गुण संक्रमण निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="7.1"><strong> | <p class="HindiText" id="7.1"><strong>1. गुण संक्रमण का लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id=""><strong>नोट</strong> - [प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमावे सो गुण संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि पल्य/असंख्यात है परन्तु अध:प्रवृत्त से असंख्यात गुणहीन हीन है। इसलिए इसके द्वारा प्रतिसमय ग्रहण किया गया द्रव्य बहुत ही अधिक होता है। उपान्त्य काण्डक पर्यन्त विशेष हानि क्रम से उठाता हुआ चलता है। (यहाँ तक तो उद्वेलना संक्रमण है), परन्तु अन्तिम काण्डक की अन्तिम फालि पर्यन्त गुणश्रेणी रूप से उठाता है।</p> | <p class="HindiText" id=""><strong>नोट</strong> - [प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमावे सो गुण संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि पल्य/असंख्यात है परन्तु अध:प्रवृत्त से असंख्यात गुणहीन हीन है। इसलिए इसके द्वारा प्रतिसमय ग्रहण किया गया द्रव्य बहुत ही अधिक होता है। उपान्त्य काण्डक पर्यन्त विशेष हानि क्रम से उठाता हुआ चलता है। (यहाँ तक तो उद्वेलना संक्रमण है), परन्तु अन्तिम काण्डक की अन्तिम फालि पर्यन्त गुणश्रेणी रूप से उठाता है।</p> | ||
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जिन प्रकृतियों का बन्ध हो रहा हो उनका गुण संक्रमण नहीं हो सकता; अबन्धरूप प्रकृतियों का होता है और स्व जाति में ही होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में गुण संक्रम नहीं होता। अनन्तानुबन्धी का गुण संक्रमण विसंयोजना कहलाता है।।</p> | जिन प्रकृतियों का बन्ध हो रहा हो उनका गुण संक्रमण नहीं हो सकता; अबन्धरूप प्रकृतियों का होता है और स्व जाति में ही होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में गुण संक्रम नहीं होता। अनन्तानुबन्धी का गुण संक्रमण विसंयोजना कहलाता है।।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.क./जी.प्र./413/576/9 प्रतिसमयसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद् गुणसंक्रमणं नाम।</span> = <span class="HindiText">जहाँ पर प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीक्रम से परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमे सो गुणसंक्रमण है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="7.2"><strong> | <p class="HindiText" id="7.2"><strong>2. बन्धवाली प्रकृतियों का नहीं होता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./75/109/17 अप्रशस्तानां बन्धोज्झितप्रकृतीनां द्रव्यं प्रतिसमयमसंख्येयगुणं बध्यमानसजातीयप्रकृतिषु संक्रामति। पूर्वस्वरूपं गृह्णातीत्यर्थ:। | ||
</span> = <span class="HindiText">बन्ध अयोग्य अप्रशस्त प्रकृतियों का द्रव्य, समय-समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसी स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है, अपने स्वरूप को छोड़कर तद्रूप परिणमन करता है।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">बन्ध अयोग्य अप्रशस्त प्रकृतियों का द्रव्य, समय-समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसी स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है, अपने स्वरूप को छोड़कर तद्रूप परिणमन करता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./224/280/8 बन्धवत्प्रकृतीनां गुणसंक्रमो नास्ति। | ||
</span> = <span class="HindiText">जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसी प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसी प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता।</span></p> | ||
