कारण सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<li> <span class="HindiText"><strong | <li> <span class="HindiText"><strong> कारण सामान्य निर्देश</strong> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.1.1" id="I.1.1"> कारण | <li><span class="HindiText"><strong name="I.1.1" id="I.1.1"> कारण सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/21/125/7 <span class="SanskritText">प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम् ।</span> =<span class="HindiText">प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। (स.सि./1/20/120/7); (रा.वा./1/20/2/70/30)</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/7/22/3 <span class="SanskritText">साधनमुत्पत्तिनिमित्तं।</span> =<span class="HindiText">जिस निमित्त से वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/7/.../38/1<span class="SanskritText"> साधनं कारणम् ।</span> =<span class="HindiText">साधन अर्थात् कारण। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.1.2" id="I.1.2"> कारण के भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.1.2" id="I.1.2"> कारण के भेद</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/8/1/118/12 <span class="SanskritText">द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यन्तरश्च। ....तत्र बाह्यो हेतुर्द्विविध:–आत्मभूतोऽनात्मभूतश्चेति। ....आभ्यन्तरश्च द्विविध:–अनात्मभूत आत्मभूतश्चेति।</span> =<span class="HindiText">हेतु दो प्रकार का है—बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य हेतु भी दो प्रकार का है—अनात्मभूत और आत्मभूत और अभ्यन्तर हेतु भी दो प्रकार का होता है–आत्मभूत और अनात्मभूत। (और भी देखें [[ निमित्त#1 | निमित्त - 1]])<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.1.3" id="I.1.3"> कारण के भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.1.3" id="I.1.3"> कारण के भेदों के लक्षण</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/8/1/118/14 <span class="SanskritText">तत्रात्मना संबन्धमापन्नविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूत:। प्रदीपादिरनात्मभूत:।....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोग: चिन्ताद्यालम्बनभूत अन्तरभिनिविष्टत्वादाभ्यन्तर इति व्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यान्तरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मन: प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति।</span> =<span class="HindiText">(ज्ञान दर्शनरूप उपयोग के प्रकरण में) आत्मा से सम्बद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इन्द्रियाँ आत्मभूत बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकाय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्य योग अन्त:प्रविष्ट होने से आभ्यन्तर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यान्तराय तथा ज्ञानदर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.2.1" id="I.2.1"> निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.2.1" id="I.2.1"> निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/33/1/95/5 <span class="SanskritText">न च कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:।</span> =<span class="HindiText">कार्य व कारण में कोई भेद नहीं है। वे दोनों एकाकार ही हैं। जैसे–पर्व व अंगुलि। यह द्रव्यार्थिक नय है।</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,8,3/3 <span class="SanskritText">सव्वस्स सच्चकलापस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं। ....कारणे कार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्नम्। </span>=<span class="HindiText">सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप का कारण से अभेद है। इस नय का अवलम्बन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है, तथा कार्य से कारण भी अभिन्न है। ....अथवा ‘कारण में कार्य है’ इस विवक्षा से भी कारण से कार्य अभिन्न है। (प्रकृत में प्राणिवियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बन्ध के कारणभूत परिणाम से उत्पन्न होते हैं अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबन्ध के प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं)।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./65 <span class="SanskritText">निश्चयत: कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव व त्वन्यत् । </span>=<span class="HindiText">निश्चय नय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से जो जिससे किया जाता है (होता है) वह वही है—जैसे सुवर्णपत्र सुवर्ण से किया जाता होने से सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.2.2" id="I.2.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.2.2" id="I.2.2"> द्रव्य का स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य है</strong></span><br /> | ||
