इष्टोपदेश - श्लोक 28: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>दुःखसंदोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम्।</strong></p> | ||
< | <p><strong>त्यजाम्येनं ततः सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिः।।28।।</strong></p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञानी सकल संन्यास का चिंतन</strong>―ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है और संकल्प करता है कि इस प्राणी को जितने भी क्लेश समूहका भाजन होना पड़ा है वह सब इस शरीर आदि के संयोग से ही होना पड़ा है। इस कारण मैं मनसे, वचनसे और कायसे इन समस्त समागमों को छोड़ता हूं। मैं भी अमूर्त ज्ञानानंदमय केवल अपने स्वरूप मात्र हूं। इस मुझ आत्मतत्त्वमें किसी दूसरे पदार्थ का संबंध भी नहीं है। ऐसी दृष्टि हो जाय और समस्त बाह्य पदार्थों से उपेक्षा हो जाय तो यही उनका छोड़ना कहलाता है। इसमें कषायकी बात कुछ नहीं है। जैसे कोई लोग कहें कि वाह! मानते जावो ऐसा कि मैं सबसे न्यारा हूं। और छोड़ो कुछ भी नहीं। यहाँ कुछ भी छलकी बात नहीं है, केवल ऐसा अनुभव में उतर गया कि मैं सबसे विविक्त हूं तो उसने सबको छोड़ दिया। अब ऐसी प्रतीति बहुत काल तक बनी रहती है तो बहुत काल तक छूटा हुआ रहेगा और कुछ ही क्षण बाद पूर्व वासना के कारण फिर उनमें चित्त गया तो वह ग्रहण का ग्रहण ही है।</p> | ||
<p | <p><strong>आनंद का भेदविज्ञान</strong>―भैया! जितना भी आनंद मिलेगा प्रत्येक जीवको वह भेदविज्ञान से ही मिलेगा। भेदविज्ञान बिना आनंद मिलने का अन्य कोई उपाय ही नहीं हे लोक में कही ऐसा नहीं है कि धनिकों को करोड़ों के धन वैभव से आनंद मिल जायगा और गरीबों को भेदविज्ञान से आनंद मिलेगा। जिन्हें भी आनंद मिलेगा भेदविज्ञान से ही मिलेगा, चाहे अमीर हो चाहे गरीब। कारण यह है कि आनंद में बाधा को डालने वाला विकल्प हुआ करता है और विकल्पों की उत्पत्ति होने के लिए परपदार्थ आश्रय होता है। बाह्य साधन तो जिसको जितने मिले हैं,उसे प्रायः उतने विकल्प बढ़ेंगे, और जिसके विकल्प बढे़ हुए है उन्हें आनंद न मिलेगा। समागम हो तब भी, न हो तब भी, आनंद तो भेदविज्ञान से ही मिलेगा। लोग कभी-कभी अपने में बड़ा झंझट समझते हैं। मैं बहुत चक्कर में पड़ गया, मुझे इतना क्लेश है। अरे ये सारे क्लेश समस्त संकट भेदविज्ञान के उपाय से सबसे न्यारा अपने को मान लेने से मिट जाते हैं। सबका विकल्प तोड़ने से अपने ज्ञानस्वरूपका अनुभव होने पर सारे संकट समाप्त हो जाते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>प्रभुका आदर्श व आदेश</strong>―जिनके संकट समाप्त हो चुके हैं ऐसे प्रभु भगवान का यह उपदेश है कि जिस उपाय से हम संकटों से मुक्त हुए है इसी उपायों भव्यजन करेंगे तो संकटों से छूटनेका अवसर पावेंगे। संकटों से छूटने का उपाय भेदविज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। एक ही निर्णय है। कही ऐसा अनियम नहीं है किसी को धन से आनंद मिलता हो, किसी को इज्जत मिलने से आनंद मिलता हो, किसी को अनेक काम मिलने से आनंद मिलता हो, किसी को अच्छा परिवार रहने से आनंद मिलता हो, जिसे भी आनंद मिलेगा वह भेदविज्ञान से मिलेगा।</p> | ||
