संयतासंयत: Difference between revisions
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<span class="HindiText">संयम धारने के अभ्यास की दशा में स्थित कुछ संयम और कुछ असंयम परिणाम युक्त श्रावक संयतासंयत कहलाता है। विशेष देखें | == सिद्धांतकोष से == | ||
<span class="HindiText">संयम धारने के अभ्यास की दशा में स्थित कुछ संयम और कुछ असंयम परिणाम युक्त श्रावक संयतासंयत कहलाता है। विशेष देखें [[ श्रावक ]]।</span> | |||
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<li id="I">[[संयतासंयत#1 | संयतासंयत का लक्षण।]]</li> | <li id="I">[[संयतासंयत#1 | संयतासंयत का लक्षण।]]</li> | ||
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<li id="II">[[संयतासंयत#2 | संयम व असंयम युगपत् कैसे।]]</li> | <li id="II">[[संयतासंयत#2 | संयम व असंयम युगपत् कैसे।]]</li> | ||
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<li>संयमासंयम आरोहण विधि। - | <li>संयमासंयम आरोहण विधि। - देखें [[ क्षयोपशम#3 | क्षयोपशम - 3]]।</li> | ||
<li>गुणस्थानों में परस्पर अवरोहण आरोहण क्रम। - | <li>गुणस्थानों में परस्पर अवरोहण आरोहण क्रम। - देखें [[ गुणस्थान#2.1 | गुणस्थान - 2.1]]।</li> | ||
<li>इसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। - | <li>इसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। - देखें [[ करण#4 | करण - 4]]।</li> | ||
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<li id="III">[[संयतासंयत#3 | इसके परिणामों में चतु:स्थानपतितहानि वृद्धि।]]</li> | <li id="III">[[संयतासंयत#3 | इसके परिणामों में चतु:स्थानपतितहानि वृद्धि।]]</li> | ||
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<li id="IV">[[संयतासंयत#4 | संयमासंयम का स्वामित्व।]]</li> | <li id="IV">[[संयतासंयत#4 | संयमासंयम का स्वामित्व।]]</li> | ||
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<li>मिथ्यादृष्टियों को सम्भव नहीं - | <li>मिथ्यादृष्टियों को सम्भव नहीं - देखें [[ चारित्र#3.8 | चारित्र - 3.8]]।</li> | ||
<li>इसमें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि | <li>इसमें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ सत् ]]।</li> | ||
<li>मार्गणाओं में इसके स्वामित्व सम्बन्धी शंका-समाधान। - | <li>मार्गणाओं में इसके स्वामित्व सम्बन्धी शंका-समाधान। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>इस सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप | <li>इस सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप 8 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय। - देखें | <li>सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय। - देखें [[ मार्गणा ]]।</li> | ||
<li>भोगभूमि में संयमासंयम के निषेध का कारण। - | <li>भोगभूमि में संयमासंयम के निषेध का कारण। - देखें [[ भूमि#9 | भूमि - 9]]।</li> | ||
<li>शूद्र को क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी। - | <li>शूद्र को क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी। - देखें [[ वर्णव्यवस्था#4 | वर्णव्यवस्था - 4]]।</li> | ||
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<li>सर्व लघु काल में संयमासंयम धारण की योग्यता। - | <li>सर्व लघु काल में संयमासंयम धारण की योग्यता। - देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]।</li> | ||
<li>पुन: पुन: संयमासंयम प्राप्ति की सीमा। - | <li>पुन: पुन: संयमासंयम प्राप्ति की सीमा। - देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]।</li> | ||
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<li>इसे औदयिकौपशमिक नहीं कह सकते। - | <li>इसे औदयिकौपशमिक नहीं कह सकते। - देखें [[ क्षायोपशमिक#2.3 | क्षायोपशमिक - 2.3]]।</li> | ||
<li>सम्यग्दर्शन के आश्रय से औपशमिकादि क्यों नहीं। - | <li>सम्यग्दर्शन के आश्रय से औपशमिकादि क्यों नहीं। - देखें [[ संयत#2.6 | संयत - 2.6]]।</li> | ||
