श्वेतांबर: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="1"><strong>श्वेताम्बर मत का स्वरूप</strong></p> | <p class="HindiText" id="1"><strong>श्वेताम्बर मत का स्वरूप</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.सि./ | <p><span class="SanskritText">स.सि./8/1/5 सग्रन्थ: निर्ग्रन्थ:। केवली कवलाहारी। स्त्री सिध्यति। एवमित्यादि विपर्यय:।</span> = <span class="HindiText">सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपरीत मिथ्यादर्शन है। (रा.वा./8/1/28/564/20), (त.सा./5/6)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">द.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">द.सा./मू./13-14 तेणकियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुण अण्णक्खाण तहा रोगो।13। अंबरसहिओ वि जई सिज्झई वीरस्स गब्भचारत्तं। परलिंगे विय मुत्ते फासुयभोज्जं च सव्वत्था।14।</span> =<span class="HindiText">उसने (आचार्य जिनचन्द्र ने) यह मत चलाया कि स्त्रियों को तद्भव में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है।13। वस्त्रधारी तथा अन्य लिंग वाले भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् वीर के गर्भ का संचार हुआ था। अर्थात् पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ में आये और पीछे क्षत्रियाणी के गर्भ में चले गये। मुनिजन किसी के घर भी प्रासुक भोजन कर सकते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द.पा./टी./ | <p><span class="SanskritText">द.पा./टी./11/11/11 श्वेतवासस: सर्वत्र भोजनं गृह्णन्ति, प्रासुकं मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्णलोप: कृत:।</span> = <span class="HindiText">श्वेताम्बर साधु सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी समझ में मांस भक्षकों के यहाँ भी प्रासुक भोजन करने में दोष नहीं है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./ | <p><span class="SanskritText">गो.जी./जी.प्र./16 इन्द्र: श्वेताम्बरगुरु: तदादय: संशयितमिथ्यादृष्टय:।</span> = <span class="HindiText">इन्द्र श्वेताम्बरों का गुरु था। उनको आदि लेकर संशयित मिथ्यादृष्टि हैं।</span></p> | ||
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द.सा./प्र./ | द.सा./प्र./50 प्रेमीजी - दर्शनसार ग्रन्थ में तथा गोम्मटसार की टीका में जो श्वेताम्बरों की गणना सांशयिक मिथ्यादृष्टियों में की सो ठीक नहीं है। वास्तव में उनकी गणना विपरीत मत में हो सकती है ऐसा उपरोक्त सर्वार्थसिद्धि के उद्धरण से स्पष्ट है।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="2"><strong>दिगम्बर के अनुसार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="2"><strong>दिगम्बर के अनुसार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति</strong></p> | ||
<p class="HindiText">दिगम्बर मत के अनुसार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति कैसे हुई, उसके सम्बन्ध में ही नीचे दो कथाएँ दी जाती हैं। - </p> | <p class="HindiText">दिगम्बर मत के अनुसार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति कैसे हुई, उसके सम्बन्ध में ही नीचे दो कथाएँ दी जाती हैं। - </p> | ||
<p><span class="PrakritText">द.सा./मू./ | <p><span class="PrakritText">द.सा./मू./11-12 एक्कसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। सोरट्ठे बलहीए उप्पण्णो सेवडो संघी।11। सिरि भद्दबाहुगणिनो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो।12। तेण कियं मयमेयं...।13।</span> = <span class="HindiText">इसी बात को और भी विस्तृत रूप से इन्हीं देवसेनाचार्य ने अपने भावसंग्रह नामक ग्रन्थ में एक कथा के रूप में दिया है। उसका संक्षिप्त सार निम्न है -</span> </p> | ||
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भावसंग्रह/ | भावसंग्रह/52-75 विक्रम संवत् 136 में सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। इस संघ के प्रवर्तक भद्रबाहु गणी जी एक निमित्तज्ञानी थे (पंचम श्रुतकेवली से भिन्न थे) उनके शिष्य शान्त्याचार्य, तथा उनके भी शिष्य जिनचन्द्र थे। उज्जैनी नगरी में 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के सम्बन्ध में आचार्य भद्रबाहु को भविष्यवाणी सुनकर सर्व आचार्य अपने-अपने संघ को लेकर वहाँ से विहार कर गये।53-55। भद्रबाहु के शिष्य शान्ति नाम के आचार्य सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में आये।56। परन्तु वहाँ भी भारी दुष्काल पड़ा।57। परिस्थितिवश सिंह वृत्ति छोड़कर साधुओं ने वस्त्र, पात्र आदि धारण कर लिये और वसतिका में से भोजन माँगकर लाने लगे।58-59। दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने पर जब शान्त्याचार्य ने पुन: उन्हें शुद्ध चारित्र पालने का आदेश दिया तो उनके शिष्य जिनचन्द्र ने उन्हें जान से मार दिया और स्वयं संघ नायक बन गया।60-69। शान्त्याचार्य मरकर व्यन्तर हुआ और संघ पर उपद्रव करने लगा, जिसे शान्त करने के लिए जिनचन्द्र ने उसकी एक कुलदेवता के रूप में पूजा प्रचलित कर दी। जो आज तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चली आ रही है।70-75।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="3"><strong>अर्धफालक संघ की उत्पत्ति</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="3"><strong>अर्धफालक संघ की उत्पत्ति</strong></p> | ||
<p class="HindiText">भद्रबाहु चरित्र/तृ.परिच्छेद - बिलकुल उपरोक्त प्रकार की कथा कुछ उचित परिवर्तनों के साथ भट्टारक श्री रत्ननन्दि ने भद्रबाहु चरित्र में दी है। उसका सारांश यह है कि - पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी के मुख से उज्जैनी में पड़ने वाले | <p class="HindiText">भद्रबाहु चरित्र/तृ.परिच्छेद - बिलकुल उपरोक्त प्रकार की कथा कुछ उचित परिवर्तनों के साथ भट्टारक श्री रत्ननन्दि ने भद्रबाहु चरित्र में दी है। उसका सारांश यह है कि - पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी के मुख से उज्जैनी में पड़ने वाले 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के सम्बन्ध में सुनकर भी तथा अन्य संघों के दक्षिण की ओर विहार कर जाने पर भी रामल्य, स्थूलभद्र व स्थूलाचार्य नाम के आचार्यों ने जाना स्वीकार न किया। दुर्भिक्ष पड़ा और परिस्थिति वश उन्होंने कुछ शिथिलाचार अपना लिये। वे लोग पात्र ग्रहण करके भोजन माँगने के लिए वसतिका में जाने लगे और अपनी नग्नता को उतने समय छिपाने के लिए, एक वस्त्र का टुकड़ा भी अपने पास रखने लगे, जिसे वसतिका में जाते समय वे अपने आगे ढँक लेते थे और लौटने पर पृथक् कर देते थे। इस कारण इस संघ का नाम अर्धफालक पड़ गया तत्पश्चात् सुभिक्ष हो जाने पर जब दक्षिण से वह मूल संघ लौट आया तब स्थूलाचार्य ने अपने संघ से पुन: पहला मार्ग अपनाने को कहा। संघ ने उन्हें जान से मार दिया। वे व्यन्तर हो गये और संघ पर उपद्रव करने लगे, जिसे शान्त करने के लिए संघ ने उनकी अपने कुलदेवता के रूप में पूजा करनी प्रारम्भ कर दी। 450 वर्ष तक यह संघ इसी अर्धफाल के रूप में घूमता रहा। तत्पश्चात् वि.सं.136 में सौराष्ट्र देश की वल्लभीपुरी नगरी को प्राप्त हुआ। उस समय इस संघ के आचार्य जिनचन्द्र थे। वल्लभीपुर नरेश की रानी उज्जैनी नरेश की पुत्री थी। उज्जैनी में रहते उसने इन्हीं साधुओं के पास विद्याध्ययन किया था। अत: विनयपूर्वक अपने यहाँ बुलाने की इच्छा करने लगी। परन्तु राजा को उनका वह वेष पसन्द न था, अत: उसने उन साधुओं के पास कुछ वस्त्र भेज दिये, जिसे जिनचन्द्र ने राजा व रानी की प्रसन्नता के अर्थ ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। बस तभी इस संघ का नाम श्वेताम्बर पड़ गया।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">हरिषेण कृत कथा कोष/ | <p><span class="SanskritText">हरिषेण कृत कथा कोष/58-59/पृ.318 यावन्न शोभन: काल: जायते साधव: स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुर: कृत्वाऽर्धफालकम् ।58। भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च। गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने।59।</span> =<span class="HindiText">12 वर्षीय दुर्भिक्ष के समय 12000 साधुओं के साथ श्रुतकेवली भद्रबाहु और विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त) दक्षिणपथ को चले गए और अपने संघ को यह आदेश दिया कि जब तक सुभिक्ष न हो जाये तब तक साधुओं को चाहिए कि वे अपना बायाँ हाथ आगे करके उस पर एक अर्धफालक (कपड़े का टुकड़ा) लटका लें। तथा दायें हाथ से भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करके, उसे दिन के समय अपनी वसतिका में बैठकर खा लें।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="4"><strong>श्वेताम्बरों के विविध गच्छ</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="4"><strong>श्वेताम्बरों के विविध गच्छ</strong></p> | ||
<p class="HindiText">श्वेताम्बरों में विविध गच्छ प्रसिद्ध हैं, यथा - चैत्यवासी गच्छ, उपकेशगच्छ, खरतर गच्छ, तपा गच्छ, पार्श्वचन्द्र गच्छ, सार्धपौर्णमीयक गच्छ, आंचलिक गच्छ, आगमिक गच्छ आदि। इनमें से आज खरतर, तथा आंचलिक गच्छ ही उपलब्ध होते हैं। प्रत्येक गच्छ की समाचारी जुदी है तथा उनके श्रावकों की सामायिक प्रतिक्रमण आदि विषयक विधियाँ भी जुदी हैं। कोई कल्याणक के दिन छह मानता है तो कोई पाँच। कोई पर्युषण का अन्तिम दिन भाद्रपद शु. | <p class="HindiText">श्वेताम्बरों में विविध गच्छ प्रसिद्ध हैं, यथा - चैत्यवासी गच्छ, उपकेशगच्छ, खरतर गच्छ, तपा गच्छ, पार्श्वचन्द्र गच्छ, सार्धपौर्णमीयक गच्छ, आंचलिक गच्छ, आगमिक गच्छ आदि। इनमें से आज खरतर, तथा आंचलिक गच्छ ही उपलब्ध होते हैं। प्रत्येक गच्छ की समाचारी जुदी है तथा उनके श्रावकों की सामायिक प्रतिक्रमण आदि विषयक विधियाँ भी जुदी हैं। कोई कल्याणक के दिन छह मानता है तो कोई पाँच। कोई पर्युषण का अन्तिम दिन भाद्रपद शु.4 मानता है और कोई भाद्रपद शु.5।</p> | ||