<p | <p><strong>मिथ्या आशयमें क्लेशकी प्राकृतिकता</strong>―जो जीव शरीरादिक से अपने को अभेदरूप से मानता है, अर्थात यह मैं हूँ ऐसी उनमें आत्म कल्पना करता है उस शारीरिक कष्ट भी होता है, मानसिक कष्ट भी होता है और क्षेत्र समागम आदि के कारण भी कष्ट हो जाता है। मिथ्या धारण हो, प्रतीति हो वहाँ दुःख होना उस मिथ्या श्रद्धान के कारण प्राकृतिक है। दुःख किसी परवस्तुसे नहीं होता, दुःख भी अपने आपकी कल्पना से, मिथ्या धारणासे होता है। सारी चीजें अनित्य है। जो घर मिला है, घर में जो कुछ है, जितना संग जुटा है वह सब अनित्य है। उन्हें कोई नित्य माने और ये मोही मानते ही है। ये दूसरे के समागम को तो अनित्य झट समझ लेते हैं,ये समागम मिट जायेंगे, मर जायेंगे लोग, कोई न रहेंगे यहाँ, किंतु अपने समागम के संबंधमें यह विशद बोध नहीं है कि यह भी मिट जायगा। यदि यह ध्यान में रहे कि यह सब मिट जायगा तो फिर इसकी आसक्ति नहीं रह सकती है। इसने अनित्य को नित्य मान लिया, इसी से आफतें लग गयी।</p> | ||
<p | <p><strong>भ्रांतिमें उलझन और निभ्रांतिमें सुलझन</strong>―भैया! अनित्य को नित्य मानने के विकल्प में एक आपत्ति तो यह है कि जब मान लिया कि ये सदा रहेंगे तो उनके बढ़ावा के लिए, संग्रह के लिए, जीवनभर इसे श्रम की ज्वाला में झुकना पड़ता है। दूसरी आपत्ति यह है यह अनित्य को नित्य मान लेने से तो कही यह जगजाल नित्य तो नहीं हो जाता। बाह्यसमागम तो अपनी परिणति के माफिक बिछुड़ जायेंगे। यह मिथ्यादृष्टि जीव अनित्य को नित्य मानता है, सो जो वियोग होता है तब उसके वियोग में दुःखी होता है। यदि अनित्य को अनित्य ही मानता होता तो उसमें लाभ था। पहिला लाभ यह कि इन बाह्य पदार्थों के संचय के लिए अपना जीवन न समझता और श्रम में समय न गंवाता और दूसरा लाभ यह होता कि किसी भी क्षण जब ये समागम बिछुड़ते तो यह क्लेश न मानता।</p> | ||
<p | <p><strong>अज्ञानके फल फूल</strong>―जितने भी लोग घर में बस रहे हैं,जिन दो एक प्राणियोंसे संबंध मान रखा है, उनका वियोग जरूर होगा। पुरुष स्त्री है, कभी तो वियोग होगा ही। पुरुष का भी वियोग पहिले संभव हो सकता है और स्त्रीका भी वियोग पहिले संभव हो सकता है। वियोगकालमें कष्ट मानेंगे। यह बात प्रायः सभी मनुष्यों पर गुजर रही है। जब तक मनके प्रतिकूल कोई घटना नहीं आती है, मौज में समय कट रहा है और यह बीता हुआ समय जाना भी नहीं जा रहा है मेरी इतनी आयु हो गयी है कुछ जाना ही नहीं जाता है लेकिन सभी जीव चाहे बडे़ यशस्वी हो सभी पर यह बात आयगी। जो समागम मिला है वह किसी दिन आवश्य बिछुड़ेगा। अब जब बिछुड़ेगा तो वही-वही क्लेश जो औरों के आता है, इसे भी आयगा। तो जो पदार्थ जैसा नहीं है वैसा मानना अर्थात् वस्तुस्वरूपसे उल्टी धारणा बनाना, इसमें दुःखी होना प्राकृतिक बात है। इस ही वैभव के ममत्व के कारण दुःख है। किसी अन्य पदार्थ के होने अथवा न होने से दुःख नहीं है। इस संसार की जड़ अज्ञान है। कितने ही लोग तो इस संसार पर दया करके कह देते हैं कि लो सभी लोग ब्रह्मचारी हो गए तो संसार कैसे चलेगा? सभी ज्ञानी वैरागी हो गए तो संसार की क्या हालत होगी? उनको संसार पर तरस आती है, दया आती है। कही संसार की वृद्धि में बाधा न हो, देखा इस अज्ञानी का बहाना।</p> | ||
