अभाव: Difference between revisions
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Revision as of 21:37, 5 July 2020
यह वैशेषिकों द्वारा मान्य एक पदार्थ है। जैन न्याय शास्त्रमें भी इसे स्वीकार किया है, परन्तु वैशेषिकोंवत् सर्वथा निषेधकारी रूपसे नहीं, बल्कि एक कथंचित् रूपसे।
1. भेद व लक्षण
1. अभाव सामान्यका लक्षण
न्या.सू./भा.2-2/10/110 यत्र भूत्वा किंचिन्न भवति तत्र तस्याभाव उपपद्यते।
= जहाँ पहिले होकर फिर पीछे न हो वहाँ उसका अभाव कहा जाता है। जैसे किसी स्थानमें पहिले घट रक्खा था और फिर वहाँसे वह हटा लिया गया तो वहाँके धड़ेका अभाव हो गया।
श्ली.वा.4/न्या.459/551/20 सद्भावे दोषप्रसक्तेः सिद्धिविरहान्नान्तित्वापादनमभावः।
= सद्भावमें दोषका प्रसंग आ जानेपर, सिद्धि न होनेके कारण जिसकी नास्ति या अप्रतिपत्ति है उसका अभावमान लिया जाता है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 100 भावान्तरस्वभावरूपी भवत्यभाव इति वचनात्।
= भावान्तर स्वभाव रूप ही अभाव होता है, न कि सर्वथा अभाव रूप जैसे कि मिथ्यात्व पर्यायके भंगका सम्यक्त्वपर्याय रूपसे प्रतिभास होता है।
न्याय भाषामें प्रयोग-जिस धर्मीमें जो धर्म नहीं रहता उस धर्मीमें उस धर्मका अभाव है।
2. अभावके भेद
न्या.सू./2-2/12 प्रागुपपत्तेरभावोपपत्तेश्च।
= अभाव दो प्रकारका - एक जो उत्पत्ति होनेके पहिले (प्रागभाव); ओर दूसरा जब कोई वस्तु नष्ट हो जाती है (प्रध्वंसाभाव)।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/181 अभाव चार हैं-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभाव।
3. अभावके भेद
धवला पुस्तक 7/2,9,4/479/24 विशेषार्थ-अभाव दो प्रकारका होता है-पर्युदास और प्रसज्या।
4. प्रागभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय /9/1/1 क्रियागुणव्यपदेशाभावात् प्रागसत्।
= क्रिया व गुणके व्यपदेशका अभाव होनेके कारण प्रागसत् होता है। अर्थात् कार्य अपनी उत्पत्तिसे पहिले नहीं होता।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द/10 प्रागभाव कहिए कार्यके पहिले न होना।
जैन सिद्धान्तप्रवेशिका/182 वर्तमान पर्यायका पूर्व पर्यायमें जो अभाव है उसे प्रागभाव कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/$205/गा.104/205 विशेषार्थ-कार्यके स्वरूपलाभ करनेके पहिले उसका जो अभाव रहता है वह प्रागभाव है।
5. प्रध्वंसाभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय /9-1/2 सदसत् ॥2॥
= कार्यकी उत्पत्तिके नाश होनेके पश्चातके अभावका नाम प्रध्वंसाभाव है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द/10 प्रध्वंस कहिए कार्यका विघटननामा धर्म।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/183 आगामी पर्यायमें वर्तमा पर्यायके अभावको प्रध्वंसाभाव कहिए।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/$205/गा.104/250 भाषार्थ-कार्यका स्वरूपलाभके पश्चात् जो अभाव होता है वह प्रध्वंसाभाव है।
6. अन्योन्यभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय /9-1/4 सच्चासत् ॥4॥
= जहां घड़ेकी उपस्थितिमें उसका वर्णन किया जाता है कि गौ ऊंट नहीं और ऊंट गौ नहीं। उनमें तादात्म्याभाव अर्थात् उसमें उसका अभाव और उसमें उसका अभाव है।.... उसका नाम अन्योन्याभाव है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द्र/11 अन्य स्वभावरूप वस्तुतैं अपने स्वभावका भिन्नपना याकूं इतरेतराभाव कहिये।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/184 पुद्गलकी एक वर्तमान पर्यायमें दूसरे पुद्गलकी वर्तमान पर्यायके अभावको अन्योन्याभाव कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/$205/गा.105/251 विशेषार्थ-एक द्रव्यकी एक पर्यायका उसकी दूसरी पर्यायमें जो अभाव है उसे अन्यापोह या इतरेतराभाव कहते हैं। (जैसे घटका पटमें अभाव)।