<p class="HindiText">'धर्मसागर' कृत पट्टावली के अनुसार वि.नि. | <p class="HindiText">'धर्मसागर' कृत पट्टावली के अनुसार वि.नि.882 में चैत्यवास प्रारम्भ हुआ। 'जिनवल्लभ सूरि' कृत संघपट्ट की भूमिका में भी चैत्यवास का कुछ इतिहास उल्लिखित है। अनेकान्त वर्ष 3 अंक 8-9 के 'यति समाज' शीर्षक में श्री अगरचन्द नाहटा ने श्वेताम्बर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।</p> | ||
<p class="HindiText">अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेव की सभा में वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि द्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ही खरतर नाम से पुकारा जाने लगा।</p> | <p class="HindiText">अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेव की सभा में वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि द्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ही खरतर नाम से पुकारा जाने लगा।</p> | ||
<p class="HindiText">वि.सं. | <p class="HindiText">वि.सं.1285 में भी जगच्चन्द्र सूरि के उग्र तप से प्रभावित होकर मेवाड़ के राजा ने उसके गच्छ को 'तपा गच्छ' नाम प्रदान किया।</p> | ||
<p class="HindiText">मुख पट्टी के बदले अंचलका अर्थात् वस्त्र के छोर का उपयोग किया जाने के कारण 'आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है।</p> | <p class="HindiText">मुख पट्टी के बदले अंचलका अर्थात् वस्त्र के छोर का उपयोग किया जाने के कारण 'आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="5"><strong>अर्धफालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="5"><strong>अर्धफालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText">द.सा./प्र./ | <p><span class="HindiText">द.सा./प्र./60 प्रेमी जी - अब इस बात पर विचार करना है कि भावसंग्रह की कथा में (भद्रबाहु चरित्र के कर्ता ने) इतना परिवर्तन क्यों किया। हमारी समझ में इसका कारण भद्रबाहु का और श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति का समय है। भाव संग्रह के कर्ता ने तो भद्रबाहु को केवल निमित्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननन्दि उन्हें (श्रुतावतार के अनुसार) पंचम श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार श्रुतकेवली का शरीरान्त वी.नि.162 में हुआ है। (देखें [[ इतिहास#4.1 | इतिहास - 4.1 ]]और श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वी.नि.606) (वि.136) में बतायी गयी है। दोनों के बीच में इस 450 वर्ष के अन्तर को पूरा करने के लिए ही रत्ननन्दि ने श्वेताम्बर से पहले अर्धफालक उत्पन्न होने की कल्पना की है। दूसरे श्वेताम्बर मत जिनचन्द्र के द्वार वल्लभीपुर में प्रगट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ कि दुर्भिक्ष के समय जो मत प्रगट हुआ था उसका स्थान व प्रवर्तक इससे भिन्न बताया जाये। इसलिए अर्धफालक की उत्पत्ति उज्जैनी में बतायी गयी और इसके प्रवर्तक आचार्य का नाम भी स्थूलभद्र रखा, जो कि श्वेताम्बर आम्नाय में अति प्रसिद्ध है। उज्जैनी नगरी में वी.नि.162 में उत्पन्न होने के पश्चात् वह संघ अर्धफालक के रूप में 450 वर्ष तक विहार करता रहा। अर्धफालक संघ वाले साधु जब वस्तिका में भोजन लेने जाते थे, तो एक वस्त्र के टुकड़े को वे अपनी बायीं भुजा पर लटका कर रखते थे, जिससे उनकी नग्नता छिप जायें। चर्या से लौटने पर उस वस्त्र को पुन: पृथक् करके वे दिगम्बर हो जाते थे। यही संघ कालयोग से वी.नि.606 में वल्लभीपुरी में प्राप्त हुआ। उस समय उस संघ का आचार्य जिनचन्द्र था, जिसने उपरोक्त कथनानुसार इसे श्वेताम्बर के रूप में प्रवर्तित कर दिया। इस प्रकार इसकी संगति भद्रबाहु श्रुतकेवली तथा 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के साथ भी बैठ जाती है। श्वेताम्बरों के आदि गुरु स्थूलभद्र के साथ वल्लभीपुर के साथ भावसंग्रह व दर्शनसार के अनुसार जिनचन्द्र के साथ व वी.नि.606 के साथ भी बैठ जाती है। यद्यपि प्रेमी जी रत्ननन्दि भट्टारक की इस कल्पना को निर्मूल बताते हैं, और कहते हैं कि अर्धफालक नाम का कोई भी सम्प्रदाय नहीं हुआ (द.सा./प्र./61) परन्तु उनका ऐसा कहना योग्य नहीं, क्योंकि मथुरा के कंगाली टीले से उपलब्ध कुशन कालीन (ई.240-320 वी.नि.567-847) कुछ प्राचीन आयाग पट्ट मिले हैं। जिनको पुरातत्त्व विभाग ने अर्धफालक मत का सिद्ध किया है। क्योंकि उनमें कुछ नग्न साधु अपने बायें हाथ पर एक कपड़ा डाल कर उस कपड़े के द्वारा अपनी नग्नता छिपाते दिखाये गये हैं। वे साधु कपड़ा तो अपने बायें हाथ पर लटकाये हैं और कमण्डल या भिक्षापात्र अपने दाहिने हाथ में लिये हुए हैं। (भद्रबाहु चरित्र/प्र.उदयलाल)</span> Dr.Buhler in Indian antiquity. Vol 2, Page 13G At his (Nemisha's) left knee stands a small nacked male characterised by the cloth in his left hand as an ascetic with uplifted right hand.</p> | ||
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अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथ पर एक कपड़ा है और एक साधु के रूप में उसका दायाँ हाथ ऊपर को उठा हुआ है। जैन सिद्धान्त भास्कर भाग | अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथ पर एक कपड़ा है और एक साधु के रूप में उसका दायाँ हाथ ऊपर को उठा हुआ है। जैन सिद्धान्त भास्कर भाग 10 खण्ड 2 पृ.80 के फुटनोट में डॉ0वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार पट्ट में नीचे एक स्त्री और उसके सामने एक नग्न श्रमण अंकित है। वह एक हाथ में सम्मार्जिनी और बायें हाथ में कपड़ा लिये हुए है। शेष शरीर नग्न है।</p> | ||
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भद्रबाहु चरित्र/प्र.उदयलाल - आगे चलकर वि. | भद्रबाहु चरित्र/प्र.उदयलाल - आगे चलकर वि.136 (वी.नि.606) में वह प्रगट रूप से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रवर्तित हो गया। प्रारम्भ में उसका उल्लेख 'निर्ग्रन्थ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ' के नाम से होता था। उपरान्त वही श्वेताम्बर कहलाया। इसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय भी पहले 'निर्ग्रन्थ श्रमण संघ' के नाम से पुकारा जाता था। उपरान्त वह दिग्वास और फिर दिगम्बर कहलाने लगा।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="6"><strong>प्रवर्तकों विषयक समन्वय</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="6"><strong>प्रवर्तकों विषयक समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText">दिगम्बर ग्रन्थ दर्शनसार के अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक शान्त्याचार्य के शिष्य तथा भद्रबाहु प्रथम (पंचम श्रुतकेवली) के प्रशिष्य जिनचन्द्र थे। नन्दी संघ की गुर्वावली के अनुसार जिनचन्द्र भद्रबाहु द्वि.के प्रशिष्य थे प्रथम के नहीं। ये कुन्दकुन्द के गुरु थे। ( देखें | <p class="HindiText">दिगम्बर ग्रन्थ दर्शनसार के अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक शान्त्याचार्य के शिष्य तथा भद्रबाहु प्रथम (पंचम श्रुतकेवली) के प्रशिष्य जिनचन्द्र थे। नन्दी संघ की गुर्वावली के अनुसार जिनचन्द्र भद्रबाहु द्वि.के प्रशिष्य थे प्रथम के नहीं। ये कुन्दकुन्द के गुरु थे। (देखें [[ इतिहास#7.2 | इतिहास - 7.2]]) परन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस नाम के आचार्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। दूसरी तरफ श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक शिवभूति या सहस्रमल को बताया है, परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में इस नाम के आचार्यों का कहीं पता नहीं चलता। भद्रबाहु चरित्र के कर्ता रत्ननन्दि 'रामल्य' व स्थूलभद्र को इसका प्रवर्तक बताते हैं। इन्द्र: श्वेताम्बरगुरु: तदादाय; संशयमिथ्यादृष्टय: (गो.जी./जी.प्र./16) में टीकाकार ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रवर्तक 'इन्द्र' नाम के आचार्य को बताया है। प्रेमी जी को गोम्मटसार के टीकाकार का मत इष्ट है (द.सा./प्र.60 प्रेमी जी)।</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="7"><strong>उत्पत्ति काल विषयक समन्वय</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="7"><strong>उत्पत्ति काल विषयक समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText">द.सा./प्र. | <p class="HindiText">द.सा./प्र.60/प्रेमीजी - दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदाय कब हुए यह विषय बहुत ही गहरी अन्धेरी में छिपा हुआ है। श्रुतावतार में बतायी गयी गुर्वावली में गौतम से लेकर जम्बू स्वामी तक की परम्परा दोनों ही सम्प्रदाय को जूँ की तूँ मान्य है। इससे आगे के 5 श्रुतकेवलियों के नाम दिगम्बर सम्प्रदाय में कुछ और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कुछ और है। परन्तु भद्रबाहु को अवश्य दोनों स्वीकार करते हैं। इससे पता चलता है कि भद्रबाहु के पश्चात् ही दोनों जुदा जुदा हो गये हैं। दूसरी बात यह भी है कि श्वेताम्बर मान्य सूत्र ग्रन्थों की रचना का काल वी.नि.980 वि.सं.510 के लगभग है। उस समय वे वल्लभीपुर में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में परिस्थिति वश संगृहीत किये गये थे। श्वेताम्बरों के अनुसार संकलन का यह कार्य क्योंकि वि.श.2 में किया गया था इसलिए उसकी उत्पत्ति का काल वि.136 भी माना जा सकता है। संघ की स्थापना के तुरन्त पश्चात् अपनी मान्यताओं को वैध सिद्ध करने के लिये सूत्र संग्रह का विचार बहुत संगत है।</p> | ||