<p | <p><strong>ज्ञान, वैराग्यसे क्लेश क्षय</strong>―बहुत तीक्ष्ण धारा है इस कल्याणमार्गकी, किंतु जो इस ज्ञानवैराग्यकी धारा पर उतर गया और निरूपद्रव पार कर गया वह संकटो से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। जितने भी यहाँ क्लेश है वे सब मन, वचन, कायकी क्रियाओं के अपनाने में है। इस जीव ने मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति की, उससे आत्मयोग हुआ, प्रदेश परिस्पंद हुआ, कर्मों का आस्रव हुआ और साथ ही इसमें मिथ्या आशय और क्रोधादिक कषायोंसे कर्मों का बंध हुआ। अब ये बद्ध कर्म जब उदयकाल में आता है, आये थे तब इस जीवको विभाव परिणति होती है व हुई और चक्र की तरह ये भावकर्म द्रव्यकर्म चलते ही रहे। उनके फल में सुखी दुःखी होना, इष्ट अनिष्ट लगना सब दुःख परंपरायें बढ़ती चली आयी। सो सारे दुःख का झगड़ा लो यों मिट जायगा कि इस मनको, वचनको, और काय को अपनेसे भिन्न मान ले। ऐसा भिन्न मानने में यह धीर साहसी आत्मा उस विपदा के पहाड़ के नीचे भी पड़ा है तब भी बलिष्ठ है, उसे रंच भी श्रम नहीं होता है।</p> | ||
<p | <p><strong>भेदाभ्यासके बिना संकट विनाशका अभाव</strong>―इस जीवका संसरण तब तक है जब तक मन, वचन, काय को अपना रहा है। कितना क्लेश है? किसीने प्रतिकूल बात कही, निंदा की बात कही तो यह चित्त बेचैन हो जाता है। क्या हुआ किसीने कुछ उसे कहा ही न था। वे वचन भी मायारूप, वह कहने वाला भी माया रूप, यह सोचने वाला भी माया रूप, और उस आत्मा की प्रवृत्ति से वचन भी नहीं निकलते निमित्तनैमित्तिक संबंधमें उन वचन वर्गणावों से वचन परिणति हुई और वे वचन मुझमें किसी प्रकार आ ही नहीं सकते। यह प्रभुरूप है इसलिए जान लिया इसने सब। अब राग से प्रेरित होकर कल्पना मचाता है। उसने हमें यो कह दिया! उन कल्पनावोंमें परेशान हो जाता है। एक यह निर्णय बन जाय कि यह शरीर ही मैं नहीं हूं फिर सम्मान अपमान कहाँ ठहरेंगे? मन, वचन, काय इन तीनों को जो त्याग देता है, इनसे भिन्न केवल शुद्धज्ञानस्वरूपमात्रअपने की निरखता है तो इस भेदके अभ्याससे इस जीवको मुक्ति होती है।</p> | ||
<p | <p><strong>भ्रममें अशांति व अस्थिरता</strong>―भैया ! जब तक भ्रम लगा है तब तक चैन नहीं हो सकती। कोई कितना ही प्रिय मित्र हो, किसी प्रवृत्ति को देखकर भ्रममें यह बात बैठ जाय कि अब अमुक तो मेरे विरोध में है, तो इस विरोध मान्यता की भावना से यह बेचैन हो गया। विरोध उपयोग में पड़ा हुआ है इसलिए उस मित्र की सारी चेष्टाएँ विरोधरूप दिखती है, इससे विरोध भावना और बढ़ जाती है, चैन नहीं मिलती है भ्रममें। फिर यहाँ तो आत्मा का भ्रम हो गया, पूरा मिथ्या आशय बन गया है। जो मैं नहीं हूँ उसे मानता है कि यह मैं हूँ। बस इस आशय से ही क्लेश हो गया, किसी एक बात पर थमकर ही नहीं रहता यह मोही जीव। किसी को अपना मानता है तो उस ही को अपना मानता रहे, देखो किसी दूसरे को अपना न माने, जरासी दृढ़ता कर ले, पर मोह में यह भी दृढ़ता नहीं रहती है। सच बात हो तो दृढ़ता रहे। झूठ बातपर टिकाव कैसे हो सकता है?</p> | ||
