सामान्य: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>1. 'सामान्य' सामान्य के लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ द्रव्य#1.7 | द्रव्य - 1.7 ]][द्रव्य, सामान्य, उत्सर्ग, अनुवृत्ति, सत्ता, सत्त्व, सत्, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि, अविशेष ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ नय#I.5.4 | नय - I.5.4]]-[द्रव्य का सामान्यांश हार के डोरेवत् सर्व पर्यायों में अनुस्यूत एक भाव है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ निक्षेप#2.7 | निक्षेप - 2.7 ]][द्रव्य की प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की सब पर्यायें मिलकर एक द्रव्य बनता है। वही सामान्य द्रव्यार्थिक नय का विषय है।] (और भी देखें [[ नय#IV.1.2 | नय - IV.1.2]])।</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ दर्शन#4.2 | दर्शन - 4.2]]-4 [यह काला है या नीला इस प्रकार भेद किये बिना सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों का सामान्य रूप से ग्रहण करने के कारण आत्मा ही सामान्य है और वही दर्शनोपयोग का विषय है।]</p> | ||
<p><span class="SanskritText">न्या./वि./मू./ | <p><span class="SanskritText">न्या./वि./मू./1/121/450 समानभाव: सामान्यं।</span> =<span class="HindiText"> समान अर्थात एकता का भाव सामान्य है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">न्या.वि./वृ./ | <p><span class="SanskritText">न्या.वि./वृ./1/4/121/10 अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यम् ।</span> =<span class="HindiText"> अनुवृत्ति अर्थात् एकता की बुद्धि का कारण होने से सामान्य है। (प.मु./4/2)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">न.च.वृ./ | <p><span class="PrakritText">न.च.वृ./63 सामण्णसहावदो सव्वे।</span> =<span class="HindiText">सब द्रव्यों में होना सामान्य का स्वभाव है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स.म./ | <p><span class="SanskritText">स.म./4/17/12 स्वभाव एव ह्ययं सर्वभावानां यदनुवृत्ति...तथाहि। घट एव तावत पृथुबध्नोदराकारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन्नन्यानपि तदाकृतिभृत: पदार्थान् घटरूपतया घटैकशब्दवाच्यतया च प्रत्यायन् सामान्याख्यां लभते।</span> =<span class="HindiText"> स्वयं ही सर्व भावों की अनुवृत्तिरूप से ज्ञान कराने वाला ऐसा सब द्रव्यों का स्वभाव ही है। उदाहरणार्थ-मोटा गोल उदर आदि आकार वाला घड़ा स्वयं ही उसी आकृति के अन्य पदार्थों को भी घटरूप से और घटशब्दरूप से जानता हुआ 'सामान्य' कहा जाता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./ | <p><span class="SanskritText">द्र.सं./टी./6/18/2 सामान्यमिति कोऽर्थ: संसारिजीवयुक्तजीवविवक्षा नास्ति, अथवा शुद्धाशुद्धज्ञानदर्शनविवक्षा नास्ति। तदपि कथमिति चेद् विवक्षाया: अभाव: सामान्यलक्षणमिति वचनात् ।</span> =<span class="HindiText">यहाँ 'सामान्य जीव' इस कथन का यह तात्पर्य है कि इस (जीव के) लक्षण में संसारी तथा मुक्त जीव की विवक्षा नहीं है अथवा शुद्ध अशुद्ध ज्ञान दर्शन की भी विवक्षा नहीं है। क्योंकि, 'विवक्षा का अभाव ही सामान्य का लक्षण है' ऐसा कहा है। (स.सा./ता.वृ./198/274/7)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">न्या.दी./ | <p><span class="SanskritText">न्या.दी./3/76/117/2 तत्र सामान्यमनुवृत्तिस्वरूपम् । तद्धि घटत्वं पृथुबुध्नोदराकार:। गोत्वमिति सास्रादिमत्त्वमेव। | ||
