नियमसार - गाथा 46: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।</strong></p> | ||
< | <p><strong>जाण अलिंत्रग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।46।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा की अमूर्तता</strong>―यह आत्मतत्त्व अरस है, इसमें कितने ही अर्थ भरे हैं। रस नहीं है, रस गुण वाला नहीं है, रसपरिणमन वाला नहीं है, जिसके द्वारा रसा जाए वह नहीं है, जो रसा जाए वह नहीं है और केवल रसज्ञान वाला भी तो नहीं है―कितने ही अर्थ निकलते हैं अरस शब्द से। यह आत्मा अरस है, इसी प्रकार अरूप है, रूपरहित है; अगंध है, गंधरहित है; अव्यक्त है, स्पर्श रहित है; अशब्द है और शब्द से रहित है, इसी कारण यह आत्मा अमूर्त है। इन विषयों का ज्ञान आत्मा के द्वारा इस असत्य अवस्था में हो रहा है। इस कारण जीवों को भ्रम हो जाता है। उस भ्रम को दूर करने के लिए इस लक्षणात्मक छंद में फिर भी निषेध किया गया है कि यह आत्मा पांचों इंद्रियों के विषयों से रहित है। यह तो सब निषेधमुखेन वर्णन चल रहा है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा के विध्यात्मकस्वरूप के परिज्ञान की आवश्यकता</strong>―देखिए कि यह आत्मा किसी लिंग के द्वारा ग्रहण में नहीं आता। लिंग मायने हैं चिह्न। इसके कोई संस्थान नीयत नहीं है―ऐसा निषेधमुखेन कुछ परिचय कराया गया। आत्मतत्त्व के संबंध में आचार्यदेव बतला रहे हैं कि यह रहित-रहित वाला ही पदार्थ नहीं है, बल्कि विध्यात्मक सद्भावात्मकतत्त्व है। उसका असाधारण लक्षण है चेतनागुण। किसी पुरुष के बारे में निषेधमुखेन वर्णन करते जावो कि यह पंडित नहीं है, सेठ नहीं है, किसी का पिता नहीं है, बाबा नहीं है अमुक नहीं है तो निषेधमुखेन कुछ तो परिचय होता है, किंतु पूर्ण परिचय तब होता है जब विध्यात्मक बात कही जाए। यह यहाँ नहीं है, किंतु यह है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा का विध्यात्मक स्वरूप</strong>―एक बार बाबा भागीरथजी वर्णी जिन्हें हमारे गुरु भी गुरु मानते थे, बाईजी के यहाँ आये। अब उनसे बाईजी ने पूछा कि बाबाजी ! भोजन में क्या बनाएं? उड़द की दाल बनाएं? बोले कि नहीं। चावल बनाएं? नहीं। दलिया बनाएं? दसों चीजें पूछी, पर उत्तर में ‘‘नहीं’’ ही मिला। अब बाईजी ने प्रेम भरे गुस्से में आकर कहा कि तो क्या धूल बनाएं? किसी तत्त्व को मना करके भी चीज पहिचानी जाती है, मगर पूर्ण परिचय तब तक नहीं होता है, जब तक कि उसमें विध्यात्मक बात न कही जाए। यहाँ पर विध्यात्मक असाधारण और विशेष लक्षण कह रहे हैं। ‘चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्।’ चेतन गुण वाला यह आत्मतत्त्व है।</p> | ||
<p | <p> भैया !इस आत्मा का कार्य चेतने का है, किंतु संसारावस्था में यह संसारी जीव किस-किस प्रकार से अपने आपको चेतता है? दिशा बदल गयी। नाव तो ठीक चल रही है, पर कर्णधार जो करिया का डंडा पकड़ रहता है, वह जिस प्रकार अपने करिया को बदल दे उसी दिशा में नाव चलने लगती है। नाव चलाने वाला नाव चलाते जाता है, पर दिशा बदलने वाला कर्णधार होता है। समग्र जीव चेतने का काम किए जा रहे हैं, किंतु उपाधि के सन्निधान में होने वाली विचित्र परिस्थितियां इस ज्ञेयचेतन की दिशा को बदल देती हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>कर्मफलचेतना</strong>―स्थावर जीव जिसके केवल एक स्पर्शन ही इंद्रिय है, जीभ, नाक, आँख और कान नहीं हैं―ऐसे प्राणी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव हैं। इनके कर्मफलचेतना होती है। ये अपने शरीर के द्वारा कोई कर्म नहीं कर पाते, कोई चेष्टा नहीं कर सकते। ये पतले-पतले गोलमटोल केचुवे भी लड़खड़ाते घिसटते हुए चल फिर रहे हैं ऐसी भी क्रियाएं इस एकेंद्रिय जीव में नहीं होती है। पृथ्वीकायिक जीव तो कोई चेष्टा करता हुआ नजर नहीं आता, जलकायिक जीव भी कोई चेष्टा नहीं करता। यदि जमीन ढलाव पर है तो वह नीचे खिसक जायेगा, पर वह जल की चेष्टा नहीं है। यों तो अचेतन गोलियां भी जमीन नीची पाकर लुढ़क जाती है। अग्निकाय भी कोई चेष्टा नहीं करती, वह तो उसका शरीर है। वायुकायिक भी चेष्टा नहीं करते हैं, क्योंकि चेष्टा तो वहाँ मानी जाए कि पूरे शरीर में से कोई एक आधा अंग चले तो उसको चेष्टा कहते हैं। समूचा ही जीव बह जाए तो उसे शरीर की चेष्टा नहीं कहते हैं। जैसे कि जोंक और केचुवा कुछ मुड़ लेते हैं तो वह चेष्टा है। वनस्पतिकाय में भी चेष्टा नहीं है, इस कारण स्थावर जीव में कर्मचेतना नहीं मानी गई है। सूक्ष्मदृष्टि से देखा जावे तो आत्मा के द्वारा जो भाव किए जाएं, उसका नाम कर्म है और ये कर्म स्थावरों में भी पाये जाते हैं, लेकिन यहाँ सारी चेष्टा हो सके, इस प्रकार के जीव में होने वाली क्रियाओं का प्रयोजन है। स्थावर जीव अपने इस चैतन्यगुण का उपयोग कर्मफल की चेतना में ही गवां देता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>कर्मचेतना</strong>―त्रस जीव दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय जी कर्मफलसहित कर्मचेतना में व्यतीत करते हैं। वे क्रिया भी करते हैं और कर्मों का फल भी भोगते हैं, किंतु कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा में शुद्ध ज्ञानचेतना होती है। यद्यपि आशय की अपेक्षा अविरत सम्यग्दृष्टि जीव से ज्ञानचेतना शुरू हो जाती है, किंतु पूर्णज्ञानचेतना याने सर्वथा ज्ञानचेतना परिणमन भी ऐसा बन जाए―ऐसी ज्ञानचेतना या तो भगवान् में स्थित है अथवा सहजभावरूप से आत्मस्वरूप में उपस्थित है। कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा के शुद्ध ज्ञानचेतना होती है। हमें किसकी उपासना करनी चाहिए? किसके लिए हम अपना तन, मन, धन समर्पण कर दें?</p> | ||
<p | <p> <strong>उपास्यतत्त्व</strong>―इस असार संसार में बसते हुए इस मुझ बराक को कौनसा ऐसा आधार है, जिसका आश्रय पाकर यह संसार का प्राणी संसार के संकटों से छुटकारा पा सकता हो? वह तत्त्व निश्चय से तो कारणपरमात्मतत्त्व है और व्यवहार से कार्यपरमात्मतत्त्व है। इन दो तत्त्वों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी हमारे लिए उपादेयभूत नहीं है। कार्यपरमात्मा अर्थात् प्रकट भगवान् अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति, अनंत आनंदकरि भरपूर शुद्ध, अपने आपके सत्त्व के कारण शुद्ध विकासरूप भगवान् आत्मतत्त्व परमात्मा हमारे उपासने के योग्य है।