<p | <p><strong>पर्यायमें मोहकी अदल बदल</strong>―यह मोही जीव इस देह को आत्मा मानता है तो देखो इस देह को ही आत्मा मानते रहना, फिर कभी हट न जाना अपनी टेक से। अहो हट जाता है टेक से। मृत्यु हुई, दूसरा शरीर धारण किया, अब उस शरीर को अपना मानने लगा। आज कैसा सुडौल है, अच्छे नाक, आँख, कान है और मरकर मगरमच्छ बन गये तो उस थावाथूल शरीर को ही अपना सर्वस्व मानने लगा। जीव मैं वही हूँ। अब जिस पर्याय में गया उसको ही मैं माना। इस मनुष्य को ये भैंसा, बैल, सूकर, कूकर आदि न कुछ से विचित्र मालूम होते हैं बेढंगे कहाँ से हाथ निकल बैठे, और कैसा पूरे अंगों से चल रहे हैं। सब बेढंगे मालूम होते हैं,संभव है कि इन सूकर, कूकर, गाय, भैंसोंको भी यह मनुष्य बेढंगा मालूम होता होगा। जिसको जो पर्याय मिली है उसको वह अपनी उस ही पर्याय को सुंदर सुडौल ढंग की ठीक मानता है, उसके अतिरिक्त अन्य देह आकार ढांचे तो बेढंगे मालूम होते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong>कुटेव में स्थिरता व शांति का अभाव</strong>―यह जीव किसी एक बातपर थमकर ही नहीं रहता। चाहे तुम धन को प्रिय मानते हो, सर्वस्व मानते हो तो मानते ही रहो, देखो टेक से हट मत जाना। लेकिन अपने शरीर में कोई व्याधि हो जाय या कुटुंब के लोग कोई विपत्ति में पड़ जाये तो उस ही धन को बुरी तरह खर्च कर डालते हैं। यह टेक नहीं निभा पाता, किसी भी चीज में स्थिर नहीं हो पाता। यह अनेक इंद्रिय विषयसाधनोंको ग्रहण कर करके डोलता है, दुःखी रहता है। यह जीव संसार में तब तक भ्रमण करता रहता है जब तक मन, वचन, काय को यह मैं ही हूँ ऐसी प्रतीति रखता है।</p> | ||
<p | <p><strong>भेदप्रयोग</strong>―भैया ! यह भ्रमबुद्धि दूर हो, शरीर मैं नहीं हूं ऐसी प्रतीति करे, छोड़ा तो जा सकता है शरीर का ध्यान, न शरीर को,ज्ञान में ले। यह जाननहार ज्ञान स्वयं क्या है, इसका स्वयं का स्वरूप क्या है, यह बुद्धि लायें तो क्या लायी नहीं जा सकती? छोड़ दो इस शरीर का विकल्प। वचनों का भी विकल्प त्यागा जा सकता है। पर कायके विकल्प से कठिन वचनका विकल्प है। ये दोनों भी त्यागे जा सकते हैं,पर मनका विकल्प सबसे कठिन है। कायके विकल्प से कठिन वचनका विकल्प और वचन के विकल्प से कठिन मनका विकल्प है। कुछ-कुछ ध्यान में तो बनाया जा सकता है। शरीर मैं नहीं हूं। कोई जाननहार पदार्थ मैं हूँ, वचन भी मैं नहीं हूं, कोई ज्ञान प्रकाश मैं हूँ, पर चित मन जो अंतरंग इंद्रिय है, जिसका परिणमन ज्ञानविकल्पमें एकमेक चल रहा है उस मनसे न्यारा ज्ञानप्रकाश मात्र मैं हूँ, ऐसा अनुभव करना कठिन हो रहा है। लेकिन यह मनोविकल्प जिसके कारण सहज आत्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो पाता है यह भी भ्रम है, मनोविकल्पका अपनाना यह भी कष्ट है जो जीव काय से, वचन से और मनसे न्यारा अपने आपको देखता है, वह संसार के बंधन से छूटकर मुक्ति को पाता है।</p> | ||
