विचित्रचूल: Difference between revisions
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<p> वज्रायुध के सम्यक्त्व का परीक्षक एक देव । ऐशान स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सभा में वज्रायुध को सर्वाधिक | <p> वज्रायुध के सम्यक्त्व का परीक्षक एक देव । ऐशान स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सभा में वज्रायुध को सर्वाधिक सम्यक्त्वी होने से विशेष पुण्यवान् बताया । यह देव इन्द्र के इस कथन से सहमत नहीं हुआ । अत: परीक्षा करने वज्रायुध के पास गया । इसने अपना क्य बदलकर वज्रायुध से पूछा था कि पर्याय और पर्यायी भिन्न है या अभिन्न । वज्रायुध ने मन में विचार किया कि यदि दोनों को भिन्न मानते हैं तो शून्यता की प्राप्ति होती है और अभिन्न मानने पर एकपना । दोनों के मिलने से संकर दोष आता है । दोनों नित्य मानने से कर्मबन्ध व्यवस्था नहीं बनती और दोनों को क्षणिक मानने से आपका मत काल्पनिक ज्ञात होता है अत: समाधान स्वरूप वज्रायुध ने इसे बताया था कि संज्ञा, बुद्धि आदि चिह्नों के भेद से दोनों में भिन्नता है । दोनों में कार्य-कारण भाव है । स्कन्धों में क्षणिकता है परन्तु सन्तान की अपेक्षा किये हुए कर्म का सद्भाव रहता है और सद्भाव रहने से उसका फल भी भोगना सिद्ध होता है । स्याद्वाद पूर्वक कहे गये वज्रायुध के तर्कों के आगे इसका मान भंग हो गया । इसे सम्यक की उपलब्धि हुई । इसने संतुष्ट होकर अपने मनोगत विचार राजा में प्रकट किये तथा यह स्वर्ग लौट गया । <span class="GRef"> महापुराण 63-48-70, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 5.17-29 </span></p> | ||
Revision as of 21:47, 5 July 2020
वज्रायुध के सम्यक्त्व का परीक्षक एक देव । ऐशान स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सभा में वज्रायुध को सर्वाधिक सम्यक्त्वी होने से विशेष पुण्यवान् बताया । यह देव इन्द्र के इस कथन से सहमत नहीं हुआ । अत: परीक्षा करने वज्रायुध के पास गया । इसने अपना क्य बदलकर वज्रायुध से पूछा था कि पर्याय और पर्यायी भिन्न है या अभिन्न । वज्रायुध ने मन में विचार किया कि यदि दोनों को भिन्न मानते हैं तो शून्यता की प्राप्ति होती है और अभिन्न मानने पर एकपना । दोनों के मिलने से संकर दोष आता है । दोनों नित्य मानने से कर्मबन्ध व्यवस्था नहीं बनती और दोनों को क्षणिक मानने से आपका मत काल्पनिक ज्ञात होता है अत: समाधान स्वरूप वज्रायुध ने इसे बताया था कि संज्ञा, बुद्धि आदि चिह्नों के भेद से दोनों में भिन्नता है । दोनों में कार्य-कारण भाव है । स्कन्धों में क्षणिकता है परन्तु सन्तान की अपेक्षा किये हुए कर्म का सद्भाव रहता है और सद्भाव रहने से उसका फल भी भोगना सिद्ध होता है । स्याद्वाद पूर्वक कहे गये वज्रायुध के तर्कों के आगे इसका मान भंग हो गया । इसे सम्यक की उपलब्धि हुई । इसने संतुष्ट होकर अपने मनोगत विचार राजा में प्रकट किये तथा यह स्वर्ग लौट गया । महापुराण 63-48-70, पांडवपुराण 5.17-29