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<p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">ल.सा./जी.प्र./75-76/109/110/16 गुणसंक्रम: अपूर्वकरणप्रथमसमये नास्ति तथापि स्वयोग्यावसरे भविष्यत: (75) एवंविधं प्रतिसमयमसंख्येयगुणं संक्रमणं प्रथमकषायाणामनन्तानुबन्धिनां विसंयोजने वर्तते। मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्यो: क्षपणायां वर्तते। इतरासां प्रकृतीनामुभयश्रेण्यामुपशमकश्रेण्यां क्षपकश्रेण्यां च वर्तते।76।</span> = <span class="HindiText">गुण संक्रमण अपूर्वकरण के पहले समय में नहीं होता है। अपने योग्यकाल में होता है।75। असंख्यतगुणा क्रम लिये जो हो उसको गुण संक्रमण कहते हैं। सो अनन्तानुबन्धी कषायों को गुणसंक्रमण उनकी विसंयोजना में होता है। मिथ्यात्व और मिश्रप्रकृति का गुण संक्रमण उनकी क्षपणा में होता है, और अन्य प्रकृतियों का गुणसंक्रमण उपशम व क्षपक श्रेणी में होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="7.4"><strong> | <p class="HindiText" id="7.4"><strong>4. गुण संक्रमण काल का लक्षण</strong></p> | ||
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ल.सा./भाषा./ | ल.सा./भाषा./128/169/9 मिश्र मोहनीय (या विवक्षित प्रकृति का) गुण संक्रमण कर यावत् सम्यक्त्व मोहनीयरूप (या यथा योग्य किसी अन्य विवक्षित प्रकृतिरूप) परिणमै तावत् गुणसंक्रमण काल कहिये।</p> | ||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
गुण संक्रमण निर्देश
1. गुण संक्रमण का लक्षण
नोट - [प्रति समय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमावे सो गुण संक्रमण है। इसका भागाहार भी यद्यपि पल्य/असंख्यात है परन्तु अध:प्रवृत्त से असंख्यात गुणहीन हीन है। इसलिए इसके द्वारा प्रतिसमय ग्रहण किया गया द्रव्य बहुत ही अधिक होता है। उपान्त्य काण्डक पर्यन्त विशेष हानि क्रम से उठाता हुआ चलता है। (यहाँ तक तो उद्वेलना संक्रमण है), परन्तु अन्तिम काण्डक की अन्तिम फालि पर्यन्त गुणश्रेणी रूप से उठाता है।
जिन प्रकृतियों का बन्ध हो रहा हो उनका गुण संक्रमण नहीं हो सकता; अबन्धरूप प्रकृतियों का होता है और स्व जाति में ही होता है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में गुण संक्रम नहीं होता। अनन्तानुबन्धी का गुण संक्रमण विसंयोजना कहलाता है।।
गो.क./जी.प्र./413/576/9 प्रतिसमयसंख्येयगुणश्रेणिक्रमेण यत्प्रदेशसंक्रमणं तद् गुणसंक्रमणं नाम। = जहाँ पर प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणीक्रम से परमाणु-प्रदेश अन्य प्रकृतिरूप परिणमे सो गुणसंक्रमण है।
2. बन्धवाली प्रकृतियों का नहीं होता
ल.सा./जी.प्र./75/109/17 अप्रशस्तानां बन्धोज्झितप्रकृतीनां द्रव्यं प्रतिसमयमसंख्येयगुणं बध्यमानसजातीयप्रकृतिषु संक्रामति। पूर्वस्वरूपं गृह्णातीत्यर्थ:। = बन्ध अयोग्य अप्रशस्त प्रकृतियों का द्रव्य, समय-समय प्रति असंख्यातगुणा क्रम लिये जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसी स्वजाति प्रकृतियों में संक्रमण करता है, अपने स्वरूप को छोड़कर तद्रूप परिणमन करता है।
ल.सा./जी.प्र./224/280/8 बन्धवत्प्रकृतीनां गुणसंक्रमो नास्ति। = जिनका बन्ध पाया जाता है ऐसी प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता।
3. गुण संक्रमण योग्य स्थान
ल.सा./जी.प्र./75-76/109/110/16 गुणसंक्रम: अपूर्वकरणप्रथमसमये नास्ति तथापि स्वयोग्यावसरे भविष्यत: (75) एवंविधं प्रतिसमयमसंख्येयगुणं संक्रमणं प्रथमकषायाणामनन्तानुबन्धिनां विसंयोजने वर्तते। मिथ्यात्वमिश्रप्रकृत्यो: क्षपणायां वर्तते। इतरासां प्रकृतीनामुभयश्रेण्यामुपशमकश्रेण्यां क्षपकश्रेण्यां च वर्तते।76। = गुण संक्रमण अपूर्वकरण के पहले समय में नहीं होता है। अपने योग्यकाल में होता है।75। असंख्यतगुणा क्रम लिये जो हो उसको गुण संक्रमण कहते हैं। सो अनन्तानुबन्धी कषायों को गुणसंक्रमण उनकी विसंयोजना में होता है। मिथ्यात्व और मिश्रप्रकृति का गुण संक्रमण उनकी क्षपणा में होता है, और अन्य प्रकृतियों का गुणसंक्रमण उपशम व क्षपक श्रेणी में होता है।
4. गुण संक्रमण काल का लक्षण
ल.सा./भाषा./128/169/9 मिश्र मोहनीय (या विवक्षित प्रकृति का) गुण संक्रमण कर यावत् सम्यक्त्व मोहनीयरूप (या यथा योग्य किसी अन्य विवक्षित प्रकृतिरूप) परिणमै तावत् गुणसंक्रमण काल कहिये।