श्लो. वा./2/1/7/12/546 भाषाकार द्वारा उद्धृत—<span class="SanskritText">यावन्ति कार्याणि तावन्त: प्रत्येकं वस्तुस्वभावा:।</span> =<span class="HindiText">जितने कार्य होते हैं उतने प्रत्येक वस्तु के स्वभाव होते हैं।</span><br /> | |||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./360-361<span class="PrakritText"> कारणकज्जसहावं समयं णाऊण होइ ज्झायव्वं। कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स।360। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीवसव्भावो। खय पुण सहावझाणे तम्हा तं कारणं झेयं।361।</span> =<span class="HindiText">समय अर्थात् आत्मा को कारण व कार्यरूप जानकर ध्याना चाहिए। कार्य तो उस आत्मा का प्रगट होने वाला शुद्ध स्वरूप है और कारणभूत शुद्ध स्वरूप उसका साधन है।360। कार्य शुद्ध समय तो कर्मों के क्षय से प्रगट होता है और कारण समय जीव का स्वभाव है। कर्मों का क्षय स्वभाव के ध्यान से होता है इसलिए वह कारण समय ध्येय है। (और भी देखें [[ कारण कार्य परमात्मा कारण कार्य समयसार ]])।</span><br /> | ||
स.सा./आ./परि./क. | स.सा./आ./परि./क. 265 के आगे—<span class="SanskritText">आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव। तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपाय: यत्सिद्धं रूपं स उपेय:। </span>=<span class="HindiText">आत्म वस्तु को ज्ञानमात्र होने पर भी उसे उपायउपेय भाव है; क्योंकि वह एक होने पर भी स्वयं साधक रूप से और सिद्ध रूप से दोनों प्रकार से परिणमित होता है (अर्थात् आत्मा परिणामी है और साधकत्व और सिद्धत्व ये दोनों परिणाम हैं) जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.2.3" id="I.2.3"> त्रिकाली | <li><span class="HindiText"><strong name="I.2.3" id="I.2.3"> त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/33/1/95/4 <span class="SanskritText">अर्यते गम्यते निष्पाद्यते इत्यर्थकार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् ।</span> =<span class="HindiText">जो निष्पादन या प्राप्त किया जाये ऐसी पर्याय तो कार्य है और जो परिणमन करे ऐसा द्रव्य कारण है।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./365<span class="PrakritText"> उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स व कारणं कज्ज।365।</span> =<span class="HindiText">उत्पद्यमान कार्य होता है और उसको उत्पन्न करने वाला निज आत्मा कारण होता है। इसलिए एक ही द्रव्य में कारण व कार्य भाव विरोध को प्राप्त नहीं होते।</span><br /> | ||
का.आ./मू./ | का.आ./मू./232<span class="PrakritText"> स सरूवत्थो जीवो कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि। खेत्ते एक्कम्मि ट्ठिदो णिय दव्वे संठिदो चेव।232।</span> =<span class="HindiText">स्वरूप में, स्वक्षेत्र में, स्वद्रव्य में और स्वकाल में स्थित जीव ही अपने पर्यायरूप कार्य को करता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.2.4" id="I.2.4"> पूर्व पर्याय विशिष्ट | <li><span class="HindiText"><strong name="I.2.4" id="I.2.4"> पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य कारण है और उत्तर पर्याय उसका कार्य है</strong> </span><br /> | ||
आ.मी./ | आ.मी./58 <span class="SanskritGatha">कार्योत्पाद: क्षयो हेतुर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षा: खपुष्पवत् ।58।</span> =<span class="HindiText">हेतु कहिये उपादान कारण ताका क्षय कहिए विनाश है सो ही कार्य का उत्पाद है। जातै हेतु के नियमते कार्य का उपजना है। ते उत्पाद विनाश भिन्न लक्षणतै न्यारे न्यारे हैं। जाति आदि के अवस्थानतै भिन्न नाहीं हैं–कथंचित् अभेद रूप हैं। परस्पर अपेक्षा रहित होय तो आकाश पुष्पवत् अवस्तु होय। (अष्टसहस्री/श्लो.58) </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/6/14/37/25 <span class="SanskritText">सर्वेषामेव तेषां पूर्वोत्तरकालभाव्यवस्थाविशेषार्पणाभेदादेकस्य कार्यकारणशक्तिसमन्वयो न विरोधस्यास्पदमित्यविरोधसिद्धि:।</span> =<span class="HindiText">सभी वादी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं। अत: एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूप से होता ही है।</span><br /> | ||
<span class="HindiText"><strong>अष्टसहस्री/ | <span class="HindiText"><strong>अष्टसहस्री/श्लो.10 टीका का भावार्थ </strong>(द्रव्यार्थिक व्यवहार नय से मिट्टी घट का उपादान कारण है। ऋजुसूत्रनय से पूर्व पर्याय घट का उपादान कारण है। तथा प्रमाण से पूर्व पर्याय विशिष्ट मिट्टी घट का उपादान कारण है।)</span><br /> | ||
<strong> | <strong>श्लो.वा. 2/1/7/12/539/5</strong> <span class="SanskritText">तथा सति रुपरसयोरेकार्थात्मकयोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तिरेव लिङ्गलिङ्गिव्यवहारहेतु: कार्यकारणभावस्यापि नियतस्य तदभावेऽनुपपत्ते: संतानान्तरवत् ।</span> =<span class="HindiText">आप बौद्धों के यहाँ मान्य अर्थक्रिया में नियत रहना रूप कार्यकारण भाव भी एक द्रव्य प्रत्यासत्ति नामक सम्बन्ध के बिना नहीं बन सकता है। किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि उत्तरवर्ती पर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं। (श्लो.वा./पु.2/1/8/10/596)</span><br /> | ||