<li>इसमें कर्म प्रकृतियों का बन्ध उदय सत्त्व। - | <li>इसमें कर्म प्रकृतियों का बन्ध उदय सत्त्व। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>एकान्तानुवृद्धि आदि संयतासंयत। - | <li>एकान्तानुवृद्धि आदि संयतासंयत। - देखें [[ लब्धि#5.8 | लब्धि - 5.8]]।</li> | ||
<li>स्वर्ग में ही जन्मने का नियम। - | <li>स्वर्ग में ही जन्मने का नियम। - देखें [[ जन्म#5.4 | जन्म - 5.4]]।</li> | ||
<li>इसमें आत्मानुभव सम्बन्धी। - | <li>इसमें आत्मानुभव सम्बन्धी। - देखें [[ अनुभव#5 | अनुभव - 5]]।</li> | ||
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<p class="HindiText" id="1"> | <p class="HindiText" id="1"> | ||
<strong> | <strong>1. संयतासंयत का लक्षण</strong></p> | ||
<p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./ | <p> <span class="PrakritText">पं.सं./प्रा./1/गा. जो तसवहाउ विरदो णो विरओ अक्खथावरवहाओ। पडिसमयं सो जीवो विरयाविरओ जिणेक्कमई।13। जो ण विरदो दु भावो थावरवहइंदियत्थदोसाओ। तसवहविरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिट्ठो।134। पंच तिय चउविहेहिं अणुगुण-सिक्खावएहिं संजुत्ता। वुच्चंति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा।135। | ||
</span> = <span class="HindiText"> | </span> = <span class="HindiText">1. जो जीव एक मात्र जिन भगवान् में ही मति को रखता है, तथा त्रस जीवों के घात से विरत है, और इन्द्रिय विषयों से एवं स्थावर जीवों के घात से विरक्त नहीं है, वह जीव प्रतिसमय विरताविरत है। अर्थात् अपने गुणस्थान के काल के भीतर दोनों संज्ञाओं को युगपत् धारण करता है।13। 2. भावों से स्थावरवध और पाँचों इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी दोषों से विरत नहीं होने किन्तु त्रस वध से विरत होने को संयमासंयम कहते हैं, और उनका धारक जीव नियम से संयमासंयमी कहा गया है।134। 3. पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों से संयुक्त होना विशिष्ट संयमासंयम है। उसके धारक और असंख्यात गुणश्रेणीरूप निर्जरा के द्वारा कर्मों के झाड़ने वाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं।135। (ध.1/1,1,123/गा.192/373); (गो.जी./476/883)</span></p> | ||
<p class="SanskritText"> रा.वा./ | <p class="SanskritText"> रा.वा./2/5/8/108/7 विरताविरतं परिणाम: क्षायोपशमिक: संयमासंयम:।</p> | ||
<p> <span class="SanskritText">रा.वा./ | <p> <span class="SanskritText">रा.वा./6/12/7/522/27 संयमासंयम: अनात्यन्तिकी विरति:।</span> =<span class="HindiText">क्षायोपशमिक विरताविरत परिणाम को संयमासंयम कहते हैं। अथवा अनात्यन्तिकी विरक्तता को संयमासंयम कहते हैं।</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.1/1,1,13/173/10 संयताश्च ते असंयताश्च संयतासंयत:। | ||
</span> = <span class="HindiText">जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं, उन्हें संयतासंयत कहते हैं।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं, उन्हें संयतासंयत कहते हैं।</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText">पु.सि.उ./ | <p> <span class="SanskritText">पु.सि.उ./41 या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको भवति।</span> =<span class="HindiText">जो एकदेश विरति में लगा हुआ है वह श्रावक होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText"> देखें [[ व्रती ]][घर के प्रति जिसकी रुचि समाप्त हो चुकी है वह संयत है और गृहस्थी संयतासंयत हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText"> देखें [[ विरताविरत ]][बारह व्रतों से सम्पन्न गृहस्थ विरताविरत हैं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="2"> <strong> | <p class="HindiText" id="2"> <strong>2. संयम व असंयम युगपत् कैसे</strong></p> | ||
