इष्टोपदेश - श्लोक 29: Difference between revisions
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Revision as of 15:22, 16 April 2020
न म मृत्युः कुतो भीतिर्न में व्याधिः कुतो व्यथा।
नाहं बालो न वृद्वोऽहं न युवैतानि पुद्गले।।२९।।
ज्ञानी के मरणभयका अभाव—मेरे मृत्यु नहीं है, फिर मेरे भय कहाँसे पैदा हो? जब मेरे मे व्याधि ही नहीं है तो व्यथा कहाँ से बने? मैं बालक नहीं, वृद्ध नहीं और जवान भी नहीं हूं। ये सब दशायें पुद्गलमें होती है।
ज्ञानीके मरणभयका अभाव—जिस जीवको अपने चिदानन्दस्वरूप आत्मतत्त्वका निश्चय हो जाता है उस जीव के मृत्यु नहीं होती है। ये बाह्य प्राण, इन्द्रियबल, कायबल, आयु, श्वासोच्छवास मिट जाते हैं,परन्तु मैं नहीं मिटता। ये विकारभाव है। लोक में इन प्राणों के वियोग का नाम मरण कहा है किन्तु वास्तवमें प्राणों के दूर हो जाने पर उसका विनाश नहीं होता है। मैं मृत्यु रहित हूं। शरीर मुझसे भिन्न है, विपरीत स्वभाव वाला है। यह मैं परमार्थ चैतन्यतत्त्व हूं। इसका कभी विनाश नहीं है, शरीर का विनाश है। शरीर का वियोग शरीर का बिछुड़ना शरीर की स्थिति है, जीव की नहीं है। आत्मा का स्वरूप आत्मा का प्राण ज्ञानदर्शन है, चैतन्यस्वरूप है, उसका कभी भी अभाव नहीं होता है, इस कारण जीवका कभी मरण ही नहीं है, यह निर्भय निःशंक रहता हुआ अपने स्वरूप का अनुभव कर रहा है। मरण नाम है आगे जन्म होने का। नवीन जन्म लेने का नाम मरण है। जिसका नवीन जन्म नहीं होता ऐसे अरहंत भगवान का मरण भी नहीं कहा जाता है। उसका नाम है निर्वाण। जिसके बाद जन्म हो उसका नाम मरण है। इस आत्मा का न कभी जन्म है न कभी मरण है। अपने सहजस्वरूपको दृष्टि में लेकर चिन्तन करिये। यह शरीर जिसमें बँधा हुआ है। यह शरीर मेरा साथी नहीं है, मेरा कुछ भी आत्मतत्त्व नहीं है। शरीर की बात शरीर में है, मेरी बात मुझमें है। यह मैं आत्मा शुद्धचिदानन्द स्वरूप प्रभु की तरह प्रभुता से भरा हुआ हूं। स्वरसतः अनन्त चतुष्टयात्मक आत्मसमृद्धि सम्पन्न मैं आत्मा हूं। इसमें कहाँ भय है?
मोहियों का विकट भय—सबसे विकट भय जीवको मरण का रहा करता है। कोई पुरानी बुढ़िया जो रोज-रोज भगवान का नाम इसलिए जपे कि भगवान मुझे उठा ले अर्थात् मेरी मौत हो जाय, होगा कोई दुःख। और कदाचित् सांप सामने आ जाय तो वह अपने छोटे पोतों को पुकारती है कि बेटा बचावो सांप आया है, और बेटा अगर कह दे कि तुम तो रोज भगवान का नाम जपती थी भगवान मुझे उठा ले, सो भगवान ने ही भेजा है यह, अब काहे को बुलाती है हमें? लेकिन मरण का भय सबको लगता है।
आत्मज्ञानमें भयका अभाव—जो तत्त्वज्ञानी पुरुष है, जो जानते हैं कि यह शरीर नहीं रहा, यह धन वैभव सम्पदा नहीं रही, लोगों में मेरी उठा बैठी न रही तो क्या है, ये तो सब मायास्वरूप है। मैं आत्मा सत् हूं, मेरा सुख दुःख आनंद सब मेरी करतूत के आधीन है, यहाँ के मकान सम्पदा मेरे आधीन नहीं है। यों आत्मतत्त्वका चिन्तन हो तो उसे भय नहीं रहता। भय की चीज तो यही समागम है। जिसके पास वैभव है उसको भय है, जिसके समीप कोई वैभव ही नहीं है भले ही वही अन्य जाति का दुःख माने, पर उसे कुछ भय तो नहीं है। न चोर का, न डाकू का, न किसी का छलका, कोई प्रकारका उसे डर नहीं है। बाह्य चीजों से निर्भयता नहीं आती है किन्तु आत्मज्ञान के बलसे निर्भयता प्रकट होती है। क्या है, न रहा यह तो क्या बिगड़ गया? इससे भी बहुत अच्छी जगह है दुनिया में। यहाँ न रहा ओैर जगह पहुंच गया, क्या उसका बिगाड़ है? यों जो अपने शुद्ध सत्त्व का चिन्तन करता है उस तत्त्वज्ञानी पुरुष को भय नहीं होता।