<p class="HindiText">[दिगम्बराचार्य श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वि.सं. | <p class="HindiText">[दिगम्बराचार्य श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वि.सं.136 (वी.नि.606) में बता रहे हैं और श्वेताम्बराचार्य दिगम्बरों की उत्पत्ति वि.सं.139 (वी.नि.609) में बता रहे हैं। 12 वर्षीय दुर्भिक्ष जो कि संघ विभेद में प्रधान निमित्त है वी.नि.606 (वि.सं.136) में पड़ा था। इन सब बातों को देखते हुए भद्रबाहु चरित्र की मान्यता कुछ युक्त जँचती है, कि वि.पू.330 में अर्धफालक संघ उत्पन्न हुआ, और धीरे-धीरे वि.सं.136 में श्वेताम्बर के रूप में परिवर्तित हो गया। श्वेताम्बर ग्रन्थों में दिगम्बर मत की उत्पत्ति भी उसी समय (वि.139) में बतायी जाना भी इसी बात की सिद्धि करता है कि वि.सं.136 में ही वह उतपन्न हुआ था। अपने उत्पन्न होते ही उन्हें अपने को मूलसंघी सिद्ध करने के लिए दिगम्बर की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कथा गढ़नी पड़ी होगी। इसके अतिरिक्त भी दिगम्बर मत की प्राचीनता निम्न में दिये गये प्रमाणों से सिद्ध होती है।]</p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="8"><strong>दिगम्बर मत की प्राचीनता</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="8"><strong>दिगम्बर मत की प्राचीनता</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
1. श्वेताम्बर मान्य कथा को स्वीकार कर लें तो शिवभूति ने जिनकल्प (दिगम्बर मत) को स्वीकार किया था, उसका कारण इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि जिनकल्पी मार्ग से भ्रष्ट साधुओं में फिर से जिनकल्प (दिगम्बरता) का प्रचार किया जाये। कथा के अनुसार शिवभूति गुरु के मुख से जिनकल्प का उपदेश सुनकर उसे धारण करने में निश्चलप्रतिज्ञ हुए थे। इससे पता चलता है कि शिवभूति से पहले भी जिनकल्प अवश्य था जो इस समय शिथिल हो चुका था। 2. श्वेताम्बर ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख पाया जाता है - संयमो जिनकल्पस्य दु साध्योऽयं ततोऽधुना। व्रतं स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् । तथा - दुर्धरो मूलमार्गोऽयं न धर्त्तुं शक्यते तत:। इस उद्धरण से स्पष्ट कहा गया है कि जिनकल्प ही मूलमार्ग है, परन्तु काल की करालता के कारण आज उसका धारण किया जाना शक्य नहीं है। इसीलिए हमने स्थिरकल्पना का आश्रय लिया है। इधर तो श्वेताम्बराचार्य ऐसा लिखते हैं दूसरी तरफ दिगम्बराचार्य क्या कहते हैं - </p> | |||
<p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./10 विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रह:। ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।10।</span> = <span class="HindiText">जो विषयों की आशा के वश न हो और परिग्रह से रहित तथा ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन हो वह तपस्वी गुरु प्रशंसनीय है। 3. इसके अतिरिक्त विक्रमादित्य की सभा में नवरत्नों में से वराहमिहिर भी नग्न साधुओं का उल्लेख करते देखे जाते हैं - | ||
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<p><span class="SanskritText">विष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मण: मातृणामिति मातृमण्डलविद; शंभो: सभस्माद्द्विज:।। शाक्या: सर्वहिताय शान्तमनसो नग्ना जिनानां विदुर्ये यं देवमुपाश्रिता: स्वविधिना ते तस्य कुर्यु: क्रियाम् । | <p><span class="SanskritText">विष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मण: मातृणामिति मातृमण्डलविद; शंभो: सभस्माद्द्विज:।। शाक्या: सर्वहिताय शान्तमनसो नग्ना जिनानां विदुर्ये यं देवमुपाश्रिता: स्वविधिना ते तस्य कुर्यु: क्रियाम् । | ||
</span> = <span class="HindiText">भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णु की प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना करें; विप्र लोग ब्रह्मा की करें; ब्रह्माणी व इन्द्राणी प्रभृति सप्त मातृमण्डल की उनके मानने वाले अर्चा करें, बौद्ध लोग बुद्ध की प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगम्बर साधु) लोग जिन भगवान् की पर्युपासना करें। थोड़े शब्दों में यों कहिए कि जिस-जिस देव के जो उपासक हैं वे उस उसकी अपनी-अपनी विधि से उपासना करें। | </span> = <span class="HindiText">भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णु की प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना करें; विप्र लोग ब्रह्मा की करें; ब्रह्माणी व इन्द्राणी प्रभृति सप्त मातृमण्डल की उनके मानने वाले अर्चा करें, बौद्ध लोग बुद्ध की प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगम्बर साधु) लोग जिन भगवान् की पर्युपासना करें। थोड़े शब्दों में यों कहिए कि जिस-जिस देव के जो उपासक हैं वे उस उसकी अपनी-अपनी विधि से उपासना करें। 4. महाभारत जो कि वेदव्यास जी द्वारा ईसवी पूर्व बहुत प्राचीन काल में रचा गया था, वह भी दिगम्बर मत का उल्लेख करता है। यथा - | ||
</span></p> | </span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च। (महाभारत परिच्छेद | <p><span class="SanskritText">साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च। (महाभारत परिच्छेद 3) | ||
</span> = <span class="HindiText">इसके अतिरिक्त भी | </span> = <span class="HindiText">इसके अतिरिक्त भी <span class="GRef"> महापुराण </span>अश्वमेघाधिकार में 49/5/पृ.6201 पर दिगम्बरत्व व अस्नानत्व का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तथा 46/18/पृ.6196 पर दिगम्बर साधु सरीखी ही आहार विहार चर्या आदि सम्बन्धी उल्लेख पाया जाता है। 5. इसके अतिरिक्त भी दिगम्बराम्नाय में कुन्दकुन्द प्रभृति आचार्यों कृत ईसवी पहिली शताब्दी के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के इतने प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="9"><strong>श्वेताम्बर के अनुसार दिगम्बर मत की उत्पत्ति</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="9"><strong>श्वेताम्बर के अनुसार दिगम्बर मत की उत्पत्ति</strong></p> | ||
<p class="HindiText">यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय | <p class="HindiText">यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय 3/चूर्ण सूत्र 178 की श्री शांति सूरिकृत संस्कृत वृत्ति के तथा उसमें उद्धृत विविध आगमोक्त गाथाओं के आधार पर संकलित किया गया है।</p> | ||
<p class="HindiText" id="9.1"><strong> | <p class="HindiText" id="9.1"><strong>1. द्विविध कल्प निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText">दिगम्बर मत की उत्पत्ति से पूर्व दिगम्बर व श्वेताम्बर ऐसे दो सम्प्रदायों का नाम नहीं था, परन्तु साधुओं के दो कल्प अवश्य थे - स्थविर कल्प व जिन कल्प, जिनके लक्षण व भेद निम्न प्रकार हैं।</p> | <p class="HindiText">दिगम्बर मत की उत्पत्ति से पूर्व दिगम्बर व श्वेताम्बर ऐसे दो सम्प्रदायों का नाम नहीं था, परन्तु साधुओं के दो कल्प अवश्य थे - स्थविर कल्प व जिन कल्प, जिनके लक्षण व भेद निम्न प्रकार हैं।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन टीका/पृ. स्थविराश्च स्थिरीकरणकारिण:।(पृ. | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन टीका/पृ. स्थविराश्च स्थिरीकरणकारिण:।(पृ.152)। य: स्याज्जिन इव प्रभु:। (पृ.179 पर उद्धृत श्लोक)। स च प्रथमसंहनन एव (टीका पृ.179)।</span> - <span class="HindiText">तात्पर्य यह कि - </span> </p> | ||
<table class="HindiText" border="1" cellpadding="0" cellspacing="0"> | <table class="HindiText" border="1" cellpadding="0" cellspacing="0"> | ||
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<td> | <td>1</td> | ||
<td>हीन संहननधारी</td> | <td>हीन संहननधारी</td> | ||
<td>उत्तम संहननधारी</td> | <td>उत्तम संहननधारी</td> | ||
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<td> | <td>2</td> | ||
<td>अपवादानुसारी मृदु आचारवान्</td> | <td>अपवादानुसारी मृदु आचारवान्</td> | ||
<td>जिनेन्द्र प्रभुवत् उत्सर्ग मार्गानुसारी कठोर आचारवान् ।</td> | <td>जिनेन्द्र प्रभुवत् उत्सर्ग मार्गानुसारी कठोर आचारवान् ।</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
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<td> | <td>3</td> | ||
<td>मन्दिर मठ आदि में ससंघ आवास</td> | <td>मन्दिर मठ आदि में ससंघ आवास</td> | ||
<td>एकाकी वन विहारी</td> | <td>एकाकी वन विहारी</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
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<td> | <td>4</td> | ||
<td>श्रावकों के भोजन काल में भिक्षावृत्ति</td> | <td>श्रावकों के भोजन काल में भिक्षावृत्ति</td> | ||
<td>श्रावकजन खा पीकर निवृत्त हो चुकें ऐसे तीसरे पहर में भिक्षा वृत्ति। बचा खुचा मिला तो ले लिया अन्यथा उपवास किया।</td> | <td>श्रावकजन खा पीकर निवृत्त हो चुकें ऐसे तीसरे पहर में भिक्षा वृत्ति। बचा खुचा मिला तो ले लिया अन्यथा उपवास किया।</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
<tr class="center"> | <tr class="center"> | ||
<td> | <td>5</td> | ||
<td>रोग आदि होने पर उसका उपचार करते हैं</td> | <td>रोग आदि होने पर उसका उपचार करते हैं</td> | ||
<td>उपचार न करते हैं न करवाते हैं</td> | <td>उपचार न करते हैं न करवाते हैं</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
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<td> | <td>6</td> | ||
<td>आँख में रजाणु पड़ जाने पर अथवा पाँव में शूल लग जाने पर उसे निकालते या निकलवाते हैं</td> | <td>आँख में रजाणु पड़ जाने पर अथवा पाँव में शूल लग जाने पर उसे निकालते या निकलवाते हैं</td> | ||
<td>न निकालते हैं न निकलवाते हैं</td> | <td>न निकालते हैं न निकलवाते हैं</td> | ||
</tr> | </tr> | ||
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<td> | <td>7</td> | ||
<td>सिंह आदि के समक्ष आ जाने पर भागकर अपनी रक्षा करते हैं।</td> | <td>सिंह आदि के समक्ष आ जाने पर भागकर अपनी रक्षा करते हैं।</td> | ||
<td>वहाँ ही ध्यानस्थ होकर खड़े रह जाते हैं।</td> | <td>वहाँ ही ध्यानस्थ होकर खड़े रह जाते हैं।</td> | ||
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<td> | <td>8</td> | ||