<p> <span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.1/1,1,13/173/10 यदि संयत:, नासावसंयत:। अथासंयत: नासौ संयत इति विरोधान्नायं गुणो घटत इति चेदस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोध: इष्टत्वात् अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात् । न गुणानां सहानवस्थानलक्षणो विरोध: संभवति, संभेवद्वा न वस्त्वस्ति तस्यानेकान्तनिबन्धनत्वात् । यदर्थक्रियाकरि तद्वस्तु। सा च नैकान्ते एकानेकाभ्यां प्राप्तनिरूपितावस्थाभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न चैतन्याचैतन्याभ्यामनेकान्तस्तयोर्गुणत्वाभावात् । सहभुवो हि गुणा:, चानयो: सहभूतिरस्ति असति विबन्धर्यनुपलम्भात् । भवति च विरोध: समाननिबन्धनत्वे सति। न चात्र विरोध: संयमासंयमयोरेकद्रव्यवतिंनोस्त्रसस्थावरनिबन्धनत्वात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - जो संयत होता है, वह असंयत नहीं हो सकता है, और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता है, क्योंकि, संयमभाव और असंयमभाव का परस्पर विरोध है, इसलिए यह गुणस्थान नहीं बनता है ? <strong>उत्तर</strong> - 1. विरोध दो प्रकार का है - परस्परपरिहारलक्षण विरोध और सहानवस्थालक्षण विरोध। इनमें से एक द्रव्य के अनन्तगुणों में होने वाला परस्पर परिहारलक्षण विरोध यहाँ इष्ट ही है, क्योंकि यदि एक दूसरे का परिहार करके गुणों का अस्तित्व न माना जावे तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता है। परन्तु इतने मात्र से गुणों में सहानवस्थालक्षण विरोध सम्भव नहीं है। यदि नाना गुणों का एक साथ रहना ही विरोधस्वरूप मान लिया जाये तो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बन सकता है, क्योंकि, वस्तु का सद्भाव अनेकान्त निमित्तक ही होता है। जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है वह वस्तु है और वह एकान्त पक्ष में बन नहीं सकती, क्योंकि यदि अर्थक्रिया को एकरूप माना जावे तो पुन: पुन: उसी अर्थक्रिया की प्राप्ति होने से, और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष आने से एकान्तपक्ष में अर्थ क्रिया के होने में विरोध आता है। 2. ऊपर के कथन से चैतन्य और अचैतन्य के साथ भी व्यभिचार नहीं आता है, क्योंकि, चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों गुण नहीं हैं। जो सहभावी होते हैं उन्हें गुण कहते हैं, परन्तु ये दोनों सहभावी नहीं हैं, क्योंकि बन्धरूप अवस्था के नहीं रहने पर चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों एक साथ नहीं पाये जाते हैं। 3. दूसरे विरुद्ध दो धर्मों की उत्पत्ति का कारण यदि एक मान लिया जावे तो विरोध आता है, परन्तु संयमभाव और असयंमभाव इन दोनों को एक आत्मा में स्वीकार कर लेने पर भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, उन दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न-भिन्न हैं। संयमभाव की उत्पत्ति का कारण त्रसहिंसा से विरति भाव है और असंयम भाव की उत्पत्ति का कारण स्थावर हिंसा से अविरति भाव है। इसलिए संयतासंयत नाम का पाँचवाँ गुणस्थान बन जाता है।</span></p> | ||
<p> <strong class="HindiText" id="3"> | <p> <strong class="HindiText" id="3">3. इसके परिणामों में चतु:स्थान पतित हानि वृद्धि</strong></p> | ||
<p> <span class="PrakritText">ल.सा./मू./ | <p> <span class="PrakritText">ल.सा./मू./176/228 देसो समये समये सुज्झंतो संकिलिस्समाणो य। चउवडि्ढहाणिदव्वादव्वट्ठिदं कुणदि गुणसेढिं। | ||
</span>=<span class="HindiText">अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव समय-समय विशुद्ध और संक्लिष्ट होता रहता है। विशुद्ध होने पर असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण व असंख्यातगुण इन चार प्रकार की वृद्धि सहित, और संक्लिष्ट होने पर इन्हीं चार प्रकार की हानि सहित द्रव्य का अपकर्षण करके गुणश्रेणी में निक्षेपण करता है। इस प्रकार उसके काल में यथासम्भव चतु:स्थानपतित वृद्धि हानि सहित गुणश्रेणी विधान पाया जाता है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव समय-समय विशुद्ध और संक्लिष्ट होता रहता है। विशुद्ध होने पर असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण व असंख्यातगुण इन चार प्रकार की वृद्धि सहित, और संक्लिष्ट होने पर इन्हीं चार प्रकार की हानि सहित द्रव्य का अपकर्षण करके गुणश्रेणी में निक्षेपण करता है। इस प्रकार उसके