अजितसेन: Difference between revisions
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<p>1. ( महापुराण सर्ग संख्या 54/श्लोक) पूर्व धातकी खण्ड में राजा अजितं जय का पुत्र था (86,87,92) पिता की दीक्षा के पश्चात् क्रम से चक्रवर्ती पद प्राप्त किया (96,97) एक माह के उपवासी मुनि को आहार देकर उनसे अपने पूर्वभव सुने तथा दीक्षा धारण कर ली, मरकर अच्युतेन्द्र पद प्राप्त किया (120-126) यह चन्द्रप्रभु भगवान् का पूर्व का पाँचवा भव है (276); 2. राजा मार सिंह, इनके उत्तराधिकारी राजा राजमल्ल, इनके मन्त्री चामुण्डराय और इनके पुत्र जिनदेव ये सब समकालीन होते हुए मुनि अजितसेन के शिष्य थे। समय ई. 10 का उत्तरार्ध, जैन साहित्य का इतिहास 267 / प्रेमीजी, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 266, बाहुबलि चरित्र श्लो. 11, 28, जै. /1/390; 3. सेनगण में पार्श्वसेन के प्रशिष्य, कृति अलंकार चिन्तामणि, समय ई. 1250।</p> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p>1. ( <span class="GRef"> महापुराण </span>सर्ग संख्या 54/श्लोक) पूर्व धातकी खण्ड में राजा अजितं जय का पुत्र था (86,87,92) पिता की दीक्षा के पश्चात् क्रम से चक्रवर्ती पद प्राप्त किया (96,97) एक माह के उपवासी मुनि को आहार देकर उनसे अपने पूर्वभव सुने तथा दीक्षा धारण कर ली, मरकर अच्युतेन्द्र पद प्राप्त किया (120-126) यह चन्द्रप्रभु भगवान् का पूर्व का पाँचवा भव है (276); 2. राजा मार सिंह, इनके उत्तराधिकारी राजा राजमल्ल, इनके मन्त्री चामुण्डराय और इनके पुत्र जिनदेव ये सब समकालीन होते हुए मुनि अजितसेन के शिष्य थे। समय ई. 10 का उत्तरार्ध, जैन साहित्य का इतिहास 267 / प्रेमीजी, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 266, बाहुबलि चरित्र श्लो. 11, 28, जै. /1/390; 3. सेनगण में पार्श्वसेन के प्रशिष्य, कृति अलंकार चिन्तामणि, समय ई. 1250।</p> | |||
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<p id="1"> (1) दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का पुत्र । अजितनाथ इसे ही राज्य देकर दीक्षित हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 48. 36 </span></p> | |||
<p id="2">(2) विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में स्थित कांचनतिलक नगर के राजा महेन्द्रविक्रम और उनकी रानी नीलवेगा का पुत्र । यह विद्या और पराक्रम से दुर्जेय था । तपस्या करके । अन्त में यह केवली हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 63.105-106, 114 </span></p> | |||
<p id="3">(3) काश्यपगोत्री एक राजा । प्रियदर्शना इसकी रानी और विश्वसेन इसका पुत्र था । <span class="GRef"> महापुराण 63.382-383 </span></p> | |||
<p id="4">(4) पूर्व घातकीखण्ड में स्थित अयोध्या के राजा अजितंजय और उनकी रानी अजितसेना के पुत्र श्रीधर के जीव । ये चक्रवर्ती थे । इन्होंने अरिन्दम नाम के मुनि को आहार दिया था । अन्त में ये गुणप्रभ जिनेन्द्र से धर्मश्रवण कर विरक्त हो गये । इन्होंने जितशशु नाम के पुत्र को राज्य देकर तप धारण कर लिया था तथा निरतिचार तप करते हुए नभस्तिलक पर्वत पर शरीर त्याग कर सोलहवें स्वर्ग के शान्ताकार विमान में अच्युतेन्द्र का पद पाया था । ये स्वर्ग से चयकर पद्मनाभ हुए इसके पश्चात् वैजयन्त स्वर्ग में अहमिन्द्र होकर ये तीर्थंकर चन्द्रप्रभ हुए । <span class="GRef"> महापुराण 54.92-126, 276 </span></p> | |||
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Revision as of 21:37, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
1. ( महापुराण सर्ग संख्या 54/श्लोक) पूर्व धातकी खण्ड में राजा अजितं जय का पुत्र था (86,87,92) पिता की दीक्षा के पश्चात् क्रम से चक्रवर्ती पद प्राप्त किया (96,97) एक माह के उपवासी मुनि को आहार देकर उनसे अपने पूर्वभव सुने तथा दीक्षा धारण कर ली, मरकर अच्युतेन्द्र पद प्राप्त किया (120-126) यह चन्द्रप्रभु भगवान् का पूर्व का पाँचवा भव है (276); 2. राजा मार सिंह, इनके उत्तराधिकारी राजा राजमल्ल, इनके मन्त्री चामुण्डराय और इनके पुत्र जिनदेव ये सब समकालीन होते हुए मुनि अजितसेन के शिष्य थे। समय ई. 10 का उत्तरार्ध, जैन साहित्य का इतिहास 267 / प्रेमीजी, गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड / मूल गाथा 266, बाहुबलि चरित्र श्लो. 11, 28, जै. /1/390; 3. सेनगण में पार्श्वसेन के प्रशिष्य, कृति अलंकार चिन्तामणि, समय ई. 1250।
पुराणकोष से
(1) दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का पुत्र । अजितनाथ इसे ही राज्य देकर दीक्षित हुए थे । महापुराण 48. 36
(2) विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में स्थित कांचनतिलक नगर के राजा महेन्द्रविक्रम और उनकी रानी नीलवेगा का पुत्र । यह विद्या और पराक्रम से दुर्जेय था । तपस्या करके । अन्त में यह केवली हुआ । महापुराण 63.105-106, 114
(3) काश्यपगोत्री एक राजा । प्रियदर्शना इसकी रानी और विश्वसेन इसका पुत्र था । महापुराण 63.382-383
(4) पूर्व घातकीखण्ड में स्थित अयोध्या के राजा अजितंजय और उनकी रानी अजितसेना के पुत्र श्रीधर के जीव । ये चक्रवर्ती थे । इन्होंने अरिन्दम नाम के मुनि को आहार दिया था । अन्त में ये गुणप्रभ जिनेन्द्र से धर्मश्रवण कर विरक्त हो गये । इन्होंने जितशशु नाम के पुत्र को राज्य देकर तप धारण कर लिया था तथा निरतिचार तप करते हुए नभस्तिलक पर्वत पर शरीर त्याग कर सोलहवें स्वर्ग के शान्ताकार विमान में अच्युतेन्द्र का पद पाया था । ये स्वर्ग से चयकर पद्मनाभ हुए इसके पश्चात् वैजयन्त स्वर्ग में अहमिन्द्र होकर ये तीर्थंकर चन्द्रप्रभ हुए । महापुराण 54.92-126, 276