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वयं का परमार्थ प्रयोजन</strong>―हे मुमुक्षुवों ! अपने आपमें ऐसा निर्णय रक्खो कि मेरा वास्ता तो यथार्थस्वरूप से है। न किसी गांव से है, न किसी संप्रदाय से है, न किसी गोष्ठी से है। मैं तो एक आत्मा हूं, चेतन हूं। कुछ हो, इस मेरे का नाता यथार्थता के साथ जुड़ा है अन्य किसी व्यवहार अथवा उपचार से नहीं जुड़ा है। मैं मनुष्य ही नहीं हूं। तो उपचार और व्यवहार में कहां चित्त रगड़ें, कहां धर्म खोजें? मैं शुद्ध चिदानंदस्वरूप कारणपरमात्मतत्त्व हूं। मेरी भ्रम से यह हालत बनी हुई है। भ्रम दूर किया कि बात ज्यों की त्यों है। शुद्ध ज्ञानचेतना भगवान् के हैं, कार्यपरमात्मा के हैं, जो सारे विश्व का ज्ञाता है, फिर भी निज अनंत आनंदरस में लीन है।</p> | ||
<p | <p> <strong>प्रभुभक्तिरूप छत्रछाया</strong>―प्रभु से यह आशा न रक्खो कि यह प्रभु मुझे हाथ पकड़ कर तार ले जाय। प्रभु से शिक्षा मत मांगो कि हे प्रभु तुम मुझे सुख दो, मेरे दु:ख दूर करो। प्रभु तो ऐसा स्वच्छ उत्कृष्ट आदर्श रूप है जिसकी दृष्टि मात्र से संकट टलता है, सुख मिलता है, पाप दूर होते हैं। कोई पुरुष किसी छाया वाले पेड़ के नीचे बैठकर पेड़ से हाथ जोड़कर कहे कि हे पेड़ ! तुम हमें छाया दो तो सुनने वाले लोग उसे बुद्धिमान् कहेंगे कि मूर्ख कहेंगे? मूर्ख कहेंगे। अरे छाया में बैठे हो, फिर भी पेड़ से छाया के लिए हाथ जोड़ रहे हो। अरे पेड़ ने तुझे छाया दी है या तू ही छाया में रहकर सुखी हो रहा है। ऐसे ही भगवान् की भक्ति की छाया में रहकर भक्तजन भगवान् से भीख मांगे कि हे प्रभु ! मुझे सुख दो, मेरा दु:ख दूर करो, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे ज्ञानीसंत पुरुष बुद्धिमान् न कहेंगे। यह बहुत मर्म की बात है। अरे प्रभु के स्मरणरूप छाया में जब तू बैठा है तो अपने आप दु:ख कटेगा, आनंद मिलेगा, ज्ञानप्रकाश होगा।</p> | ||
<p | <p> <strong>कार्यसमयसार व कारणसमयसार की उपादेयता</strong>―भैया ! एक तो यह कार्यपरमात्मा सर्वदा एकरूप होने से उपादेय है, वह शुद्ध ज्ञान चैतन्य स्वरूप है, यह प्रकट शुद्ध ज्ञानचेतना भी सहजफल स्वभावरूप है और निश्चय से अपने अंतर में शाश्वत प्रकाशमान चित्स्वरूप कारणपरमात्मतत्त्व भी केवल ज्ञानचैतन्यरूप है, ज्ञानस्वभावमात्र है, शुद्धज्ञानचेतना सहजफल स्वभावरूप है। इस कारण यह कारणपरमात्मतत्त्व भी उपादेयभूत है। कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा, यों सर्वदा शुद्ध ज्ञानचेतना रूप होने के कारण उपादेयभूत हैं। उनमें से ये कार्य शुद्ध ज्ञानचेतना आदर्श व्यवहार है व कारण शुद्ध ज्ञानचेतना अंतस्तत्त्व है, ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व हूं जिसे भूलकर पर में लगकर मैं भिखारी बनकर जन्ममरण किया करता हूं। यह कारणपरमात्मतत्त्व जयवंत हो।</p> | ||
<p | <p> <strong>उपादेयता का कारण सहज शुद्ध ज्ञान चेतना</strong>―इस प्रकरण में यह शिक्षा दी गयी है कि कार्यसमयसार और कारणसमयसार के ही शुद्धज्ञान चेतना होती है जो कि सहज फलरूप है। इस कारण अपने आपको निज कारणपरमात्मरूप में जो कि सहज शुद्धज्ञान चेतनात्मक है, संसार अवस्था अथवा मुक्त अवस्था में सदा एकस्वरूप रहता है वह तो उपादेय है और इस उपादेय निज कारणपरमात्मा के स्मरण के लिए यह कार्यपरमात्मा, कार्यसमयसार भी उपादेय है।</p> | ||
