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| आगे तत्त्व की भावना करने का उपदेश करते हैं -<br> | | आगे कहते हैं कि भाव बिगड़ने के कारण चार संज्ञा हैं, उनसे संसार भ्रमण होता है, यह दिखाते हैं -<br> |
| <p class="PrakritGatha"> | | <p class="PrakritGatha"> |
| भावहि पढं तच्चं बिदियं तदियं चउत्थ पंचमयं ।<br>
| | आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओ सि तुं ।<br> |
| तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं ।।११४।।<br>
| | भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ।।११२।।<br> |
| </p> | | </p> |
| <p class="SanskritGatha"> | | <p class="SanskritGatha"> |
| भावय प्रथमं तत्त्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थं पंचमकम् ।<br>
| | आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभि: मोहित: असि त्वम् ।<br> |
| त्रिकरणशुद्ध: आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम् ।।११४।।<br>
| | भ्रमित: संसारवने अनादिकालं अनात्मवश: ।।११२।।<br> |
| </p> | | </p> |
| <p class="HindiGatha"> | | <p class="HindiGatha"> |
| प्रथम द्वितीय तृतीय एवं चतुर्थ पंचम तत्त्व की ।<br>
| | आहार भय मैथुन परीग्रह चार संज्ञा धारकर ।<br> |
| आद्यन्तरहित त्रिवर्ग हर निज आत्मा की भावना ।।११४।।<br>
| | भ्रा भववन में अनादिकाल से हो अन्य वश ।।११२।।<br> |
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| <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! तू प्रथम तो जीवतत्त्व का चिन्तन कर, द्वितीय अजीवतत्त्व का चिन्तन कर, तृतीय आस्रव तत्त्व का चिंतन कर, चतुर्थ बन्धतत्त्व का चिन्तन कर, पंचम संवरतत्त्व का चिन्तन कर और त्रिकरण अर्थात् मन वचन काय, कृत कारित अनुमोदना से शुद्ध होकर आत्मस्वरूप का चिन्तन कर जो आत्मा अनादिनिधन है और त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ तथा काम इनको हरनेवाला है । </p> | | <p><b> अर्थ - </b> हे मुने ! तूने आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञाओं से मोहित होकर अनादिकाल से पराधीन होकर संसाररूप वन में भ्रमण किया । </p> |
| <p><b> भावार्थ -</b> प्रथम `जीवतत्त्व' की भावना तो `सामान्य जीव' दर्शन-ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है, उसकी भावना करना । पीछे ऐसा मैं हूँ - इसप्रकार आत्मतत्त्व की भावना करना । दूसरा `अजीव-तत्त्व' सो सामान्य अचेतन जड़ है, यह पाँच भेदरूप पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इनका विचार करना । पीछे भावना करना कि ये हैं; वह मैं नहीं हूँ । तीसरा `आस्रवतत्त्व' है वह जीव-पुद्गल के संयोग जनित भाव हैं, इनमें अनादि कर्मसम्बन्ध से जीव के भाव (भाव आस्रव) तो राग-द्वेष-मोह हैं और अजीव पुद्गल के भावकर्म के उदयरूप मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग द्रव्यास्रव हैं । इनकी भावना करना कि ये (असद्भूत व्यवहारनय अपेक्षा) मुझे होते हैं (अशुद्ध निश्चयनय से) राग-द्वेष-मोह भाव मेरे हैं, इनसे कर्मो का बंध होता है, उससे संसार होता है, इसलिए इनका कर्ता न होना (स्व में अपने ज्ञाता रहना ।) चौथा `बंधतत्त्व' है वह मैं रागद्वेषमोहरूप परिणमन करता हूँ, वह तो मेरी चेतना का विभाव है, इससे जो कर्म बंधते हैं, वे कर्म पुद्गल हैं, कर्म पुद्गल ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार होकर बंधता है, वे स्वभाव-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चार प्रकार होकर बँधते हैं, वे मेरे विभाव तथा पुद्गल कर्म सब हेय हैं, संसार के कारण हैं, मुझे राग-द्वेष-मोहरूप नहीं होना है, इसप्रकार भावना करना । पाँचवाँ `संवरतत्त्व' है वह राग-द्वेष-मोहरूप जीव के विभाव हैं, उनका न होना और दर्शनज्ञानरू प चेतनाभाव स्थिर होना, यह `संवर' है, वह