि शरीर का उपकारक है वह जीव का अपकारक है।१९।
अन.ध./४/१४१ योगाय कायमनुपालयतोऽपि युक्त्या, क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽन्यथाक्षसुखजीवितरन्ध्रलाभात्, तृष्णा सरिद्विधुरयिष्यति सत्तपोद्रिम् ।१४१। =योग-रत्नत्रयात्मक धर्म की सिद्धि के लिए संयम के पालन में विरोध न आवे इस तरह से रक्षा करते हुए भी शक्ति और युक्ति के साथ शरीर में लगे ममत्व को दूर करना चाहिए। क्योंकि जिस प्रकार साधारण भी नदी जरा से भी छिद्र को पाकर दुर्भेद्य भी पर्वत में प्रवेशकर जर्जरित कर देती है उसी प्रकार तुच्छ तृष्णा भी समीचीन तप रूप पर्वत को छिन्न-भिन्नकर जर्जरित कर डालेगी।१४१।
३. धर्मार्थी के लिए शरीर उपकारी है
ज्ञा.२/६/९ तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभि:। विरज्य जन्मन: स्वार्थे यै: शरीरं कदर्थितम् ।९।=इस शरीर के प्राप्त होने का फल उन्होंने लिया है, जिन्होंने संसार से विरक्त होकर, इसे अपने कल्याण मार्ग में पुण्यकर्मों से क्षीण किया।९।
अन.ध./४/१४० शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षितव्यं प्रयत्नत:। इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति तण्डुल:।१४०। ='धर्म के साधन शरीर की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए', इस शिक्षा को प्रवचन का तुष समझना चाहिए। 'आत्मसिद्धि के लिए शरीररक्षा का प्रयत्न सर्वथा निरुपयोगी है।' इस शिक्षा को प्रवचन का तण्डुल समझना चाहिए।
अन.ध./७/९ शरीमाद्यं किल धर्मसाधनं, तदस्य यस्येत् स्थितयेऽशनादिना। तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं, न वानुधावन्त्यनुबद्धतृड्वशात् ।९।=रत्नरूप धर्म का साधन शरीर है अत: शयन, भोजनपान आदि के द्वारा इसके स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। किन्तु इस बात को सदा लक्ष्य में रखना चाहिए कि भोजनादिक में प्रवृत्ति ऐसी और उतनी हो जिससे इन्द्रियाँ अपने अधीन रहें। ऐसा न हो कि अनादिकाल की वासना के वशवर्ती होकर उन्मार्ग की तरफ दौड़ने लगें।९।
४. शरीर ग्रहण का प्रयोजन
आ.अनु./७० अवश्यं नश्वरैरेभिरायु: कायादिभिर्यदि। शाश्वतं पदमायाति मुधायातमवैहि ते।७०। =इसलिए यदि अवश्य नष्ट होने वाले इन आयु और शरीरादिकों के द्वारा तुझे अविनश्वर पद प्राप्त होता है तो तू उसे अनायास ही आया समझ/७।
५. शरीर बन्ध बताने का प्रयोजन
पं.का./ता.वृ./३४/७३/१० अत्र य एव देहाद्भिन्नोऽनन्तज्ञानादिगुण: शुद्धात्मा भणित: स एव शुभाशुभसंकल्पविकल्पपरिहारकाले सर्वत्र प्रकारेणोपादेयो भवतीत्यभिप्राय:।=यहाँ जो यह देह से भिन्न अनन्त ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न शुद्धात्मा कहा गया है, वह आत्मा ही शुभ व अशुभ संकल्प विकल्प के परिहार के समय सर्वप्रकार से उपादेय होता है, ऐसा अभिप्राय है।
द्र.सं./टी./१०/२७/७ इदमत्र तात्पर्यम्-देहममत्वनिमित्तेन देहं गृहीत्वा संसारे परिभ्रमति तेन कारणेन देहादिममत्वं त्यक्त्वा निर्मोहनिजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्येति। =तात्पर्य यह है-जीव देह के साथ ममत्व के निमित्त से देह को ग्रहणकर संसार में भ्रमण करता है, इसलिए देह आदि के ममत्व को छोड़कर निर्मोह अपने शुद्धात्मा में भावना करनी चाहिए।