अवसन्न: Difference between revisions
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<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1294-1295/1272 ओसण्णसेवणाओ पडिसेवंतो असजदो होई। सिद्धिपहपच्छिदाओ ओहीणो साधुसत्थादो ।1294। इंदियकसायगुरुगत्तेणेण सुहसीलभाविदो समणो। करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओ ।1295।</p> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p> भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1294-1295/1272 ओसण्णसेवणाओ पडिसेवंतो असजदो होई। सिद्धिपहपच्छिदाओ ओहीणो साधुसत्थादो ।1294। इंदियकसायगुरुगत्तेणेण सुहसीलभाविदो समणो। करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओ ।1295।</p> | |||
<p>= जो साधु चारित्रसे भ्रष्ट होकर सिद्धमार्ग की अनुयायी क्रियाएँ करता है तथा असंयत जनों की सेवा करता है, वह अवसन्न साधु है। तीव्र कषाय युक्त होकर वे इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त हो जाते हैं, जिसके कारण सुखशील होकर आचरणमें प्रवृत्ति करते हैं।</p> | <p>= जो साधु चारित्रसे भ्रष्ट होकर सिद्धमार्ग की अनुयायी क्रियाएँ करता है तथा असंयत जनों की सेवा करता है, वह अवसन्न साधु है। तीव्र कषाय युक्त होकर वे इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त हो जाते हैं, जिसके कारण सुखशील होकर आचरणमें प्रवृत्ति करते हैं।</p> | ||
<p> भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 25/88/14 पर उद्धृत गाथा "पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होंति ओसण्णा। जं सिद्धि पच्छिदादो ओहीणा साधु सत्थादो।''</p> | <p> भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 25/88/14 पर उद्धृत गाथा "पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होंति ओसण्णा। जं सिद्धि पच्छिदादो ओहीणा साधु सत्थादो।''</p> | ||
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Revision as of 21:38, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
भगवती आराधना / मुल या टीका गाथा 1294-1295/1272 ओसण्णसेवणाओ पडिसेवंतो असजदो होई। सिद्धिपहपच्छिदाओ ओहीणो साधुसत्थादो ।1294। इंदियकसायगुरुगत्तेणेण सुहसीलभाविदो समणो। करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओ ।1295।
= जो साधु चारित्रसे भ्रष्ट होकर सिद्धमार्ग की अनुयायी क्रियाएँ करता है तथा असंयत जनों की सेवा करता है, वह अवसन्न साधु है। तीव्र कषाय युक्त होकर वे इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त हो जाते हैं, जिसके कारण सुखशील होकर आचरणमें प्रवृत्ति करते हैं।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 25/88/14 पर उद्धृत गाथा "पासत्थो सच्छंदो कुसील संसत्त होंति ओसण्णा। जं सिद्धि पच्छिदादो ओहीणा साधु सत्थादो।
= पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील, संसक्त और अवसन्न ये पाँच प्रकारके मुनि रत्नत्रय मार्गमें विहार करनेवाले मुनियोंका त्याग करते हैं अर्थात् स्वच्छन्दसे चलते हैं।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1950/1721/21 यथा कर्दमे क्षुण्णः मार्गाद्धीनोऽवसन्न इत्युच्यते स द्रव्यतोऽवसन्नः। भावावसन्नः अशुद्धचारित्रः।
= जैसे कीचड़में फँसे हुए और मार्गभ्रष्ट पथिकको अवसन्न कहते हैं, उसको द्रव्यावसन्न भी कहते हैं, वैसे ही जिसका चारित्र अशुद्ध बन गया है ऐसे मुनिको भावावसन्न कहते हैं।
(विशेष विस्तार देखें साधु - 5)
चारित्रसार पृष्ठ 144/1 जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानाचारणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्नः।
= जो जिनवचनों को जानते तक नहीं, जिन्होंने चारित्रका भार सब छोड़ दिया है, जो ज्ञान और चारित्र दोनोंसे भ्रष्ट हैं और चारीत्रके पालन करनेमें आलस करते हैं, उन्हें अवसन्न कहते हैं।
( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 14/137/21)
• अवसन्न साधुका निराकरण आदि-देखें साधु - 5
पुराणकोष से
ज्ञान, चारित्र आदि से भ्रष्ट मुनि । महापुराण 76.194