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| == सिद्धांतकोष से == | | <p>द्रविड़संघ नन्दिगण उरुङ्गलान्वय गुणकीर्ति सिद्धान्त भट्टारक तथा देवकीर्ति पण्डित के गुरु, वादिराज के दादागुरु, श्रीपाल के सधर्मा, गोणसेन पण्डित के शिष्य, श्रवणबेलगोलवासी, न्याय के उद्भट विद्वान्। कृतियाँ-अकलंक कृत ग्रन्थों के भाष्य सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, प्रमाणसंग्रहालंकार। समय-ई. 975-1025 </p> |
| द्रविड़संघ नन्दिगण उरुङ्गलान्वय गुणकीर्ति सिद्धान्त भट्टारक तथा देवकीर्ति पण्डित के गुरु, वादिराज के दादागुरु, श्रीपाल के सधर्मा, गोणसेन पण्डित के शिष्य, श्रवणबेलगोलवासी, न्याय के उद्भट विद्वान्। कृतियाँ-अकलंक कृत ग्रन्थों के भाष्य सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, प्रमाणसंग्रहालंकार। समय-ई. ९७५-१०२५ <br>
| | <p>( तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा , पृष्ठ 3/40-41)। (देखें [[ इतिहास#6 | इतिहास - 6]])।</p> |
| ([[तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा]], पृष्ठ संख्या ३/४०-४१)। (<b>देखे </b>[[इतिहास]] ६)।<br> | |
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| [[Category:सिद्धिविनिश्चय]]
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| [[Category:तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा]]
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| == पुराणकोष से ==
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| <p id="1"> (1) भविष्यत्कालीन चौबीसवें तीर्थंकर । महापुराण 76.481, हरिवंशपुराण 60.562</p>
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| <p id="2">(2) तीर्थंकर ऋषभनाथ का पुत्र, भरतेश का ओजस्वी और चरम शरीरी अनुज । महापुराण 16. 3-4 भरत की अधीनता स्वीकार करने के लिए कहे जाने पर इसने अधीनता स्वीकार न करके ऋषभदेव के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली थी तथा मोक्ष प्राप्त किया था । महापुराण 24.181 आठवें पूर्वभव में यह हस्तिनापुर नगर में सागरदत्त वैश्य के उग्रसेन नामक पुत्र, सातवें पूर्वभव में व्याप्त, महापुराणश् 8.222-223, 226, छठे पूर्वभव में उत्तर कुरुक्षेत्र में आर्य, पाँचवें पूर्वभव में ऐशान स्वर्ग में चित्रांगद देव, महापुराण 9.90, 187-189, चौथे पूर्वभव में राजा विभीषण और उनकी रानी प्रियदत्ता के वरदत्त नामक पुत्र, तीसरे पूर्वभव में अच्युत स्वर्ग में देव, महापुराण 10. 149, 172, दूसरे पूर्वभव में विजय नामक राजपुत्र और पहले पूर्वभव में स्वर्ग में अहमिन्द्र हुआ था । महापुराण 11.10, 160, इसका अपरनाम महासेन था । महापुराण 47.370-31</p>
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| <p id="3">(3) दत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमितसागर तथा उसकी रानी अनुमति का पुत्र । पूर्वभव में यह स्वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव था । राज्य पाकर नृत्य देखने में लीन होने से यह नारद की विनय करना भूल गया था जिसके फलस्वरूप नारद ने दमितारि को इससे युद्ध करने भेजा था । दमितारि के आने का समाचार पाकर यह नर्तकी के वेष में दमितारि के निकट गया था और उसकी पुत्री कनकश्री का हरण कर इसने दमितारि को उसके ही चक्र से मारा था । अर्धचक्री होकर यह मरा और रत्नप्रभा नरक में पैदा हुआ । वहाँ से निकलकर यह मेघवल्लभ नगर में मेघनाद नाम का राजपुत्र हुआ । महापुराण 62-412-414,430, 31.443, 461-473, 483-484, 512, 63.25, पांडवपुराण 4.248, 5.2-6 </p>
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| <p id="4">(4) जयकुमार तथा उसकी महादेवी शिर्वकरा का पुत्र । महापुराण 47.276-278, हरिवंशपुराण 12.48, पांडवपुराण 3. 274-275</p>
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| <p id="5">(5) विनीता नगरी का राजा । यह सूर्यवंशशिखामणि, चक्रवर्ती सनत्कुमार का पिता था । महापुराण 61.104-105,70.147</p>
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| <p id="6">(6) एक महामुनि । तीसरे पूर्वभव में तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के जीव चम्पापुर के राजा हरिवर्मा को इन्होंने तत्त्वगोपदेश दिया था । इसी प्रकार चक्रवर्ती हरिषेण ने भी इनसे मोक्ष का स्वरूप सुनकर संयम धारण किया था । महापुराण 67.3-11, 66-68 विजयार्ध पर्वत की अलकापुरी नगरी के राजा पुरबल और उसकी रानी ज्योतिर्माला का पुत्र हरिबल इनसे द्रव्य-संयम धारण करके सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था । महापुराण 71.311-312 श्रीधर्म इनके सहगामी चारण ऋद्धिधारी मुनि थे । शतबली अपने भाई हरिवाहन द्वारा निर्वासित किये जाने पर इनसे ही दीक्षित हुआ तथा मरकर ऐशान स्वर्ग में देव हुआ था । हरिवंशपुराण 60.18-21, दशानन ने भी इन्हीं से बलपूर्वक किसी भी स्त्री को ग्रहण न करने का नियम लिया था । पद्मपुराण 39. 217-218 जब ये छप्पन हजार आकाशगामी मुनियों के साथ लंका के कुसुमायुध नाम के उद्यान में आये तब इनको केवलज्ञान इसी उद्यान में हुआ था । पद्मपुराण 79.58-61 इनका दूसरा नाम अनन्तबल था । पद्मपुराण 14.370-371</p>
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| <p id="7">(7) इस नाम का एक विद्वान् । यह जिनेन्द्र के अभिषेक से स्वर्ग में सम्मानित हुआ था । पद्मपुराण 32.169</p>
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| <p id="8">(8) मथुरा नगर का राजा । इसकी रानी मेरुमालिनी से मेरु नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ था । महापुराण 59.302</p>
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| <p id="9">(9) सिद्ध (परमेष्ठी) के आठ गुणों में एक गुण― वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न अप्रतिहत सामर्थ्य । इस गुण की प्राप्ति के लिए ‘‘अनन्तवीर्याय नमः’’ इस पीठिका-मंत्र का जप किया जाता है । महापुराण 20.222-223, 40.14, 42.44, 99 [[ सिद्ध | देखें सिद्ध ]]</p>
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| [[Category: पुराण-कोष]]
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| [[Category: अ]] | | [[Category: अ]] |
द्रविड़संघ नन्दिगण उरुङ्गलान्वय गुणकीर्ति सिद्धान्त भट्टारक तथा देवकीर्ति पण्डित के गुरु, वादिराज के दादागुरु, श्रीपाल के सधर्मा, गोणसेन पण्डित के शिष्य, श्रवणबेलगोलवासी, न्याय के उद्भट विद्वान्। कृतियाँ-अकलंक कृत ग्रन्थों के भाष्य सिद्धिविनिश्चयवृत्ति, प्रमाणसंग्रहालंकार। समय-ई. 975-1025
( तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा , पृष्ठ 3/40-41)। (देखें इतिहास - 6)।
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