<p | <p> <strong>कारण नियमसार की विविक्तता व एकरूपता</strong>―जो कारणपरमात्मतत्त्व द्रष्टव्य है उसही के संबंध में यह सब ग्रंथों में वर्णन चल रहा है। यह आत्मा सर्व परपदार्थों से भिन्न हैं और जो इसके पीछे-पीछे चलने वाले कर्म हैं वे भी इस आत्मतत्त्व से भिन्न हैं और इन दोनों के सन्निधान में होने वाले जो रागद्वेषादिक परिणाम हैं वे भी इस आत्मतत्त्व से भिन्न हैं। यह आत्मा तो अपने गुणों से अलंकृत है। यह कारणपरमात्मतत्त्व, कारणनियमसार सर्व जीवों में, सर्व आत्मावों में शाश्वत एक स्वरूप है। चाहे बंध अवस्था हो, चाहे मुक्त अवस्था हो, सर्व अवस्थावों में यह आत्मद्रव्य, परमात्मपदार्थ समस्त कर्मादिक परवस्तुवों से भिन्न है। सारा निर्णय एक अपने आपके अंतर में इस स्वभाव की गुंथी सुलझने पर निर्भर है। बड़े-बड़े ऋषि योगी संतजन जो इसके रुचिया हैं, जानकार हैं, उन सबके द्वारा यह विदित है और ठीक यथार्थ एक रूप में विदित है। जैसे सही सवाल एक ही तरह के निकलते हैं और गलत सवाल भिन्न-भिन्न प्रकार से गलत होते हैं, इसी तरह जितने भी ज्ञानी संतों के अनुभव है उस अनुभव में आया हुआ यह कारणपरमात्मतत्त्व सबको एक ही स्वरूप विदित होता है। इसी संबंध में अब अगली गाथा में श्री कुंदकुंदाचार्य देव कह रहे हैं।</p> | ||
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंत्रग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।।46।।
आत्मा की अमूर्तता―यह आत्मतत्त्व अरस है, इसमें कितने ही अर्थ भरे हैं। रस नहीं है, रस गुण वाला नहीं है, रसपरिणमन वाला नहीं है, जिसके द्वारा रसा जाए वह नहीं है, जो रसा जाए वह नहीं है और केवल रसज्ञान वाला भी तो नहीं है―कितने ही अर्थ निकलते हैं अरस शब्द से। यह आत्मा अरस है, इसी प्रकार अरूप है, रूपरहित है; अगंध है, गंधरहित है; अव्यक्त है, स्पर्श रहित है; अशब्द है और शब्द से रहित है, इसी कारण यह आत्मा अमूर्त है। इन विषयों का ज्ञान आत्मा के द्वारा इस असत्य अवस्था में हो रहा है। इस कारण जीवों को भ्रम हो जाता है। उस भ्रम को दूर करने के लिए इस लक्षणात्मक छंद में फिर भी निषेध किया गया है कि यह आत्मा पांचों इंद्रियों के विषयों से रहित है। यह तो सब निषेधमुखेन वर्णन चल रहा है।
आत्मा के विध्यात्मकस्वरूप के परिज्ञान की आवश्यकता―देखिए कि यह आत्मा किसी लिंग के द्वारा ग्रहण में नहीं आता। लिंग मायने हैं चिह्न। इसके कोई संस्थान नीयत नहीं है―ऐसा निषेधमुखेन कुछ परिचय कराया गया। आत्मतत्त्व के संबंध में आचार्यदेव बतला रहे हैं कि यह रहित-रहित वाला ही पदार्थ नहीं है, बल्कि विध्यात्मक सद्भावात्मकतत्त्व है। उसका असाधारण लक्षण है चेतनागुण। किसी पुरुष के बारे में निषेधमुखेन वर्णन करते जावो कि यह पंडित नहीं है, सेठ नहीं है, किसी का पिता नहीं है, बाबा नहीं है अमुक नहीं है तो निषेधमुखेन कुछ तो परिचय होता है, किंतु पूर्ण परिचय तब होता है जब विध्यात्मक बात कही जाए। यह यहाँ नहीं है, किंतु यह है।
