भावपाहुड गाथा 131: Difference between revisions
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<p class="PrakritGatha"> | किं पुण गच्छइ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं ।<br> | ||
जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो ।।१३१।।<br> | |||
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किं पुन: गच्छति मोहं नरसुरसुखानां अल्पसाराणाम् ।<br> | |||
जानन् पश्यन् चिंतयन् मोक्षं मुनिधवल: ।।१३१।।<br> | |||
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इन ऋद्धियों से इसतरह निरपेक्ष हों जो मुनि धवल ।<br> | |||
क्यों अरे चाहें वे मुनी निस्सार नरसुर सुखों को ।।१३१।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोक्त प्रकार की ऋदि्घ को भी नहीं चाहता है तो मुनिधवल अर्थात् मुनिप्रधान है वह अन्य जो मनुष्य देवों के सुख भोगादिक जिनमें अल्प सार है उनमें क्या मोह को प्राप्त हो ? कैसा है मुनिधवल ? मोक्ष को जानता है, उस ही की तरफ दृष्टि है, उस ही का चिन्तन करता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> जो मुनिप्रधान हैं, उनकी भावना मोक्ष के सुखों में है । वे बड़ी-बड़ी देवविद्याधरों की फैलाई हुई विक्रिया ऋद्धि में भी लालसा नहीं करते हैं तो किंचित्ात्र विनाशीक जो मनुष्य, देवों के भोगादिक के सुख हैं, उनमें वांछा कैसे करे ? अर्थात् नहीं करे ।।१३१।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:36, 14 December 2008
आगे इस ही का समर्थन है कि ऐसी ऋद्धि भी नहीं चाहता है तो अन्य सांसारिक सुख की क्या कथा ?
किं पुण गच्छइ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं ।
जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो ।।१३१।।
किं पुन: गच्छति मोहं नरसुरसुखानां अल्पसाराणाम् ।
जानन् पश्यन् चिंतयन् मोक्षं मुनिधवल: ।।१३१।।
इन ऋद्धियों से इसतरह निरपेक्ष हों जो मुनि धवल ।
क्यों अरे चाहें वे मुनी निस्सार नरसुर सुखों को ।।१३१।।
अर्थ - सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोक्त प्रकार की ऋदि्घ को भी नहीं चाहता है तो मुनिधवल अर्थात् मुनिप्रधान है वह अन्य जो मनुष्य देवों के सुख भोगादिक जिनमें अल्प सार है उनमें क्या मोह को प्राप्त हो ? कैसा है मुनिधवल ? मोक्ष को जानता है, उस ही की तरफ दृष्टि है, उस ही का चिन्तन करता है ।
भावार्थ - जो मुनिप्रधान हैं, उनकी भावना मोक्ष के सुखों में है । वे बड़ी-बड़ी देवविद्याधरों की फैलाई हुई विक्रिया ऋद्धि में भी लालसा नहीं करते हैं तो किंचित्ात्र विनाशीक जो मनुष्य, देवों के भोगादिक के सुख हैं, उनमें वांछा कैसे करे ? अर्थात् नहीं करे ।।१३१।।