अपना भाव है और इसी से पुद्गलकर्मजनित भ्रमण मिटता है । इसप्रकार इन पाँच तत्त्वों की भावना करने में आत्मतत्त्व की भावना प्रधान है, उससे कर्म की निर्जरा होकर मोक्ष होता है । आत्मा का भाव अनुक्रम से शुद्ध होना यह तो `निर्जरा तत्त्व' हुआ और कर्मो का अभाव होना यह `मोक्षतत्त्व' हुआ । इसप्रकार सात तत्त्वों की भावना करना । इसलिए आत्मतत्त्व का विशेषण किया कि आत्मतत्त्व कैसा है - धर्म, अर्थ, काम - इस त्रिवर्ग का अभाव करता है । इसकी भावना से त्रिवर्ग से भिन्न चौथा पुरुषार्थ `मोक्ष' है, वह होता है । यह आत्मा ज्ञान-दर्शनमयी चेतनास्वरूप अनादिनिधन है, इसका आदि भी नहीं और निधन (नाश) भी नहीं है । `भावना' नाम बारबार अभ्यास करना; चिन्तन करने का है वह मन-वचनक ाय से आप करना तथा दूसरे को कराना और करनेवाले को भला जानना - ऐसे त्रिकरण शुद्ध करके भावना करना । माया-मिथ्या-निदान शल्य नहीं रखना, ख्याति, लाभ, पूजा का आशय न रखना । इसप्रकार से तत्त्व की भावना करने से भाव शुद्ध होते हैं । स्त्री आदि पदार्थो के विषय में भेदज्ञानी का विचार इसका उदाहरण इसप्रकार है कि जब स्त्री आदि इन्द्रियगोचर हों (दिखाई दें), तब उनके विषय में तत्त्व विचार करना कि यह स्त्री है वह क्या है ? जीवनामक तत्त्व की एक पर्याय है, इसका शरीर है वह तो पुद्गलतत्त्व की पर्याय है, यह हावभाव चेष्टा करती है, वह इस जीव के विकार हुआ है यह आस्रवतत्त्व है और बाह्य-चेष्टा पुद्गल की है, इस विकार से इस स्त्री की आत्मा के कर्म का बन्ध होता है । यह विकार इसके न हो तो `आस्रव' `बन्ध' इसके न हो । कदाचित् मैं भी इसको देखकर विकाररूप परिणमन करूँ तो मेरे भी `आस्रव', `बन्ध' हो । इसलिए मुझे विकाररूप न होना यह `संवरतत्त्व' है । बन सके तो कुछ उपदेश देकर इसका विकार दूर करूँ (ऐसा विकल्प राग है) वह राग भी करने योग्य नहीं है-स्व सन्मुख ज्ञातापने में धैर्य रखना योग्य है, इसप्रकार तत्त्व की भावना से अपना भाव अशुद्ध नहीं होता है, इसलिए जो दृष्टिगोचर पदार्थ हों उनमें इसप्रकार तत्त्व की भावना रखना, यह तत्त्व की भावना का उपदेश है ।।११४।।<br> | | <p><b> भावार्थ -</b> `संज्ञा' नाम वांछा के जागते रहने (अर्थात् बने रहने) का है सो आहार की वांछा होना, भय होना, मैथुन की वांछा होना और परिग्रह की वांछा प्राणी के निरन्तर बनी रहती है, यह जन्मान्तर में चली जाती है, जन्म लेते ही तत्काल प्रगट होती है । इसी के निमित्त से कर्मो का बंध कर संसारवन में भ्रमण करता है, इसलिए मुनियों का यह उपदेश है कि अब इन संज्ञाओं का अभाव करो ।।११२।।<br> |
| </p> | | </p> |
| [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] |
| [[Category:अष्टपाहुड]] | | [[Category:अष्टपाहुड]] |
| [[Category:भावपाहुड]] | | [[Category:भावपाहुड]] |
आगे कहते हैं कि भाव बिगड़ने के कारण चार संज्ञा हैं, उनसे संसार भ्रमण होता है, यह दिखाते हैं -
आहारभयपरिग्गहमेहुणसण्णाहि मोहिओ सि तुं ।
भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो ।।११२।।
आहारभयपरिग्रहमैथुनसंज्ञाभि: मोहित: असि त्वम् ।
भ्रमित: संसारवने अनादिकालं अनात्मवश: ।।११२।।
आहार भय मैथुन परीग्रह चार संज्ञा धारकर ।
भ्रा भववन में अनादिकाल से हो अन्य वश ।।११२।।
अर्थ - हे मुने ! तूने आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इन चार संज्ञाओं से मोहित होकर अनादिकाल से पराधीन होकर संसाररूप वन में भ्रमण किया ।
भावार्थ - `संज्ञा' नाम वांछा के जागते रहने (अर्थात् बने रहने) का है सो आहार की वांछा होना, भय होना, मैथुन की वांछा होना और परिग्रह की वांछा प्राणी के निरन्तर बनी रहती है, यह जन्मान्तर में चली जाती है, जन्म लेते ही तत्काल प्रगट होती है । इसी के निमित्त से कर्मो का बंध कर संसारवन में भ्रमण करता है, इसलिए मुनियों का यह उपदेश है कि अब इन संज्ञाओं का अभाव करो ।।११२।।