<td>साँझ पड़ने पर भी उचित स्थान की खोज करते हैं</td> | <td>साँझ पड़ने पर भी उचित स्थान की खोज करते हैं</td> | ||
<td>जहाँ दिन छिपा वहीं खड़े हो जाते हैं।</td> | <td>जहाँ दिन छिपा वहीं खड़े हो जाते हैं।</td> | ||
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<p><span class="HindiText">इस प्रकार शक्तिकृत भेद के अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेष की अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकार के होते हैं। यथा - </span> </p> | <p><span class="HindiText">इस प्रकार शक्तिकृत भेद के अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेष की अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकार के होते हैं। यथा - </span> </p> | ||
<p><span class="PrakritText">उत्तराध्ययन/पृ. | <p><span class="PrakritText">उत्तराध्ययन/पृ.179 पर उद्धृत गाथा - जिणकप्पिया व दुविहा पाणिपाया पडिग्गहधरा य। पाउरजमया उरणा एक्केक्का ते भवे दुविहा। य एतान् वर्जयेद्दोषान् धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, य: स्याज्जिन इव प्रभु:। | ||
</span> = <span class="HindiText">जिनकल्पी साधु चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र परन्तु पात्रधारी। जो आचार विषयक निम्न दोषों को बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए तो इनका न ग्रहण करना ही योग्य है, परन्तु जो ऐसा करने को समर्थ नहीं वे उपकरण ग्रहण करते हैं।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">जिनकल्पी साधु चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र परन्तु पात्रधारी। जो आचार विषयक निम्न दोषों को बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए तो इनका न ग्रहण करना ही योग्य है, परन्तु जो ऐसा करने को समर्थ नहीं वे उपकरण ग्रहण करते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="9.2"><strong> | <p class="HindiText" id="9.2"><strong>2. जिनकल्प का विच्छेद</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/टीका/पृ. एष व्युच्छिन्न:।( | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/टीका/पृ. एष व्युच्छिन्न:।(179)। न चेदानीं तदस्तीति...।(180)।</span> =<span class="HindiText">वीर निर्वाण के 62 वर्ष पश्चात् जम्बू स्वामी के निर्वाण पर्यन्त ही जिनकल्प की उपलब्धि होती थी। उसके पश्चात् इस काल में उत्तम संहनन आदि के अभाव के कारण उसकी व्युच्छित्ति हो गयी है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="9.3"><strong> | <p class="HindiText" id="9.3"><strong>3. उपकरण व उनकी सार्थकता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/पृ. | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/पृ.179 पर उद्धृत - जन्तवो बहवस्सन्ति दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्य: स्मृतं दयार्थं तु रजोहरणधारणम् ।1। सन्ति संपातिया: सत्त्वा: सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे। तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेया मुखवस्त्रिका।3। किंच - भवन्ति जन्तवो यस्यान्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थं पात्रग्रहणमिष्यते।4। अपरं च - सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्चेतीह सिद्धये। तेषामनुग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ।5। शीतवातातपैर्दंशमशकैश्चापि खेदित:। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविवास्यति।6। तस्य त्वग्रहणे युत् स्यात् क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानाध्यानोपघातो वा महान् दोषस्तदैव तु।7।</span> =<span class="HindiText">बहुत से जन्तु ऐसे होते हैं जो इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते। विहार शय्या आसन आदि रूप प्रवृत्तियों में उनकी रक्षा के अर्थ रजोहरण है। वायुमण्डल में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म जीव व्याप्त हैं जो मुख में अथवा भोजन पान आदि में स्वत: पड़ते रहते हैं। उनकी रक्षा के लिए मुखवस्त्रिका है। बहुत सम्भव है कि भिक्षा में प्राप्त अन्न पान आदिक में कदाचित् कोई जन्तु पड़े हों। अत: ठीक प्रकार से देख शोधकर खाने के लिए पात्रों का ग्रहण इष्ट है। इनके अतिरिक्त सम्यक्त्व, ज्ञान, शील व तप की सिद्धि के अर्थ वस्त्र ग्रहण की आज्ञा है, ताकि ऐसा न हो कि कहीं शीत वात आतप डांस व मक्खी आदि की बाधाओं से खेदित होने पर कोई इनमें ठीक प्रकार से ध्यान व उपयोग न रख सके। ये सभी पदार्थ बाह्याभ्यन्तर संयम के उपकारी होने से उपकरण संज्ञा को प्राप्त होते हैं, जिनका ग्रहण न करने पर क्षुद्र प्राणियों का विनाश तथा ज्ञान ध्यान आदि का उपघात रूप महान् दोष प्राप्त होते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/टीका/पृ. | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/टीका/पृ.179 धर्मोपकरणमेवैतत् न तु परिग्रहस्तथा।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">दश वैकालिक सूत्र/अ. | <p><span class="PrakritText">दश वैकालिक सूत्र/अ.6 गा. 19 जं पि वत्थं य पायं वा, केवलं पायपुंछणं। तेऽपि संजमलज्जट्ठा, धारेन्ति परिहरन्ति य।</span>=<span class="HindiText">अर्थात् मूर्च्छारहित साधु के लिए ये सब धर्मोपकरण हैं न कि परिग्रह, क्योंकि मूर्च्छा को परिग्रह संज्ञा प्राप्त होती है वस्तु को नहीं। वस्त्र व पात्रादि इन उपकरणों को साधुजन संयम की रक्षार्थ तथा लज्जा निवारण के लिए धारण करते हैं, और उनके प्रति इतने आसक्त रहते हैं कि समय आने पर जीर्ण तृण की भाँति वे इनका त्याग भी कर देते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="9.4"><strong> | <p class="HindiText" id="9.4"><strong>4. दिगम्बर मत प्रवर्तक शिवभूति का परिचय</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 164 का उपोद्घात/पृ.151 जमालिप्रभृतीनां निह्नवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्तितया स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्न:।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र | <p><span class="PrakritText">उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.179 पर उद्धृत छव्वाससएहिं णवोत्तरेहिं सिद्धिंगयस्स वीरस्स। तो वोडियाण दिट्ठी रहवीपुरे समुप्पणा। | ||
</span> = <span class="HindiText">श्वेताम्बर आगम में यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवों का कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञा को प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगम के प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धि वाले होते हैं, परन्तु गुरु आज्ञा से विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करने के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिये जाने पर स्वयं स्वच्छन्द रूप से अपने-अपने मतों का प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न सम्प्रदायों व मतमतान्तरों की उत्पत्ति होती है। भगवान् वीर के निर्वाण होने के | </span> = <span class="HindiText">श्वेताम्बर आगम में यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवों का कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञा को प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगम के प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धि वाले होते हैं, परन्तु गुरु आज्ञा से विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करने के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिये जाने पर स्वयं स्वच्छन्द रूप से अपने-अपने मतों का प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न सम्प्रदायों व मतमतान्तरों की उत्पत्ति होती है। भगवान् वीर के निर्वाण होने के 609 वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.सं.139 में 'रथवीपुर' नामक नगर में वोटिक (दिगम्बर) मतवाला अष्टम निह्नव शिवभूति उत्पन्न हुआ।</span></p> | ||
<p class="HindiText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र | <p class="HindiText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृ.179-180 का भावार्थ - यह शिवभूति अपनी गृहस्थावस्था में अत्यन्त स्वच्छन्द वृत्ति वाला एक राजसेवक था, जिसने किसी समय राजा के एक शत्रु को जीतकर राजा को प्रसन्न किया और उपलक्ष्य में उससे नगर में स्वच्छन्द घूमने की आज्ञा प्राप्त कर ली। वह रात्रि को भी इधर-उधर घूमता रहता था, जिसके कारण उसकी स्त्री व माता उससे तंग आ गयीं, और एक रात्रि को जब वह घर आया तो उन्होंने द्वार नहीं खोले। शिवभूति क्रुद्ध होकर उपाश्रय में चला गया और गुरु के मना करने पर भी 'खेलमल्लक' नामक किसी साधु से दीक्षा लेकर स्वयं केशलोंच कर लिया। कुछ काल पश्चात् ससंघ विहार करता हुआ जब वह पुन: इस नगर में आया तो राजा ने अपना प्रिय जान उसे एक रत्न कम्बल भेंट किया। गुरु की आज्ञा के बिना भी उसने वह रत्न कम्बल ग्रहण कर लिये और उसे गुरु से छिपाकर अपने पास रखता रहा। एक दिन जब वह भिक्षाचर्या के लिए उसकी पोटली में से वह कम्बल निकाल लिया और बिना पूछे उसमें से फाड़कर साधुओं के पाँव पोंछने के आसन बना दिये। अत: शिवभूति भीतर ही भीतर गुरु के प्रति रुष्ट रहने लगा।</p> | ||
