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| आगे इस संसार में इस जीव ने जन्म-मरण किये हैं, वे कुमरण किये, अब सुमरण का उपदेश करते हैं -<br> | | आगे कहते हैं कि हे आत्मन् ! तूने इस दीर्घसंसार में पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की प्राप्ति बिना भ्रण किया, इसलिए अब रत्नत्रय धारण कर -<br> |
| <p class="PrakritGatha"> | | <p class="PrakritGatha"> |
| अण्णे कुमरणमरणं अणेयजम्मंतराइं मरिओ सि ।<br>
| | रयणत्तये अलद्धे एवं भमिओ सि दीहसंसारे ।<br> |
| भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव! ।।३२।।<br>
| | इय जिणवरेहिंं भणियं तं रयणत्तय समायरह ।।३०।।<br> |
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| <p class="SanskritGatha"> | | <p class="SanskritGatha"> |
| अन्यस्मिन् कुमरणमरणं अनेकजन्मान्तरेषु मृत: असि ।<br>
| | रत्नत्रये अलब्धे एवं भ्रमितोsपि दीर्घसंसारे ।<br> |
| भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीव: ।।३२।।<br>
| | इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ।।३०।।<br> |
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| <p class="HindiGatha"> | | <p class="HindiGatha"> |
| तूने अनन्ते जनम में कुमरण किये हे आत्मन् ।<br>
| | रतन त्रय के बिना होता रहा है यह परिणमन ।<br> |
| अब तो समाधिमरण की भा भावना भवनाशनी ।।३२।।<br>
| | तु रतन त्रय धारण करो बस यही है जिनवर कथन ।।३०।।<br> |
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| <p><b> अर्थ - </b> हे जीव ! इस संसार में अनेक जन्मान्तरों में अन्य कुमरण मरण जैसे होते हैं, वैसे तू मरा । अब तू जिस मरण से जन्म-मरण का नाश हो जाय इसप्रकार सुमरण भा अर्थात् समाधिमरण की भावना कर । </p> | | <p><b> अर्थ - </b> हे जीव ! तूने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय को नहीं पाया, इसलिए इस दीर्घकाल से-अनादि संसार में पहिले कहे अनुसार भ्रण किया इसप्रकार जानकर अब तू उस रत्नत्रय का आचरण कर, इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने कहा है । </p> |
| <p><b> भावार्थ -</b> मरण संक्षेप से अन्य शास्त्रों में सत्तरह प्रकार के कहे हैं । वे इसप्रकार हैं -<br> | | <p><b> भावार्थ -</b> निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्व के उदय से संसार में भ्रण करता है, इसलिए रत्नत्रय के आचरण का उपदेश है ।।३०।।<br> |
| १. आवीचिकामरण, २. तद्भवमरण, ३. अवधिमरण, ४. आद्यान्तमरण, ५. बालमरण, ६. पंडितमरण, ७. आसन्नमरण, ८. बालपंडितमरण, ९. सशल्यमरण, १०. पलायमरण, ११. वशार्त्त रण, १२. विप्राणसमरण, १३. गृध्रपृष्ठमरण, १४. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५. इंगिनीमरण, १६. प्रायोपगमनमरण और १७. केवलिमरण इसप्रकार सत्तरह हैं । इनका स्वरूप इसप्रकार है - आयुकर्म का उदय समय-समय में घटता है, वह समय-समय मरण है, वह आवीचिकामरण है ।।१।।<br>
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| वर्तमान पर्याय का अभाव तद्भवमरण है ।।२।।<br>
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| जैसा मरण वर्तान पर्याय का हो, वैसा ही अगली पर्याय का होगा वह अवधिमरण है । इसके दो भेद हैं - जैसा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग वर्तान का उदय आया, वैसा ही अगली का उदय आवे वह (१) सर्वावधिमरण है और एकदेश बंध-उदय हो तो (२) देशावधि मरण कहलाता है ।।३।।<br>
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| वर्तमान पर्याय का स्थिति आदि जैसा उदय था, वैसा अगली का सर्वतो वा देशतो बंधउदय न हो वह आद्यन्तमरण है ।।४।।<br>
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| पाँचवाँ बालमरण है, यह पाँच प्रकार का है - १. अव्यक्तबाल, २. व्यवहारबाल, ३. ज्ञानबाल, ४. दर्शनबाल, ५. चारित्रबाल । जो धर्म, अर्थ, काम इन कामों को न जाने, जिसका शरीर इनके आचरण के लिए समर्थ न हो वह `अव्यक्तबाल' है । जो लोक के और शास्त्र के व्यवहार को न जाने तथा बालक अवस्था हो वह `व्यवहारबाल' है । वस्तु के यथार्थ ज्ञानरहित `ज्ञानबाल' है । तत्त्वश्रद्धानरहित मिथ्यादृष्टि `दर्शनबाल' है । चारित्ररहित प्राणी `चारित्रबाल' है । इनका मरना सो बालमरण है । यहाँ प्रधानरूप से दर्शनबाल का ही ग्रहण है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि को अन्य बालपना होते हुए भी दर्शन पंडितता के सद्भाव से पंडित मरण में ही गिनते हैं । दर्शनज्ञान का मरण संक्षेप से दो प्रकार का कहा है - इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त । अग्नि से, धू से, शस्त्र से, विष से, जल से, पर्वत के किनारे पर से गिरने से, अति शीत ऊष्ण की बाधा से, बंधन से, क्षुधा तृषा के रोकने से, जीभ उखाड़ने से और विरुद्ध आहार करने से बाल (अज्ञानी) इच्छापूव र्क मरे सो `इच्छाप्रवृत्त' है तथा जीने का इच्छुक हो और मर जावे सो `अनिच्छाप्रवृत्त' है ।।५।।<br>