</span> = <span class="HindiText">'घट घट' 'गौ गौ' इस प्रकार के अनुगतव्यवहार के विषयभूत सदृश परिणामात्मक 'घटत्व' 'गोत्व' आदि अनुगत स्वरूप को सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कम्बुग्रीवादि स्वरूप तथा 'गोत्व' सास्न आदि स्वरूप ही है।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">'घट घट' 'गौ गौ' इस प्रकार के अनुगतव्यवहार के विषयभूत सदृश परिणामात्मक 'घटत्व' 'गोत्व' आदि अनुगत स्वरूप को सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कम्बुग्रीवादि स्वरूप तथा 'गोत्व' सास्न आदि स्वरूप ही है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./2 बहुव्यापकमेवैतत्सामान्यं सदृशत्वत:।2।</span> = <span class="HindiText">सदृशता से जो बहुत देश में व्यापक रहता है उसी को सामान्य कहते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">वै.द./ | <p><span class="SanskritText">वै.द./1-2/3,4 सामान्यं विशेष इति बुद्धयपेक्षम् ।3। भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव।4।</span> =<span class="HindiText">सामान्य और विशेष बुद्धि की अपेक्षा से लिये जाते हैं।3। जैसे अनुवृत्ति अर्थात् बार-बार लौटकर प्रत्येक वस्तु के मिलने से यह विदित होता है कि भाव अर्थात् सत्ता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>2. सामान्य के भेद व उनके लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">प.मु./ | <p><span class="SanskritText">प.मु./4/3-5 सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ।3। सदृशप्राणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ।4। परापरविकृतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु।5।</span> =<span class="HindiText">सामान्य दो प्रकार का है-एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य।3। तहाँ सामान्य परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे गोत्व सामान्य, क्योंकि खाण्डी मुण्डी आदि गौवों में गोत्व सामान्यरूप से रहता है। तथा पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे घड़े में मिट्टी, क्योंकि, स्थास, कोश, कुशूल आदि जितनी भी एक घड़े की पूर्वोत्तर पर्यायें हैं उन सबमें मिट्टी अनुगत रूप से रहती है।5। (विशेष देखें [[ क्रम#6 | क्रम - 6]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">स्या.म./ | <p><span class="SanskritText">स्या.म./8/66/15 तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतु: सामान्यम् । तच्च द्विविधं परमपरं च। तत्र परं सत्ता भावो महासमान्यमिति चोच्यते। द्रव्यत्वाद्यवान्तरसामान्यापेक्षया महाविषयत्वात् । अपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि। एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">अनुवृत्ति प्रत्यय का कारण सामान्य है। वह दो प्रकार का है-पर सामान्य और अपर सामान्य। पर सामान्य को सत्ता, भाव, और महासामान्य भी कहते हैं। क्योंकि, यह द्रव्यत्व आदि अपरसामान्य की अपेक्षा से महान् विषय वाला है। द्रव्यत्व केवल द्रव्य में ही रहता है और परसामान्य द्रव्य गुण व कर्म तीनों में रहता है। द्रव्यत्वादि अपर सामान्य हैं। इसे सामान्य विशेष भी कहते हैं। (और भी दे.'अस्तित्व';नय/III/4/2/1)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>3. सर्वथा स्वतन्त्र सामान्य या विशेष कुछ नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सि.वि./मू./ | <p><span class="SanskritText">सि.वि./मू./2/12/143 न पश्याम: क्वचित् किंचित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यन्तरं तु पश्याम: ततो नैकान्तहेतव:।