| जैनागम चार भागों में विभक्त है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं - प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इन चारों में क्रमसे कथाएँ व पुराण, कर्म सिद्धान्त व लोक विभाग, जीव का आचार-विचार और चेतनाचेतन द्रव्यों का स्वरूप व तत्त्वों का निर्देश है। इसके अतिरिक्त वस्तु का कथन करने में जिन अधिकारों की आवश्यकता होती है उन्हें अनुयोगद्वार कहते हैं। इन दोनों ही प्रकार के अनुयोगों का कथन इस अधिकार में किया गया है।<br>१. आगमगत चार अनुयोग<br>1. आगम का चार अनुयोगों में विभाजन।<br>2. आगमगत चार अनुयोगों के लक्षण।<br>3. चारों अनुयोगों की कथन पद्धति में अन्तर।<br>4. चारों अनुयोगों का प्रयोजन।<br>5. चारों अनुयोगों की कथंचित् मुख्यता गौणता।<br>6. चारों अनुयोगों का मोक्षमार्ग के साथ समन्वय।<br>• चारों अनुयोगों के स्वाध्याय का क्रम। - <b>देखे </b>[[स्वाध्याय]] १।<br>२. अनुयोगद्वारों के भेद व लक्षण<br>1. अनुयोगद्वार सामान्य का लक्षण।<br>2. अनुयोगद्वारों के भेद-प्रभेदों के नाम निर्देश।<br>१. उपक्रम आदि चार अनुयोगद्वार।<br>२. निर्देश, स्वामित्व आदि छः अनुयोगद्वार।<br>३. सत्, संख्यादि आठ अनुयोगद्वार तथा उनके भेद।<br>४. पदमीमांसा आदि अनुयोगद्वार निर्देश।<br>• विभिन्न अनुयोगद्वारों के लक्षण। - <b>देखे </b>[[वह वह `नाम']] ।<br>३. अनुयोगद्वार निर्देश<br>1. सत् संख्या आदि अनुयोगद्वारों के क्रम का कारण।<br>2. अनुयोगद्वारों में परस्पर अन्तर।<br>• उपक्रम व प्रक्रम में अन्तर। - <b>देखे </b>[[उपक्रम]] ।<br>3. अनुयोगद्वारों का परस्पर अन्तर्भाव।<br>4. ओघ और आदेश प्ररूपणाओं का विषय।<br>5. प्ररूपणाओं या अनुयोगों का प्रयोजन।<br>• अनुयोग व अनुयोग समास ज्ञान - <b>देखे </b>[[श्रुतज्ञान]] II<br>१. आगमगत चार अनुयोग<br>१. आगम का चार अनुयोगों में विभाजन<br>क्रियाकलाप में समाधिभक्ति-"प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः। <br>= प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग को नमस्कार है।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२ प्रथमानुयोगो....चरणानुयोगो....करणानुयोगो....द्रव्यानुयोगो इत्युक्तलक्षणानुयोगचतुष्टरूपेण चतुर्विधं श्रुतज्ञानं ज्ञातव्यम्। <br>= प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग ऐसे उक्त लक्षणोंवाले चार अनुयोगों रूपसे चार प्रकार का श्रुतज्ञान जानना चाहिए। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१५)।<br>२. आगमगत चार अनुयोगों के लक्षण<br>१. प्रथमानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४३ प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्। बोधिसमाधिनिधानं बोधातिबोधः समीचीनः ।।४३।। <br>= सम्यग्ज्ञान है सो परमार्थ विषय का अथवा धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का अथवा एक पुरुष के आश्रय कथा का अथवा त्रेसठ पुरुषों के चरित्र का अथवा पुण्य का अथवा रत्नत्रय और ध्यान का है कथन जिसमें सो प्रथमानुयोग रूप शास्त्र जानना चाहिए। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/९/२५८)।<br>[[हरिवंश पुराण]] सर्ग १०/७१ पदैः पञ्चसहस्रैस्तु प्रयुक्ते प्रथमे पुनः। अनुयोगे पुराणार्थस्त्रिषष्टिरुपवर्ण्यते ।।७१।। <br>= दृष्टिवाद के तीसरे भेद अनुयोगमें पाँच हजार पद हैं तथा इसके अवान्तर भेद प्रथमानुयोगमें त्रेसठ शलाका पुरुषों के पुराण का वर्णन है ।।