7. अत्यन्ताभाव
वैशेषिक दर्शन / अध्याय /9-1/5 यच्चान्यसदतस्तदसत् ॥5॥
= उन तीनों प्रकारके अभावोंके अतिरिक्त जो अभाव है वह अत्यन्ताभाव है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द/11 अत्यन्ताभाव है सो द्रव्यार्थिकनयका प्रधानपनाकरि है। अन्य द्रव्यका अन्यद्रव्यविषैं अत्यन्ताभाव है।
जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/185 एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यके अभावको अत्यन्ताभाव कहते है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/$205/गा.105/251/भाषार्थ-रूगादिककास्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है। यदि इसे स्वीकार किया जाता है, अर्थात् अत्यन्ताभाव का अभाव माना जाता है तो पदार्थका किसी भी असाधारणरूपमें कथन नहीं किया जा सकता है।
8. पर्युदास अभाव
धवला पुस्तक 7/2,9,4,/479/24 विशेषार्थ-पर्युदासके द्वारा एक वस्तुके अभावमें दूसरी वस्तुका सद्भाव ग्रहण किया जाता है।
राजवार्तिक अध्याय 2/8/18/122/8 प्रत्यक्षादन्योऽप्रत्यक्ष इति पर्युदासः।
= प्रत्यक्षसे अन्य सो अप्रत्यक्ष-ऐसा पर्युदास हुआ।
9. प्रसज्य अभाव
राजवार्तिक अध्याय 2/8/18/122/8 प्रत्यक्षो न भवतीत्यप्रत्यक्ष इति प्रसज्यप्रतिषेधो....
= जो प्रत्यक्ष न हो सो अप्रत्यक्ष ऐसा प्रसज्य अभाव है।
धवला पुस्तक 7/2,9,4/479/24 विशेषार्थ-प्रसज्यके द्वारा केवल अभावमात्र समझा जाता है।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/13-14/$190/227/1 कारकप्रतिषेधव्यापृतात्।
= क्रियाके साथ निषेधवाचक `नञ्' का सम्बन्ध।
10. स्वरूपाभाव या अतद्भाव
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 106,108 पविभत्तपदेसत्त पुधुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स। अण्णत्तमतव्भावो ण तब्भयं होदि कधमेगं। जं दव्वं तण्ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो ॥106॥ एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ॥108॥
= विभक्त प्रदेशत्व पृथक्त्व है-ऐसा वीरका उपदेश है। अतद्भाव अन्यत्व है। जो उस रूप न हो वह एक कैसे हो सकता है ॥106॥ स्वरूपपेशासे जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। यह अतद्भाव है। सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं। ऐसा निर्दिष्ट किया गया है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 106-107 अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षणं, तत्तु सत्ता द्रव्ययोर्विद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव ॥106॥ यथा-एकस्मिन्मुक्ताफलखग्दाम्नि यः शुक्लो गुणः स न हारो न सूत्रं न मुक्ताफलं, यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्याभावः स तदभावालक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः। तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वास न सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः ॥107॥
= अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्तागुण और द्रव्यके है ही, क्योंकि गुण और गुणीके तद्भावका अभाव होता है-शुक्लत्व और वस्त्र (या हार) की भाँति ॥106॥ जैले एक मोतियोंकी मालामें जो शुक्लगुण है, वह हार नहीं है, धागा नहीं है, या मोती नहीं है; और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है-इस प्रकार एक-दूसरेमें जो `उसका अभाव' अर्थात् `तद्रूप होनेका अभाव है' सो वह `तदभाव' लक्षणवाला `अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्वका कारण है। इसी प्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है या पर्याय नहीं है; और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है; वह सत्तागुण है - इस प्रकार एक दूसरेमें जो `उसका अभाव' अर्थात् `तद्रूप होनेका अभाव' है वह `तदभाव' लक्षण `अतद्भाव' है, जो किं अन्यत्वका कारण है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 107/149/2 परस्परं प्रदेशाभेषेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावस्तदभावो भण्यते।....अतद्भावः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेद इति।