</span> =<span class="HindiText">कोई किंचित् भी विशेष मात्र या सामान्य मात्र देखने में नहीं आता। हाँ सामान्य विशेषात्मक एक जात्यन्तर भाव अवश्य देखा जाता है। इसलिए 'सामान्य' अनेकान्त हेतुक है अर्थात् अनेकान्त के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सि.वि./वृ./ | <p><span class="SanskritText">सि.वि./वृ./1/8/151/5 पर उद्धत (प्रमाण वार्तिक/2/126) एकत्र दृष्टो भेदो हि क्वचिन्नान्यत्र दृश्यते। न तस्माद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदत:।</span> =<span class="HindiText">किसी एक स्थान पर देखा गया भेद किसी भी प्रकार अन्यत्र नहीं देखा जाता इसलिए बुद्धि के अभेद से वह सामान्य कथंचित् भिन्न व अन्य नहीं है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">आ.प./श्लो.नं. | <p><span class="SanskritText">आ.प./श्लो.नं.9 निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि।9।</span> =<span class="HindiText">विशेषों से रहित सामान्य और इसी प्रकार सामान्य से रहित विशेष। कुछ गधे के सींग के समान असत् होते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. वस्तु स्वयं सामान्य विशेषात्मक है</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">श्लो.वा./ | <p><span class="SanskritText">श्लो.वा./4/1/33/60/245/16 सर्वस्य वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">सर्व ही वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> देखें | <p><span class="HindiText">देखें [[ प्रमाण#2.5 | प्रमाण - 2.5 ]][सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विशेष है।]</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">क.पा./ | <p><span class="SanskritText">क.पा./1/1-20/324/356/2 तत: स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य-विशेषोभयानुभयैकान्तव्यतिरिक्तत्वात् जात्यन्तरं वस्त्विति स्थितम् ।</span> =<span class="HindiText">इसका (देखें [[ अगला शीर्षक ]]) यह अभिप्राय है कि वस्तु न सामान्य रूप है, न विशेषरूप है, न सर्वथा उभयरूप है और न अनुभय रूप है किन्तु जात्यन्तररूप ही वस्तु है, ऐसा सिद्ध होता है। (क.पा./1/1,1/33/49/2)</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>5. सामान्य व विशेष की स्वतन्त्र सत्ता न मानने में हेतु</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा./ | <p><span class="PrakritText">क.पा./1/1-20/322/353/3 ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरित्ताणं तब्भावसारिच्छलक्खणसामण्णाणमणुवलंभादो समाणेगपच्चयाणमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो अत्थि सामण्णमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; अणेगासमाणाणुविद्धेगसमाणग्गहणेण जच्चंतरीभूतपच्चयाणमुप्पत्तिदंसणादो। ण सामण्णवदिरित्तो विसेसो वि अत्थि; सामण्णाणुविद्धस्सेव विसेसस्सुवलंभादो। ''ण च एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो...।''</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText">क.पा. | <p><span class="PrakritText">क.पा.1/1-20/323/354/1 ण सामण्ण-विसेसाणं संबंधो वत्थु।</span> =<span class="HindiText">1. केवल सामान्य तो है नहीं, क्योंकि अपने विशेषों को छोड़कर केवल तद्भाव सामान्य और सादृश्यलक्षण सामान्य नहीं पाये जाते हैं। 