भावपाहुड गाथा 52: Difference between revisions
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केवलिजिणपण्णत्तं एयादसअंग सयलसुयणाणं ।<br> | |||
पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ।।५२।।<br> | |||
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पर भावलिंग बिना अरे संसारसागर न तिरे ।।५२।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> अभव्यसेन नाम के द्रव्यलिंगी मुनि ने केवली भगवान से उपदिष्ट ग्यारह अंग पढ़े और ग्यारह अंग को `पूर्ण श्रुतज्ञान' भी कहते हैं, क्योंकि इतने पढ़े हुए को अर्थ अपेक्षा `पूर्ण श्रुतज्ञान' भी हो जाता है । अभव्यसेन इतना पढ़ा तो भी भावश्रमणपने को प्राप्त न हुआ । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जानेगा बाह्यक्रिया मात्र से तो सिद्धि नहीं है और शास्त्र के पढ़ने से सिद्धि है तो इसप्रकार जानना भी सत्य नहीं है, क्योंकि शास्त्र पढ़ने मात्र से भी सिद्धि नहीं है, अभव्यसेन द्रव्यमुनि भी हुआ और ग्यारह अंग भी पढ़े तो भी जिनवचन की प्रतीति न हुई, इसलिए भावलिंग नहीं पाया । अभव्यसेन की कथा पुराणों में प्रसिद्ध है, वहाँ से जानिये ।।५२।।<br> | ||
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Latest revision as of 10:33, 14 December 2008
आगे शास्त्र भी पढ़े और सम्यग्दर्शनादिरूप भाव विशुद्ध न हो तो सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता, उसका उदाहरण अभव्यसेन का कहते हैं -
केवलिजिणपण्णत्तं एयादसअंग सयलसुयणाणं ।
पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो ।।५२।।
केवलिजिनप्रज्ञप्तं एकादशांगं सकलश्रुतज्ञानम् ।
पठित: अभव्यसेन: न भावश्रमणत्वं प्राप्त: ।।५२।।
अभविसेन ने केवलि प्ररूपित अंग ग्यारह भी पढ़े ।
पर भावलिंग बिना अरे संसारसागर न तिरे ।।५२।।
अर्थ - अभव्यसेन नाम के द्रव्यलिंगी मुनि ने केवली भगवान से उपदिष्ट ग्यारह अंग पढ़े और ग्यारह अंग को `पूर्ण श्रुतज्ञान' भी कहते हैं, क्योंकि इतने पढ़े हुए को अर्थ अपेक्षा `पूर्ण श्रुतज्ञान' भी हो जाता है । अभव्यसेन इतना पढ़ा तो भी भावश्रमणपने को प्राप्त न हुआ ।
भावार्थ - यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जानेगा बाह्यक्रिया मात्र से तो सिद्धि नहीं है और शास्त्र के पढ़ने से सिद्धि है तो इसप्रकार जानना भी सत्य नहीं है, क्योंकि शास्त्र पढ़ने मात्र से भी सिद्धि नहीं है, अभव्यसेन द्रव्यमुनि भी हुआ और ग्यारह अंग भी पढ़े तो भी जिनवचन की प्रतीति न हुई, इसलिए भावलिंग नहीं पाया । अभव्यसेन की कथा पुराणों में प्रसिद्ध है, वहाँ से जानिये ।।५२।।