काल में यथासम्भव चतु:स्थानपतित वृद्धि हानि सहित गुणश्रेणी विधान पाया जाता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4"> <strong> | <p class="HindiText" id="4"> <strong>4. संयतासंयम का स्वामित्व</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ नरक#4.9 | नरक - 4.9 ]][नरक गति में सम्भव नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ तिर्यंच#2.2 | तिर्यंच - 2.2]]-4 [केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच को सम्भव है, अन्य एकेन्द्रिय से असंज्ञी पर्यंत को नहीं, कर्मभूमिजों को ही होता है भोगभूमिजों को नहीं, कर्म भूमिजों को भी आर्यखण्ड में ही होता है, म्लेच्छ - खण्ड में नहीं। वहाँ भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच को नहीं होता। सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकों में नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ मनुष्य#3.2 | मनुष्य - 3.2 ]][मनुष्यों में केवल कर्मभूमिजों को ही सम्भव है भोगभूमिजों को नहीं, वहाँ भी आर्य खण्डों में ही सम्भव है म्लेच्छखण्डों में नहीं। विद्याधरों में भी सम्भव है। सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकों में नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ देव#II.3.2 | देव - II.3.2 ]][देव गति में सम्भव नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ आयु#6.7 | आयु - 6.7 ]][जिसने पहिले देवायु के अतिरिक्त तीन आयु को बाँध लिया है ऐसा कोई जीव संयमासंयम को प्राप्त नहीं हो सकता।]</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.5.5 | सम्यग्दर्शन - IV.5.5 ]][क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिर्यंच नहीं।]</p> | ||
<p class="HindiText" id="5"> <strong> | <p class="HindiText" id="5"> <strong>5. संयमासंयम के पश्चात् भवधारण की सीमा</strong></p> | ||
<p> <span class="PrakritText">वसु.श्रा./ | <p> <span class="PrakritText">वसु.श्रा./539 सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुरमणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं।539।</span> =<span class="HindiText">उपरोक्त रीति से श्रावकों का आचार पालन करने वाला (देखें [[ श्रावक ]]) तीसरे भव में सिद्ध होता है। कोई क्रम से देव और मनुष्यों के सुख को भोगकर पाँचवें सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। [यह नियम या तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा जानना चाहिए (देखें [[ सम्यग्दर्शन#I.5.4 | सम्यग्दर्शन - I.5.4]]), और या प्रत्येक तीसरे भव में संयमासंयम को प्राप्त होने वाले की अपेक्षा जानना चाहिए, अथवा उपचाररूप जानना चाहिए, क्योंकि एक जीव पल्य के असंख्यातवें बार तक संयमासंयम की प्राप्ति कर सकता है ऐसा निर्देश प्राप्त है (देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]])]।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="6"> <strong> | <p class="HindiText" id="6"> <strong>6. संयतासंयत में सम्भव भाव</strong></p> | ||
<p> <span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.1/1,1,13/174/7 औदयिकादिपञ्चसु गुणेषु कं गुणमाश्रित्य संयमासंयमगुण: समुत्पन्न इति चेत् क्षायोपशमिकोऽयं गुण:।...संयमासंयमधाराधिकृतसम्यक्त्वानि कियन्तीति चेत्क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकानि त्रीण्यपि भवन्ति पर्यायेण।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - औदयिकादि पाँच भावों में से किस भाव के आश्रय से संयमासंयम भाव पैदा होता है ? <strong>उत्तर</strong> - संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है। (और भी | ||
देखें [[ भाव#2.9 | भाव - 2.9]])। <strong>प्रश्न</strong> - संयमासंयमरूप देशचारित्र की धारा से सम्बन्ध रखने वाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं ? <strong>उत्तर</strong> - क्षायिक, क्षायोपशमिक व औपशमिक इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन विकल्प रूप से होता है। (और भी देखें [[ भाव#2.12 | भाव - 2.12]])।</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="7"> <strong> | <p class="HindiText" id="7"> <strong>7. इसमें क्षायोपशमिक भाव कैसे</strong></p> | ||