2. यदि कहा जाय कि सामान्य के सर्वत्र समान प्रत्यय और एक प्रत्यय की उपपत्ति बन नहीं सकती है इसलिए सामान्य नाम का स्वतन्त्र पदार्थ है, सो कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अनेक का ग्रहण असमानानुविद्ध होता है और एक का ग्रहण समानानुविद्ध होता है। 3. अत: सामान्य विशेषात्मक वस्तु को विषय करने वाले जात्यन्तरभूत ज्ञानों की ही उत्पत्ति देखी जाती है। 4. तथा सामान्य से सर्वथा भिन्न विशेष नाम का भी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि सामान्य से अनुविद्ध होकर ही विशेष की उपलब्धि होती है। 5. यदि कहा जाय कि स्वतन्त्र रहते हुए भी उनके संयोग का ही परिज्ञान एक ज्ञान के द्वारा होता है, सो भी कहना ठीक नहीं-(विशेष देखें [[ द्रव्य#5.3 | द्रव्य - 5.3]])। 6. सामान्य और विशेष के सम्बन्ध को अर्थात् समवाय सम्बन्ध को स्वतन्त्र वस्तु कहना भी ठीक नहीं-(देखें [[ समवाय ]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>6. सामान्य व विशेष में कथंचिद् भेद</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">ध. | <p><span class="PrakritText">ध.13/5/5/35/234/6 विसेसादो सामण्णस्स कथंचिद पुधभूदस्स उवलंभादो। तं जहा-सामण्णमेयसंखं विसेसो अणेयसंखो। वदिरेयलक्खणो विसेसो अण्णयलक्खणं सामण्णं, आहारो विसेसो आहेयो सामण्णं, णिच्चं सामण्णं अणिच्चो विसेसो। तम्हा सामाण-विसेसाणं णत्थि एयत्तमिदि। | ||
</span>=<span class="HindiText">विशेष से सामान्य में कथंचित् भेद पाया जाता है। यथा-सामान्य एक संख्या वाला होता है और विशेष अनेक संख्या वाला होता है, विशेष व्यतिरेक लक्षण वाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है, सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है। इसलिए सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">विशेष से सामान्य में कथंचित् भेद पाया जाता है। यथा-सामान्य एक संख्या वाला होता है और विशेष अनेक संख्या वाला होता है, विशेष व्यतिरेक लक्षण वाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है, सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है। इसलिए सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./पू./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./पू./275 सामान्यं विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च।...।275।</span> =<span class="HindiText">विधिरूप वर्तना सामान्य काल कहलाता है और निषेध स्वरूप विशेष काल कहलाता है। (देखें [[ सप्तभंगी#3.3 | सप्तभंगी - 3.3]]-स.म.)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>7. सामान्य विशेष के भेदाभेद का समन्वय</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">आप्त.मी./ | <p><span class="SanskritText">आप्त.मी./34-36 सामान्यात्तु सर्वैक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदत:। भेदाभेदव्यवस्थायामसाधारणहेतुवत् ।34। विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणी। यतो विशेषणस्यात्र नासतस्तैस्तदर्थिभि:।35। प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ च संवृती। तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया।36।</span> =<span class="HindiText">सामान्यरूप से देखने पर सब द्रव्य गुण कर्म आदिकों में एकत्व है और उनका भेद देखने पर उनमें भेद है। तहाँ अभेद विवक्षा में 'सामान्य' और भेद विवक्षा में 'विशेष' ये असाधारण हेतु हैं।34। अनन्त धर्मों का आधारभूत जो विशेष्य उसमें सत्रूप विशेषण की ही विवक्षा होती है, असत्रूप की नहीं। और यह विवक्षा वक्ता की इच्छा पर निर्भर है।35। इसलिए वस्तु में भेद व अभेद दोनों ही प्रमाण गोचर होने से प्रमार्थभूत हैं। मुख्य व गौण की विवक्षा से ये दोनों स्याद्वाद मत में अविरुद्ध हैं।36।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./पू./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./पू./275 उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति।275।</span> =<span class="HindiText">इन दोनों में से किसी एक की मुख्य विवक्षा होने से कालकृत अस्ति व नास्ति ये दो विकल्प पैदा होते हैं।</span></p> | ||
