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| - <b>देखे </b>[[अनुमति]] ।<br>अनुमति – <br>स्वयं तो कोई कार्य न करना, पर अन्य को करने की राय देना, अथवा उसके द्वारा स्वयं किया जानेपर प्रसन्न होना, अनुमति कहलाता है।<br>१. अनुमति सामान्य का लक्षण<br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ६/८,९/५१४/११ अनुमतशब्दः प्रयोजकस्य मानसपरिणामप्रदर्शनार्थः ।।९।। यथा मौनव्रतिकश्चक्षुष्मान् पश्यन् क्रियमाणस्य कार्यस्याप्रतिषेधात् अभ्युपगमात् अनुमन्ता तथा कारयिता प्रयोवतृत्वात् तत्समर्थाचरणावहितमनःपरिणामः अनुमन्तेत्यवगम्यते। <br>= करनेवाले के मानस-परिणामों की स्वीकृति अनुमत है। जैसे कोई मौनी व्यक्ति किये जानेवाले कार्य का यदि निषेध नहीं करता तो वह उसका अनुमोदक माना जाता है, उसी तरह करानेवाला प्रयोक्ता होनेसे और उन परिणामों का समर्थक होने से अनुमोदक है। <br>([[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /६/८/३२५) ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या ८८/६)<br>२. अनुमति के भेद<br>[[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या ४१४ पडिसेवापडिसुण्णं संवासो चेव अणुमदीतिविहा। = प्रतिसेवा, प्रतिश्रवण, संवास ये तीन भेद अनुमति के हैं।<br>३. प्रतिसेवा अनुमति<br>[[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या ४१४ उद्दिष्टं यदि भुङ्क्ते भोगयति च भवति प्रतिसेवा। <br>= उद्दिष्ट आहार का भोजन करनेवाले साधु के प्रतिसेवा अनुमति नामका दोष होता है।<br>४. प्रतिश्रवण अनुमति<br>[[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या ४१५ उद्दिट्ठं जदि विचरदि पुव्वं पच्छा व होदि पडिसुण्णं। <br>= 'यह आहार आपके निमित्त बनाया गया है' आहार से पहिले या पीछे इस प्रकार के वचन दाता के मुखसे सुन लेनेपर आहार कर लेना या सन्तुष्ट तिष्ठना साधु के लिए प्रतिश्रवण अनुमति है।<br>५. संवास अनुमति<br>[[मूलाचार]] / [[आचारवृत्ति]] / गाथा संख्या ४१५ सावज्ज संकिलिट्ठो ममत्तिभावो दु संवासो ।।४१५।। <br>= यदि साधु आहारादि के निमित्त ऐसा ममत्वभाव करे कि ये गृहस्थलोक हमारे हैं, वह उसके लिए संवास नामकी अनुमति है।<br>६. अनुमति त्याग प्रतिमा <br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या १४६ अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा। नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः समन्तव्य ।।१४६।। <br>= जिसकी आरम्भ में अथवा परिग्रहमें या इस लोक सम्बन्धी कार्यों में अनुमति नहीं है, वह समबुद्धिवाला निश्चय करके अनुमति त्याग प्रतिमा का धारी मानने योग्य है। <br>([[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या ३८८) ([[वसुनन्दि श्रावकाचार]] गाथा संख्या ३००) (गुणभद्र श्रा./१८२)।<br>[[सागार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ७/३१-३४ चैत्यालयस्थः स्वाध्यायं कुर्यान्मध्याह्नवन्दनात्। ऊर्ध्वमामन्त्रितः सोऽद्याद् गृहे स्वस्य परस्य वा ।।३१।। यथाप्राप्तमदन् देहसिद्ध्यर्थं खलु भोजनम्। देहश्च धर्मसिद्ध्यर्थं मुमुक्षुभिरपेक्ष्यते ।।३२।। सा मे कथं स्यादुद्दिष्टं सावद्याविष्टमश्नतः। कर्हि भैक्षामृतं भोक्ष्ये इति चेच्छेज्जितेन्द्रियः ।।३३।। पञ्चाचारक्रियोद्युक्तो निष्क्रमिष्यन्नसौ गृहात्। आपृच्छेत गुरून् बन्धून् पुत्रादींश्च यथोचितम् ।।३४।। <br>= इस अनुमतिविरति श्रावक को जिनालयमें रहकर ही शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए तथा मध्याह्न वन्दना आदि कर लेने के पश्चात् किसी के बुलानेपर पुत्रादि के घर अथवा किसी अन्य के घर भोजन करे ।।३१।। भोजन के सम्बन्धमें इसे ऐसी भावना रखनी चाहिए कि मुमुक्षुजन शरीर की स्थिति के अर्थ ही भोजन की अपेक्षा रखते हैं और शरीर की स्थिति भी धर्मसिद्धि के अर्थ करते हैं ।।३२।। परन्तु उद्दिष्ट आहार करनेवाले मुझ को उस धर्मकी सिद्धि कैसे हो सकती है, क्योंकि यह तो सावद्ययोग तथा जघन्य क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न किया गया है। वह समय कब आयेगा जब कि मैं भिक्षा रूपी अमृत का भोजन करूँगा ।।३३।। पंचाचार पालन करनेवाले तथा गृहत्याग की इच्छा रखनेवाले उसको माता-पितासे, बन्धुवर्ग से तथा पुत्रादिकों से यथोचित् रूपसे पूछना चाहिए ।।३४।।<br>[[Category:अ]] <br>[[Category:राजवार्तिक]] <br>[[Category:चारित्रसार]] <br>[[Category:सर्वार्थसिद्धि]] <br>[[Category:मूलाचार]] <br>[[Category:रत्नकरण्डश्रावकाचार]] <br>[[Category:कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] <br>[[Category:वसुनन्दि श्रावकाचार]] <br>[[Category:सागार धर्मामृत]] <br> | | - <b>देखे </b>[[अनुमति]] ।<br> |
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