<p class="HindiText" id="9.5"><strong> | <p class="HindiText" id="9.5"><strong>5. शिवभूति से दिगम्बर मत की उत्पत्ति :</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृ.179 - इत्यादि सो (सिवभूइ) किं एस एवं ण कोरइ। तेहिं भणियं - एष व्युच्छिन्न:। मम न व्युच्छिद्यते इति स एव परलोकार्थिना कर्त्तव्य:।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र | <p><span class="SanskritText">उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/180 न चेदानीं तदस्तीत्यादिकया प्रागुक्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ कर्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा गत:। ...तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थितं वन्दिका गता, तं च दृष्ट्वा तयापि चीवरादिकं सर्वं त्यक्तं, तदा भिक्षायै प्रविष्टा गणिकया दृष्टा। मास्मासु लोको विरङ्क्षीत् इति उरसि तस्या: पोतिका बद्धा। सा नेच्छति, तेन भणितं - तिष्ठतु एषा तव देवता दत्ता। तेन च द्वौ शिष्यौ प्रवजितौ - कौण्डिन्य: कोटिवीरश्च, तत: शिष्याणां परम्परा स्पर्शो जात:।' - ।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र | <p><span class="PrakritText">उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.180 पर उद्धृत - उहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइ उत्तरा हि इमं। मिच्छादंसणमिणमो रहवीपुरे समुप्पण्णं।1। बोडियसिवभूइओ बोडियलिंगस्स होई उप्पत्ती। कोडिण्णकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना।2।</span> =<span class="HindiText">एक दिन गुरु जब पूर्वोक्त प्रकार जिनकल्प के स्वरूप का कथन कर रहे थे, तब शिवभूति ने उनसे पूछा कि किस कारण से अब आप साधुओं को जिनकल्प में दीक्षित नहीं करते हैं। 'वह मार्ग अब व्युच्छिन्न हो गया है', गुरु के ऐसा कहने पर वह बोला कि भले ही दूसरों के लिए व्युच्छिन्न हो गया हो, परन्तु मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं हुआ है। सर्वथा निष्परिग्रही होने से परलोकार्थी के लिए वही ग्रहण करना कर्त्तव्य है। - हीन संहनन के कारण इस काल में वह सम्भव नहीं है, गुरु के पूर्वोक्त प्रकार ऐसा समझाने पर भी मिथ्यात्व कर्मोदयवश उसने गुरु की बात स्वीकार नहीं की, और वस्त्र त्यागकर अकेला वन में चला गया। उसके पीछे उसकी बहन भी उसकी वन्दनार्थ उद्यान में गयी और उसे देखकर वस्त्र त्याग नग्न हो गयी। एक दिन जब वह भिक्षार्थ नगर में प्रवेश कर रही थी, तो एक गणिका ने उसे एक साड़ी पहना दी, जिसे देवता प्रदत्त कहकर शिवभूति ने ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। शिवभूति ने कौडिन्य व कोटिवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दी जिनकी परम्परा में ही यह वोटिक या दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ है।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText" id="10"><strong>ढूंढिया पंथ</strong></p> | <br/><p class="HindiText" id="10"><strong>ढूंढिया पंथ</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="10.1"><strong> | <p class="HindiText" id="10.1"><strong>1. दिगम्बर के अनुसार उत्पत्ति :</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText">कुछ काल पश्चात् इसी श्वेताम्बर संघ में से ढूंढिया पंथ अपरनाम स्थानकवासी मत की उत्पत्ति हुई। यथा - </span> </p> | <p><span class="HindiText">कुछ काल पश्चात् इसी श्वेताम्बर संघ में से ढूंढिया पंथ अपरनाम स्थानकवासी मत की उत्पत्ति हुई। यथा - </span> </p> | ||
<p><span class="SanskritText">भद्रबाहु चरित्र/ | <p><span class="SanskritText">भद्रबाहु चरित्र/4/157/161 मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते। दशपञ्चशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ।157। लुङ्कामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मण:। देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिर्जरे।158। अणहिल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजोऽभवत् । लुङ्काऽभिधो महामानी श्वेतांशुकमहाश्रयी।159। दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपति: पापमण्डित:। तीव्रमिथ्यात्वपाकेन लुङ्कामतमकल्पयत् ।160। तन्मतेऽपि च भूयांसो मतभेदा: समाश्रिता:।161।</span>=<span class="HindiText">विक्रम की मृत्यु के 1527 वर्ष बाद धर्म कर्म का सर्वथा नाश करने वाला एक लुङ्कामत (ढूंढिया मत) प्रगट हुआ। इसी की विशेष व्याख्या यों है कि - गुर्जर देश (गुजरात) कुल में एक अणहिल नाम का नगर है। उसमें प्राग्वाट (कुलम्बी) कुल में लुङ्का नाम का धारक एक श्वेताम्बरी हुआ है। उस दुष्ट आत्मा ने कुपित होकर तीव्र मिथ्यात्व के उदय से खोटे परिणामों के द्वारा लुङ्कामत चलाया। उनमें भी पीछे अनेक भेद हो गये।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द.पा./टी./ | <p><span class="SanskritText">द.पा./टी./11/11/12 तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्ना:।</span> =<span class="HindiText">उनमें से (श्वेताम्बरियों में से) ही श्वेताम्बराभास (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुआ।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="10.2"><strong> | <p class="HindiText" id="10.2"><strong>2. श्वेताम्बरायाम्नाय के अनुसार उत्पत्ति :</strong></p> | ||
<p class="HindiText">विक्रम सं. | <p class="HindiText">विक्रम सं.1472 में इस मत के संस्थापक लोंकाशाह का जन्म हुआ। यह व्यक्ति अहमदाबाद में ग्रन्थ लिखने का व्यवसाय करता था। एक बार एक ग्रन्थ लिखने की उजरत के विषय में किसी यति से उसकी कहा सुनी हो गयी, जिसके कारण उसने मूर्तिपूजा को तथा कुछ आचार विचारों को आगम विरुद्ध बताकर एक स्वतन्त्रमत का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया उसने 22 शिष्यों को दीक्षित किया, जिनकी परम्परा में 'लोंकागच्छ' की उत्पत्ति हुई। पीछे इसमें भी अनेकों भेद प्रभेद उत्पन्न हो गये।</p> | ||
<p class="HindiText">सूरत के एक साधु ने इस लोंकामत के भी कुछ सुधार करके 'ढूंढिया' नामक एक नये सम्प्रदाय को जन्म दिया, जिससे कि पूर्ववर्ती भी सभी लोंकानुयायी ढूंढिया नाम से प्रसिद्ध हो गये। स्थानकों में रहने के कारण इसके साधु स्थानकवासी कहलाते हैं। इसी सम्प्रदाय में आचार्य भिक्षु ने तेरहपन्थ की स्थापना की।</p> | <p class="HindiText">सूरत के एक साधु ने इस लोंकामत के भी कुछ सुधार करके 'ढूंढिया' नामक एक नये सम्प्रदाय को जन्म दिया, जिससे कि पूर्ववर्ती भी सभी लोंकानुयायी ढूंढिया नाम से प्रसिद्ध हो गये। स्थानकों में रहने के कारण इसके साधु स्थानकवासी कहलाते हैं। इसी सम्प्रदाय में आचार्य भिक्षु ने तेरहपन्थ की स्थापना की।</p> | ||
<p class="HindiText" id="10.3"><strong> | <p class="HindiText" id="10.3"><strong>3. स्वरूप</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">भद्रबाहु चरित्र/ | <p><span class="SanskritText">भद्रबाहु चरित्र/4/161 सुरेन्द्रार्चां जिनेन्द्रार्चां तत्पूजां दानमुत्तमम् । समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतापो जिनसूत्रवत:।161।</span> =<span class="HindiText">जिन सूर्य से प्रतिकूल होकर, देवताओं से भी पूजनीय जिन प्रतिमा की पूजा दानादि सब कर्मों का उत्थापन करके वह पापात्मा जिन भगवान् के व्रतों से प्रतिकूल हो गया।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द.पा./टी./ | <p><span class="SanskritText">द.पा./टी./11/11/12 तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठा: देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयन्ति, मण्डलवत्सर्वत्र भाण्डप्रक्षालनोदकं पिबन्ति इत्यादि, बहुदोषवन्त:।</span> =<span class="HindiText">उन (श्वेताम्बरों) में से श्वेताम्बराभासी (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुए। वे तीव्र पापिष्ठ होकर देव पूजादिक को भी पापकर्म बताने लगे। मण्डल मत की भाँति बर्तनों के धोवन का पानी पीने लगे। इस प्रकार बहुत दोषवन्त हो गये।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>नोट</strong> - यह सम्प्रदाय श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रों में से | <p class="HindiText"><strong>नोट</strong> - यह सम्प्रदाय श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रों में से 32 को मान्य करता है। परन्तु श्वेताम्बराचार्यों कृत उनकी टीकाएँ इसे मान्य नहीं हैं।</p> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
दिगम्बर मान्यता के अनुसार भगवान् वीर के पश्चात् मूल संघ दिगम्बर ही था। पीछे कुछ शिथिलाचारी साधुओं ने श्वेताम्बर संघ की स्थापना की। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार जिन कल्प व स्थविर कल्प दोनों ही प्रकार के संघ विद्यमान थे। जम्बू स्वामी के पश्चात् काल प्रभाव से जिनकल्प का विच्छेद हो गया और स्थविर कल्प ही शेष रह गया। पीछे शिवभूति नामक एक साधु जिनकल्प के पुनरावर्तन के उद्देश्य से नग्न हो गया। उसके द्वारा ही दिगम्बर मत का प्रचार हुआ। श्वेताम्बर में से ढूंढिया मत की उत्पत्ति के विषय में दोनों ही सम्प्रदाय सहमत हैं।
- श्वेताम्बर मत का स्वरूप।
- दिगम्बर के अनुसार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति।
- अर्ध फालक संघ की उत्पत्ति।
- श्वेताम्बरों के विविध गच्छ।
- अर्ध फालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय।
- प्रवर्तकों विषयक समन्वय।
- उत्पत्तिकाल विषयक समन्वय।
- दिगम्बर मत की प्राचीनता
- श्वेताम्बर के अनुसार दिगम्बर मत की उत्पत्ति।
- ढूंढिया पन्थ।
श्वेताम्बर मत का स्वरूप
स.सि./8/1/5 सग्रन्थ: निर्ग्रन्थ:। केवली कवलाहारी। स्त्री सिध्यति। एवमित्यादि विपर्यय:। = सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपरीत मिथ्यादर्शन है। (रा.वा./8/1/28/564/20), (त.सा./5/6)।
द.सा./मू./13-14 तेणकियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्खो। केवलणाणीण पुण अण्णक्खाण तहा रोगो।13। अंबरसहिओ वि जई सिज्झई वीरस्स गब्भचारत्तं। परलिंगे विय मुत्ते फासुयभोज्जं च सव्वत्था।14। =उसने (आचार्य जिनचन्द्र ने) यह मत चलाया कि स्त्रियों को तद्भव में मोक्ष प्राप्त हो सकता है। केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है।13। वस्त्रधारी तथा अन्य लिंग वाले भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् वीर के गर्भ का संचार हुआ था। अर्थात् पहले एक ब्राह्मणी के गर्भ में आये और पीछे क्षत्रियाणी के गर्भ में चले गये। मुनिजन किसी के घर भी प्रासुक भोजन कर सकते हैं।
