सवितर्क-ध्यान: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथम शुक्लध्यान । श्रुत-शास्त्र को वितर्क कहते हैं और अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण वीचार कहलाता है । जिस ध्यान में वितर्क अर्थात् शास्त्र के पदों का पृथक्-पृथक् रूप से वीचार होता रहे अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योगों का पृथक्-पृथक् संक्रमण होता रहे-अर्थ को छोड़कर व्यंजन का और व्यंजन को छोड़कर अर्थ का तथा इसी प्रकार मन, वचन और काय तीनों योगों का परिवर्तन होता रहे, उस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क-वीचार प्रथम | <p id="1"> (1) पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथम शुक्लध्यान । श्रुत-शास्त्र को वितर्क कहते हैं और अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण वीचार कहलाता है । जिस ध्यान में वितर्क अर्थात् शास्त्र के पदों का पृथक्-पृथक् रूप से वीचार होता रहे अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योगों का पृथक्-पृथक् संक्रमण होता रहे-अर्थ को छोड़कर व्यंजन का और व्यंजन को छोड़कर अर्थ का तथा इसी प्रकार मन, वचन और काय तीनों योगों का परिवर्तन होता रहे, उस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क-वीचार प्रथम शुक्लध्यान कहते हैं । इस ध्यान में पृथक्त्व का अर्थ है― अनेक रूपता । इन्द्रियजयी मूनि एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक शब्द से दूसरे शब्द को और एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होते हुए पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्कध्यान करता है । चूंकि तीनों योगों को धारण करने वाले और चौदह पूर्वों के जानने वाले मुनिराज ही इस ध्यान का चिन्तन करते हैं इसलिए ही पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार कहा गया है । श्रुतस्कन्ध के शब्द और अर्थों का सम्पूर्ण विस्तार इसका ध्येय होता है । मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम इसके फल है । इसमें ध्याता के ग्रहण किये हुए पदार्थ को छोडकर दूसरे पदार्थ का ध्यान करने लगने, एक शब्द से दूसरे शब्द को, एक योग से दूसरे योग को प्राप्त हो जाने से प्रथम शुक्लध्यान को सवितर्क और सवीचार भी कहा है । <span class="GRef"> महापुराण 21.170-176 </span></p> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
(1) पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथम शुक्लध्यान । श्रुत-शास्त्र को वितर्क कहते हैं और अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण वीचार कहलाता है । जिस ध्यान में वितर्क अर्थात् शास्त्र के पदों का पृथक्-पृथक् रूप से वीचार होता रहे अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योगों का पृथक्-पृथक् संक्रमण होता रहे-अर्थ को छोड़कर व्यंजन का और व्यंजन को छोड़कर अर्थ का तथा इसी प्रकार मन, वचन और काय तीनों योगों का परिवर्तन होता रहे, उस ध्यान को पृथक्त्ववितर्क-वीचार प्रथम शुक्लध्यान कहते हैं । इस ध्यान में पृथक्त्व का अर्थ है― अनेक रूपता । इन्द्रियजयी मूनि एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक शब्द से दूसरे शब्द को और एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होते हुए पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक प्रथम शुक्कध्यान करता है । चूंकि तीनों योगों को धारण करने वाले और चौदह पूर्वों के जानने वाले मुनिराज ही इस ध्यान का चिन्तन करते हैं इसलिए ही पहला शुक्लध्यान सवितर्क और सवीचार कहा गया है । श्रुतस्कन्ध के शब्द और अर्थों का सम्पूर्ण विस्तार इसका ध्येय होता है । मोहनीय कर्म का क्षय अथवा उपशम इसके फल है । इसमें ध्याता के ग्रहण किये हुए पदार्थ को छोडकर दूसरे पदार्थ का ध्यान करने लगने, एक शब्द से दूसरे शब्द को, एक योग से दूसरे योग को प्राप्त हो जाने से प्रथम शुक्लध्यान को सवितर्क और सवीचार भी कहा है । महापुराण 21.170-176