वस्तुके प्राणभूत स्वरूपका विनाश—मेरा प्राण मेरा ज्ञान दर्शन है, मेरा चैतन्यस्वरूप है। प्राण उसे कहते हैं कि जिसके वियोग होने पर वस्तु खत्म हो जाय। जैसे अग्नि का प्राण गर्मी है। गर्मी निकल जाय तो अग्नि खत्म हो जाती है, उसका सत्त्व ही नहीं रहता है। ऐसा मेरा कौनसा प्राण है जिसके निकलने पर उसका सत्त्व नहीं रहता है? यद्यपि ऐसा होता नहीं। जिस पदार्थ का जो सत् है वह तीन काल भी नहीं छूटता है। अग्नि तो कोई पदार्थ है नहीं, वह तो पुद्गल पर्याय है। अग्नि तो परिणति है। परिणति का वस्तुतः क्या प्राण बताये? पदार्थ का प्राण बताया जाता है, मेरा कभी भी मिट नहीं सकता, इस कारण यह मैं आत्मा अमर हूँ। क्या मेरे भय है?
ज्ञानी देहव्यथाका अभाव—ज्ञानी पुरुषको शारीरिक पीड़ा की भी शंका नहीं रहती है। मैं आत्मा आकाशवत् अमूर्त निर्लेप ज्ञानानन्द प्रकाशमात्र हूं, इस मुझ आत्मा में व्याधि कहाँ है? यहाँ कोई ऐसा सोच सकता है कि जब तबीयत अच्छी होगी तब यह बात कही जाती। जरा सिरदर्द हो जाय या कुछ बात आ जाय फिर यह बात भूल जाती है, भूल जावो, फिर भी जिसे तत्त्वज्ञान है, वह व्याधियों के समयमें भी आकुलित नहीं होता है, सब आपदाओं को धीरता से सहन करता है, और जिनके तत्त्वज्ञानकी परिपूर्णता है उनको यह भी विदित नहीं हो पाता कि इस शरीर पर कोई बैठा भी है। यह शरीर मुझसे पृथक् है। यह मैं आत्मा जब शरीर की और दृष्टि देता हूं तो इस शरीर की व्यथाएँ मुझे विदित होती है अन्यथा नहीं। मेरे कोई व्यथा नहीं है। मैं आनन्दमग्न हूं।
आत्मामें देह दशाओं का अभाव—मैं बालक नहीं हूं, वृद्ध नहीं हूँ और जवान भी नहीं हूं। किसका नाम बालक है? शरीर की ही प्रारम्भिक अवस्था को बालक कहते हैं। यह बालपन पुद्गलमें ही हुआ। आत्मा तो ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र है। शरीर की जो मध्यम परिस्थिति है उसे जवानी कहते हैं,यह जवानी शरीर में होती है शरीर का धर्म है। आत्मा का तो गुण है नहीं। शरीर की ही परिपक्व दशा व उत्तरदिशा बुढ़ापा कहलाता है। यह बुढ़ापा भी मुझे आत्मा में नहीं है। यह मैं आत्मा तो केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र हूं। इस प्रकार यह ज्ञानी पुरुष मिले हुए सबसमागमों को अपने से पृथक निहारता है। जब आत्मा को यह निश्चय हो जाता है कि तू चेतन हे, ज्ञान दर्शन आदिक गुणों का अखण्ड पिण्ड है तो इस ज्ञान आदिक गुणों का कभी विनाश नहीं होता, ऐसी दृष्टि बनती है यही तो मेरी आत्मनिधि है। जो मेरे स्वरूप में है वह कभी मिट न सकेगा, जो मुझमें है वह मुझसे कभी अलग होता नहीं जो मुझमें नहीं है वह कभी मुझमें आता नहीं है।