आत्मा का विध्यात्मक स्वरूप―एक बार बाबा भागीरथजी वर्णी जिन्हें हमारे गुरु भी गुरु मानते थे, बाईजी के यहाँ आये। अब उनसे बाईजी ने पूछा कि बाबाजी ! भोजन में क्या बनाएं? उड़द की दाल बनाएं? बोले कि नहीं। चावल बनाएं? नहीं। दलिया बनाएं? दसों चीजें पूछी, पर उत्तर में ‘‘नहीं’’ ही मिला। अब बाईजी ने प्रेम भरे गुस्से में आकर कहा कि तो क्या धूल बनाएं? किसी तत्त्व को मना करके भी चीज पहिचानी जाती है, मगर पूर्ण परिचय तब तक नहीं होता है, जब तक कि उसमें विध्यात्मक बात न कही जाए। यहाँ पर विध्यात्मक असाधारण और विशेष लक्षण कह रहे हैं। ‘चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपम्।’ चेतन गुण वाला यह आत्मतत्त्व है।
भैया !इस आत्मा का कार्य चेतने का है, किंतु संसारावस्था में यह संसारी जीव किस-किस प्रकार से अपने आपको चेतता है? दिशा बदल गयी। नाव तो ठीक चल रही है, पर कर्णधार जो करिया का डंडा पकड़ रहता है, वह जिस प्रकार अपने करिया को बदल दे उसी दिशा में नाव चलने लगती है। नाव चलाने वाला नाव चलाते जाता है, पर दिशा बदलने वाला कर्णधार होता है। समग्र जीव चेतने का काम किए जा रहे हैं, किंतु उपाधि के सन्निधान में होने वाली विचित्र परिस्थितियां इस ज्ञेयचेतन की दिशा को बदल देती हैं।
कर्मफलचेतना―स्थावर जीव जिसके केवल एक स्पर्शन ही इंद्रिय है, जीभ, नाक, आँख और कान नहीं हैं―ऐसे प्राणी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक जीव हैं। इनके कर्मफलचेतना होती है। ये अपने शरीर के द्वारा कोई कर्म नहीं कर पाते, कोई चेष्टा नहीं कर सकते। ये पतले-पतले गोलमटोल केचुवे भी लड़खड़ाते घिसटते हुए चल फिर रहे हैं ऐसी भी क्रियाएं इस एकेंद्रिय जीव में नहीं होती है। पृथ्वीकायिक जीव तो कोई चेष्टा करता हुआ नजर नहीं आता, जलकायिक जीव भी कोई चेष्टा नहीं करता। यदि जमीन ढलाव पर है तो वह नीचे खिसक जायेगा, पर वह जल की चेष्टा नहीं है। यों तो अचेतन गोलियां भी जमीन नीची पाकर लुढ़क जाती है। अग्निकाय भी कोई चेष्टा नहीं करती, वह तो उसका शरीर है। वायुकायिक भी चेष्टा नहीं करते हैं, क्योंकि चेष्टा तो वहाँ मानी जाए कि पूरे शरीर में से कोई एक आधा अंग चले तो उसको चेष्टा कहते हैं। समूचा ही जीव बह जाए तो उसे शरीर की चेष्टा नहीं कहते हैं। जैसे कि जोंक और केचुवा कुछ मुड़ लेते हैं तो वह चेष्टा है। वनस्पतिकाय में भी चेष्टा नहीं है, इस कारण स्थावर जीव में कर्मचेतना नहीं मानी गई है। सूक्ष्मदृष्टि से देखा जावे तो आत्मा के द्वारा जो भाव किए जाएं, उसका नाम कर्म है और ये कर्म स्थावरों में भी पाये जाते हैं, लेकिन यहाँ सारी चेष्टा हो सके, इस प्रकार के जीव में होने वाली क्रियाओं का प्रयोजन है। स्थावर जीव अपने इस चैतन्यगुण का उपयोग कर्मफल की चेतना में ही गवां देता है।
कर्मचेतना―त्रस जीव दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचेंद्रिय जी कर्मफलसहित कर्मचेतना में व्यतीत करते हैं। वे क्रिया भी करते हैं और कर्मों का फल भी भोगते हैं, किंतु कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा में शुद्ध ज्ञानचेतना होती है। यद्यपि आशय की अपेक्षा अविरत सम्यग्दृष्टि जीव से ज्ञानचेतना शुरू हो जाती है, किंतु पूर्णज्ञानचेतना याने सर्वथा ज्ञानचेतना परिणमन भी ऐसा बन जाए―ऐसी ज्ञानचेतना या तो भगवान् में स्थित है अथवा सहजभावरूप से आत्मस्वरूप में उपस्थित है। कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा के शुद्ध ज्ञानचेतना होती है। हमें किसकी उपासना करनी चाहिए? किसके लिए हम अपना तन, मन, धन समर्पण कर दें?
