भावपाहुड गाथा 86: Difference between revisions
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तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थ: पुन: भणित: ।।८६।।<br> | |||
जो नहीं चाहे आतमा अर पुण्य ही करता रहे ।<br> | |||
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वह मुक्ति को पाता नहीं संसार में रुलता रहे ।।८६।।<br> | |||
<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> अथवा जो पुरुष आत्मा का इष्ट नहीं करता है, उसका स्वरूप नहीं जानता है, अंगीकार नहीं करता है और सब प्रकार के समस्त पुण्य को करता है, तो भी सिद्धि (मोक्ष) को नहीं पाता है, किन्तु वह पुरुष संसार ही में भ्रमण करता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> आत्मिक धर्म धारण किये बिना सब प्रकार के पुण्य का आचरण करे तो भी मोक्ष नहीं होता है, संसार ही में रहता है । कदाचित् स्वर्गादिक भोग पावे तो वहाँ भोगों में आसक्त होकर रहे, वहाँ से चय एकेन्द्रियादिक होकर संसार ही में भ्रमण करता है । </p> | ||
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Latest revision as of 11:00, 14 December 2008
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिए कहते हैं कि जो आत्मा के लिए इष्ट नहीं करता है और समस्त पुण्य का आचरण करता है तो भी सिद्धि को नहीं पाता है -
अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाइं करेदि
ि ण र व स े स ा इ ं ।
तह वि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ।।८६।।
अथ पुन: आत्मानं नेच्छति पुण्यानि करोति निरवशेषानि ।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थ: पुन: भणित: ।।८६।।
जो नहीं चाहे आतमा अर पुण्य ही करता रहे ।
वह मुक्ति को पाता नहीं संसार में रुलता रहे ।।८६।।
अर्थ - अथवा जो पुरुष आत्मा का इष्ट नहीं करता है, उसका स्वरूप नहीं जानता है, अंगीकार नहीं करता है और सब प्रकार के समस्त पुण्य को करता है, तो भी सिद्धि (मोक्ष) को नहीं पाता है, किन्तु वह पुरुष संसार ही में भ्रमण करता है ।
भावार्थ - आत्मिक धर्म धारण किये बिना सब प्रकार के पुण्य का आचरण करे तो भी मोक्ष नहीं होता है, संसार ही में रहता है । कदाचित् स्वर्गादिक भोग पावे तो वहाँ भोगों में आसक्त होकर रहे, वहाँ से चय एकेन्द्रियादिक होकर संसार ही में भ्रमण करता है ।