परपदार्थका आत्मामें अत्यन्ताभाव—दृश्यमान समस्त परिणतियाँ दृश्यमान समस्त पदार्थ तेरे कुछ नहीं है, न तू उनका कभी हुआ है और न कभी हो सकता है परसे तू त्रिकाल भिन्न है। है उदय पुण्य का, ठीक है, किन्तु क्या वैभव में तू एकमेक बन सकता है? तू-तू ही है, अन्य-अन्य ही है। कर्मोंदयवश कुछ दिनों का यह साधन संयोग बन गया है। जैसे सफर करते हुए किसी सराय में एक जगह ठहर जाते हैं। अन्य-अन्य देशों से आये हुए कुछ पुरुष, पर वे कुछ समय के लिए ही ठहरे है, एक दूसरे का जो संयोग बन गया है वहाँ वह कुछ समय के लिए ही बना है। कुछ समय ही बाद अथवा प्रातःकाल होते ही सब अपने-अपने अभिमत देशों को चले जाते हैं। रास्ता चलते हुए सराय में मनुष्य रात भर ही टिकते हैं,दिन को नहीं रहते हैं,प्रातः काल हुआ कि रास्ता नापने लगते हे। ऐसे ही यहाँ कुछ समय का मेल है, मोही जीव इस कुछ समय के मेल में ही ऐसी कुटेव ठान लेते हैं कि यही तो मेरे सब कुछ हैं। मेरा मरना जीना इन्हींके लिए तो है ऐसा मोह भाव बसाकर अपने आपको दुर्गति का पात्र बना लेते हैं।
नीरोग ज्ञानस्वरूपका चिन्तन—शरीर में नाना रोग होते हैं। वे शरीरके विकार से होते हैं। वात, पित्त, कफ—ये तीन जो उपधातुयें है, इनका जो समान अनुताप से रहना है उसमें भंग हो जाय, विषमता आ जाय तो इस शरीर में रोग पैदा हो जाता है। यह शरीर ही मैं नहीं हूं तो मैंरोग का क्या अनुभव करूँ ? ज्ञानी पुरुष निरन्तर निज ज्ञानस्वरूपका ही चिन्तन करते हैं।
धन जीवनविषयक मोहके अभावमें कर्मफलका अनुभव—जगत के जीवों को ये कर्म सता रहे हैं। केवल दो बातों पर ये कर्म सता रहे हैं। यदि उन दो बातों का मोह न रहे तो फिर कर्मों का सताना ही कुछ न ठहरे। वे दो बातें है धन और जीवन। जीवन का लोभ और धन का लोभ ये दो लोभ है तब कर्म सता रहे हैं,न रहे ये तो कर्म क्या सतायेंगे? जैसे कोई पक्षी कहीं से कुछ खाने की चीज चोंचमें ले आये तो उसे देखकर बीसों पक्षी उस पक्षी के ऊपर टूट पड़ते हैं। वह पक्षी अपनी जान बचाने को तरसने लगता है। अरे क्यों दुःख मानता है वह पक्षी? जो चोंच में लिए है उसको चोंच से निकालकर बाहर फेंक, फिर कोई भी पक्षी उसे न सतायेगा। ऐसे ही इस जीव ने धन और जीवन इन दोनों से राग किया है ये सदा काल तक जीते रहना चाहते हैं और धन सम्पदाकी कुछ सीमा भी नहीं बनाना चाहते। लखपति हो जाय तो करोड़पतिकी आशा, करोड़पति हो जाय तो अरबपतिकी आशा। जो आज बहुत बड़े धनी है उनको अब जरूरत भी कुछ नहीं है। तो धर्मसाधनामें क्यों नहीं जुट जाते? तृष्णा लगी है तब तक ये कर्म सताने वाले बनते हैं। ये दो बातें ही न रहे, न धनकी तृष्णा भावे और न जीवन का लोभ करे, फिर कर्मका सताना ही क्या रहेगा?
ज्ञानीकी ज्ञान से अविचलितता—भैया ! कुछ यथार्थ ज्ञान तो करो—जीऊँ तो जीऊँ,न जीऊँ तो क्या? मैं आत्मा तो अमर हूं। इसका प्राण तो ज्ञान दर्शन है। उसका कभी वियोग नहीं होता। क्या क्लेश है? मेरा ज्ञान तो मेरा स्वरूप है वह कही नहीं जाता। धन जाय तो जाय क्या क्लेश है, यों धन और जीवन दोनों का मोह छोड़ दे तो फिर कर्म क्या कर सकते है? जब हम स्वयं ही कमजोर है, उपादान निर्बल है तो अनेक दु:खी होने के निमित्त मिल जायेंगे। जब आत्मा बलिष्ठ है, ज्ञानबल जागरूक है, अपने शुद्ध स्वभावी परख है, उसका ही ग्रहण हो रहा है तब सारा जगत भी प्रतिकूल हो जाय कोई कुछ भी बातें कहें क्या असर होता है इस ज्ञानी पर। यह ज्ञानी पुरुष तो जो अपने उपयोग में कर्तव्य निश्चित कर चुका है उस कर्तव्य से विचलित नहीं होता है।