द.पा./टी./11/11/11 श्वेतवासस: सर्वत्र भोजनं गृह्णन्ति, प्रासुकं मांसभक्षिणां गृहे दोषो नास्तीति वर्णलोप: कृत:। = श्वेताम्बर साधु सर्वत्र भोजन करना उचित मानते हैं। उनकी समझ में मांस भक्षकों के यहाँ भी प्रासुक भोजन करने में दोष नहीं है।
गो.जी./जी.प्र./16 इन्द्र: श्वेताम्बरगुरु: तदादय: संशयितमिथ्यादृष्टय:। = इन्द्र श्वेताम्बरों का गुरु था। उनको आदि लेकर संशयित मिथ्यादृष्टि हैं।
द.सा./प्र./50 प्रेमीजी - दर्शनसार ग्रन्थ में तथा गोम्मटसार की टीका में जो श्वेताम्बरों की गणना सांशयिक मिथ्यादृष्टियों में की सो ठीक नहीं है। वास्तव में उनकी गणना विपरीत मत में हो सकती है ऐसा उपरोक्त सर्वार्थसिद्धि के उद्धरण से स्पष्ट है।
दिगम्बर के अनुसार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति
दिगम्बर मत के अनुसार श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति कैसे हुई, उसके सम्बन्ध में ही नीचे दो कथाएँ दी जाती हैं। -
द.सा./मू./11-12 एक्कसए छत्तीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स। सोरट्ठे बलहीए उप्पण्णो सेवडो संघी।11। सिरि भद्दबाहुगणिनो सीसो णामेण संति आइरिओ। तस्स य सीसो दुट्ठो जिणचंदो मंदचारित्तो।12। तेण कियं मयमेयं...।13। = इसी बात को और भी विस्तृत रूप से इन्हीं देवसेनाचार्य ने अपने भावसंग्रह नामक ग्रन्थ में एक कथा के रूप में दिया है। उसका संक्षिप्त सार निम्न है -
भावसंग्रह/52-75 विक्रम संवत् 136 में सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। इस संघ के प्रवर्तक भद्रबाहु गणी जी एक निमित्तज्ञानी थे (पंचम श्रुतकेवली से भिन्न थे) उनके शिष्य शान्त्याचार्य, तथा उनके भी शिष्य जिनचन्द्र थे। उज्जैनी नगरी में 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के सम्बन्ध में आचार्य भद्रबाहु को भविष्यवाणी सुनकर सर्व आचार्य अपने-अपने संघ को लेकर वहाँ से विहार कर गये।53-55। भद्रबाहु के शिष्य शान्ति नाम के आचार्य सौराष्ट्र देश के वल्लभीपुर नगर में आये।56। परन्तु वहाँ भी भारी दुष्काल पड़ा।57। परिस्थितिवश सिंह वृत्ति छोड़कर साधुओं ने वस्त्र, पात्र आदि धारण कर लिये और वसतिका में से भोजन माँगकर लाने लगे।58-59। दुर्भिक्ष समाप्त हो जाने पर जब शान्त्याचार्य ने पुन: उन्हें शुद्ध चारित्र पालने का आदेश दिया तो उनके शिष्य जिनचन्द्र ने उन्हें जान से मार दिया और स्वयं संघ नायक बन गया।60-69। शान्त्याचार्य मरकर व्यन्तर हुआ और संघ पर उपद्रव करने लगा, जिसे शान्त करने के लिए जिनचन्द्र ने उसकी एक कुलदेवता के रूप में पूजा प्रचलित कर दी। जो आज तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चली आ रही है।70-75।
अर्धफालक संघ की उत्पत्ति
भद्रबाहु चरित्र/तृ.परिच्छेद - बिलकुल उपरोक्त प्रकार की कथा कुछ उचित परिवर्तनों के साथ भट्टारक श्री रत्ननन्दि ने भद्रबाहु चरित्र में दी है। उसका सारांश यह है कि - पंचम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी के मुख से उज्जैनी में पड़ने वाले 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के सम्बन्ध में सुनकर भी तथा अन्य संघों के दक्षिण की ओर विहार कर जाने पर भी रामल्य, स्थूलभद्र व स्थूलाचार्य नाम के आचार्यों ने जाना स्वीकार न किया। दुर्भिक्ष पड़ा और परिस्थिति वश उन्होंने कुछ शिथिलाचार अपना लिये। वे लोग पात्र ग्रहण करके भोजन माँगने के लिए वसतिका में जाने लगे और अपनी नग्नता को उतने समय छिपाने के लिए, एक वस्त्र का टुकड़ा भी अपने पास रखने लगे, जिसे वसतिका में जाते समय वे अपने आगे ढँक लेते थे और लौटने पर पृथक् कर देते थे। इस कारण इस संघ का नाम अर्धफालक पड़ गया तत्पश्चात् सुभिक्ष हो जाने पर जब दक्षिण से वह मूल संघ लौट आया तब स्थूलाचार्य ने अपने संघ से पुन: पहला मार्ग अपनाने को कहा। संघ ने उन्हें जान से मार दिया। वे व्यन्तर हो गये और संघ पर उपद्रव करने लगे, जिसे शान्त करने के लिए संघ ने उनकी अपने कुलदेवता के रूप में पूजा करनी प्रारम्भ कर दी। 450 वर्ष तक यह संघ इसी अर्धफाल के रूप में घूमता रहा। तत्पश्चात् वि.सं.136 में सौराष्ट्र देश की वल्लभीपुरी नगरी को प्राप्त हुआ। उस समय इस संघ के आचार्य जिनचन्द्र थे। वल्लभीपुर नरेश की रानी उज्जैनी नरेश की पुत्री थी। उज्जैनी में रहते उसने इन्हीं साधुओं के पास विद्याध्ययन किया था। अत: विनयपूर्वक अपने यहाँ बुलाने की इच्छा करने लगी। परन्तु राजा को उनका वह वेष पसन्द न था, अत: उसने उन साधुओं के पास कुछ वस्त्र भेज दिये, जिसे जिनचन्द्र ने राजा व रानी की प्रसन्नता के अर्थ ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। बस तभी इस संघ का नाम श्वेताम्बर पड़ गया।
हरिषेण कृत कथा कोष/58-59/पृ.318 यावन्न शोभन: काल: जायते साधव: स्फुटम् । तावच्च वामहस्तेन पुर: कृत्वाऽर्धफालकम् ।58। भिक्षापात्रं समादाय दक्षिणेन करेण च। गृहीत्वा नक्तमाहारं कुरुध्वं भोजनं दिने।59। =12 वर्षीय दुर्भिक्ष के समय 12000 साधुओं के साथ श्रुतकेवली भद्रबाहु और विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त) दक्षिणपथ को चले गए और अपने संघ को यह आदेश दिया कि जब तक सुभिक्ष न हो जाये तब तक साधुओं को चाहिए कि वे अपना बायाँ हाथ आगे करके उस पर एक अर्धफालक (कपड़े का टुकड़ा) लटका लें। तथा दायें हाथ से भिक्षा द्वारा आहार ग्रहण करके, उसे दिन के समय अपनी वसतिका में बैठकर खा लें।
श्वेताम्बरों के विविध गच्छ
श्वेताम्बरों में विविध गच्छ प्रसिद्ध हैं, यथा - चैत्यवासी गच्छ, उपकेशगच्छ, खरतर गच्छ, तपा गच्छ, पार्श्वचन्द्र गच्छ, सार्धपौर्णमीयक गच्छ, आंचलिक गच्छ, आगमिक गच्छ आदि। इनमें से आज खरतर, तथा आंचलिक गच्छ ही उपलब्ध होते हैं। प्रत्येक गच्छ की समाचारी जुदी है तथा उनके श्रावकों की सामायिक प्रतिक्रमण आदि विषयक विधियाँ भी जुदी हैं। कोई कल्याणक के दिन छह मानता है तो कोई पाँच। कोई पर्युषण का अन्तिम दिन भाद्रपद शु.4 मानता है और कोई भाद्रपद शु.5।
'धर्मसागर' कृत पट्टावली के अनुसार वि.नि.882 में चैत्यवास प्रारम्भ हुआ। 'जिनवल्लभ सूरि' कृत संघपट्ट की भूमिका में भी चैत्यवास का कुछ इतिहास उल्लिखित है। अनेकान्त वर्ष 3 अंक 8-9 के 'यति समाज' शीर्षक में श्री अगरचन्द नाहटा ने श्वेताम्बर चैत्यवासियों पर विस्तृत प्रकाश डाला है।
अणहिलपुर पट्टण राजा दुर्लभदेव की सभा में वर्द्धमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि द्वारा परास्त हो जाने पर यह चैत्यवासी गच्छ ही खरतर नाम से पुकारा जाने लगा।
वि.सं.1285 में भी जगच्चन्द्र सूरि के उग्र तप से प्रभावित होकर मेवाड़ के राजा ने उसके गच्छ को 'तपा गच्छ' नाम प्रदान किया।
मुख पट्टी के बदले अंचलका अर्थात् वस्त्र के छोर का उपयोग किया जाने के कारण 'आंचलिक गच्छ' प्रसिद्ध हुआ है।
अर्धफालक व श्वेताम्बर विषयक समन्वय
द.सा./प्र./60 प्रेमी जी - अब इस बात पर विचार करना है कि भावसंग्रह की कथा में (भद्रबाहु चरित्र के कर्ता ने) इतना परिवर्तन क्यों किया। हमारी समझ में इसका कारण भद्रबाहु का और श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति का समय है। भाव संग्रह के कर्ता ने तो भद्रबाहु को केवल निमित्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननन्दि उन्हें (श्रुतावतार के अनुसार) पंचम श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार श्रुतकेवली का शरीरान्त वी.नि.162 में हुआ है। (देखें इतिहास - 4.1 और श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वी.नि.606) (वि.136) में बतायी गयी है। दोनों के बीच में इस 450 वर्ष के अन्तर को पूरा करने के लिए ही रत्ननन्दि ने श्वेताम्बर से पहले अर्धफालक उत्पन्न होने की कल्पना की है। दूसरे श्वेताम्बर मत जिनचन्द्र के द्वार वल्लभीपुर में प्रगट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ कि दुर्भिक्ष के समय जो मत प्रगट हुआ था उसका स्थान व प्रवर्तक इससे भिन्न बताया जाये। इसलिए अर्धफालक की उत्पत्ति उज्जैनी में बतायी गयी और इसके प्रवर्तक आचार्य का नाम भी स्थूलभद्र रखा, जो कि श्वेताम्बर आम्नाय में अति प्रसिद्ध है। उज्जैनी नगरी में वी.नि.162 में उत्पन्न होने के पश्चात् वह संघ अर्धफालक के रूप में 450 वर्ष तक विहार करता रहा। अर्धफालक संघ वाले साधु जब वस्तिका में भोजन लेने जाते थे, तो एक वस्त्र के टुकड़े को वे अपनी बायीं भुजा पर लटका कर रखते थे, जिससे उनकी नग्नता छिप जायें। चर्या से लौटने पर उस वस्त्र को पुन: पृथक् करके वे दिगम्बर हो जाते थे। यही संघ कालयोग से वी.नि.606 में वल्लभीपुरी में प्राप्त हुआ। उस समय उस संघ का आचार्य जिनचन्द्र था, जिसने उपरोक्त कथनानुसार इसे श्वेताम्बर के रूप में प्रवर्तित कर दिया। इस प्रकार इसकी संगति भद्रबाहु श्रुतकेवली तथा 12 वर्षीय दुर्भिक्ष के साथ भी बैठ जाती है। श्वेताम्बरों के आदि गुरु स्थूलभद्र के साथ वल्लभीपुर के साथ भावसंग्रह व दर्शनसार के अनुसार जिनचन्द्र के साथ व वी.नि.606 के साथ भी बैठ जाती है। यद्यपि प्रेमी जी रत्ननन्दि भट्टारक की इस कल्पना को निर्मूल बताते हैं, और कहते हैं कि अर्धफालक नाम का कोई भी सम्प्रदाय नहीं हुआ (द.सा./प्र./61) परन्तु उनका ऐसा कहना योग्य नहीं, क्योंकि मथुरा के कंगाली टीले से उपलब्ध कुशन कालीन (ई.240-320 वी.नि.567-847) कुछ प्राचीन आयाग पट्ट मिले हैं। जिनको पुरातत्त्व विभाग ने अर्धफालक मत का सिद्ध किया है। क्योंकि उनमें कुछ नग्न साधु अपने बायें हाथ पर एक कपड़ा डाल कर उस कपड़े के द्वारा अपनी नग्नता छिपाते दिखाये गये हैं। वे साधु कपड़ा तो अपने बायें हाथ पर लटकाये हैं और कमण्डल या भिक्षापात्र अपने दाहिने हाथ में लिये हुए हैं। (भद्रबाहु चरित्र/प्र.उदयलाल) Dr.Buhler in Indian antiquity. Vol 2, Page 13G At his (Nemisha's) left knee stands a small nacked male characterised by the cloth in his left hand as an ascetic with uplifted right hand.
अर्थात् उसके बायीं ओर एक छोटी-सी नग्न पुरुषाकृति है जिसके बायें हाथ पर एक कपड़ा है और एक साधु के रूप में उसका दायाँ हाथ ऊपर को उठा हुआ है। जैन सिद्धान्त भास्कर भाग 10 खण्ड 2 पृ.80 के फुटनोट में डॉ0वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार पट्ट में नीचे एक स्त्री और उसके सामने एक नग्न श्रमण अंकित है। वह एक हाथ में सम्मार्जिनी और बायें हाथ में कपड़ा लिये हुए है। शेष शरीर नग्न है।
