भावपाहुड गाथा 90: Difference between revisions
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आगे | आगे उपदेश करते हैं कि भावशुद्धि के लिए इन्द्रियादिक को वश करो, भावशुद्धि के बिना बाह्यभेष का आडम्बर मत करो -<br> | ||
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भंजसु इन्दियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण ।<br> | |||
मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ।।९०।।<br> | |||
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भंग्धि इन्द्रियसेनां भंग्धि मनोर्कटं प्रयत्नेन ।<br> | |||
मा जनरंजनकरणं बहिर्व्रतवेष ! त्वं कार्षी: ।।९०।।<br> | |||
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इन लोकरंजक बाह्यव्रत से अरे कुछ होगा नहीं ।<br> | |||
इसलिए पूर्ण प्रयत्न से मन इन्द्रियों को वश करो ।।९०।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! तू | <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! तू इन्द्रियों की सेना का भंजन कर, विषयों में मत रम, मनरूप बंदर को प्रयत्नपूर्वक बड़ा उद्यम करके भंजन कर, वशीभूत कर और बाह्यव्रत का भेष लोक को रंजन करनेवाला मत धारण करे । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> बाह्य मुनि का भेष लोक का रंजन करनेवाला है, इसलिए यह उपदेश है, लोकरंजन से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिए इन्द्रिय और मन को वश में करने के लिए बाह्य यत्न करे तो श्रेष्ठ है । इन्द्रिय और मन को वश में किये बिना केवल लोकरंजन मात्र भेष धारण करने से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है ।।९०।।<br> | |||
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Latest revision as of 11:03, 14 December 2008
आगे उपदेश करते हैं कि भावशुद्धि के लिए इन्द्रियादिक को वश करो, भावशुद्धि के बिना बाह्यभेष का आडम्बर मत करो -
भंजसु इन्दियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण ।
मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु ।।९०।।
भंग्धि इन्द्रियसेनां भंग्धि मनोर्कटं प्रयत्नेन ।
मा जनरंजनकरणं बहिर्व्रतवेष ! त्वं कार्षी: ।।९०।।
इन लोकरंजक बाह्यव्रत से अरे कुछ होगा नहीं ।
इसलिए पूर्ण प्रयत्न से मन इन्द्रियों को वश करो ।।९०।।
अर्थ - हे मुने ! तू इन्द्रियों की सेना का भंजन कर, विषयों में मत रम, मनरूप बंदर को प्रयत्नपूर्वक बड़ा उद्यम करके भंजन कर, वशीभूत कर और बाह्यव्रत का भेष लोक को रंजन करनेवाला मत धारण करे ।
भावार्थ - बाह्य मुनि का भेष लोक का रंजन करनेवाला है, इसलिए यह उपदेश है, लोकरंजन से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिए इन्द्रिय और मन को वश में करने के लिए बाह्य यत्न करे तो श्रेष्ठ है । इन्द्रिय और मन को वश में किये बिना केवल लोकरंजन मात्र भेष धारण करने से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है ।।९०।।