उपास्यतत्त्व―इस असार संसार में बसते हुए इस मुझ बराक को कौनसा ऐसा आधार है, जिसका आश्रय पाकर यह संसार का प्राणी संसार के संकटों से छुटकारा पा सकता हो? वह तत्त्व निश्चय से तो कारणपरमात्मतत्त्व है और व्यवहार से कार्यपरमात्मतत्त्व है। इन दो तत्त्वों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी हमारे लिए उपादेयभूत नहीं है। कार्यपरमात्मा अर्थात् प्रकट भगवान् अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत शक्ति, अनंत आनंदकरि भरपूर शुद्ध, अपने आपके सत्त्व के कारण शुद्ध विकासरूप भगवान् आत्मतत्त्व परमात्मा हमारे उपासने के योग्य है।
स्वयं का परमार्थ प्रयोजन―हे मुमुक्षुवों ! अपने आपमें ऐसा निर्णय रक्खो कि मेरा वास्ता तो यथार्थस्वरूप से है। न किसी गांव से है, न किसी संप्रदाय से है, न किसी गोष्ठी से है। मैं तो एक आत्मा हूं, चेतन हूं। कुछ हो, इस मेरे का नाता यथार्थता के साथ जुड़ा है अन्य किसी व्यवहार अथवा उपचार से नहीं जुड़ा है। मैं मनुष्य ही नहीं हूं। तो उपचार और व्यवहार में कहां चित्त रगड़ें, कहां धर्म खोजें? मैं शुद्ध चिदानंदस्वरूप कारणपरमात्मतत्त्व हूं। मेरी भ्रम से यह हालत बनी हुई है। भ्रम दूर किया कि बात ज्यों की त्यों है। शुद्ध ज्ञानचेतना भगवान् के हैं, कार्यपरमात्मा के हैं, जो सारे विश्व का ज्ञाता है, फिर भी निज अनंत आनंदरस में लीन है।
प्रभुभक्तिरूप छत्रछाया―प्रभु से यह आशा न रक्खो कि यह प्रभु मुझे हाथ पकड़ कर तार ले जाय। प्रभु से शिक्षा मत मांगो कि हे प्रभु तुम मुझे सुख दो, मेरे दु:ख दूर करो। प्रभु तो ऐसा स्वच्छ उत्कृष्ट आदर्श रूप है जिसकी दृष्टि मात्र से संकट टलता है, सुख मिलता है, पाप दूर होते हैं। कोई पुरुष किसी छाया वाले पेड़ के नीचे बैठकर पेड़ से हाथ जोड़कर कहे कि हे पेड़ ! तुम हमें छाया दो तो सुनने वाले लोग उसे बुद्धिमान् कहेंगे कि मूर्ख कहेंगे? मूर्ख कहेंगे। अरे छाया में बैठे हो, फिर भी पेड़ से छाया के लिए हाथ जोड़ रहे हो। अरे पेड़ ने तुझे छाया दी है या तू ही छाया में रहकर सुखी हो रहा है। ऐसे ही भगवान् की भक्ति की छाया में रहकर भक्तजन भगवान् से भीख मांगे कि हे प्रभु ! मुझे सुख दो, मेरा दु:ख दूर करो, ऐसा यदि कोई कहे तो उसे ज्ञानीसंत पुरुष बुद्धिमान् न कहेंगे। यह बहुत मर्म की बात है। अरे प्रभु के स्मरणरूप छाया में जब तू बैठा है तो अपने आप दु:ख कटेगा, आनंद मिलेगा, ज्ञानप्रकाश होगा।