<p | <p><strong>विभक्त आत्मस्वरूपकी भावना</strong>―इन जीवों को यहाँकी बातें बहुत बड़ी मीठी लगती है, पर एक बार सभी झंझटों से छूटकर शुद्धआनंद में पहुंच जाय तो यह सबसे बड़ी उत्कृष्ट बात है। जो सदा को संकटों से छुटानेका उपाय है उस उपायका आदर किया जाय तो यह मनुष्य जीवन सफल है, अन्यथा बाह्य में कुछ भी करते जावो, करता भी यह कुछ नहीं है, केवल विकल्प करता है। कुछ भी हो जाय बाह्य पदार्थमें किंतु उससे इस आत्माका भला नहीं है। समस्त प्राणियों को मन, वचन, कायके संयोगसे ही दु:खसमूहका भाजन बनना पड़ा है। अब मैं मनसे, वचनसे, कायसे अर्थात् बड़ी दृढ़ता से इन सबका परित्याग करता हूं, और मैं केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं इस अनुभवमें बसूँगा, ऐसा ज्ञानी यथार्थ चिंतन कर रहा है और अपने आपको सर्व विविक्त केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र अनुभव करता है।</p> | ||
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
दुःखसंदोहभागित्वं संयोगादिह देहिनाम्।
त्यजाम्येनं ततः सर्वं मनोवाक्कायकर्मभिः।।28।।
ज्ञानी सकल संन्यास का चिंतन―ज्ञानी पुरुष चिंतन करता है और संकल्प करता है कि इस प्राणी को जितने भी क्लेश समूहका भाजन होना पड़ा है वह सब इस शरीर आदि के संयोग से ही होना पड़ा है। इस कारण मैं मनसे, वचनसे और कायसे इन समस्त समागमों को छोड़ता हूं। मैं भी अमूर्त ज्ञानानंदमय केवल अपने स्वरूप मात्र हूं। इस मुझ आत्मतत्त्वमें किसी दूसरे पदार्थ का संबंध भी नहीं है। ऐसी दृष्टि हो जाय और समस्त बाह्य पदार्थों से उपेक्षा हो जाय तो यही उनका छोड़ना कहलाता है। इसमें कषायकी बात कुछ नहीं है। जैसे कोई लोग कहें कि वाह! मानते जावो ऐसा कि मैं सबसे न्यारा हूं। और छोड़ो कुछ भी नहीं। यहाँ कुछ भी छलकी बात नहीं है, केवल ऐसा अनुभव में उतर गया कि मैं सबसे विविक्त हूं तो उसने सबको छोड़ दिया। अब ऐसी प्रतीति बहुत काल तक बनी रहती है तो बहुत काल तक छूटा हुआ रहेगा और कुछ ही क्षण बाद पूर्व वासना के कारण फिर उनमें चित्त गया तो वह ग्रहण का ग्रहण ही है।
आनंद का भेदविज्ञान―भैया! जितना भी आनंद मिलेगा प्रत्येक जीवको वह भेदविज्ञान से ही मिलेगा। भेदविज्ञान बिना आनंद मिलने का अन्य कोई उपाय ही नहीं हे लोक में कही ऐसा नहीं है कि धनिकों को करोड़ों के धन वैभव से आनंद मिल जायगा और गरीबों को भेदविज्ञान से आनंद मिलेगा। जिन्हें भी आनंद मिलेगा भेदविज्ञान से ही मिलेगा, चाहे अमीर हो चाहे गरीब। कारण यह है कि आनंद में बाधा को डालने वाला विकल्प हुआ करता है और विकल्पों की उत्पत्ति होने के लिए परपदार्थ आश्रय होता है। बाह्य साधन तो जिसको जितने मिले हैं,उसे प्रायः उतने विकल्प बढ़ेंगे, और जिसके विकल्प बढे़ हुए है उन्हें आनंद न मिलेगा। समागम हो तब भी, न हो तब भी, आनंद तो भेदविज्ञान से ही मिलेगा। लोग कभी-कभी अपने में बड़ा झंझट समझते हैं। मैं बहुत चक्कर में पड़ गया, मुझे इतना क्लेश है। अरे ये सारे क्लेश समस्त संकट भेदविज्ञान के उपाय से सबसे न्यारा अपने को मान लेने से मिट जाते हैं। सबका विकल्प तोड़ने से अपने ज्ञानस्वरूपका अनुभव होने पर सारे संकट समाप्त हो जाते हैं।
प्रभुका आदर्श व आदेश―जिनके संकट समाप्त हो चुके हैं ऐसे प्रभु भगवान का यह उपदेश है कि जिस उपाय से हम संकटों से मुक्त हुए है इसी उपायों भव्यजन करेंगे तो संकटों से छूटनेका अवसर पावेंगे। संकटों से छूटने का उपाय भेदविज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। एक ही निर्णय है। कही ऐसा अनियम नहीं है किसी को धन से आनंद मिलता हो, किसी को इज्जत मिलने से आनंद मिलता हो, किसी को अनेक काम मिलने से आनंद मिलता हो, किसी को अच्छा परिवार रहने से आनंद मिलता हो, जिसे भी आनंद मिलेगा वह भेदविज्ञान से मिलेगा।
