सत्त्व निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="3"><strong> | <p class="HindiText" id="3"><strong>3. सत्त्व योग्य प्रकृतियों का निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.12/4,2,14,38/495/12 जासिं पुण पयडीणं बंधो चेव णत्थि, बंधे संतेवि जासिं पयडीणं ट्ठिदिसंतादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि: ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। ण च आहारदुगतित्थयराणं ट्ठिदिसंतादो उवरि बंधो अत्थि, समाइट्ठीसु तदणुवलंभादो तम्हा सम्मत्त-सम्ममिच्छत्ताणं व एदाणि तिण्णि वि संतकम्माणि।</span> =<span class="HindiText">जिन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है और बन्ध के होने पर भी जिन प्रकृतियों का स्थिति सत्त्व से अधिक सदाकाल बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्व प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि, सत्त्व प्रधानता है। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृति का स्थिति सत्त्व से अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जात है, इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के समान ये तीनों भी सत्त्व प्रकृतियाँ हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">गो.क./मू./ | <p><span class="PrakritText">गो.क./मू./38 पंच ण दोण्णि अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी। दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ सत्त पयडीओ।38।</span> =<span class="HindiText">पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पाँच, इस तरह सब (आठों कर्मों की सर्व) 148 सत्तारूप प्रकृतियाँ कही हैं।38।</span></p> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
सत्त्व निर्देश
1. सत्त्व सामान्य का लक्षण
1. अस्तित्व के अर्थ में
देखें सत् - 1.1 सत्त्व का अर्थ अस्तित्व है।
देखें द्रव्य - 1.7 सत्ता, सत्त्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये सब एकार्थक हैं।
2. जीव के अर्थ में
स.सि./7/11/349/8 दुष्कर्मविपाकवशान्नानायोनिषु सीदन्तीति सत्त्वा जीवा:। =बुरे कर्मों के फल से जो नाना योनियों में जन्मते और मरते हैं वे सत्त्व हैं। सत्त्व यह जीव का पर्यायवाची नाम है। (रा.वा./7/11/5/538/23)
3. कर्मों की सत्ता के अर्थ में
पं.सं./प्रा./3/3 धण्णस्स संगहो वा संतं...। =धान्य संग्रह के समान जो पूर्व संचित कर्म हैं, उनके आत्मा में अवस्थित रहने को सत्त्व कहते हैं।
क.पा./1/1,13-14/250,291/6 ते चेव विदियसमयप्पहुडि जाव फलदाणहेट्ठिमसमओ त्ति ताब संतववएसं पडिवज्जंति।=जीव से सबद्ध हुए वे ही (मिथ्यात्व के निमित्त से संचित) कर्म स्कन्ध दूसरे समय से लेकर फल देने से पहले समय तक सत्त्व इस संज्ञा को प्राप्त होते हैं।
2. उत्पन्न व स्वस्थान सत्त्व के लक्षण
गो.क./भाषा/351/506/1 पूर्व पर्याय विषै जो बिना उद्वेलना [कर्षण द्वारा अन्य प्रकृतिरूप करके नाश करना] व उद्वेलनातै सत्त्व भया तिस तिस उत्तर पर्याय विषै उपजै, तहाँ उत्तरपर्याय विषैतिस सत्त्वकौ उत्पन्न स्थानविषै सत्त्व कहिए। तिस विवक्षित पर्याय विषै बिना उद्वेलना व उद्वेलना तै जो सत्त्व होय ताकौ स्वस्थान विषै सत्त्व कहिए।
3. सत्त्व योग्य प्रकृतियों का निर्देश
ध.12/4,2,14,38/495/12 जासिं पुण पयडीणं बंधो चेव णत्थि, बंधे संतेवि जासिं पयडीणं ट्ठिदिसंतादो उवरि सव्वकालं बंधो ण संभवदि: ताओ संतपयडीओ, संतपहाणत्तादो। ण च आहारदुगतित्थयराणं ट्ठिदिसंतादो उवरि बंधो अत्थि, समाइट्ठीसु तदणुवलंभादो तम्हा सम्मत्त-सम्ममिच्छत्ताणं व एदाणि तिण्णि वि संतकम्माणि। =जिन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है और बन्ध के होने पर भी जिन प्रकृतियों का स्थिति सत्त्व से अधिक सदाकाल बन्ध सम्भव नहीं है वे सत्त्व प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि, सत्त्व प्रधानता है। आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृति का स्थिति सत्त्व से अधिक बन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टियों में नहीं पाया जात है, इस कारण सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के समान ये तीनों भी सत्त्व प्रकृतियाँ हैं।
गो.क./मू./38 पंच ण दोण्णि अट्ठावीसं चउरो कमेण तेणउदी। दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ सत्त पयडीओ।38। =पाँच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, तिरानवे, दो और पाँच, इस तरह सब (आठों कर्मों की सर्व) 148 सत्तारूप प्रकृतियाँ कही हैं।38।