<strong>अष्टसहस्री/पृ. | <strong>अष्टसहस्री/पृ.211 की टिप्पणी</strong>–<span class="SanskritText">नियतपूर्वक्षणवर्तित्वं कारणलक्षणम् । नियतोत्तरक्षणवर्तित्वं कार्यलक्षणम् ।</span> =<span class="HindiText">नियतपूर्वक्षणवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरक्षणवर्ती कार्य होता है।</span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.1/245/289/3 <span class="PrakritText">पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे।</span> =<span class="HindiText">(जिस कारण से द्रव्य कर्म सर्वदा विशिष्टपने को प्राप्त नहीं होते हैं) वह कारण प्रागभाव है। प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और प्रागभाव का विनाश द्रव्य क्षेत्र काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है, (इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं।)</span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./222-223<span class="PrakritText"> पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं। उत्तर—परिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा।222। कारणकज्जविसेसा तीसु वि कालेसु हुंति वत्थूणं। एक्केक्कम्मि य समए पुव्वुत्तर-भावमासिज्ज।223।</span> =<span class="HindiText">पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियम से कार्य रूप है।222। वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणामों को लेकर तीनों ही कालों में प्रत्येक समय में कारणकार्य भाव होता है।223।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./119/168/10<span class="SanskritText"> मुक्तात्मनां य एव....मोक्षपर्यायेण भव उत्पाद: स एव.... निश्चयमोक्षमार्गपर्यायेण विलयो विनाशस्तौ च मोक्षपर्यायमोक्षमार्गपर्यायौ कार्यकारणरूपेण भिन्नौ।</span> =<span class="HindiText">मुक्तात्माओं की जो मोक्ष पर्याय का उत्पाद है वह निश्चयमोक्षमार्गपर्याय का विलय है। इस प्रकार अभिन्न होते हुए भी मोक्ष और मोक्षमार्गरूप दोनों पर्यायों में कार्यकारणरूप से भेद पाया जाता है (प्र.सा.ता.वृ./8/60/11) (और भी देखो)—‘समयसार’ व ‘मोक्षमार्ग/3/3’ <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.2.5" id="I.2.5"> एक वर्तमानमात्र पर्याय | <li><span class="HindiText"><strong name="I.2.5" id="I.2.5"> एक वर्तमानमात्र पर्याय स्वयं ही कारण है और स्वयं ही कार्य है—</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/33/1/95/6 <span class="SanskritText">पर्याय एवार्थ: कार्यमस्य न द्रव्यम् । अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात्, स एवैक: कार्यकारणव्यपदेशमार्गात् पर्यायार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">पर्याय ही है अर्थ या कार्य जिसका सो पर्यायार्थिक नय है। उसकी अपेक्षा करने पर अतीत और अनागत पर्याय विनष्ट व अनुत्पन्न होने के कारण व्यवहार योग्य ही नहीं हैं। एक वर्तमान पर्याय में ही कारणकार्य का व्यपदेश होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.2.6" id="I.2.6">कारणकार्य में कथंचित् भेदाभेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="I.2.6" id="I.2.6"></a>कारणकार्य में कथंचित् भेदाभेद</strong> </span><br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./58<span class="SanskritText"> नियमाल्लक्षणात्पृथक् ।</span> =<span class="HindiText">पूर्वोत्तर पर्याय विशिष्ट वे उत्पाद व विनाश रूप कार्यकारण क्षेत्रादि से एक होते हुए भी अपने-अपने लक्षणों से पृथक् है।<br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./9-14 (कार्य के सर्वथा भाव या अभाव का निरास)<br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./24-36 (सर्वथा अद्वैत या पृथक्त्व का निराकरण)<br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./37-45 (सर्वथा नित्य व अनित्यत्व का निराकरण)<br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./57-60 (सामान्यरूप से उत्पाद व्ययरहित है, विशेषरूप से वही उत्पाद व्ययसहित है)<br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./61-72 (सर्वथा एक व अनेक पक्ष का निराकरण)</span><br /> | ||
श्लो.वा./2/1/7/12/539/6 <span class="SanskritText">न हि क्वचित् पूर्वे रसादिपर्याया: पररसादिपर्यायाणामुपादानं नान्यत्र द्रव्ये वर्तमाना इति नियमस्तेषामेकद्रव्यतादात्म्यविरहे कथंचिदुपपन्न:।</span>=<span class="HindiText">किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि पर्याय उत्तरवर्ती समय में होने वाले रसादिपर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं, किन्तु दूसरे द्रव्यों में वर्त रहे पूर्वसमयवर्ती रस आदि पर्याय इस प्रकृत द्रव्य में होने वाले रसादिक उपादान कारण नहीं है। इस प्रकार नियम करना उन-उन रूपादिकों के एक द्रव्य तादात्म्य के बिना कैसे भी नहीं हो सकता।</span><br /> | |||