[[सामानिक | | <noinclude> | ||
[[ सामानिक | पूर्व पृष्ठ ]] | |||
[[Category:स]] | [[ सामान्य गुण | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: स]] |
Revision as of 21:48, 5 July 2020
1. 'सामान्य' सामान्य के लक्षण
देखें द्रव्य - 1.7 [द्रव्य, सामान्य, उत्सर्ग, अनुवृत्ति, सत्ता, सत्त्व, सत्, अन्वय, वस्तु, अर्थ, विधि, अविशेष ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं।]
देखें नय - I.5.4-[द्रव्य का सामान्यांश हार के डोरेवत् सर्व पर्यायों में अनुस्यूत एक भाव है।]
देखें निक्षेप - 2.7 [द्रव्य की प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की सब पर्यायें मिलकर एक द्रव्य बनता है। वही सामान्य द्रव्यार्थिक नय का विषय है।] (और भी देखें नय - IV.1.2)।
देखें दर्शन - 4.2-4 [यह काला है या नीला इस प्रकार भेद किये बिना सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों का सामान्य रूप से ग्रहण करने के कारण आत्मा ही सामान्य है और वही दर्शनोपयोग का विषय है।]
न्या./वि./मू./1/121/450 समानभाव: सामान्यं। = समान अर्थात एकता का भाव सामान्य है।
न्या.वि./वृ./1/4/121/10 अनुवृत्तिबुद्धिहेतुत्वात्सामान्यम् । = अनुवृत्ति अर्थात् एकता की बुद्धि का कारण होने से सामान्य है। (प.मु./4/2)।
न.च.वृ./63 सामण्णसहावदो सव्वे। =सब द्रव्यों में होना सामान्य का स्वभाव है।
स.म./4/17/12 स्वभाव एव ह्ययं सर्वभावानां यदनुवृत्ति...तथाहि। घट एव तावत पृथुबध्नोदराकारवान् प्रतीतिविषयीभवन् सन्नन्यानपि तदाकृतिभृत: पदार्थान् घटरूपतया घटैकशब्दवाच्यतया च प्रत्यायन् सामान्याख्यां लभते। = स्वयं ही सर्व भावों की अनुवृत्तिरूप से ज्ञान कराने वाला ऐसा सब द्रव्यों का स्वभाव ही है। उदाहरणार्थ-मोटा गोल उदर आदि आकार वाला घड़ा स्वयं ही उसी आकृति के अन्य पदार्थों को भी घटरूप से और घटशब्दरूप से जानता हुआ 'सामान्य' कहा जाता है।
द्र.सं./टी./6/18/2 सामान्यमिति कोऽर्थ: संसारिजीवयुक्तजीवविवक्षा नास्ति, अथवा शुद्धाशुद्धज्ञानदर्शनविवक्षा नास्ति। तदपि कथमिति चेद् विवक्षाया: अभाव: सामान्यलक्षणमिति वचनात् । =यहाँ 'सामान्य जीव' इस कथन का यह तात्पर्य है कि इस (जीव के) लक्षण में संसारी तथा मुक्त जीव की विवक्षा नहीं है अथवा शुद्ध अशुद्ध ज्ञान दर्शन की भी विवक्षा नहीं है। क्योंकि, 'विवक्षा का अभाव ही सामान्य का लक्षण है' ऐसा कहा है। (स.सा./ता.वृ./198/274/7)।
न्या.दी./3/76/117/2 तत्र सामान्यमनुवृत्तिस्वरूपम् । तद्धि घटत्वं पृथुबुध्नोदराकार:। गोत्वमिति सास्रादिमत्त्वमेव। = 'घट घट' 'गौ गौ' इस प्रकार के अनुगतव्यवहार के विषयभूत सदृश परिणामात्मक 'घटत्व' 'गोत्व' आदि अनुगत स्वरूप को सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कम्बुग्रीवादि स्वरूप तथा 'गोत्व' सास्न आदि स्वरूप ही है।
पं.ध./उ./2 बहुव्यापकमेवैतत्सामान्यं सदृशत्वत:।2। = सदृशता से जो बहुत देश में व्यापक रहता है उसी को सामान्य कहते हैं।
वै.द./1-2/3,4 सामान्यं विशेष इति बुद्धयपेक्षम् ।3। भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव।4। =सामान्य और विशेष बुद्धि की अपेक्षा से लिये जाते हैं।3। जैसे अनुवृत्ति अर्थात् बार-बार लौटकर प्रत्येक वस्तु के मिलने से यह विदित होता है कि भाव अर्थात् सत्ता है।