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| पंडितमरण चार प्रकार का है - १. व्यवहारपंडित, २. सम्यक्त्वपंडित, ३. ज्ञानपंडित, ४. चारित्रपंडित । लोकशास्त्र के व्यवहार में प्रवीण हो वह `व्यवहारपंडित' है । सम्यक्त्व सहित हो `सम्यक्त्वपंडित' है । सम्यग्ज्ञान सहित हो `ज्ञानपंडित' है । सम्यक्चारित्रसहित हो `चारित्रपंडित' है । यहाँ दर्शन-ज्ञान-चारित्र सहित पंडित का ग्रहण है, क्योंकि व्यवहारपंडित मिथ्यादृष्टि बालमरण में आ गया ।।६।।<br>
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| मोक्षमार्ग में प्रवर्तनेवाला साधु संघ से छूटा उसको `आसन्न' कहते हैं । इसमें पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील, संसक्त भी लेने, इसप्रकार के पंचप्रकार भ्रष्ट साधुओं का मरण `आसन्नमरण' है ।।७।।<br>
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| सम्यग्दृष्टि श्रावक का मरण `बालपंडितमरण' है ।।८।।<br>
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| सशल्यमरण दो प्रकार का है - मिथ्यादर्शन, माया, निदान ये तीन शल्य तो `भावशल्य' हैं और पंच स्थावर तथा त्रस में असैनी ये `द्रव्यशल्य' सहित हैं, इसप्रकार `सशल्यमरण' है ।।९।।<br>
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| जो प्रशस्तक्रिया में आलसी हो, व्रतादिक में शक्ति को छिपावे, ध्यानादिक से दूर भागे इसप्रकार का मरण `पलायमरण' है ।।१०।।<br>
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| वशार्त्तरण चार प्रकार का है - वह आर्तरौद्र ध्यानसहित मरण है, पाँच इन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष सहित मरण `इन्द्रियवशार्त्तरण' है । साता असाता की वेदनासहित मरे `वेदनावशार्त्तरण' है । क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय के वश से मरे `कषायवशार्त्तरण' है । हास्य विनोद कषाय के वश से मरे `नोकषायवशार्त्तरण' है ।।११ ।।<br>
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| जो अपने व्रत क्रिया चारित्र में उपसर्ग आवे वह सहा भी न जावे और भ्रष्ट होने का भय आवे तब अशक्त होकर अन्नपानी का त्यागकर मरे `विप्राणसमरण' है ।।१२।।<br>
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| शस्त्र ग्रहण कर मरण हो `गृधपृष्ठरण' है ।।१३।।<br>
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| अनुक्रम से अन्नपानी का यथाविधि त्याग कर मरे `भक्तप्रत्याख्यानमरण' है ।।१४।।<br>
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| संन्यास करे और अन्य से वैयावृत्त्य करावे `इंगिनीमरण' है ।।१५।।<br>
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| प्रायोपगमन संन्यास करे और किसी से वैयावृत्त्य न करावे तथा अपने आप भी न करे, प्रतिमायोग रहे `प्रायोपगमनमरण' है ।।१६।।<br>
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| केवली मुक्तिप्राप्त हो `केवलीमरण' है ।।१७।।<br>
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| इसप्रकार सत्तरह प्रकार कहे । इनका संक्षेप इसप्रकार है - मरण पाँच प्रकार के हैं - १. पंडित-पंडित, २. पंडित, ३. बालपंडित, ४. बाल, ५. बालबाल । जो दर्शन ज्ञान चारित्र के अतिशय सहित हो वह पंडितपंडित है और इनकी प्रकर्षता जिसके न हो पंडित है, सम्यग्दृष्टि श्रावक वह बालपंडित और पहिले चार प्रकार के पंडित कहे उनमें से एक भी भाव जिसके नहीं हो वह बाल है तथा जो सबसे न्यून हो वह बालबाल है । इनमें पंडितपंडितमरण, पंडितमरण और बालपंडितमरण - ये तीन प्रशस्त सु रण कहे हैं, अन्यरीति होवे कुमरण है । इसप्रकार जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र एकदेश सहित मरे वह `सुमरण' है, इसप्रकार सुमरण करने का उपदेश है ।।३२।।<br>
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| [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] |
| [[Category:अष्टपाहुड]] | | [[Category:अष्टपाहुड]] |
| [[Category:भावपाहुड]] | | [[Category:भावपाहुड]] |
आगे कहते हैं कि हे आत्मन् ! तूने इस दीर्घसंसार में पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की प्राप्ति बिना भ्रण किया, इसलिए अब रत्नत्रय धारण कर -
रयणत्तये अलद्धे एवं भमिओ सि दीहसंसारे ।
इय जिणवरेहिंं भणियं तं रयणत्तय समायरह ।।३०।।
रत्नत्रये अलब्धे एवं भ्रमितोsपि दीर्घसंसारे ।
इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर ।।३०।।
रतन त्रय के बिना होता रहा है यह परिणमन ।
तु रतन त्रय धारण करो बस यही है जिनवर कथन ।।३०।।
अर्थ - हे जीव ! तूने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय को नहीं पाया, इसलिए इस दीर्घकाल से-अनादि संसार में पहिले कहे अनुसार भ्रण किया इसप्रकार जानकर अब तू उस रत्नत्रय का आचरण कर, इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने कहा है ।
भावार्थ - निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्व के उदय से संसार में भ्रण करता है, इसलिए रत्नत्रय के आचरण का उपदेश है ।।३०।।