जल्प: Difference between revisions
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न्या.सू./भा./2-2/2/43/10<span class="SanskritText"> यत्तत्प्रमाणैरर्थस्य साधनं तत्र छलजातिनिग्रहस्थानामङ्गभावो रक्षणार्थत्वात् तानि हि प्रयुज्यमानानि परपक्षविघातेन स्वपक्षं रक्षन्ति।</span>=<span class="HindiText">पूर्वोक्त लक्षणसहित ‘छल’ जाति और ‘निग्रहस्थान’ से साधन का निषेध जिसमें किया जाये उसे जल्प कहते हैं। यद्यपि छल, जाति व निग्रहस्थान साक्षात् अपने पक्ष के साधक नहीं होते, तथापि दूसरे के पक्ष का खण्डन करके अपने पक्ष की रक्षा करते हैं, इसलिए नैयायिक लोग उनका प्रयोग करके भी दूसरे के साधन का निषेध करना न्याय मानते हैं। इसी प्रयोग का नाम जल्प है।</span><br /> | |||
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सि.वि./मू./ | सि.वि./मू./5/2/311/19 <span class="SanskritText">छलजातिनिग्रहस्थानानां भेदो लक्षणं च नेह प्रतन्यते। </span>=<span class="HindiText">(जिनमार्ग में क्योंकि अन्याय का प्रयोग अत्यन्त निषिद्ध है, इसलिए यहां जल्प का लक्षण नैयायिकों से भिन्न प्रकार का है।) समर्थवचन को जल्प कहते हैं। यहां छल, जाति व निग्रहस्थान के भेद रूप लक्षण इष्ट नहीं किया जाता है।<br /> | ||
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सि.वि./मू./ | सि.वि./मू./5/2/311 <span class="SanskritText">जल्पं चतुरङ्गं विदुर्बुधा:।</span><br /> | ||
सि.वि./वृ./ | सि.वि./वृ./5/2/313/12 <span class="SanskritText">तत्राह ‘चतुरङ्गम्’ इति। चत्वारि वादि-प्रतिवादि-प्राश्निक-परिषद्विलक्षणानि अङ्गानि, नावयवा:, वचनस्य तदनवयवत्वात् । </span>=<span class="HindiText">विद्वान् लोग जल्प को चार अंगवाला जानते हैं। वे चार अंग इस प्रकार हैं–वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक और परिषद् या सभासद् । इन्हें अवयव नहीं कह सकते हैं क्योंकि अनुमान के वचन या वाक्य की भांति यहां वचन के अवयव नहीं होते।<br /> | ||
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सि.वि./मू./ | सि.वि./मू./5/28/369<span class="SanskritText"> तदेवं जल्पस्वरूपं निरूप्य अधुना सदसि तदुपन्यासप्रयोजनं दर्शयन्नाह–स्याद्वादेन समस्तवस्तुविषयेणैकान्तवादेष्वभिध्वस्तेष्वेकमुखीकृता मतिमतां नैयायिकी शेमुषी। तत्त्वार्थाभिनिवेशिनी निरूपणं चारित्रमासादयन्त्यद्धानन्तचतुष्टयस्य महतो हेतुर्विनिश्चीयते।28।</span><br /> | ||
सि.वि./मू./ | सि.वि./मू./5/2/311<span class="SanskritText"> पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना। </span>=<span class="HindiText">इस प्रकार जल्पस्वरूप का निरूपण करके अब उसका कथन करने का प्रयोजन दिखाते हैं–समस्त वस्तु को विषय करने वाले तथा समस्त एकान्तवादों का निराकरण करने वाले स्याद्वाद के द्वारा अन्य कथाओं से निवृत्त होकर बुद्धिमानों की बुद्धि एक विषय के प्रति अभिमुख होती है। और न्याय में नियुक्त होकर तत्त्व का निर्णय करने के लिए वादी और प्रतिवादी दोनों के पक्षों में मध्यस्थता को धारण करती हुई शीघ्र ही अनुपम तत्त्व का निश्चय कर लेती है।28। पक्ष का निर्णय जब तक नहीं होता तब मार्ग प्रभावना होती है। यही जल्प का प्रयोजन व फल है।2।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> वाद | <li class="HindiText"> वाद जल्प व वितंडा में अन्तर–देखें [[ वाद ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> नैयायिकों द्वारा | <li class="HindiText"> नैयायिकों द्वारा जल्प प्रयोग का समर्थन–देखें [[ वितंडा ]]।</li> | ||
