भावपाहुड गाथा 154: Difference between revisions
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तथा भावेन न लिप्यते कषायविषयै: सत्पुरुष: ।।१५४।।<br> | |||
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जल में रहें पर कमल पत्ते लिप्त होते हैं नहीं ।<br> | |||
सत्पुरुष विषय-कषाय में त्यों लिप्त होते हैं नहीं ।।१५४।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> जैसे कमलिनी का पत्र अपने स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि सत् पुरुष है, वह अपने भाव से ही क्रोधादिक कषाय और इन्द्रियों के विषयों से लिप्त नहीं होता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> सम्यग्दृष्टि पुरुष के मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय का तो सर्वथा अभाव ही है, अन्य कषायों का यथासंभव अभाव है । मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी के अभाव से ऐसा भाव होता है जो परद्रव्यमात्र के कर्तृत्व की बुद्धि तो नहीं है, परन्तु शेष कषायों के उदय से कुछ राग-द्वेष होता है, उसको कर्म के उदय के निमित्त से हुए जानता है, इसलिए उसमें भी कर्तृत्वबुद्धि नहीं है, तो भी उन भावों को रोग के समान हुए जानकर अच्छा नहीं समझता है । इसप्रकार अपने भावों से ही कषाय-विषयों से प्रीति बुद्धि नहीं है, इसलिए उनसे लिप्त नहीं होता है, जलकमलवत् निर्लेप रहता है । इससे आगामी कर्म का बन्ध नहीं होता है, संसार की वृद्धि नहीं होती है, ऐसा आशय है ।।१५४।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:54, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि जो जिनसम्यक्त्व को प्राप्त पुरुष है सो वह आगामी कर्म से लिप्त नहीं होता है -
जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं स हा व प य डी ए ।
तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो ।।१५४।।
यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्र स्वभावप्रकृत्या ।
तथा भावेन न लिप्यते कषायविषयै: सत्पुरुष: ।।१५४।।
जल में रहें पर कमल पत्ते लिप्त होते हैं नहीं ।
सत्पुरुष विषय-कषाय में त्यों लिप्त होते हैं नहीं ।।१५४।।
अर्थ - जैसे कमलिनी का पत्र अपने स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता है, वैसे ही सम्यग्दृष्टि सत् पुरुष है, वह अपने भाव से ही क्रोधादिक कषाय और इन्द्रियों के विषयों से लिप्त नहीं होता है ।
भावार्थ - सम्यग्दृष्टि पुरुष के मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय का तो सर्वथा अभाव ही है, अन्य कषायों का यथासंभव अभाव है । मिथ्यात्व अनन्तानुबंधी के अभाव से ऐसा भाव होता है जो परद्रव्यमात्र के कर्तृत्व की बुद्धि तो नहीं है, परन्तु शेष कषायों के उदय से कुछ राग-द्वेष होता है, उसको कर्म के उदय के निमित्त से हुए जानता है, इसलिए उसमें भी कर्तृत्वबुद्धि नहीं है, तो भी उन भावों को रोग के समान हुए जानकर अच्छा नहीं समझता है । इसप्रकार अपने भावों से ही कषाय-विषयों से प्रीति बुद्धि नहीं है, इसलिए उनसे लिप्त नहीं होता है, जलकमलवत् निर्लेप रहता है । इससे आगामी कर्म का बन्ध नहीं होता है, संसार की वृद्धि नहीं होती है, ऐसा आशय है ।।१५४।।