= परस्पर प्रदेशोंमें अभेद होनेपर भी जो यह संज्ञादिका भेद है वही उस पूर्वोक्त लक्षण रूप तद्भावका अभाव या तदभाव कहा जाता है। उसीको अतद्भाव भी कहते हैं-संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदिसे भेद होना, ऐसा अर्थ है।
11. अभाववादका लक्षण
यु. अनु./25 अभावमात्रं परमार्थवृत्ते, ता संवृतिः सर्व-विशेष-शून्या। तस्या विशेषौ किल बन्धमोक्षो हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ॥25॥
= परमार्थ वृत्तिसे तत्त्व अभावमात्र है, और वह परमार्थवृत्ति संवृत्तिरूप है। और संवृत्ति सर्व विशेषोंसे शून्य है। उक्त अविद्यात्मिका एवं सकल तात्त्विक विशेषशून्या संवृत्ति भी जो बन्ध और मोक्ष विशेष हैं वे हेत्वाभास हैं। "इस प्रकार यह उन (संवित्ताद्वैतवादी बौद्धों) का वाक्य है। (जैन दर्शन द्रव्यार्थिक नयसे अभावको स्वीकार नहीं करता पर पर्यायार्थिकनयसे करता है।) - (देखें उत्पाद व्ययध्रौव्य - 2.7)।
2. अभावोंमें परस्पर अन्तर व फल
1. पर्युदास व प्रसज्यमें अन्तर
न्या.वि.वृ./2/123/153 नयबुद्धिवशादभावौदासीन्येन भावस्य, तदौदासीन्येन चाभावस्य प्राधान्यसमर्पणे पर्युदासप्रसज्ययोर्विशेषस्य विकल्पनात्।
= नय विवक्षाके वशसे भावकी उदासीनतासे भावका और अभावकी उदासीनतासे अभावका प्राधान्य समर्पण होनेपर पर्युदास व प्रसज्य इन दोनोंमें विशेषताका विकल्प हो जाता है। अर्थात्-किसी एक वस्तुके अभाव-द्वारा दूसरी वस्तुका सद्भाव दर्शाना तो पर्युदास है, जैसे प्रकाशका अभाव ही अन्धकार है। और वस्तुका अभाव मात्र दर्शना प्रसज्य है, जैसे इस भूतलपर घटका अभाव है।
2. प्राक्, प्रध्वंस व अन्योन्याभावोंमें अन्तर
वै.द./भा./9-1/4/272 यह (अन्योन्याभाव) अभाव दो प्रकारके अभावसे पृथक् तीसरे प्रकारका अभाव है। वस्तुकी उत्पत्तिसे प्रथम नहीं और और न उसके नाशके पश्चात् उसका नाम अन्योन्याभाव है। यह अभाव हंमेशा रहनेवाला है, क्योंकि, घड़ेका कपड़ा और कपड़ेका घड़ा होना हर प्रकार असम्भव है। वे सर्वदा पृथक्-पृथक् ही रहेंगे। इस वास्ते जिस प्रकार पहिली व दूसरी तरहका अभाव (प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव) अनित्य हैं, यह अभाव उसके विरुद्ध नित्य है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द (अष्टसहस्रीके आधारपर)/11। प्रश्न-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभावमें विशेष कहा है? उत्तर-जो कार्यद्रव्य घटादिक, ताकै पहिलै (पिंड आदिक) अवस्था थी, सो, सो तो प्रागभाव है (अर्थात् घटादिकका पिण्डादिकमें प्रागभाव है) बहुरि कार्यद्रव्यके पीछे जो अवस्था होय सो प्रध्वंसाभाव है (अर्थात् घटमें पिण्ड आदिकका अभाव प्रध्वंसाभाव है)। बहुरि इतरेतराभाव है, सो ऐसा नहीं है। जो दोय भावरूप वस्तु न्यारे-न्यारे युगपत् दीसे तीनिके परस्पर स्वभाव भेदकरि वाका निषेध वामैं और वाका निषेध वामैं इतरेतराभाव है। (जैसे घटका पटमें और पटका घटमें अभाव अन्योन्याभाव है)।
3. अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभावमें अन्तर
वै.द./भा./9-1/5/273 उन तीनों प्रकारके अभावोंके अतिरिक्त जो अभाव है, वह अत्यन्ताभाव है, क्योंकि प्रागभावके पश्चात् नाश हो जाता है, अर्थात् वस्तुकी उत्पत्ति होनेपर उस (प्रागभावका) अभाव नहीं रहता। और विध्वंसाभावका नाश होनेसे प्रथम अभाव है। अर्थात् जब तक किसी वस्तुका नाश नहीं हुआ तब तक उसका विध्वंसाभाव उपस्थित ही नहीं। और अन्योन्याभाव विपक्षीमें रहता है और अपनी सत्तामें नहीं रहता। परन्तु अत्यन्ताभाव इन तीनोंका विपक्षी अभाव है।