मिथ्या आशयमें क्लेशकी प्राकृतिकता―जो जीव शरीरादिक से अपने को अभेदरूप से मानता है, अर्थात यह मैं हूँ ऐसी उनमें आत्म कल्पना करता है उस शारीरिक कष्ट भी होता है, मानसिक कष्ट भी होता है और क्षेत्र समागम आदि के कारण भी कष्ट हो जाता है। मिथ्या धारण हो, प्रतीति हो वहाँ दुःख होना उस मिथ्या श्रद्धान के कारण प्राकृतिक है। दुःख किसी परवस्तुसे नहीं होता, दुःख भी अपने आपकी कल्पना से, मिथ्या धारणासे होता है। सारी चीजें अनित्य है। जो घर मिला है, घर में जो कुछ है, जितना संग जुटा है वह सब अनित्य है। उन्हें कोई नित्य माने और ये मोही मानते ही है। ये दूसरे के समागम को तो अनित्य झट समझ लेते हैं,ये समागम मिट जायेंगे, मर जायेंगे लोग, कोई न रहेंगे यहाँ, किंतु अपने समागम के संबंधमें यह विशद बोध नहीं है कि यह भी मिट जायगा। यदि यह ध्यान में रहे कि यह सब मिट जायगा तो फिर इसकी आसक्ति नहीं रह सकती है। इसने अनित्य को नित्य मान लिया, इसी से आफतें लग गयी।
भ्रांतिमें उलझन और निभ्रांतिमें सुलझन―भैया! अनित्य को नित्य मानने के विकल्प में एक आपत्ति तो यह है कि जब मान लिया कि ये सदा रहेंगे तो उनके बढ़ावा के लिए, संग्रह के लिए, जीवनभर इसे श्रम की ज्वाला में झुकना पड़ता है। दूसरी आपत्ति यह है यह अनित्य को नित्य मान लेने से तो कही यह जगजाल नित्य तो नहीं हो जाता। बाह्यसमागम तो अपनी परिणति के माफिक बिछुड़ जायेंगे। यह मिथ्यादृष्टि जीव अनित्य को नित्य मानता है, सो जो वियोग होता है तब उसके वियोग में दुःखी होता है। यदि अनित्य को अनित्य ही मानता होता तो उसमें लाभ था। पहिला लाभ यह कि इन बाह्य पदार्थों के संचय के लिए अपना जीवन न समझता और श्रम में समय न गंवाता और दूसरा लाभ यह होता कि किसी भी क्षण जब ये समागम बिछुड़ते तो यह क्लेश न मानता।
अज्ञानके फल फूल―जितने भी लोग घर में बस रहे हैं,जिन दो एक प्राणियोंसे संबंध मान रखा है, उनका वियोग जरूर होगा। पुरुष स्त्री है, कभी तो वियोग होगा ही। पुरुष का भी वियोग पहिले संभव हो सकता है और स्त्रीका भी वियोग पहिले संभव हो सकता है। वियोगकालमें कष्ट मानेंगे। यह बात प्रायः सभी मनुष्यों पर गुजर रही है। जब तक मनके प्रतिकूल कोई घटना नहीं आती है, मौज में समय कट रहा है और यह बीता हुआ समय जाना भी नहीं जा रहा है मेरी इतनी आयु हो गयी है कुछ जाना ही नहीं जाता है लेकिन सभी जीव चाहे बडे़ यशस्वी हो सभी पर यह बात आयगी। जो समागम मिला है वह किसी दिन आवश्य बिछुड़ेगा। अब जब बिछुड़ेगा तो वही-वही क्लेश जो औरों के आता है, इसे भी आयगा। तो जो पदार्थ जैसा नहीं है वैसा मानना अर्थात् वस्तुस्वरूपसे उल्टी धारणा बनाना, इसमें दुःखी होना प्राकृतिक बात है। इस ही वैभव के ममत्व के कारण दुःख है। किसी अन्य पदार्थ के होने अथवा न होने से दुःख नहीं है। इस संसार की जड़ अज्ञान है। कितने ही लोग तो इस संसार पर दया करके कह देते हैं कि लो सभी लोग ब्रह्मचारी हो गए तो संसार कैसे चलेगा? सभी ज्ञानी वैरागी हो गए तो संसार की क्या हालत होगी? उनको संसार पर तरस आती है, दया आती है। कही संसार की वृद्धि में बाधा न हो, देखा इस अज्ञानी का बहाना।