भद्रबाहु चरित्र/प्र.उदयलाल - आगे चलकर वि.136 (वी.नि.606) में वह प्रगट रूप से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रवर्तित हो गया। प्रारम्भ में उसका उल्लेख 'निर्ग्रन्थ श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ' के नाम से होता था। उपरान्त वही श्वेताम्बर कहलाया। इसी प्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय भी पहले 'निर्ग्रन्थ श्रमण संघ' के नाम से पुकारा जाता था। उपरान्त वह दिग्वास और फिर दिगम्बर कहलाने लगा।
प्रवर्तकों विषयक समन्वय
दिगम्बर ग्रन्थ दर्शनसार के अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक शान्त्याचार्य के शिष्य तथा भद्रबाहु प्रथम (पंचम श्रुतकेवली) के प्रशिष्य जिनचन्द्र थे। नन्दी संघ की गुर्वावली के अनुसार जिनचन्द्र भद्रबाहु द्वि.के प्रशिष्य थे प्रथम के नहीं। ये कुन्दकुन्द के गुरु थे। (देखें इतिहास - 7.2) परन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थों में इस नाम के आचार्यों का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। दूसरी तरफ श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रवर्तक शिवभूति या सहस्रमल को बताया है, परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में इस नाम के आचार्यों का कहीं पता नहीं चलता। भद्रबाहु चरित्र के कर्ता रत्ननन्दि 'रामल्य' व स्थूलभद्र को इसका प्रवर्तक बताते हैं। इन्द्र: श्वेताम्बरगुरु: तदादाय; संशयमिथ्यादृष्टय: (गो.जी./जी.प्र./16) में टीकाकार ने श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रवर्तक 'इन्द्र' नाम के आचार्य को बताया है। प्रेमी जी को गोम्मटसार के टीकाकार का मत इष्ट है (द.सा./प्र.60 प्रेमी जी)।
उत्पत्ति काल विषयक समन्वय
द.सा./प्र.60/प्रेमीजी - दिगम्बर व श्वेताम्बर सम्प्रदाय कब हुए यह विषय बहुत ही गहरी अन्धेरी में छिपा हुआ है। श्रुतावतार में बतायी गयी गुर्वावली में गौतम से लेकर जम्बू स्वामी तक की परम्परा दोनों ही सम्प्रदाय को जूँ की तूँ मान्य है। इससे आगे के 5 श्रुतकेवलियों के नाम दिगम्बर सम्प्रदाय में कुछ और श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कुछ और है। परन्तु भद्रबाहु को अवश्य दोनों स्वीकार करते हैं। इससे पता चलता है कि भद्रबाहु के पश्चात् ही दोनों जुदा जुदा हो गये हैं। दूसरी बात यह भी है कि श्वेताम्बर मान्य सूत्र ग्रन्थों की रचना का काल वी.नि.980 वि.सं.510 के लगभग है। उस समय वे वल्लभीपुर में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में परिस्थिति वश संगृहीत किये गये थे। श्वेताम्बरों के अनुसार संकलन का यह कार्य क्योंकि वि.श.2 में किया गया था इसलिए उसकी उत्पत्ति का काल वि.136 भी माना जा सकता है। संघ की स्थापना के तुरन्त पश्चात् अपनी मान्यताओं को वैध सिद्ध करने के लिये सूत्र संग्रह का विचार बहुत संगत है।
[दिगम्बराचार्य श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वि.सं.136 (वी.नि.606) में बता रहे हैं और श्वेताम्बराचार्य दिगम्बरों की उत्पत्ति वि.सं.139 (वी.नि.609) में बता रहे हैं। 12 वर्षीय दुर्भिक्ष जो कि संघ विभेद में प्रधान निमित्त है वी.नि.606 (वि.सं.136) में पड़ा था। इन सब बातों को देखते हुए भद्रबाहु चरित्र की मान्यता कुछ युक्त जँचती है, कि वि.पू.330 में अर्धफालक संघ उत्पन्न हुआ, और धीरे-धीरे वि.सं.136 में श्वेताम्बर के रूप में परिवर्तित हो गया। श्वेताम्बर ग्रन्थों में दिगम्बर मत की उत्पत्ति भी उसी समय (वि.139) में बतायी जाना भी इसी बात की सिद्धि करता है कि वि.सं.136 में ही वह उतपन्न हुआ था। अपने उत्पन्न होते ही उन्हें अपने को मूलसंघी सिद्ध करने के लिए दिगम्बर की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कथा गढ़नी पड़ी होगी। इसके अतिरिक्त भी दिगम्बर मत की प्राचीनता निम्न में दिये गये प्रमाणों से सिद्ध होती है।]
दिगम्बर मत की प्राचीनता
1. श्वेताम्बर मान्य कथा को स्वीकार कर लें तो शिवभूति ने जिनकल्प (दिगम्बर मत) को स्वीकार किया था, उसका कारण इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है कि जिनकल्पी मार्ग से भ्रष्ट साधुओं में फिर से जिनकल्प (दिगम्बरता) का प्रचार किया जाये। कथा के अनुसार शिवभूति गुरु के मुख से जिनकल्प का उपदेश सुनकर उसे धारण करने में निश्चलप्रतिज्ञ हुए थे। इससे पता चलता है कि शिवभूति से पहले भी जिनकल्प अवश्य था जो इस समय शिथिल हो चुका था। 2. श्वेताम्बर ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख पाया जाता है - संयमो जिनकल्पस्य दु साध्योऽयं ततोऽधुना। व्रतं स्थविरकल्पस्य तस्मादस्माभिराश्रितम् । तथा - दुर्धरो मूलमार्गोऽयं न धर्त्तुं शक्यते तत:। इस उद्धरण से स्पष्ट कहा गया है कि जिनकल्प ही मूलमार्ग है, परन्तु काल की करालता के कारण आज उसका धारण किया जाना शक्य नहीं है। इसीलिए हमने स्थिरकल्पना का आश्रय लिया है। इधर तो श्वेताम्बराचार्य ऐसा लिखते हैं दूसरी तरफ दिगम्बराचार्य क्या कहते हैं -
र.क.श्रा./10 विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रह:। ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।10। = जो विषयों की आशा के वश न हो और परिग्रह से रहित तथा ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन हो वह तपस्वी गुरु प्रशंसनीय है। 3. इसके अतिरिक्त विक्रमादित्य की सभा में नवरत्नों में से वराहमिहिर भी नग्न साधुओं का उल्लेख करते देखे जाते हैं -
विष्णोर्भागवतामयश्च सवितुर्विप्रा विदुर्ब्राह्मण: मातृणामिति मातृमण्डलविद; शंभो: सभस्माद्द्विज:।। शाक्या: सर्वहिताय शान्तमनसो नग्ना जिनानां विदुर्ये यं देवमुपाश्रिता: स्वविधिना ते तस्य कुर्यु: क्रियाम् । = भाव यह है कि वैष्णव लोग विष्णु की प्रतिष्ठा करें, सूर्योपजीवी लोग सूर्य की उपासना करें; विप्र लोग ब्रह्मा की करें; ब्रह्माणी व इन्द्राणी प्रभृति सप्त मातृमण्डल की उनके मानने वाले अर्चा करें, बौद्ध लोग बुद्ध की प्रतिष्ठा करें, नग्न (दिगम्बर साधु) लोग जिन भगवान् की पर्युपासना करें। थोड़े शब्दों में यों कहिए कि जिस-जिस देव के जो उपासक हैं वे उस उसकी अपनी-अपनी विधि से उपासना करें। 4. महाभारत जो कि वेदव्यास जी द्वारा ईसवी पूर्व बहुत प्राचीन काल में रचा गया था, वह भी दिगम्बर मत का उल्लेख करता है। यथा -
साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोत्तङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च। (महाभारत परिच्छेद 3) = इसके अतिरिक्त भी महापुराण अश्वमेघाधिकार में 49/5/पृ.6201 पर दिगम्बरत्व व अस्नानत्व का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तथा 46/18/पृ.6196 पर दिगम्बर साधु सरीखी ही आहार विहार चर्या आदि सम्बन्धी उल्लेख पाया जाता है। 5. इसके अतिरिक्त भी दिगम्बराम्नाय में कुन्दकुन्द प्रभृति आचार्यों कृत ईसवी पहिली शताब्दी के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जबकि श्वेताम्बरों के इतने प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं हैं।
श्वेताम्बर के अनुसार दिगम्बर मत की उत्पत्ति
यह सारा विषय उत्तराध्ययन सूत्र/अध्याय 3/चूर्ण सूत्र 178 की श्री शांति सूरिकृत संस्कृत वृत्ति के तथा उसमें उद्धृत विविध आगमोक्त गाथाओं के आधार पर संकलित किया गया है।
1. द्विविध कल्प निर्देश
दिगम्बर मत की उत्पत्ति से पूर्व दिगम्बर व श्वेताम्बर ऐसे दो सम्प्रदायों का नाम नहीं था, परन्तु साधुओं के दो कल्प अवश्य थे - स्थविर कल्प व जिन कल्प, जिनके लक्षण व भेद निम्न प्रकार हैं।
उत्तराध्ययन टीका/पृ. स्थविराश्च स्थिरीकरणकारिण:।(पृ.152)। य: स्याज्जिन इव प्रभु:। (पृ.179 पर उद्धृत श्लोक)। स च प्रथमसंहनन एव (टीका पृ.179)। - तात्पर्य यह कि -
विकल्प | स्थविर कल्प | जिन कल्प |
1 | हीन संहननधारी | उत्तम संहननधारी |
2 | अपवादानुसारी मृदु आचारवान् | जिनेन्द्र प्रभुवत् उत्सर्ग मार्गानुसारी कठोर आचारवान् । |
3 | मन्दिर मठ आदि में ससंघ आवास | एकाकी वन विहारी |
4 | श्रावकों के भोजन काल में भिक्षावृत्ति | श्रावकजन खा पीकर निवृत्त हो चुकें ऐसे तीसरे पहर में भिक्षा वृत्ति। बचा खुचा मिला तो ले लिया अन्यथा उपवास किया। |
5 | रोग आदि होने पर उसका उपचार करते हैं | उपचार न करते हैं न करवाते हैं |
6 | आँख में रजाणु पड़ जाने पर अथवा पाँव में शूल लग जाने पर उसे निकालते या निकलवाते हैं | न निकालते हैं न निकलवाते हैं |
7 | सिंह आदि के समक्ष आ जाने पर भागकर अपनी रक्षा करते हैं। | वहाँ ही ध्यानस्थ होकर खड़े रह जाते हैं। |
8 | साँझ पड़ने पर भी उचित स्थान की खोज करते हैं | जहाँ दिन छिपा वहीं खड़े हो जाते हैं। |
इस प्रकार शक्तिकृत भेद के अतिरिक्त इनमें बाह्य वेषकृत कोई भेद नहीं होता। बाह्य वेष की अपेक्षा दोनों ही चार-चार प्रकार के होते हैं। यथा -
उत्तराध्ययन/पृ.179 पर उद्धृत गाथा - जिणकप्पिया व दुविहा पाणिपाया पडिग्गहधरा य। पाउरजमया उरणा एक्केक्का ते भवे दुविहा। य एतान् वर्जयेद्दोषान् धर्मोपकरणादृते। तस्य त्वग्रहणं युक्तं, य: स्याज्जिन इव प्रभु:। = जिनकल्पी साधु चार प्रकार के होते हैं - सवस्त्र पाणिपात्राहारी, अवस्त्र पाणिपात्राहारी, सवस्त्र पात्रधारी और अवस्त्र परन्तु पात्रधारी। जो आचार विषयक निम्न दोषों को बिना उपकरणों के ही टालने को समर्थ हैं, उनके लिए तो इनका न ग्रहण करना ही योग्य है, परन्तु जो ऐसा करने को समर्थ नहीं वे उपकरण ग्रहण करते हैं।
2. जिनकल्प का विच्छेद
उत्तराध्ययन/टीका/पृ. एष व्युच्छिन्न:।(179)। न चेदानीं तदस्तीति...।(180)। =वीर निर्वाण के 62 वर्ष पश्चात् जम्बू स्वामी के निर्वाण पर्यन्त ही जिनकल्प की उपलब्धि होती थी। उसके पश्चात् इस काल में उत्तम संहनन आदि के अभाव के कारण उसकी व्युच्छित्ति हो गयी है।
3. उपकरण व उनकी सार्थकता