७१।। <br>([[कषायपाहुड़]] पुस्तक संख्या १/१०३/१३८) ([[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / [[जीव तत्त्व प्रदीपिका]] टीका गाथा संख्या./३६१-३६२/७७३/३) ([[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/८) ([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१५)।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या २/१,१,२/१,१,२/४ पढमाणियोगो पंचसहस्सपदेहि पुराणं वण्णेदि। <br>= प्रथमानुयोग अर्थाधिकार पाँच हजार पदों के द्वारा पुराणों का वर्णन करता है।<br>२. चरणानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४५ गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्। चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ।।४५।। <br>= सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा के अंगभूत चरणानुयोग शास्त्र को विशेष प्रकार से जानता है। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/११/२६१)।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/९ उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनौ यतिधर्मं च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानुयोगो भण्यते। <br>= उपासकाध्ययन आदिमें श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह दूसरा चरणानुयोग कहा जाता है। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१६)।<br>३. करणानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४४ लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च। आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च ।।४४।। <br>= लोक अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के समान प्रगट करनेवाले करणानुयोग को सम्यग्ज्ञान जानता है। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/१०/२६०)।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/१० त्रिलोकसारे जिनान्तरलोकविभागादिग्रन्थव्याख्यानं करणानुयोगो विज्ञेयः। <br>= त्रिलोकसार में तीर्थंकरों का अन्तराल और लोकविभाग आदि व्याख्यान है। ऐसे ग्रन्थरूप करणानुयोग जानना चाहिए। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/१५४/१७)।<br>४. द्रव्यानुयोग का लक्षण<br>[[रत्नकरण्डश्रावकाचार]] श्लोक संख्या ४६ जीवाजीवसुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च। द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालाकमातनुते ।।४६।। <br>= द्रव्यानुयोगरूपी दीपक जीव-अजीवरूप सुतत्त्वों को, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष को तथा भावश्रुतरूपी प्रकाश का विस्तारता है। <br>([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ३/९२/२६१)।<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,७/१५८/४ सताणियोगम्हि जमत्थित्तं उत्तं तस्स पमाणं परूवेदि दव्वाणियोगे। <br>= सत्प्ररूपणामें जो पदार्थों का अस्तित्व कहा गया है उनके प्रमाण का वर्णन द्रव्यानुयोग करता है। यह लक्षण अनुयोगद्वारों के अन्तर्गत द्रव्यानुयोग का है।<br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४२/१८२/११ प्राभृततत्त्वार्थसिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्धजीवादिषड्द्रव्यादीनां मुख्यवृत्त्या व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानुयोगो भण्यते। <br>= समयसार आदि प्राभृत और तत्त्वार्थसूत्र तथा सिद्धान्त आदि शास्त्रों में मुख्यता से शुद्ध-अशुद्ध जीव आदि छः द्रव्य आदि का जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यानुयोग कहलाता है। <br>([[पंचास्तिकाय संग्रह]] / [[तात्पर्यवृत्ति]] / गाथा संख्या १७३/२५४/१८)।