भावपाहुड गाथा 151: Difference between revisions
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आगे कहते हैं | आगे जिसके अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं, उसको परमात्मा कहते हैं । उसके अनेक नाम हैं, उनमें से कुछ प्रकट कर कहते हैं -<br> | ||
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णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो ।<br> | |||
अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं ।।१५१।।<br> | |||
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ज्ञानी शिव: परमेष्ठी सर्वज्ञ: विष्णु: चर्तुुख: बुद्ध: ।<br> | |||
आत्मा अपि च परमात्मा कर्मविमुक्त: च भवति स्फुट् ।।१५१।।<br> | |||
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यह आत्मा परमात्मा शिव विष्णु ब्रह्मा बुद्ध है।<br> | |||
ज्ञानि है परमेष्ठि है सर्वज्ञ कर्म विमुक्त है।।१५१।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> परमात्मा ज्ञानी है, शिव है, परमेष्ठी है, सर्वज्ञ है, विष्णु है, चर्तुुखब्रह्मा है, बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है और कर्मरहित है, यह स्पष्ट जानो । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> `ज्ञानी'कहने से सांख्यमती ज्ञानरहित उदासीन चैतन्यमात्र मानता है उसका निषेध है । `शिव' है अर्थात् सब कल्याणों से परिपूर्ण है, जैसा सांख्यमती नैयायिक वैशेषिक मानते हैं, वैसा नहीं है । `परमेष्ठी' है सो परम (उत्कृष्ट) पद में स्थित है अथवा उत्कृष्ट इष्टत्व स्वभाव है । जैेसे अन्मयती कई अपना इष्ट कुछ मान करके उसको परमेष्ठी कहते हैं; वैसे नहीं है । `सर्वज्ञ' है अर्थात् सब लोकालोक को जानता है, अन्य कितने ही किसी एक प्रकरण संबंधी सब बात जानता है उसको भी सर्वज्ञ कहते हैं वैसा नहीं है । `विष्णु' है अर्थात् जिसका ज्ञान सब ज्ञेयों में व्यापक है-अन्यमती वेदांती आदि कहते हैं कि सब पदार्थो में आप है तो ऐसा नहीं है । `चर्तुुख' कहने से केवली अरहंत के समवसरण में चार मुख चारों दिशाओं में दीखते हैं, ऐसा अतिशय है, इसलिए चर्तुुख कहते हैं - अन्यमती ब्रह्मा को चतर्मुख कहते हैं - ऐसा ब्रह्मा कोई नहीं है । `बुद्ध' है अर्थात् सबका ज्ञाता है-बौद्घमती क्षणिक को बुद्ध कहते हैं वैसा नहीं है । `आत्मा' है अपने स्वभाव में ही निरन्तर प्रवर्तता है-अन्यमती वेदान्ती सबमें प्रवर्तते हुए आत्मा को मानते हैं वैसा नहीं है । `परमात्मा' है अर्थात् आत्मा का पूर्णरूप `अनन्तचतुष्टय' उसके प्रगट हो गये हैं, इसलिए परमात्मा है । कर्म जो आत्मा के स्वभाव के घातक घातियाकर्मो से रहित हो गये हैं, इसलिए `कर्म विमुक्त' है अथवा कुछ करने योग्य काम न रहा इसलिए भी कर्मविमुक्त है । सांख्यमती, नैयायिक सदा ही कर्मरहित मानते हैं, वैसे नहीं है । ऐसे परमात्मा के सार्थक नाम हैं । अन्यमती अपने इष्ट का नाम एक ही कहते हैं, उनका सर्वथा एकान्त के अभिप्राय के द्वारा अर्थ बिगड़ता है, इसलिए यथार्थ नहीं है । अरहन्त के ये नाम नयविवक्षा से सत्यार्थ है, ऐसा जानो ।।१५१।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:52, 14 December 2008
आगे जिसके अनन्तचतुष्टय प्रकट होते हैं, उसको परमात्मा कहते हैं । उसके अनेक नाम हैं, उनमें से कुछ प्रकट कर कहते हैं -
णाणी सिव परमेट्ठी सव्वण्हू विण्हू चउमुहो बुद्धो ।
अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं ।।१५१।।
ज्ञानी शिव: परमेष्ठी सर्वज्ञ: विष्णु: चर्तुुख: बुद्ध: ।
आत्मा अपि च परमात्मा कर्मविमुक्त: च भवति स्फुट् ।।१५१।।
यह आत्मा परमात्मा शिव विष्णु ब्रह्मा बुद्ध है।
ज्ञानि है परमेष्ठि है सर्वज्ञ कर्म विमुक्त है।।१५१।।
अर्थ - परमात्मा ज्ञानी है, शिव है, परमेष्ठी है, सर्वज्ञ है, विष्णु है, चर्तुुखब्रह्मा है, बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है और कर्मरहित है, यह स्पष्ट जानो ।
भावार्थ - `ज्ञानी'कहने से सांख्यमती ज्ञानरहित उदासीन चैतन्यमात्र मानता है उसका निषेध है । `शिव' है अर्थात् सब कल्याणों से परिपूर्ण है, जैसा सांख्यमती नैयायिक वैशेषिक मानते हैं, वैसा नहीं है । `परमेष्ठी' है सो परम (उत्कृष्ट) पद में स्थित है अथवा उत्कृष्ट इष्टत्व स्वभाव है । जैेसे अन्मयती कई अपना इष्ट कुछ मान करके उसको परमेष्ठी कहते हैं; वैसे नहीं है । `सर्वज्ञ' है अर्थात् सब लोकालोक को जानता है, अन्य कितने ही किसी एक प्रकरण संबंधी सब बात जानता है उसको भी सर्वज्ञ कहते हैं वैसा नहीं है । `विष्णु' है अर्थात् जिसका ज्ञान सब ज्ञेयों में व्यापक है-अन्यमती वेदांती आदि कहते हैं कि सब पदार्थो में आप है तो ऐसा नहीं है । `चर्तुुख' कहने से केवली अरहंत के समवसरण में चार मुख चारों दिशाओं में दीखते हैं, ऐसा अतिशय है, इसलिए चर्तुुख कहते हैं - अन्यमती ब्रह्मा को चतर्मुख कहते हैं - ऐसा ब्रह्मा कोई नहीं है । `बुद्ध' है अर्थात् सबका ज्ञाता है-बौद्घमती क्षणिक को बुद्ध कहते हैं वैसा नहीं है । `आत्मा' है अपने स्वभाव में ही निरन्तर प्रवर्तता है-अन्यमती वेदान्ती सबमें प्रवर्तते हुए आत्मा को मानते हैं वैसा नहीं है । `परमात्मा' है अर्थात् आत्मा का पूर्णरूप `अनन्तचतुष्टय' उसके प्रगट हो गये हैं, इसलिए परमात्मा है । कर्म जो आत्मा के स्वभाव के घातक घातियाकर्मो से रहित हो गये हैं, इसलिए `कर्म विमुक्त' है अथवा कुछ करने योग्य काम न रहा इसलिए भी कर्मविमुक्त है । सांख्यमती, नैयायिक सदा ही कर्मरहित मानते हैं, वैसे नहीं है । ऐसे परमात्मा के सार्थक नाम हैं । अन्यमती अपने इष्ट का नाम एक ही कहते हैं, उनका सर्वथा एकान्त के अभिप्राय के द्वारा अर्थ बिगड़ता है, इसलिए यथार्थ नहीं है । अरहन्त के ये नाम नयविवक्षा से सत्यार्थ है, ऐसा जानो ।।१५१।।