2. सामान्य के भेद व उनके लक्षण
प.मु./4/3-5 सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ।3। सदृशप्राणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ।4। परापरविकृतव्यापिद्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु।5। =सामान्य दो प्रकार का है-एक तिर्यक् सामान्य, दूसरा ऊर्ध्वता सामान्य।3। तहाँ सामान्य परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं, जैसे गोत्व सामान्य, क्योंकि खाण्डी मुण्डी आदि गौवों में गोत्व सामान्यरूप से रहता है। तथा पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे घड़े में मिट्टी, क्योंकि, स्थास, कोश, कुशूल आदि जितनी भी एक घड़े की पूर्वोत्तर पर्यायें हैं उन सबमें मिट्टी अनुगत रूप से रहती है।5। (विशेष देखें क्रम - 6)।
स्या.म./8/66/15 तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतु: सामान्यम् । तच्च द्विविधं परमपरं च। तत्र परं सत्ता भावो महासमान्यमिति चोच्यते। द्रव्यत्वाद्यवान्तरसामान्यापेक्षया महाविषयत्वात् । अपरसामान्यं च द्रव्यत्वादि। एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते। =अनुवृत्ति प्रत्यय का कारण सामान्य है। वह दो प्रकार का है-पर सामान्य और अपर सामान्य। पर सामान्य को सत्ता, भाव, और महासामान्य भी कहते हैं। क्योंकि, यह द्रव्यत्व आदि अपरसामान्य की अपेक्षा से महान् विषय वाला है। द्रव्यत्व केवल द्रव्य में ही रहता है और परसामान्य द्रव्य गुण व कर्म तीनों में रहता है। द्रव्यत्वादि अपर सामान्य हैं। इसे सामान्य विशेष भी कहते हैं। (और भी दे.'अस्तित्व';नय/III/4/2/1)।
3. सर्वथा स्वतन्त्र सामान्य या विशेष कुछ नहीं
सि.वि./मू./2/12/143 न पश्याम: क्वचित् किंचित् सामान्यं वा स्वलक्षणम् । जात्यन्तरं तु पश्याम: ततो नैकान्तहेतव:। =कोई किंचित् भी विशेष मात्र या सामान्य मात्र देखने में नहीं आता। हाँ सामान्य विशेषात्मक एक जात्यन्तर भाव अवश्य देखा जाता है। इसलिए 'सामान्य' अनेकान्त हेतुक है अर्थात् अनेकान्त के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है।
सि.वि./वृ./1/8/151/5 पर उद्धत (प्रमाण वार्तिक/2/126) एकत्र दृष्टो भेदो हि क्वचिन्नान्यत्र दृश्यते। न तस्माद्भिन्नमस्त्यन्यत्सामान्यं बुद्धयभेदत:। =किसी एक स्थान पर देखा गया भेद किसी भी प्रकार अन्यत्र नहीं देखा जाता इसलिए बुद्धि के अभेद से वह सामान्य कथंचित् भिन्न व अन्य नहीं है।
आ.प./श्लो.नं.9 निर्विशेष हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि।9। =विशेषों से रहित सामान्य और इसी प्रकार सामान्य से रहित विशेष। कुछ गधे के सींग के समान असत् होते हैं।
4. वस्तु स्वयं सामान्य विशेषात्मक है
श्लो.वा./4/1/33/60/245/16 सर्वस्य वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात् । =सर्व ही वस्तुएँ सामान्यविशेषात्मक हैं।
देखें प्रमाण - 2.5 [सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विशेष है।]
क.पा./1/1-20/324/356/2 तत: स्वयमेवैकत्वापत्तिरिति स्थितम् । सामान्य-विशेषोभयानुभयैकान्तव्यतिरिक्तत्वात् जात्यन्तरं वस्त्विति स्थितम् । =इसका (देखें अगला शीर्षक ) यह अभिप्राय है कि वस्तु न सामान्य रूप है, न विशेषरूप है, न सर्वथा उभयरूप है और न अनुभय रूप है किन्तु जात्यन्तररूप ही वस्तु है, ऐसा सिद्ध होता है। (क.पा./1/1,1/33/49/2)
5. सामान्य व विशेष की स्वतन्त्र सत्ता न मानने में हेतु