अष्टसहस्री 11/पृ.109 ततः सूक्तमन्यापोहलक्षणं स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोह इति। तस्य कालत्रयापेक्षेऽत्यन्ताभावेऽप्यभावादतिव्याप्त्ययोगात्। न हि घटपटयोरितरेतराभावःकालत्रयापेक्षः कदाचिस्पटस्यापि घटत्वपरिणामसंभवात्, तथा परिणामकारणसाकल्ये तदविरोधात्, पुद्गलपरिणामानियमदर्शनात्। न चैवं चेतनाचेतनयोः कदाचित्तादात्म्यपरिणामः, तत्त्वविरोधात्।
अष्टसहस्री 11/पृ.144 न च किंचित्स्पात्मन्येव परात्मनाप्युपलभ्यते ततः किंचित्स्वेष्टं तत्त्वं क्वचिदनिष्टेऽर्थे सत्यात्मनानुपलभ्यमानः कालत्रयेऽपि तत्तत्र तथा नास्तीति प्रतिपद्यते एवेति सिद्धोऽत्यन्ताभावः।
= इस प्रकार स्वभावान्तरसे स्वभावको व्यावृत्तिको अन्यापोह कहते हैं, यह लक्षण ठीक ही कहा है : यह लक्षण कालत्रय सापेक्ष अत्यन्ताभावमें भी रहता है। अतः इसमें अतिव्याप्ति दोष नहीं आता। घट और पटका इतरेतराभाव कालत्रयापेक्षी नहीं है। कभी पटका भी घट परिणाम सम्भव है, उस प्रकार के परिणमनमें कारण समुदायके मिलनेपर, इसका अविरोध है। पुद्गलोंमें परिणामका नियम नहीं देखा जाता है, किन्तु इस तरह चेतन-अचेतनका कभी भी तादात्म्य परिणाम नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों भिन्न तत्त्व है-उनका परस्परमें विरोध है।
आप्तमीमांसा /पं.जयचन्द (अष्टसहस्री के आधारपर) 11 इतरेतराभाव है सो जो दोय भावरूप वस्तु न्यारे-न्यारे युगपत् दीसै तिनिकै परस्पर स्वभाव भेदकरि वाका निषेध वामैं और वाका निषेध वामैं इतरेरताभाव है। यह विशेष है कि यह तो पर्यायार्थिक नयका विशेषणा प्रधानकारि पर्यायनिके परस्पर अभाव जानना। बहुरि अत्यन्ताभाव है सो द्रव्यार्थिकनयका प्रधानपणाकरि है। अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्य विषैं अत्यन्ताभाव है। ज्ञानादिक तौ काहू कालविषैं पुद्गलमें होय नाहीं। बहुरि रूपादिक जीव द्रव्यमैं काहू कालविषैं होई नाहीं। ऐसे इतरेतराभाव और अत्यन्ताभाव ये दोऊ (हैं)।
• अन्योन्याभाव केवल पुद्गल में ही होता है। -देखें अभाव - 2.3
4. चारों अभावोंको न माननेमें दोष
आप्तमीमांसा श्लोक 10,11 कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निह्नवे। प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत् ॥10॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे। अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ॥11॥
= प्रागभावका अपलाप करनेपर कार्यद्रव्य घट पटादि अनादि हो जाते हैं। प्रध्वंसाभावका अपलाप करनेपर घट पटादि कार्य अनन्त अर्थात् अन्तररहित अविनाशी हो जाते हैं ॥10॥ इतरेतराभावका अपलाप करनेपर प्रतिनियत द्रव्यकी सभी पर्यायें सर्वात्मक हो जाती हैं। रूपादिकका स्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है। यदि इसे स्वीकार किया जाता है, अर्थात् यदि अत्यन्ताभावका अभाव माना जाता है तो पदार्थ का किसी भी असाधारण रूपसे कथन नहीं किया जा सकता ॥11॥ (आशय यह है कि इतरेतराभावको नहीं माननेपर एक द्रव्यकी विभिन्न पर्यायोंमें कोई भेद नहीं रहता-सब पर्यायें सबरूप हो जाती है। तथा अत्यन्ताभावको नहीं माननेपर सभी वादियोंके द्वारा माने गये अपने-अपने मूल तत्त्वोंमें कोई भेद नहीं रहता-एक तत्त्व दूसरे तत्त्वरूप हो जाता है। ऐसी हालतमें जीवद्रव्य चैतन्यगुणकी अपेक्षा चेतन ही है और पुद्गल द्रव्य अचेतन ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता।)
( कषायपाहुड़ पुस्तक 1/$205/गा.104-105/250)।
5. एकान्त अभाववादमें दोष
आप्तमीमांसा श्लोक 12 अभावैकान्तपक्षेऽपि भावापह्नववादिनाम्। बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधग-दूषणम् ॥106॥
= जो वादी भावरूप वस्तुको सर्वथा स्वीकार नहीं करते हैं, उनके अभावैकान्त पक्षमें भी बोध अर्थात् स्वार्थानुमान और वाक्य अर्थात् परार्थानुमान प्रमाण नहीं बनते हैं। ऐसी अवस्थामें वे स्वमतका साधन किस प्रमाणसे करेंगे, और परमतमें दूषण किस प्रमाणसे देंगे।