<p> <span class="SanskritText">रा.वा./ | <p> <span class="SanskritText">रा.वा./2/5/8/108/6 अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात् सदुपशमाच्च प्रत्याख्यानकषायोदये संज्वलनकषायस्य देशघातिस्पर्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च विरताविरतपरिणाम: क्षायोपशमिक:।</span> =<span class="HindiText">अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायों का उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम, प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय, संज्वलन के देशघाति स्पर्धक और यथासंभव नोकषायों का उदय होने पर विरत-अविरत परिणाम उत्पन्न करने वाला भाव क्षायोपशमिक है।</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText">ध. | <p> <span class="SanskritText">ध.1/1,1,13/174/8 अप्रत्याख्यानावरणीयस्य सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात् सत: चोपशमात् प्रत्याख्यानावरणीयोदयादप्रत्याख्यानोत्पत्ते:।</span> =<span class="HindiText">अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के वर्तमान कालिक सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयभावी क्षय होने से, और आगामी काल के उदय में आने योग्य उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से संयमासंयमरूप अप्रत्याख्यान-चारित्र उत्पन्न होता है। (गो.जी./मू./469/879)।</span></p> | ||
<p> <span class="PrakritText">ध. | <p> <span class="PrakritText">ध.7/2,1,51/94/6 चदुसंजलण-णवणोकसायाणं खओवसमसण्णिदेसघादिफद्दयाणमुदएण संजमासंजमुप्पत्तीदो खओवसमलद्धीए संयमासंयमो। तेरंसण्हं पयडीणं देसघादिफद्दयाणमुदओ संजमलंभणिमित्तो कधं संजमासंजमणिमित्तं पडिवज्जदे। ण, पञ्चक्खाणावरणसव्वघादिफद्दयाणमुदएण पडिहय चदुसंजलणादिदेसघादिफद्दयाणमुदयस्स संजमासंजमं मोत्तूण संजमुप्पायणे असमत्थादो।</span> =<span class="HindiText">चार संज्वलन और नवनोकषायों के क्षयोपशम संज्ञावाले देशघातीस्पर्धकों के उदय से संयमासंयम की उत्पत्ति होती है, इसलिए क्षयोपशम लब्धि से संयमासंयम होता है। (ध.5/1,7,7/202/3)। <strong>प्रश्न</strong> - चार संज्वलन और नव नोकषाय, इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्धकों का उदय तो संयम की प्राप्ति में निमित्त होता है (देखें [[ संयत#2.3 | संयत - 2.3]])। वह संयमासंयम का निमित्त कैसे स्वीकार किया गया है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जिन चार संज्वलनादिक के देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत हो गया है, उस उदय के संयमासंयम को छोड़ संयम उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं होता है।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> देखें [[ अनुभाग#4.6.6 | अनुभाग - 4.6.6 ]][इसमें प्रत्याख्यानावरण का सर्वघातीपना भी नष्ट नहीं होता है।]</p> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> एक देश व्रतों के धारक जीव । ये कुछ संयत और कुछ असंयत परिणाम वाले होते हैं । ये जीव पाँचवें गुणस्थान में होते हैं । ऐसे जीव हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से यथाशक्ति एक देश विरत होते हैं । महातृष्णा पर ये विजय प्राप्त कर लेते हैं । परिग्रह का परिमाण रखते हैं । ये जीव मरकर सौधर्म स्वर्ग से अच्युत स्वर्ग तक के देव होते हैं । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3. 78, 81, 90, 148 </span></p> | |||
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[[Category: पुराण-कोष]] | |||
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Revision as of 21:49, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == संयम धारने के अभ्यास की दशा में स्थित कुछ संयम और कुछ असंयम परिणाम युक्त श्रावक संयतासंयत कहलाता है। विशेष देखें श्रावक ।
- संयतासंयत का विशेष स्वरूप। - देखें श्रावक ।
- संयतासंयत के 11 अथवा अनेक भेद। - देखें श्रावक /1/2।