क.पा./1/1-20/322/353/3 ण ताव सामण्णमत्थि; विसेसवदिरित्ताणं तब्भावसारिच्छलक्खणसामण्णाणमणुवलंभादो समाणेगपच्चयाणमुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो अत्थि सामण्णमिदि ण वोत्तुं जुत्तं; अणेगासमाणाणुविद्धेगसमाणग्गहणेण जच्चंतरीभूतपच्चयाणमुप्पत्तिदंसणादो। ण सामण्णवदिरित्तो विसेसो वि अत्थि; सामण्णाणुविद्धस्सेव विसेसस्सुवलंभादो। ण च एसो सामण्ण-विसेसाणं संजोगो...।
क.पा.1/1-20/323/354/1 ण सामण्ण-विसेसाणं संबंधो वत्थु। =1. केवल सामान्य तो है नहीं, क्योंकि अपने विशेषों को छोड़कर केवल तद्भाव सामान्य और सादृश्यलक्षण सामान्य नहीं पाये जाते हैं। 2. यदि कहा जाय कि सामान्य के सर्वत्र समान प्रत्यय और एक प्रत्यय की उपपत्ति बन नहीं सकती है इसलिए सामान्य नाम का स्वतन्त्र पदार्थ है, सो कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि अनेक का ग्रहण असमानानुविद्ध होता है और एक का ग्रहण समानानुविद्ध होता है। 3. अत: सामान्य विशेषात्मक वस्तु को विषय करने वाले जात्यन्तरभूत ज्ञानों की ही उत्पत्ति देखी जाती है। 4. तथा सामान्य से सर्वथा भिन्न विशेष नाम का भी कोई पदार्थ नहीं है, क्योंकि सामान्य से अनुविद्ध होकर ही विशेष की उपलब्धि होती है। 5. यदि कहा जाय कि स्वतन्त्र रहते हुए भी उनके संयोग का ही परिज्ञान एक ज्ञान के द्वारा होता है, सो भी कहना ठीक नहीं-(विशेष देखें द्रव्य - 5.3)। 6. सामान्य और विशेष के सम्बन्ध को अर्थात् समवाय सम्बन्ध को स्वतन्त्र वस्तु कहना भी ठीक नहीं-(देखें समवाय )।
6. सामान्य व विशेष में कथंचिद् भेद
ध.13/5/5/35/234/6 विसेसादो सामण्णस्स कथंचिद पुधभूदस्स उवलंभादो। तं जहा-सामण्णमेयसंखं विसेसो अणेयसंखो। वदिरेयलक्खणो विसेसो अण्णयलक्खणं सामण्णं, आहारो विसेसो आहेयो सामण्णं, णिच्चं सामण्णं अणिच्चो विसेसो। तम्हा सामाण-विसेसाणं णत्थि एयत्तमिदि। =विशेष से सामान्य में कथंचित् भेद पाया जाता है। यथा-सामान्य एक संख्या वाला होता है और विशेष अनेक संख्या वाला होता है, विशेष व्यतिरेक लक्षण वाला होता है और सामान्य अन्वय लक्षणवाला होता है, विशेष आधार होता है और सामान्य आधेय होता है, सामान्य नित्य होता है और विशेष अनित्य होता है। इसलिए सामान्य और विशेष एक नहीं हो सकते।
पं.ध./पू./275 सामान्यं विधिरूपं प्रतिषेधात्मा भवति विशेषश्च।...।275। =विधिरूप वर्तना सामान्य काल कहलाता है और निषेध स्वरूप विशेष काल कहलाता है। (देखें सप्तभंगी - 3.3-स.म.)।
7. सामान्य विशेष के भेदाभेद का समन्वय
आप्त.मी./34-36 सामान्यात्तु सर्वैक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदत:। भेदाभेदव्यवस्थायामसाधारणहेतुवत् ।34। विवक्षा चाविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणी। यतो विशेषणस्यात्र नासतस्तैस्तदर्थिभि:।35। प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ च संवृती। तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया।36। =सामान्यरूप से देखने पर सब द्रव्य गुण कर्म आदिकों में एकत्व है और उनका भेद देखने पर उनमें भेद है। तहाँ अभेद विवक्षा में 'सामान्य' और भेद विवक्षा में 'विशेष' ये असाधारण हेतु हैं।34। अनन्त धर्मों का आधारभूत जो विशेष्य उसमें सत्रूप विशेषण की ही विवक्षा होती है, असत्रूप की नहीं। और यह विवक्षा वक्ता की इच्छा पर निर्भर है।35। इसलिए वस्तु में भेद व अभेद दोनों ही प्रमाण गोचर होने से प्रमार्थभूत हैं। मुख्य व गौण की विवक्षा से ये दोनों स्याद्वाद मत में अविरुद्ध हैं।36।
पं.ध./पू./275 उभयोरन्यतरस्योन्मग्नत्वादस्ति नास्तीति।275। =इन दोनों में से किसी एक की मुख्य विवक्षा होने से कालकृत अस्ति व नास्ति ये दो विकल्प पैदा होते हैं।