<br>३. चारों अनुयोगों की कथन पद्धति में अन्तर<br>१. द्रव्यानुय ग व करणानुयोग में <br>[[द्रव्यसंग्रह]] / मूल या टीका गाथा संख्या १३/४०/५ एवं पुढविजलतेउवाऊ इत्यादिगाथाद्वयेन तृतीयगाथापादत्रयेण च....धवलजयधवलमहाधवलप्रबन्धाभिधानसिद्धान्तत्रयबीजपदं सूचितम्। `सव्वेसुद्धा हु सुद्वणयां इति शुद्धात्मतत्त्वप्रकाशकं तृतीयगाथाचतुर्थपादेनपञ्चास्तिकायप्रवचनसारसमयसाराभिधानप्राभृतत्रयस्यापि बीजपदं सूचितम्।....यच्चाध्यात्मग्रन्थस्यं बीजपदभूतं शुद्धात्मस्वरूपमुक्तं तत्पुनरुपादेयमेव। <br>= इस रीति से चौदह मार्गणाओं के कथन के अन्तर्गत `पुढबिजलतेउवाऊ' इत्यादि दो गाथाओं और तीसरी गाथा के तीन पदों से धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन (करुणानुयोग के) सिद्धान्त ग्रन्थ हैं, उनके बीजपद की सूचना ग्रन्थकारने की है। सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया' इस तृतीय गाथा के चौथे पादसे शुद्धात्मतत्त्व के प्रकाशक पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार इन तीनों प्राभृतों का बीजपद सूचित किया है। तहाँ जो अध्यात्मग्रन्थ का बीज पदभूत शुद्धात्मा का स्वरूप कहा है वह तो उपादेय ही है।<br>नोट-(धवल आदि करणानुयोग के शास्त्रों के अनुसार जीव तत्त्व का व्याख्यान पृथिवी जल आदि असद्भूत व्यवहार गत पर्यायों के आधारपर किया जाता है; और पंचास्तिकाय आदि द्रव्यानुयोग के शास्त्रों के अनुसार उसी जीव तत्त्व का व्याख्यान उसकी शुद्धाशुद्ध निश्चय नयाश्रित पर्यायों के आधारपर किया जाता है। इस प्रकार करणानुयोगमें व्यवहार नय की मुख्यता से और द्रव्यानुयोग में निश्चयनय की मुख्यता से कथन किया जाता है।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/७/४०४/९ करणानुयोगविषैं....व्यवहारनय की प्रधानता लिये व्याख्यान जानना।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/८/४०७/२ करणानुयोगविषैं भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये व्याख्यान हो है ताकौं सर्वथा तैसे ही न मानना।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/८/४०६/१४ करणानुयोग विषैं तौ यथार्थ पदार्थ जनावने का मुख्य प्रयोजन है। आचरण करावने की मुख्यता नाहीं।<br>रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं. टोडरमल-समयसार आदि ग्रन्थ अध्यात्म है और आगम की चर्चा गोमट्टसार (करणानुयोग) में है।<br>२. द्रव्यानुयोग व चरणानुयोग में<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/१४/४२९/७ (द्रव्यानुयोग के अनुसार) रागादि भाव घटें बाह्य ऐसैं अनुक्रमतै श्रावक मुनि धर्म होय। अथवा ऐसै श्रावक मुनि धर्म अंगीकार किये पंचम षष्ठम आदि गुणस्थाननि विषै रागादि घटावनेरूप परिणामनिकी प्राप्ति हो है। ऐसा निरूपण चरणानुयोग विषैं किया।<br>३. करणानुयोग व चरणानुयोग में<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/७/४०६/१४ करणानुयोग विषैं तो यथार्थ पदार्थ जनावने का मुख्य प्रयोजन है। आचरण करावने की मुख्यता नाहीं। तातैं यहु तौ चरणानुयोगादिक कै अनुसार प्रवर्तै, तिसतै जो कार्य होना है सो स्वयमेव हो होय है। जैसे आप कर्मनिका उपशमादि किया चाहे तौ कैसे होय?