बन्ध: Difference between revisions
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<p id="1">(1) आत्मा और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह होना । कषाय | <p id="1">(1) आत्मा और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह होना । कषाय सहित (कलुषित) जीव प्रत्येक क्षण बन्ध करता है । सामान्य रूप से इसके चार भेद कहे हैं― प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । यह पांच कारणों से होता है वे हैं― मिथ्यात्व, अव्रताचरण, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें मिथ्यात्व के पांच, अविरति के एक सौ आठ, प्रमाद के पन्द्रह, कषाय के चार और योग के पन्द्रह भेद होते हैं । महापुराण 2.118,47.309-312, हरिवंशपुराण 58.202-203</p> | ||
<p id="2">(2) जीवों की गति का निरोधक तत्त्व-वन्य । यह अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार है । हरिवंशपुराण 58.164</p> | <p id="2">(2) जीवों की गति का निरोधक तत्त्व-वन्य । यह अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार है । हरिवंशपुराण 58.164</p> | ||
Revision as of 08:02, 20 June 2020
(1) आत्मा और कर्मों का एक क्षेत्रावगाह होना । कषाय सहित (कलुषित) जीव प्रत्येक क्षण बन्ध करता है । सामान्य रूप से इसके चार भेद कहे हैं― प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । यह पांच कारणों से होता है वे हैं― मिथ्यात्व, अव्रताचरण, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें मिथ्यात्व के पांच, अविरति के एक सौ आठ, प्रमाद के पन्द्रह, कषाय के चार और योग के पन्द्रह भेद होते हैं । महापुराण 2.118,47.309-312, हरिवंशपुराण 58.202-203
(2) जीवों की गति का निरोधक तत्त्व-वन्य । यह अहिंसाणुव्रत का एक अतिचार है । हरिवंशपुराण 58.164