भावपाहुड गाथा 105: Difference between revisions
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णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि ।<br> | |||
तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ।।१०५।।<br> | |||
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निजशक्त्या महायश: ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।<br> | |||
त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ।।१०५।।<br> | |||
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निजशक्ति के अनुसार प्रतिदिन भक्तिपूर्वक चाव से ।<br> | |||
हे महायश ! तु करो वैयावृत्ति दशविध भाव से ।।१०५।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> हे महायश ! हे मुने ! जिनभक्ति में तत्पर होकर भक्ति के रागपूर्वक उस दस भेदरूप वैयावृत्त्य को सदाकाल तू अपनी शक्ति के अनुसार कर । `वैयावृत्त्य' के दूसरे दु:ख (कष्ट) आने पर उसकी सेवा चाकरी करने को कहते हैं । इसके दस भेद हैं - १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ, ये दस भेद मुनि के हैं । इनका वैयावृत्त्य करते हैं, इसलिए दस भेद कहे हैं ।।१०५।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:15, 14 December 2008
आगे भक्तिरूप वैयावृत्त्य का उपदेश करते हैं -
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि ।
तं कुण जिणभत्तिपरं विज्जावच्चं दसवियप्पं ।।१०५।।
निजशक्त्या महायश: ! भक्तिरागेण नित्यकाले ।
त्वं कुरु जिनभक्तिपरं वैयावृत्यं दशविकल्पम् ।।१०५।।
निजशक्ति के अनुसार प्रतिदिन भक्तिपूर्वक चाव से ।
हे महायश ! तु करो वैयावृत्ति दशविध भाव से ।।१०५।।
अर्थ - हे महायश ! हे मुने ! जिनभक्ति में तत्पर होकर भक्ति के रागपूर्वक उस दस भेदरूप वैयावृत्त्य को सदाकाल तू अपनी शक्ति के अनुसार कर । `वैयावृत्त्य' के दूसरे दु:ख (कष्ट) आने पर उसकी सेवा चाकरी करने को कहते हैं । इसके दस भेद हैं - १. आचार्य, २. उपाध्याय, ३. तपस्वी, ४. शैक्ष्य, ५. ग्लान, ६. गण, ७. कुल, ८. संघ, ९. साधु, १०. मनोज्ञ, ये दस भेद मुनि के हैं । इनका वैयावृत्त्य करते हैं, इसलिए दस भेद कहे हैं ।।१०५।।