ज्ञान, वैराग्यसे क्लेश क्षय―बहुत तीक्ष्ण धारा है इस कल्याणमार्गकी, किंतु जो इस ज्ञानवैराग्यकी धारा पर उतर गया और निरूपद्रव पार कर गया वह संकटो से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। जितने भी यहाँ क्लेश है वे सब मन, वचन, कायकी क्रियाओं के अपनाने में है। इस जीव ने मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति की, उससे आत्मयोग हुआ, प्रदेश परिस्पंद हुआ, कर्मों का आस्रव हुआ और साथ ही इसमें मिथ्या आशय और क्रोधादिक कषायोंसे कर्मों का बंध हुआ। अब ये बद्ध कर्म जब उदयकाल में आता है, आये थे तब इस जीवको विभाव परिणति होती है व हुई और चक्र की तरह ये भावकर्म द्रव्यकर्म चलते ही रहे। उनके फल में सुखी दुःखी होना, इष्ट अनिष्ट लगना सब दुःख परंपरायें बढ़ती चली आयी। सो सारे दुःख का झगड़ा लो यों मिट जायगा कि इस मनको, वचनको, और काय को अपनेसे भिन्न मान ले। ऐसा भिन्न मानने में यह धीर साहसी आत्मा उस विपदा के पहाड़ के नीचे भी पड़ा है तब भी बलिष्ठ है, उसे रंच भी श्रम नहीं होता है।
भेदाभ्यासके बिना संकट विनाशका अभाव―इस जीवका संसरण तब तक है जब तक मन, वचन, काय को अपना रहा है। कितना क्लेश है? किसीने प्रतिकूल बात कही, निंदा की बात कही तो यह चित्त बेचैन हो जाता है। क्या हुआ किसीने कुछ उसे कहा ही न था। वे वचन भी मायारूप, वह कहने वाला भी माया रूप, यह सोचने वाला भी माया रूप, और उस आत्मा की प्रवृत्ति से वचन भी नहीं निकलते निमित्तनैमित्तिक संबंधमें उन वचन वर्गणावों से वचन परिणति हुई और वे वचन मुझमें किसी प्रकार आ ही नहीं सकते। यह प्रभुरूप है इसलिए जान लिया इसने सब। अब राग से प्रेरित होकर कल्पना मचाता है। उसने हमें यो कह दिया! उन कल्पनावोंमें परेशान हो जाता है। एक यह निर्णय बन जाय कि यह शरीर ही मैं नहीं हूं फिर सम्मान अपमान कहाँ ठहरेंगे? मन, वचन, काय इन तीनों को जो त्याग देता है, इनसे भिन्न केवल शुद्धज्ञानस्वरूपमात्रअपने की निरखता है तो इस भेदके अभ्याससे इस जीवको मुक्ति होती है।
भ्रममें अशांति व अस्थिरता―भैया ! जब तक भ्रम लगा है तब तक चैन नहीं हो सकती। कोई कितना ही प्रिय मित्र हो, किसी प्रवृत्ति को देखकर भ्रममें यह बात बैठ जाय कि अब अमुक तो मेरे विरोध में है, तो इस विरोध मान्यता की भावना से यह बेचैन हो गया। विरोध उपयोग में पड़ा हुआ है इसलिए उस मित्र की सारी चेष्टाएँ विरोधरूप दिखती है, इससे विरोध भावना और बढ़ जाती है, चैन नहीं मिलती है भ्रममें। फिर यहाँ तो आत्मा का भ्रम हो गया, पूरा मिथ्या आशय बन गया है। जो मैं नहीं हूँ उसे मानता है कि यह मैं हूँ। बस इस आशय से ही क्लेश हो गया, किसी एक बात पर थमकर ही नहीं रहता यह मोही जीव। किसी को अपना मानता है तो उस ही को अपना मानता रहे, देखो किसी दूसरे को अपना न माने, जरासी दृढ़ता कर ले, पर मोह में यह भी दृढ़ता नहीं रहती है। सच बात हो तो दृढ़ता रहे। झूठ बातपर टिकाव कैसे हो सकता है?