- संयमासंयम आरोहण विधि। - देखें क्षयोपशम - 3।
- गुणस्थानों में परस्पर अवरोहण आरोहण क्रम। - देखें गुणस्थान - 2.1।
- इसके परिणाम अध:प्रवृत्तिकरणरूप होते हैं। - देखें करण - 4।
- इसमें आत्मानुभव के सद्भाव सम्बन्धी। - देखें अनुभव - 5।
- मिथ्यादृष्टियों को सम्भव नहीं - देखें चारित्र - 3.8।
- इसमें सम्भव जीवसमास मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
- मार्गणाओं में इसके स्वामित्व सम्बन्धी शंका-समाधान। - देखें वह वह नाम ।
- इस सम्बन्धी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्वरूप 8 प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय। - देखें मार्गणा ।
- भोगभूमि में संयमासंयम के निषेध का कारण। - देखें भूमि - 9।
- शूद्र को क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी। - देखें वर्णव्यवस्था - 4।
- सर्व लघु काल में संयमासंयम धारण की योग्यता। - देखें संयम - 2।
- पुन: पुन: संयमासंयम प्राप्ति की सीमा। - देखें संयम - 2।
- इसे औदयिकौपशमिक नहीं कह सकते। - देखें क्षायोपशमिक - 2.3।
- सम्यग्दर्शन के आश्रय से औपशमिकादि क्यों नहीं। - देखें संयत - 2.6।
- इसमें कर्म प्रकृतियों का बन्ध उदय सत्त्व। - देखें वह वह नाम ।
- एकान्तानुवृद्धि आदि संयतासंयत। - देखें लब्धि - 5.8।
- स्वर्ग में ही जन्मने का नियम। - देखें जन्म - 5.4।
- इसमें आत्मानुभव सम्बन्धी। - देखें अनुभव - 5।
1. संयतासंयत का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/गा. जो तसवहाउ विरदो णो विरओ अक्खथावरवहाओ। पडिसमयं सो जीवो विरयाविरओ जिणेक्कमई।13। जो ण विरदो दु भावो थावरवहइंदियत्थदोसाओ। तसवहविरओ सोच्चिय संजमासंजमो दिट्ठो।134। पंच तिय चउविहेहिं अणुगुण-सिक्खावएहिं संजुत्ता। वुच्चंति देसविरया सम्माइट्ठी झडियकम्मा।135। = 1. जो जीव एक मात्र जिन भगवान् में ही मति को रखता है, तथा त्रस जीवों के घात से विरत है, और इन्द्रिय विषयों से एवं स्थावर जीवों के घात से विरक्त नहीं है, वह जीव प्रतिसमय विरताविरत है। अर्थात् अपने गुणस्थान के काल के भीतर दोनों संज्ञाओं को युगपत् धारण करता है।13। 2. भावों से स्थावरवध और पाँचों इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी दोषों से विरत नहीं होने किन्तु त्रस वध से विरत होने को संयमासंयम कहते हैं, और उनका धारक जीव नियम से संयमासंयमी कहा गया है।134। 3. पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों से संयुक्त होना विशिष्ट संयमासंयम है। उसके धारक और असंख्यात गुणश्रेणीरूप निर्जरा के द्वारा कर्मों के झाड़ने वाले ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत या संयतासंयत कहलाते हैं।135। (ध.1/1,1,123/गा.192/373); (गो.जी./476/883)
रा.वा./2/5/8/108/7 विरताविरतं परिणाम: क्षायोपशमिक: संयमासंयम:।
रा.वा./6/12/7/522/27 संयमासंयम: अनात्यन्तिकी विरति:। =क्षायोपशमिक विरताविरत परिणाम को संयमासंयम कहते हैं। अथवा अनात्यन्तिकी विरक्तता को संयमासंयम कहते हैं।
ध.1/1,1,13/173/10 संयताश्च ते असंयताश्च संयतासंयत:। = जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं, उन्हें संयतासंयत कहते हैं।
पु.सि.उ./41 या त्वेकदेशविरतिर्निरतस्तस्यामुपासको भवति। =जो एकदेश विरति में लगा हुआ है वह श्रावक होता है।
देखें व्रती [घर के प्रति जिसकी रुचि समाप्त हो चुकी है वह संयत है और गृहस्थी संयतासंयत हैं।]
देखें विरताविरत [बारह व्रतों से सम्पन्न गृहस्थ विरताविरत हैं।]
2. संयम व असंयम युगपत् कैसे
ध.1/1,1,13/173/10 यदि संयत:, नासावसंयत:। अथासंयत: नासौ संयत इति विरोधान्नायं गुणो घटत इति चेदस्तु गुणानां परस्परपरिहारलक्षणो विरोध: इष्टत्वात् अन्यथा तेषां स्वरूपहानिप्रसंगात् । न गुणानां सहानवस्थानलक्षणो विरोध: संभवति, संभेवद्वा न वस्त्वस्ति तस्यानेकान्तनिबन्धनत्वात् । यदर्थक्रियाकरि तद्वस्तु। सा च नैकान्ते एकानेकाभ्यां प्राप्तनिरूपितावस्थाभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । न चैतन्याचैतन्याभ्यामनेकान्तस्तयोर्गुणत्वाभावात् । सहभुवो हि गुणा:, चानयो: सहभूतिरस्ति असति विबन्धर्यनुपलम्भात् । भवति च विरोध: समाननिबन्धनत्वे सति। न