भावपाहुड गाथा 85: Difference between revisions
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संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं ।।८५।।<br> | |||
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आत्मा आत्मनि रत: रागादिषु सकलदोषपरित्यक्त: ।<br> | |||
संसारतरणहेतु: धर्मं इति जिनै: निर्दिष्ट् ।।८५।।<br> | |||
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रागादि विरहित आतमा रत आतमा ही धर्म है ।<br> | |||
भव तरण-तारण धर्म यह जिनवर कथन का मर्म है ।।८५।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> यदि आत्मा रागादिक समस्त दोष से रहित होकर आत्मा ही में रत हो जाय तो ऐसे धर्म को जिनेश्वरदेव ने संसारसमुद्र से तिरने का कारण कहा है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> जो पहिले कहा था कि मोह के क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है सो धर्म है, सो ऐसा धर्म ही संसार से पारकर मोक्ष का कारण भगवान् ने कहा है, यह नियम है ।।८५।।<br> | ||
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Latest revision as of 10:59, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि जो आत्मा का स्वभावरूप धर्म है, वह ही मोक्ष का कारण है - ऐसा नियम है -
अप्पा अप्पम्मि रओ रायादिसु सयलदोसपरिचत्तो ।
संसारतरणहेदू धम्मो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठं ।।८५।।
आत्मा आत्मनि रत: रागादिषु सकलदोषपरित्यक्त: ।
संसारतरणहेतु: धर्मं इति जिनै: निर्दिष्ट् ।।८५।।
रागादि विरहित आतमा रत आतमा ही धर्म है ।
भव तरण-तारण धर्म यह जिनवर कथन का मर्म है ।।८५।।
अर्थ - यदि आत्मा रागादिक समस्त दोष से रहित होकर आत्मा ही में रत हो जाय तो ऐसे धर्म को जिनेश्वरदेव ने संसारसमुद्र से तिरने का कारण कहा है ।
भावार्थ - जो पहिले कहा था कि मोह के क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम है सो धर्म है, सो ऐसा धर्म ही संसार से पारकर मोक्ष का कारण भगवान् ने कहा है, यह नियम है ।।८५।।