कार्यसमयसार व कारणसमयसार की उपादेयता―भैया ! एक तो यह कार्यपरमात्मा सर्वदा एकरूप होने से उपादेय है, वह शुद्ध ज्ञान चैतन्य स्वरूप है, यह प्रकट शुद्ध ज्ञानचेतना भी सहजफल स्वभावरूप है और निश्चय से अपने अंतर में शाश्वत प्रकाशमान चित्स्वरूप कारणपरमात्मतत्त्व भी केवल ज्ञानचैतन्यरूप है, ज्ञानस्वभावमात्र है, शुद्धज्ञानचेतना सहजफल स्वभावरूप है। इस कारण यह कारणपरमात्मतत्त्व भी उपादेयभूत है। कार्यपरमात्मा और कारणपरमात्मा, यों सर्वदा शुद्ध ज्ञानचेतना रूप होने के कारण उपादेयभूत हैं। उनमें से ये कार्य शुद्ध ज्ञानचेतना आदर्श व्यवहार है व कारण शुद्ध ज्ञानचेतना अंतस्तत्त्व है, ऐसा यह मैं आत्मतत्त्व हूं जिसे भूलकर पर में लगकर मैं भिखारी बनकर जन्ममरण किया करता हूं। यह कारणपरमात्मतत्त्व जयवंत हो।
उपादेयता का कारण सहज शुद्ध ज्ञान चेतना―इस प्रकरण में यह शिक्षा दी गयी है कि कार्यसमयसार और कारणसमयसार के ही शुद्धज्ञान चेतना होती है जो कि सहज फलरूप है। इस कारण अपने आपको निज कारणपरमात्मरूप में जो कि सहज शुद्धज्ञान चेतनात्मक है, संसार अवस्था अथवा मुक्त अवस्था में सदा एकस्वरूप रहता है वह तो उपादेय है और इस उपादेय निज कारणपरमात्मा के स्मरण के लिए यह कार्यपरमात्मा, कार्यसमयसार भी उपादेय है।
कारण नियमसार की विविक्तता व एकरूपता―जो कारणपरमात्मतत्त्व द्रष्टव्य है उसही के संबंध में यह सब ग्रंथों में वर्णन चल रहा है। यह आत्मा सर्व परपदार्थों से भिन्न हैं और जो इसके पीछे-पीछे चलने वाले कर्म हैं वे भी इस आत्मतत्त्व से भिन्न हैं और इन दोनों के सन्निधान में होने वाले जो रागद्वेषादिक परिणाम हैं वे भी इस आत्मतत्त्व से भिन्न हैं। यह आत्मा तो अपने गुणों से अलंकृत है। यह कारणपरमात्मतत्त्व, कारणनियमसार सर्व जीवों में, सर्व आत्मावों में शाश्वत एक स्वरूप है। चाहे बंध अवस्था हो, चाहे मुक्त अवस्था हो, सर्व अवस्थावों में यह आत्मद्रव्य, परमात्मपदार्थ समस्त कर्मादिक परवस्तुवों से भिन्न है। सारा निर्णय एक अपने आपके अंतर में इस स्वभाव की गुंथी सुलझने पर निर्भर है। बड़े-बड़े ऋषि योगी संतजन जो इसके रुचिया हैं, जानकार हैं, उन सबके द्वारा यह विदित है और ठीक यथार्थ एक रूप में विदित है। जैसे सही सवाल एक ही तरह के निकलते हैं और गलत सवाल भिन्न-भिन्न प्रकार से गलत होते हैं, इसी तरह जितने भी ज्ञानी संतों के अनुभव है उस अनुभव में आया हुआ यह कारणपरमात्मतत्त्व सबको एक ही स्वरूप विदित होता है। इसी संबंध में अब अगली गाथा में श्री कुंदकुंदाचार्य देव कह रहे हैं।