चात्र विरोध: संयमासंयमयोरेकद्रव्यवतिंनोस्त्रसस्थावरनिबन्धनत्वात् । =प्रश्न - जो संयत होता है, वह असंयत नहीं हो सकता है, और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता है, क्योंकि, संयमभाव और असंयमभाव का परस्पर विरोध है, इसलिए यह गुणस्थान नहीं बनता है ? उत्तर - 1. विरोध दो प्रकार का है - परस्परपरिहारलक्षण विरोध और सहानवस्थालक्षण विरोध। इनमें से एक द्रव्य के अनन्तगुणों में होने वाला परस्पर परिहारलक्षण विरोध यहाँ इष्ट ही है, क्योंकि यदि एक दूसरे का परिहार करके गुणों का अस्तित्व न माना जावे तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता है। परन्तु इतने मात्र से गुणों में सहानवस्थालक्षण विरोध सम्भव नहीं है। यदि नाना गुणों का एक साथ रहना ही विरोधस्वरूप मान लिया जाये तो वस्तु का अस्तित्व ही नहीं बन सकता है, क्योंकि, वस्तु का सद्भाव अनेकान्त निमित्तक ही होता है। जो अर्थक्रिया करने में समर्थ है वह वस्तु है और वह एकान्त पक्ष में बन नहीं सकती, क्योंकि यदि अर्थक्रिया को एकरूप माना जावे तो पुन: पुन: उसी अर्थक्रिया की प्राप्ति होने से, और यदि अनेकरूप माना जावे तो अनवस्था दोष आने से एकान्तपक्ष में अर्थ क्रिया के होने में विरोध आता है। 2. ऊपर के कथन से चैतन्य और अचैतन्य के साथ भी व्यभिचार नहीं आता है, क्योंकि, चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों गुण नहीं हैं। जो सहभावी होते हैं उन्हें गुण कहते हैं, परन्तु ये दोनों सहभावी नहीं हैं, क्योंकि बन्धरूप अवस्था के नहीं रहने पर चैतन्य और अचैतन्य ये दोनों एक साथ नहीं पाये जाते हैं। 3. दूसरे विरुद्ध दो धर्मों की उत्पत्ति का कारण यदि एक मान लिया जावे तो विरोध आता है, परन्तु संयमभाव और असयंमभाव इन दोनों को एक आत्मा में स्वीकार कर लेने पर भी कोई विरोध नहीं आता है, क्योंकि, उन दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न-भिन्न हैं। संयमभाव की उत्पत्ति का कारण त्रसहिंसा से विरति भाव है और असंयम भाव की उत्पत्ति का कारण स्थावर हिंसा से अविरति भाव है। इसलिए संयतासंयत नाम का पाँचवाँ गुणस्थान बन जाता है।
3. इसके परिणामों में चतु:स्थान पतित हानि वृद्धि
ल.सा./मू./176/228 देसो समये समये सुज्झंतो संकिलिस्समाणो य। चउवडि्ढहाणिदव्वादव्वट्ठिदं कुणदि गुणसेढिं। =अथाप्रवृत्त देशसंयत जीव समय-समय विशुद्ध और संक्लिष्ट होता रहता है। विशुद्ध होने पर असंख्यातभाग, संख्यातभाग, संख्यातगुण व असंख्यातगुण इन चार प्रकार की वृद्धि सहित, और संक्लिष्ट होने पर इन्हीं चार प्रकार की हानि सहित द्रव्य का अपकर्षण करके गुणश्रेणी में निक्षेपण करता है। इस प्रकार उसके काल में यथासम्भव चतु:स्थानपतित वृद्धि हानि सहित गुणश्रेणी विधान पाया जाता है।
4. संयतासंयम का स्वामित्व
देखें नरक - 4.9 [नरक गति में सम्भव नहीं।]
देखें तिर्यंच - 2.2-4 [केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच को सम्भव है, अन्य एकेन्द्रिय से असंज्ञी पर्यंत को नहीं, कर्मभूमिजों को ही होता है भोगभूमिजों को नहीं, कर्म भूमिजों को भी आर्यखण्ड में ही होता है, म्लेच्छ - खण्ड में नहीं। वहाँ भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच को नहीं होता। सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकों में नहीं।]
देखें मनुष्य - 3.2 [मनुष्यों में केवल कर्मभूमिजों को ही सम्भव है भोगभूमिजों को नहीं, वहाँ भी आर्य खण्डों में ही सम्भव है म्लेच्छखण्डों में नहीं। विद्याधरों में भी सम्भव है। सर्वत्र पर्याप्तकों में ही होता है अपर्याप्तकों में नहीं।]
देखें देव - II.3.2 [देव गति में सम्भव नहीं।]
देखें आयु - 6.7 [जिसने पहिले देवायु के अतिरिक्त तीन आयु को बाँध लिया है ऐसा कोई जीव संयमासंयम को प्राप्त नहीं हो सकता।]
देखें सम्यग्दर्शन - IV.5.5 [क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिर्यंच नहीं।]
5. संयमासंयम के पश्चात् भवधारण की सीमा
