जातसंस्कार: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) पुत्र की जन्मकालीन क्रिया । तीर्थंकरों में सभी का यह संस्कार किया गया है । | <p id="1"> (1) पुत्र की जन्मकालीन क्रिया । तीर्थंकरों में सभी का यह संस्कार किया गया है । दिक्कुमारियों में प्रमुख रुचका, रुचकीज्ज्वला, रुचकाभा और रुचकप्रभा तथा विद्युत्कुमारियों में प्रमुख विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये आठ देवियाँ इस कर्म में निपुण होती है तथा जिनेन्द्र का यह संस्कार ये ही क्रिया करती है । देव कन्याओं द्वारा यह क्रिया सम्पन्न होने के बाद ही देव जिनेन्द्र भगवान् को ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े वैभव के साथ सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 8. 105-117,16.16,38.30-37 </span></p> | ||
<p id="2">(2) शिशु-जन्म-महोत्सव । इसका अपरनाम | <p id="2">(2) शिशु-जन्म-महोत्सव । इसका अपरनाम प्रियोद्भव क्रिया है । इसमें विभूति के साथ जिनेन्द्र की महापूजा आयोजित की जाती है, दान दिये जाते हैं, नगर-भवन सजाये जाते हैं और गीत नृत्य वादित्र आदि से मनोरंजन किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 14. 85-94, 38.85-86, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 9.105-108 </span>इस संस्कार के समय जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति तथा फल ज्ञात किये जाते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 17.359-362 </span></p> | ||
Revision as of 21:41, 5 July 2020
(1) पुत्र की जन्मकालीन क्रिया । तीर्थंकरों में सभी का यह संस्कार किया गया है । दिक्कुमारियों में प्रमुख रुचका, रुचकीज्ज्वला, रुचकाभा और रुचकप्रभा तथा विद्युत्कुमारियों में प्रमुख विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये आठ देवियाँ इस कर्म में निपुण होती है तथा जिनेन्द्र का यह संस्कार ये ही क्रिया करती है । देव कन्याओं द्वारा यह क्रिया सम्पन्न होने के बाद ही देव जिनेन्द्र भगवान् को ऐरावत हाथी पर बैठाकर बड़े वैभव के साथ सुमेरु पर्वत पर ले जाते हैं । हरिवंशपुराण 8. 105-117,16.16,38.30-37
(2) शिशु-जन्म-महोत्सव । इसका अपरनाम प्रियोद्भव क्रिया है । इसमें विभूति के साथ जिनेन्द्र की महापूजा आयोजित की जाती है, दान दिये जाते हैं, नगर-भवन सजाये जाते हैं और गीत नृत्य वादित्र आदि से मनोरंजन किया जाता है । महापुराण 14. 85-94, 38.85-86, वीरवर्द्धमान चरित्र 9.105-108 इस संस्कार के समय जन्मकालीन ग्रहों की स्थिति तथा फल ज्ञात किये जाते हैं । महापुराण 17.359-362