<br>४. चारों अनुयोगों का प्रयोजन<br>१. प्रथमानुयोग का प्रयोजन<br>[[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ३६१-३६२/७७३/३ प्रथमानुयोगः प्रथमं मिथ्यादृष्टिमविरतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोंऽधिकारः प्रथमानुयोगः। <br>= प्रथम कहिये मिथ्यादृष्टि अव्रती, विशेष ज्ञानरहित; ताको उपदेश देने निमित्त जो प्रवृत्त भया अधिकार अनुयोग कहिए सो प्रथमानुयोग कहिए।<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/२/३९४/११ जे जीव तुच्छ बुद्धिं होंय ते भी तिस करि धर्म सन्मुख होये हैं। जातैं वे जीव सूक्ष्म निरूपण को पहिचानैं नाहीं, लौकिक वार्तानिकूं जानैं। तहाँ तिनिका उपयोग लागै। बहुरि प्रथमानुयोगविषैं लौकिक प्रवृत्तिरूप निरूपण होय, ताकौ ते नीकैं समझ जांय।<br>२. करुणानुयोग का प्रयोजन <br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/३/३९५/२० जे जीव धर्म विषैं उपयोग लगाय चाहैं....ऐसे विचारविषैं (अर्थात् करणानुयोग विषय उनका) उपयोग रमि जाय, तब पाप प्रवृत्ति छूट स्वयमेव तत्काल धर्म उपजै है। तिस अभ्यासकरि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति शीघ्र ही है। बहुरि ऐसा सूक्ष्म कथन जिनमत विषैं ही है, अन्यत्र नाहीं, ऐसै महिमा जान जिनमत का श्रद्धानी हो है। बहुरि जे जीव तत्त्वज्ञानी होय इस करणानुयोग को अभ्यासै है, तिनकौ यहु तिसका (तत्त्वनिका) विशेषरूप भासै है।<br>३. चरणानुयोग का प्रयोजन<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/४/३९७/७ जे जीव हित-अहितकौ जानै नाहीं, हिंसादि पाप कार्यनि विषैं तत्पर होय रहे हैं, तिनिको जैसे वे पापकार्य कौं छोड़ धर्मकार्यनिविषैं लागैं, तैसे उपदेश दिया। ताकौ जानि धर्म आचरण करने कौ सम्मुख भये।....ऐसै साधनतैं कषाय मन्द हो है। ताका फलतै इतना तौ हो है, जो कुगति विषै दुःख न पावैं, अर सुगतिविषैं सुख पावैं।....बहुरि (जो) जीवतत्त्व के ज्ञानी होय करि चरणानुयोगकौ अभ्यासै हैं, तिनकौं ए सर्व आचरण अपने वीतरागभाव के अनुसारी भासै हैं। एकदेश वा सर्व देश वीतरागता भये ऐसी श्रावकदशा और मुनिदशा हो है।<br>४. द्रव्यानुयोग का प्रयोजन<br>[[मोक्षमार्गप्रकाशक]] अधिकार संख्या ८/५/३९८/४ जे जीवादि द्रव्यानिकौ का तत्त्वनिकौ पहिचानें नाहीं; आपापरकौ भिन्न जानैं नाहीं, तिनिकौ हेतु दृष्टान्त युक्तिकरि वा प्रमाणनयादि करि तिनिका स्वरूप ऐसै दिखाया जैसैं याके प्रतीति होय जाय। उनके भावों को पहिचानने का अभ्यास राखै तौ शीघ्र ही तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाय। बहुरि जिनिकै तत्त्वज्ञान भया होय, ते जीवद्रव्यानुयोग कौ अभ्यासैं। तिनिको अपने श्रद्धान के अनुसारि सो सर्व कथन प्रतिभासै है। <br> <br>[[Category:अ]] <br>[[Category:क्रियाकलाप]] <br>[[Category:द्रव्यसंग्रह]] <br>[[Category:पंचास्तिकाय]] <br>[[Category:पंचास्तिकाय संग्रह]] <br>[[Category:रत्नकरण्डश्रावकाचार]] <br>[[Category:अनगार धर्मामृत]] <br>[[Category:हरिवंश पुराण]] <br>[[Category:कषायपाहुड़]] <br>[[Category:गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] <br>[[Category:धवला]] <br>[[Category:भगवती आराधना]] <br>[[Category:मूलाचार]] <br>[[Category:त्रिलोकसार]] <br>[[Category:तत्त्वार्थसूत्र]] <br>[[Category:समयसार]] <br>[[Category:प्रवचनसार]] <br>[[Category:मोक्षमार्गप्रकाशक]] <br>[[Category:गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] <br>
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