भावपाहुड गाथा 98: Difference between revisions
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णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण ।<br> | |||
मेहुणसण्णासत्तो भमिओ सि भवण्णवे भीमे ।।९८।।<br> | |||
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नवविधब्रह्मचर्यं प्रकटय अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य ।<br> | |||
मैथुनसंज्ञासक्त: भ्रमितोsसि भवार्णवे भीमे ।।९८।।<br> | |||
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भयंकर भव-वन विषैं भ्र ता रहा आशक्त हो ।<br> | |||
बस इसलिए नवकोटि से ब्रह्मचर्य को धारण करो ।।९८।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> हे जीव ! तू पहिले दस प्रकार के अब्रह्म हैं उसको छोड़कर नव प्रकार के ब्रह्मचर्य हैं उसको प्रगट कर, भावों में प्रत्यक्ष कर । यह उपदेश इसलिए दिया है कि तू मैथुनसंज्ञा जो कामसेवन की अभिलाषा उसमें आसक्त होकर अशुद्ध भावों से इस भीम (भयानक) संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करता रहा । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> यह प्राणी मैथुन संज्ञा में आसक्त होकर गृहस्थपना आदिक अनेक उपायों से स्त्रीसेवनादिक अशुद्धभावों से अशुभ कार्यो में प्रवर्तता है, उससे इस भयानक संसारसमुद्र में भ्रमण करता है; इसलिए यह उपदेश है कि दस प्रकार के अब्रह्म को छोड़कर नव प्रकार के ब्रह्मचर्य को अंगीकार करो । दस प्रकार के अब्रह्म ये हैं । १. पहिले तो स्त्री का चिन्तन होना, २. पीछे देखने की चिंता होना, ३. पीछे निश्वास डालना, ४. पीछे ज्वर होना, ५. पीछे दाह होना, ६. पीछे काम की रुचि होना, ७. पीछे मूर्च्छा होना, ८. पीछे उन्माद होना, ९. पीछे जीने का संदेह होना, १०. पीछे मरण होना, ऐसे दस प्रकार का अब्रह्म है । नव प्रकार का ब्रह्मचर्य इसप्रकार है - नव कारणों से ब्रह्मचर्य बिगड़ता है, उनके नाम ये हैं -<br> | ||
१. स्त्री को सेवन करने की अभिलाषा, २. स्त्री के अंग का स्पर्शन, ३. पुष्ट रस का सेवन, ४. स्त्री से संसक्त वस्तु शय्या आदिक का सेवन, ५. स्त्री के मुख, नेत्र आदि को देखना, ६. स्त्री का सत्कार पुरस्कार करना, ७. पहिले किये हुए स्त्रीसेवन को याद करना, ८. आगामी स्त्रीसेवन की अभिलाषा करना, ९. मनोवांछित इष्ट विषयों का सेवन करना - ऐसे नव प्रकार हैं । इनका त्याग करना सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है अथवा मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुोदना से ब्रह्मचर्य का पालन करना ऐसे भी नव प्रकार हैं । ऐसे करना सो भी भाव शुद्ध होने का उपाय है ।।९८।।<br> | |||
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Latest revision as of 11:10, 14 December 2008
आगे भावशुद्धि के लिए अन्य उपाय कहते हैं -
णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं दसविहं पमोत्तूण ।
मेहुणसण्णासत्तो भमिओ सि भवण्णवे भीमे ।।९८।।
नवविधब्रह्मचर्यं प्रकटय अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य ।
मैथुनसंज्ञासक्त: भ्रमितोsसि भवार्णवे भीमे ।।९८।।
भयंकर भव-वन विषैं भ्र ता रहा आशक्त हो ।
बस इसलिए नवकोटि से ब्रह्मचर्य को धारण करो ।।९८।।
अर्थ - हे जीव ! तू पहिले दस प्रकार के अब्रह्म हैं उसको छोड़कर नव प्रकार के ब्रह्मचर्य हैं उसको प्रगट कर, भावों में प्रत्यक्ष कर । यह उपदेश इसलिए दिया है कि तू मैथुनसंज्ञा जो कामसेवन की अभिलाषा उसमें आसक्त होकर अशुद्ध भावों से इस भीम (भयानक) संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करता रहा ।
भावार्थ - यह प्राणी मैथुन संज्ञा में आसक्त होकर गृहस्थपना आदिक अनेक उपायों से स्त्रीसेवनादिक अशुद्धभावों से अशुभ कार्यो में प्रवर्तता है, उससे इस भयानक संसारसमुद्र में भ्रमण करता है; इसलिए यह उपदेश है कि दस प्रकार के अब्रह्म को छोड़कर नव प्रकार के ब्रह्मचर्य को अंगीकार करो । दस प्रकार के अब्रह्म ये हैं । १. पहिले तो स्त्री का चिन्तन होना, २. पीछे देखने की चिंता होना, ३. पीछे निश्वास डालना, ४. पीछे ज्वर होना, ५. पीछे दाह होना, ६. पीछे काम की रुचि होना, ७. पीछे मूर्च्छा होना, ८. पीछे उन्माद होना, ९. पीछे जीने का संदेह होना, १०. पीछे मरण होना, ऐसे दस प्रकार का अब्रह्म है । नव प्रकार का ब्रह्मचर्य इसप्रकार है - नव कारणों से ब्रह्मचर्य बिगड़ता है, उनके नाम ये हैं -
१. स्त्री को सेवन करने की अभिलाषा, २. स्त्री के अंग का स्पर्शन, ३. पुष्ट रस का सेवन, ४. स्त्री से संसक्त वस्तु शय्या आदिक का सेवन, ५. स्त्री के मुख, नेत्र आदि को देखना, ६. स्त्री का सत्कार पुरस्कार करना, ७. पहिले किये हुए स्त्रीसेवन को याद करना, ८. आगामी स्त्रीसेवन की अभिलाषा करना, ९. मनोवांछित इष्ट विषयों का सेवन करना - ऐसे नव प्रकार हैं । इनका त्याग करना सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है अथवा मन-वचन-काय, कृत-कारित-अनुोदना से ब्रह्मचर्य का पालन करना ऐसे भी नव प्रकार हैं । ऐसे करना सो भी भाव शुद्ध होने का उपाय है ।।९८।।