संसार व्यवहार का वैचित्र्य—यह संसार बड़ा विकट है। कोई पुरुष अधिक बात बोले तो लोग कहते हैं कि यह बड़ा बकवादी है, यदि कुछ बात न बोले, चुप रहे तो लोग कहते हैं,कि यह बड़े गुरूर वाला है, किसी से बोलता नहीं है। कोई मधुर बात बोले तो लोग कहते हैं कि यह जबान का मीठा है पर अंतरंग में मिठाई नहीं है, कोई कठोर वचन बोले तो कहते हैं कि इसे बोलने का कुछ भी सहूर नहीं है। यह तो लट्ठमार वचन बोलता है, कुछ कर्तव्य न करे तो लोग कहेंगे कि यह बड़ा कायर है, यह कुछ करता ही नहीं है, कुछ करे तो लोग कहेंगे कि यह सब विपरीत कार्य करता है। अरे संसार मे जो कुछ भी कार्य किया जाता है वह सब विपरीत ही तो है? आत्मा की करतूत किसमें है सो बतावो ? आत्मा की करतूत तो ज्ञाता दृष्टा रहने में है, बाकी तो सब जंजाल है। यहाँ लोगों के निर्णय पर तुम अपना प्रोग्राम रखोगे क्या? इससे पूरा न पड़ेगा। लोग कुछ भी विचारें, तुम अपने आत्मा से न्याय की बात सोच लो और उस पर फिर डट जावो । दूसरों की वोट पर अपने पग बढ़ाने में बुद्धिमानी नहीं है किन्तु अपने अंतः ईश्वर से आज्ञा लेकर जिस काम को यह उचित समझता हो, स्वपर हितकारी जानता हो उस धुन को लेकर बढ़ते चले जाइए। तुम्हें जो कुछ मिलेगा अपने परिणमन से मिलेगा, इस कारण अपने परिणमन में ही शोधन कर लेना चाहिए कि मुझे किस तरह रहना है?
निःसकंट स्वरूप के अवलम्बन की स्वच्छता में बाधाओं का अभाव—भैया! मुझे किसी प्रकार का संकट नहीं है। निःसंकट स्वभाव का आलम्बन हो तो फिर क्लेश का कोई अवसर नहीं आ सकता। मेरे मृत्यु भय नहीं है, मेरे व्याधि नहीं है, मेरे व्यथा भी नहीं है। सर्व अवस्थाओं से शून्य केवल शुद्ध ज्ञानमात्र मैं हूँ, ऐसा ज्ञानी जन अपने आपके स्वरूप का निर्णय करते हैं। जिसे धर्म पालना है, धर्म में प्रगति बढ़ाना है उसे पहिले यह चाहिए कि वह अपने हृदय को स्वच्छ बना ले। काम, क्रोध, मान, माया, लोभ इन विकारों से आत्मा में मलिनता बढ़ती है, पहिले स्वच्छ करिये अपना हृदय। अपने अंतरंग को पवित्र वही बना सकता है जो यथार्थ निज को निज पर को पर जान लेता है। मैं सर्व बाधाओं से रहित हूं, संकटो का मुझ में नाम नहीं है, ऐसी निःसंकट ज्ञायकस्वरूप आत्मतत्त्व की श्रद्धा हो, उसमें ही उपयोग को समाया जाय तो सर्व प्रकार के संकट दूर हो जाते हैं।
माया से परे परमज्योति का चिन्तन—जो मिलकर बढ़ जाय और बिछुड़कर घट जाय वह तो सब व्यक्त माया है। जिस वस्तु में मिलन हो रहा है यदि वह सब वस्तु मिलकर बढ़ गयी है और बिछुड़कर घट जाने वाली है वह सब पुद्गल है। पूरण और गलन की जिसमें निरन्तर वर्तना चल रही है उसको पुद्गल कहते हैं। पुद्गल के ही संयोग से जीवन, पुद्गल के वियोग से मरण, पुद्गल के वियोग से ही व्याधि और पुद्गल को अपनाने से व्यथा है। यह मैं आत्मा समस्त पुद्गलों से विविक्त केवल ज्ञानानन्दस्वरूपमात्र शाश्वत अंतः प्रकाशमान हूँ, उसे न देखा, न आश्रय किया इसने। उसके फल में अब तक रूलता चला आया हूं। अब मोह को तजे, रागद्वेष को हटावे, अपने आधारभूत शुद्ध आत्मतत्त्व को ग्रहण करे, ऐसा यत्न करने में ही जीवन की सफलता है अन्यथा कितने ही कीड़े कितने ही एकेन्द्रिय जैसे मरते हैं रोज-रोज वैसे ही मरण कर जाने में शुमार हो जायगी। ज्ञानी पुरुष अपने को सबसे न्यारा केवल शुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप मात्र प्रतीति में ले रहा है और इसके अनुभव से इसके लक्ष्य से अपने आप में परमज्योति को प्रकट कर रहा है। यों ज्ञानी ने चिन्तन में इस आत्मस्वरूप का आश्रय लिया है।