वसु.श्रा./539 सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुरमणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं।539। =उपरोक्त रीति से श्रावकों का आचार पालन करने वाला (देखें श्रावक ) तीसरे भव में सिद्ध होता है। कोई क्रम से देव और मनुष्यों के सुख को भोगकर पाँचवें सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं। [यह नियम या तो क्षायिक सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा जानना चाहिए (देखें सम्यग्दर्शन - I.5.4), और या प्रत्येक तीसरे भव में संयमासंयम को प्राप्त होने वाले की अपेक्षा जानना चाहिए, अथवा उपचाररूप जानना चाहिए, क्योंकि एक जीव पल्य के असंख्यातवें बार तक संयमासंयम की प्राप्ति कर सकता है ऐसा निर्देश प्राप्त है (देखें संयम - 2)]।
6. संयतासंयत में सम्भव भाव
ध.1/1,1,13/174/7 औदयिकादिपञ्चसु गुणेषु कं गुणमाश्रित्य संयमासंयमगुण: समुत्पन्न इति चेत् क्षायोपशमिकोऽयं गुण:।...संयमासंयमधाराधिकृतसम्यक्त्वानि कियन्तीति चेत्क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकानि त्रीण्यपि भवन्ति पर्यायेण। =प्रश्न - औदयिकादि पाँच भावों में से किस भाव के आश्रय से संयमासंयम भाव पैदा होता है ? उत्तर - संयमासंयम भाव क्षायोपशमिक है। (और भी देखें भाव - 2.9)। प्रश्न - संयमासंयमरूप देशचारित्र की धारा से सम्बन्ध रखने वाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं ? उत्तर - क्षायिक, क्षायोपशमिक व औपशमिक इन तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन विकल्प रूप से होता है। (और भी देखें भाव - 2.12)।
7. इसमें क्षायोपशमिक भाव कैसे
रा.वा./2/5/8/108/6 अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषायाष्टकोदयक्षयात् सदुपशमाच्च प्रत्याख्यानकषायोदये संज्वलनकषायस्य देशघातिस्पर्धकोदये नोकषायनवकस्य यथासंभवोदये च विरताविरतपरिणाम: क्षायोपशमिक:। =अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायों का उदयक्षय और सदवस्थारूप उपशम, प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय, संज्वलन के देशघाति स्पर्धक और यथासंभव नोकषायों का उदय होने पर विरत-अविरत परिणाम उत्पन्न करने वाला भाव क्षायोपशमिक है।
ध.1/1,1,13/174/8 अप्रत्याख्यानावरणीयस्य सर्वघातिस्पर्धकानामुदयक्षयात् सत: चोपशमात् प्रत्याख्यानावरणीयोदयादप्रत्याख्यानोत्पत्ते:। =अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय के वर्तमान कालिक सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयभावी क्षय होने से, और आगामी काल के उदय में आने योग्य उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय के उदय से संयमासंयमरूप अप्रत्याख्यान-चारित्र उत्पन्न होता है। (गो.जी./मू./469/879)।
ध.7/2,1,51/94/6 चदुसंजलण-णवणोकसायाणं खओवसमसण्णिदेसघादिफद्दयाणमुदएण संजमासंजमुप्पत्तीदो खओवसमलद्धीए संयमासंयमो। तेरंसण्हं पयडीणं देसघादिफद्दयाणमुदओ संजमलंभणिमित्तो कधं संजमासंजमणिमित्तं पडिवज्जदे। ण, पञ्चक्खाणावरणसव्वघादिफद्दयाणमुदएण पडिहय चदुसंजलणादिदेसघादिफद्दयाणमुदयस्स संजमासंजमं मोत्तूण संजमुप्पायणे असमत्थादो। =चार संज्वलन और नवनोकषायों के क्षयोपशम संज्ञावाले देशघातीस्पर्धकों के उदय से संयमासंयम की उत्पत्ति होती है, इसलिए क्षयोपशम लब्धि से संयमासंयम होता है। (ध.5/1,7,7/202/3)। प्रश्न - चार संज्वलन और नव नोकषाय, इन तेरह प्रकृतियों के देशघाती स्पर्धकों का उदय तो संयम की प्राप्ति में निमित्त होता है (देखें संयत - 2.3)। वह संयमासंयम का निमित्त कैसे स्वीकार किया गया है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्धकों के उदय से जिन चार संज्वलनादिक के देशघाती स्पर्धकों का उदय प्रतिहत हो गया है, उस उदय के संयमासंयम को छोड़ संयम उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं होता है।
देखें अनुभाग - 4.6.6 [इसमें प्रत्याख्यानावरण का सर्वघातीपना भी नष्ट नहीं होता है।]
पुराणकोष से
एक देश व्रतों के धारक जीव । ये कुछ संयत और कुछ असंयत परिणाम वाले होते हैं । ये जीव पाँचवें गुणस्थान में होते हैं । ऐसे जीव हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों से यथाशक्ति एक देश विरत होते हैं । महातृष्णा पर ये विजय प्राप्त कर लेते हैं । परिग्रह का परिमाण रखते हैं । ये जीव मरकर सौधर्म स्वर्ग से अच्युत स्वर्ग तक के देव होते हैं । हरिवंशपुराण 3. 78, 81, 90, 148