पर्यायमें मोहकी अदल बदल―यह मोही जीव इस देह को आत्मा मानता है तो देखो इस देह को ही आत्मा मानते रहना, फिर कभी हट न जाना अपनी टेक से। अहो हट जाता है टेक से। मृत्यु हुई, दूसरा शरीर धारण किया, अब उस शरीर को अपना मानने लगा। आज कैसा सुडौल है, अच्छे नाक, आँख, कान है और मरकर मगरमच्छ बन गये तो उस थावाथूल शरीर को ही अपना सर्वस्व मानने लगा। जीव मैं वही हूँ। अब जिस पर्याय में गया उसको ही मैं माना। इस मनुष्य को ये भैंसा, बैल, सूकर, कूकर आदि न कुछ से विचित्र मालूम होते हैं बेढंगे कहाँ से हाथ निकल बैठे, और कैसा पूरे अंगों से चल रहे हैं। सब बेढंगे मालूम होते हैं,संभव है कि इन सूकर, कूकर, गाय, भैंसोंको भी यह मनुष्य बेढंगा मालूम होता होगा। जिसको जो पर्याय मिली है उसको वह अपनी उस ही पर्याय को सुंदर सुडौल ढंग की ठीक मानता है, उसके अतिरिक्त अन्य देह आकार ढांचे तो बेढंगे मालूम होते हैं।
कुटेव में स्थिरता व शांति का अभाव―यह जीव किसी एक बातपर थमकर ही नहीं रहता। चाहे तुम धन को प्रिय मानते हो, सर्वस्व मानते हो तो मानते ही रहो, देखो टेक से हट मत जाना। लेकिन अपने शरीर में कोई व्याधि हो जाय या कुटुंब के लोग कोई विपत्ति में पड़ जाये तो उस ही धन को बुरी तरह खर्च कर डालते हैं। यह टेक नहीं निभा पाता, किसी भी चीज में स्थिर नहीं हो पाता। यह अनेक इंद्रिय विषयसाधनोंको ग्रहण कर करके डोलता है, दुःखी रहता है। यह जीव संसार में तब तक भ्रमण करता रहता है जब तक मन, वचन, काय को यह मैं ही हूँ ऐसी प्रतीति रखता है।
भेदप्रयोग―भैया ! यह भ्रमबुद्धि दूर हो, शरीर मैं नहीं हूं ऐसी प्रतीति करे, छोड़ा तो जा सकता है शरीर का ध्यान, न शरीर को,ज्ञान में ले। यह जाननहार ज्ञान स्वयं क्या है, इसका स्वयं का स्वरूप क्या है, यह बुद्धि लायें तो क्या लायी नहीं जा सकती? छोड़ दो इस शरीर का विकल्प। वचनों का भी विकल्प त्यागा जा सकता है। पर कायके विकल्प से कठिन वचनका विकल्प है। ये दोनों भी त्यागे जा सकते हैं,पर मनका विकल्प सबसे कठिन है। कायके विकल्प से कठिन वचनका विकल्प और वचन के विकल्प से कठिन मनका विकल्प है। कुछ-कुछ ध्यान में तो बनाया जा सकता है। शरीर मैं नहीं हूं। कोई जाननहार पदार्थ मैं हूँ, वचन भी मैं नहीं हूं, कोई ज्ञान प्रकाश मैं हूँ, पर चित मन जो अंतरंग इंद्रिय है, जिसका परिणमन ज्ञानविकल्पमें एकमेक चल रहा है उस मनसे न्यारा ज्ञानप्रकाश मात्र मैं हूँ, ऐसा अनुभव करना कठिन हो रहा है। लेकिन यह मनोविकल्प जिसके कारण सहज आत्मतत्त्वका अनुभव नहीं हो पाता है यह भी भ्रम है, मनोविकल्पका अपनाना यह भी कष्ट है जो जीव काय से, वचन से और मनसे न्यारा अपने आपको देखता है, वह संसार के बंधन से छूटकर मुक्ति को पाता है।
विभक्त आत्मस्वरूपकी भावना―इन जीवों को यहाँकी बातें बहुत बड़ी मीठी लगती है, पर एक बार सभी झंझटों से छूटकर शुद्धआनंद में पहुंच जाय तो यह सबसे बड़ी उत्कृष्ट बात है। जो सदा को संकटों से छुटानेका उपाय है उस उपायका आदर किया जाय तो यह मनुष्य जीवन सफल है, अन्यथा बाह्य में कुछ भी करते जावो, करता भी यह कुछ नहीं है, केवल विकल्प करता है। कुछ भी हो जाय बाह्य पदार्थमें किंतु उससे इस आत्माका भला नहीं है। समस्त प्राणियों को मन, वचन, कायके संयोगसे ही दु:खसमूहका भाजन बनना पड़ा है। अब मैं मनसे, वचनसे, कायसे अर्थात् बड़ी दृढ़ता से इन सबका परित्याग करता हूं, और मैं केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूं इस अनुभवमें बसूँगा, ऐसा ज्ञानी यथार्थ चिंतन कर रहा है और अपने आपको सर्व विविक्त केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र अनुभव करता है।