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Revision as of 21:41, 5 July 2020
- लक्षण
न्या.सू.मू./2-2/2 यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपलम्भोजल्प:/2।
न्या.सू./भा./2-2/2/43/10 यत्तत्प्रमाणैरर्थस्य साधनं तत्र छलजातिनिग्रहस्थानामङ्गभावो रक्षणार्थत्वात् तानि हि प्रयुज्यमानानि परपक्षविघातेन स्वपक्षं रक्षन्ति।=पूर्वोक्त लक्षणसहित ‘छल’ जाति और ‘निग्रहस्थान’ से साधन का निषेध जिसमें किया जाये उसे जल्प कहते हैं। यद्यपि छल, जाति व निग्रहस्थान साक्षात् अपने पक्ष के साधक नहीं होते, तथापि दूसरे के पक्ष का खण्डन करके अपने पक्ष की रक्षा करते हैं, इसलिए नैयायिक लोग उनका प्रयोग करके भी दूसरे के साधन का निषेध करना न्याय मानते हैं। इसी प्रयोग का नाम जल्प है।
सि.वि./मू./5/2/311 समर्थवचनं जल्पम् ।
सि.वि./मू./5/2/311/19 छलजातिनिग्रहस्थानानां भेदो लक्षणं च नेह प्रतन्यते। =(जिनमार्ग में क्योंकि अन्याय का प्रयोग अत्यन्त निषिद्ध है, इसलिए यहां जल्प का लक्षण नैयायिकों से भिन्न प्रकार का है।) समर्थवचन को जल्प कहते हैं। यहां छल, जाति व निग्रहस्थान के भेद रूप लक्षण इष्ट नहीं किया जाता है।
- जल्प के चार अंग
सि.वि./मू./5/2/311 जल्पं चतुरङ्गं विदुर्बुधा:।
सि.वि./वृ./5/2/313/12 तत्राह ‘चतुरङ्गम्’ इति। चत्वारि वादि-प्रतिवादि-प्राश्निक-परिषद्विलक्षणानि अङ्गानि, नावयवा:, वचनस्य तदनवयवत्वात् । =विद्वान् लोग जल्प को चार अंगवाला जानते हैं। वे चार अंग इस प्रकार हैं–वादी, प्रतिवादी, प्राश्निक और परिषद् या सभासद् । इन्हें अवयव नहीं कह सकते हैं क्योंकि अनुमान के वचन या वाक्य की भांति यहां वचन के अवयव नहीं होते।
- जल्प का प्रयोजन व फल
देखें वितंडा । =नैयायिक लोग केवल जीतने की इच्छा से जल्प व वितण्डा का प्रयोग भी न्याय समझते हैं। (परन्तु जैन लोग।)
सि.वि./मू./5/28/369 तदेवं जल्पस्वरूपं निरूप्य अधुना सदसि तदुपन्यासप्रयोजनं दर्शयन्नाह–स्याद्वादेन समस्तवस्तुविषयेणैकान्तवादेष्वभिध्वस्तेष्वेकमुखीकृता मतिमतां नैयायिकी शेमुषी। तत्त्वार्थाभिनिवेशिनी निरूपणं चारित्रमासादयन्त्यद्धानन्तचतुष्टयस्य महतो हेतुर्विनिश्चीयते।28।
सि.वि./मू./5/2/311 पक्षनिर्णयपर्यन्तं फलं मार्गप्रभावना। =इस प्रकार जल्पस्वरूप का निरूपण करके अब उसका कथन करने का प्रयोजन दिखाते हैं–समस्त वस्तु को विषय करने वाले तथा समस्त एकान्तवादों का निराकरण करने वाले स्याद्वाद के द्वारा अन्य कथाओं से निवृत्त होकर बुद्धिमानों की बुद्धि एक विषय के प्रति अभिमुख होती है। और न्याय में नियुक्त होकर तत्त्व का निर्णय करने के लिए वादी और प्रतिवादी दोनों के पक्षों में मध्यस्थता को धारण करती हुई शीघ्र ही अनुपम तत्त्व का निश्चय कर लेती है।28। पक्ष का निर्णय जब तक नहीं होता तब मार्ग प्रभावना होती है। यही जल्प का प्रयोजन व फल है।2।
- अन्य सम्बन्धित विषय