उत्तराध्ययन/पृ.179 पर उद्धृत - जन्तवो बहवस्सन्ति दुर्दर्शा मांसचक्षुषाम् । तेभ्य: स्मृतं दयार्थं तु रजोहरणधारणम् ।1। सन्ति संपातिया: सत्त्वा: सूक्ष्माश्च व्यापिनोऽपरे। तेषां रक्षानिमित्तं च विज्ञेया मुखवस्त्रिका।3। किंच - भवन्ति जन्तवो यस्यान्नपानेषु केषुचित् । तस्मात्तेषां परीक्षार्थं पात्रग्रहणमिष्यते।4। अपरं च - सम्यक्त्वज्ञानशीलानि तपश्चेतीह सिद्धये। तेषामनुग्रहार्थाय स्मृतं चीवरधारणम् ।5। शीतवातातपैर्दंशमशकैश्चापि खेदित:। मा सम्यक्त्वादिषु ध्यानं न सम्यक् संविवास्यति।6। तस्य त्वग्रहणे युत् स्यात् क्षुद्रप्राणिविनाशनम् । ज्ञानाध्यानोपघातो वा महान् दोषस्तदैव तु।7। =बहुत से जन्तु ऐसे होते हैं जो इन चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते। विहार शय्या आसन आदि रूप प्रवृत्तियों में उनकी रक्षा के अर्थ रजोहरण है। वायुमण्डल में सर्वत्र ऐसे सूक्ष्म जीव व्याप्त हैं जो मुख में अथवा भोजन पान आदि में स्वत: पड़ते रहते हैं। उनकी रक्षा के लिए मुखवस्त्रिका है। बहुत सम्भव है कि भिक्षा में प्राप्त अन्न पान आदिक में कदाचित् कोई जन्तु पड़े हों। अत: ठीक प्रकार से देख शोधकर खाने के लिए पात्रों का ग्रहण इष्ट है। इनके अतिरिक्त सम्यक्त्व, ज्ञान, शील व तप की सिद्धि के अर्थ वस्त्र ग्रहण की आज्ञा है, ताकि ऐसा न हो कि कहीं शीत वात आतप डांस व मक्खी आदि की बाधाओं से खेदित होने पर कोई इनमें ठीक प्रकार से ध्यान व उपयोग न रख सके। ये सभी पदार्थ बाह्याभ्यन्तर संयम के उपकारी होने से उपकरण संज्ञा को प्राप्त होते हैं, जिनका ग्रहण न करने पर क्षुद्र प्राणियों का विनाश तथा ज्ञान ध्यान आदि का उपघात रूप महान् दोष प्राप्त होते हैं।
उत्तराध्ययन/टीका/पृ.179 धर्मोपकरणमेवैतत् न तु परिग्रहस्तथा।
दश वैकालिक सूत्र/अ.6 गा. 19 जं पि वत्थं य पायं वा, केवलं पायपुंछणं। तेऽपि संजमलज्जट्ठा, धारेन्ति परिहरन्ति य।=अर्थात् मूर्च्छारहित साधु के लिए ये सब धर्मोपकरण हैं न कि परिग्रह, क्योंकि मूर्च्छा को परिग्रह संज्ञा प्राप्त होती है वस्तु को नहीं। वस्त्र व पात्रादि इन उपकरणों को साधुजन संयम की रक्षार्थ तथा लज्जा निवारण के लिए धारण करते हैं, और उनके प्रति इतने आसक्त रहते हैं कि समय आने पर जीर्ण तृण की भाँति वे इनका त्याग भी कर देते हैं।
4. दिगम्बर मत प्रवर्तक शिवभूति का परिचय
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 164 का उपोद्घात/पृ.151 जमालिप्रभृतीनां निह्नवानां शिष्यास्तद्भक्तियुक्तितया स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्न:।
उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.179 पर उद्धृत छव्वाससएहिं णवोत्तरेहिं सिद्धिंगयस्स वीरस्स। तो वोडियाण दिट्ठी रहवीपुरे समुप्पणा। = श्वेताम्बर आगम में यत्र तत्र जमालि आदि सात तथा शिवभूति नामक अष्टम निह्नवों का कथन अत्यन्त प्रसिद्ध है। निह्नव संज्ञा को प्राप्त ये स्थविरकल्पी साधु तथा इनके शिष्य यद्यपि आगम के प्रति भक्ति युक्त होने के कारण स्वयं आगमानुसारी बुद्धि वाले होते हैं, परन्तु गुरु आज्ञा से विपरीत अर्थ का प्रतिपादन करने के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिये जाने पर स्वयं स्वच्छन्द रूप से अपने-अपने मतों का प्रसार करते हैं, जिनसे विभिन्न सम्प्रदायों व मतमतान्तरों की उत्पत्ति होती है। भगवान् वीर के निर्वाण होने के 609 वर्ष पश्चात् अर्थात् वि.सं.139 में 'रथवीपुर' नामक नगर में वोटिक (दिगम्बर) मतवाला अष्टम निह्नव शिवभूति उत्पन्न हुआ।
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृ.179-180 का भावार्थ - यह शिवभूति अपनी गृहस्थावस्था में अत्यन्त स्वच्छन्द वृत्ति वाला एक राजसेवक था, जिसने किसी समय राजा के एक शत्रु को जीतकर राजा को प्रसन्न किया और उपलक्ष्य में उससे नगर में स्वच्छन्द घूमने की आज्ञा प्राप्त कर ली। वह रात्रि को भी इधर-उधर घूमता रहता था, जिसके कारण उसकी स्त्री व माता उससे तंग आ गयीं, और एक रात्रि को जब वह घर आया तो उन्होंने द्वार नहीं खोले। शिवभूति क्रुद्ध होकर उपाश्रय में चला गया और गुरु के मना करने पर भी 'खेलमल्लक' नामक किसी साधु से दीक्षा लेकर स्वयं केशलोंच कर लिया। कुछ काल पश्चात् ससंघ विहार करता हुआ जब वह पुन: इस नगर में आया तो राजा ने अपना प्रिय जान उसे एक रत्न कम्बल भेंट किया। गुरु की आज्ञा के बिना भी उसने वह रत्न कम्बल ग्रहण कर लिये और उसे गुरु से छिपाकर अपने पास रखता रहा। एक दिन जब वह भिक्षाचर्या के लिए उसकी पोटली में से वह कम्बल निकाल लिया और बिना पूछे उसमें से फाड़कर साधुओं के पाँव पोंछने के आसन बना दिये। अत: शिवभूति भीतर ही भीतर गुरु के प्रति रुष्ट रहने लगा।
5. शिवभूति से दिगम्बर मत की उत्पत्ति :
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/पृ.179 - इत्यादि सो (सिवभूइ) किं एस एवं ण कोरइ। तेहिं भणियं - एष व्युच्छिन्न:। मम न व्युच्छिद्यते इति स एव परलोकार्थिना कर्त्तव्य:।
उत्तराध्ययन/चूर्ण सूत्र 178/180 न चेदानीं तदस्तीत्यादिकया प्रागुक्तया च युक्त्योच्यमानोऽसौ कर्मोदयेन चीवरादिकं त्यक्त्वा गत:। ...तस्योत्तरा भगिनी, उद्याने स्थितं वन्दिका गता, तं च दृष्ट्वा तयापि चीवरादिकं सर्वं त्यक्तं, तदा भिक्षायै प्रविष्टा गणिकया दृष्टा। मास्मासु लोको विरङ्क्षीत् इति उरसि तस्या: पोतिका बद्धा। सा नेच्छति, तेन भणितं - तिष्ठतु एषा तव देवता दत्ता। तेन च द्वौ शिष्यौ प्रवजितौ - कौण्डिन्य: कोटिवीरश्च, तत: शिष्याणां परम्परा स्पर्शो जात:।' - ।
उत्तराध्ययन/चूर्णसूत्र 178/पृ.180 पर उद्धृत - उहाए पण्णत्तं बोडियसिवभूइ उत्तरा हि इमं। मिच्छादंसणमिणमो रहवीपुरे समुप्पण्णं।1। बोडियसिवभूइओ बोडियलिंगस्स होई उप्पत्ती। कोडिण्णकोट्टवीरा परंपराफासमुप्पन्ना।2। =एक दिन गुरु जब पूर्वोक्त प्रकार जिनकल्प के स्वरूप का कथन कर रहे थे, तब शिवभूति ने उनसे पूछा कि किस कारण से अब आप साधुओं को जिनकल्प में दीक्षित नहीं करते हैं। 'वह मार्ग अब व्युच्छिन्न हो गया है', गुरु के ऐसा कहने पर वह बोला कि भले ही दूसरों के लिए व्युच्छिन्न हो गया हो, परन्तु मेरे लिए वह व्युच्छिन्न नहीं हुआ है। सर्वथा निष्परिग्रही होने से परलोकार्थी के लिए वही ग्रहण करना कर्त्तव्य है। - हीन संहनन के कारण इस काल में वह सम्भव नहीं है, गुरु के पूर्वोक्त प्रकार ऐसा समझाने पर भी मिथ्यात्व कर्मोदयवश उसने गुरु की बात स्वीकार नहीं की, और वस्त्र त्यागकर अकेला वन में चला गया। उसके पीछे उसकी बहन भी उसकी वन्दनार्थ उद्यान में गयी और उसे देखकर वस्त्र त्याग नग्न हो गयी। एक दिन जब वह भिक्षार्थ नगर में प्रवेश कर रही थी, तो एक गणिका ने उसे एक साड़ी पहना दी, जिसे देवता प्रदत्त कहकर शिवभूति ने ग्रहण करने की आज्ञा दे दी। शिवभूति ने कौडिन्य व कोटिवीर नामक दो शिष्यों को दीक्षा दी जिनकी परम्परा में ही यह वोटिक या दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ है।
ढूंढिया पंथ
1. दिगम्बर के अनुसार उत्पत्ति :
कुछ काल पश्चात् इसी श्वेताम्बर संघ में से ढूंढिया पंथ अपरनाम स्थानकवासी मत की उत्पत्ति हुई। यथा -
भद्रबाहु चरित्र/4/157/161 मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते। दशपञ्चशतेऽब्दानामतीते शृणुतापरम् ।157। लुङ्कामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मण:। देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विद्वत्ताजितनिर्जरे।158। अणहिल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजोऽभवत् । लुङ्काऽभिधो महामानी श्वेतांशुकमहाश्रयी।159। दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपति: पापमण्डित:। तीव्रमिथ्यात्वपाकेन लुङ्कामतमकल्पयत् ।160। तन्मतेऽपि च भूयांसो मतभेदा: समाश्रिता:।161।=विक्रम की मृत्यु के 1527 वर्ष बाद धर्म कर्म का सर्वथा नाश करने वाला एक लुङ्कामत (ढूंढिया मत) प्रगट हुआ। इसी की विशेष व्याख्या यों है कि - गुर्जर देश (गुजरात) कुल में एक अणहिल नाम का नगर है। उसमें प्राग्वाट (कुलम्बी) कुल में लुङ्का नाम का धारक एक श्वेताम्बरी हुआ है। उस दुष्ट आत्मा ने कुपित होकर तीव्र मिथ्यात्व के उदय से खोटे परिणामों के द्वारा लुङ्कामत चलाया। उनमें भी पीछे अनेक भेद हो गये।
द.पा./टी./11/11/12 तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्ना:। =उनमें से (श्वेताम्बरियों में से) ही श्वेताम्बराभास (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुआ।
2. श्वेताम्बरायाम्नाय के अनुसार उत्पत्ति :
विक्रम सं.1472 में इस मत के संस्थापक लोंकाशाह का जन्म हुआ। यह व्यक्ति अहमदाबाद में ग्रन्थ लिखने का व्यवसाय करता था। एक बार एक ग्रन्थ लिखने की उजरत के विषय में किसी यति से उसकी कहा सुनी हो गयी, जिसके कारण उसने मूर्तिपूजा को तथा कुछ आचार विचारों को आगम विरुद्ध बताकर एक स्वतन्त्रमत का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया उसने 22 शिष्यों को दीक्षित किया, जिनकी परम्परा में 'लोंकागच्छ' की उत्पत्ति हुई। पीछे इसमें भी अनेकों भेद प्रभेद उत्पन्न हो गये।
सूरत के एक साधु ने इस लोंकामत के भी कुछ सुधार करके 'ढूंढिया' नामक एक नये सम्प्रदाय को जन्म दिया, जिससे कि पूर्ववर्ती भी सभी लोंकानुयायी ढूंढिया नाम से प्रसिद्ध हो गये। स्थानकों में रहने के कारण इसके साधु स्थानकवासी कहलाते हैं। इसी सम्प्रदाय में आचार्य भिक्षु ने तेरहपन्थ की स्थापना की।
3. स्वरूप
भद्रबाहु चरित्र/4/161 सुरेन्द्रार्चां जिनेन्द्रार्चां तत्पूजां दानमुत्तमम् । समुत्थाप्य स पापात्मा प्रतापो जिनसूत्रवत:।161। =जिन सूर्य से प्रतिकूल होकर, देवताओं से भी पूजनीय जिन प्रतिमा की पूजा दानादि सब कर्मों का उत्थापन करके वह पापात्मा जिन भगवान् के व्रतों से प्रतिकूल हो गया।
द.पा./टी./11/11/12 तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठा: देवपूजादिकं किल पापकर्मेदमिति कथयन्ति, मण्डलवत्सर्वत्र भाण्डप्रक्षालनोदकं पिबन्ति इत्यादि, बहुदोषवन्त:। =उन (श्वेताम्बरों) में से श्वेताम्बराभासी (ढूंढिया मत) उत्पन्न हुए। वे तीव्र पापिष्ठ होकर देव पूजादिक को भी पापकर्म बताने लगे। मण्डल मत की भाँति बर्तनों के धोवन का पानी पीने लगे। इस प्रकार बहुत दोषवन्त हो गये।
नोट - यह सम्प्रदाय श्वेताम्बर मान्य आगम सूत्रों में से 32 को मान्य करता है। परन्तु श्वेताम्बराचार्यों कृत उनकी टीकाएँ इसे मान्य नहीं हैं।