ध. | ध.12/4,2,8,3/280/3<span class="SanskritText"> सव्वस्स कज्जकलावस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं, कज्जादो कारणं पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात्, सर्वसंभवाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च।</span> =<span class="HindiText">सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप कारण से अभेद है। इस (द्रव्यार्थिक) नय का अवलम्बन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है तथा कार्य से कारण भी अभिन्न हैं, क्योंकि—1. असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता, 2. नियत उपादान की अपेक्षा की जाती है, 3. किसी एक कारण से सभी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते, 4. समर्थकारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, 5. तथा असत् कार्य के साथ कारण का सम्बंध भी नहीं बन सकता।<br /> | ||
<strong>नोट—</strong>(इन सभी पक्षों का ग्रहण उपरोक्त आप्तमीमांसा के उद्धरणों में तथा उसी के आधार पर (ध. | <strong>नोट—</strong>(इन सभी पक्षों का ग्रहण उपरोक्त आप्तमीमांसा के उद्धरणों में तथा उसी के आधार पर (ध.15/17-31) में विशद रीति से किया गया है)</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./365 <span class="PrakritText">उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं।365। </span>=<span class="HindiText">उत्पद्यमान पर्याय तो कार्य है और उसको उत्पन्न करने वाला आत्मा कारण है, इसलिए एक ही द्रव्य में कारणकार्य भाव का भेद विरूद्ध नहीं है।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./37/97-98 <span class="SanskritText">उपादानकारणमपि .... मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति। यदि पुनरेकान्तेनोपादानकारणस्य कार्येण सहाभेदो भेदो वा भवति तर्हि पूर्वोक्तसुवर्णमृत्तिकादृष्टान्तद्वयवत्कार्यकारणभावो न घटते।</span> =<span class="HindiText">उपादान कारण भी मिट्टीरूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूलरूप उपादान कारण के समान (अथवा सुवर्ण की अधस्तन व अपरितन पाक अवस्थाओंवत्) कार्य से एकदेश भिन्न होता है। यदि सर्वथा उपादान कारण का कार्य के साथ अभेद व भेद हो तो उपरोक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टांतों की भाँति कार्य और कारण भाव सिद्ध नहीं होता।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.3.1" id="I.3.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.3.1" id="I.3.1"> भिन्न गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/20/3-4/70/33 <span class="SanskritText">कश्चिदाह--मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति, कारणगुणानुविधानं हि कार्यं दृष्टं यथा मृन्निमित्तो घटो मृदात्मक:। अथातदात्मकमिष्यते तत्पूर्वकत्वं तर्हि तस्य हीयते इति।3। न वैष दोष:। किं कारणम् । निमित्तमात्रत्वाद् दण्डादिवत्.... मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसांनिध्याद् घटो भवति न दण्डादय:, इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वम् । तथा पर्यायिपर्याययो: स्यादन्यत्वाद् आत्मन: स्वयमन्त:श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्ये मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति .... अतो बाह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव ....श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्यात् श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति तस्य निमित्तमात्रत्वात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—जैसे मिट्टी के पिण्ड से बना हुआ घड़ा मिट्टी रूप होता है, उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते ? <strong>उत्तर</strong>—मतिज्ञान श्रुतज्ञान में निमित्तमात्र है, उपादान नहीं। उपादान तो श्रुत पर्याय से परिणत होने वाला आत्मा है। जैसे मिट्टी ही बाह्य दण्डादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर अभ्यन्तर परिणाम के सान्निध्य से घड़ा बनती है, परन्तु दण्ड आदिक घड़ा नहीं बन जाते और इसलिए दण्ड आदिकों को निमित्तमात्रपना प्राप्त होता है। उसी प्रकार पर्यायी व पर्याय में कथंचित् अन्यत्व होने के कारण आत्मा स्वयं ही जब अपने अन्तरंग श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होता है तब मतिज्ञान निमित्तमात्र होता है। इसलिए बाह्य मतिज्ञानादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर आत्मा ही श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होने से श्रुतरूप होता है, मतिज्ञान नहीं होता। इसलिए उसको निमित्तपना प्राप्त होता है। (स.सि./1/20/120/8)</span><br /> | ||
श्लो.वा./2/1/7/13/563/19 <span class="SanskritText">सहकारिकारणेण कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धि:; यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमन्यत्कार्यमितिप्रतीतम् ।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सहकारी कारणों के साथ पूर्वोक्त कार्यकारण भाव कैसे ठहरेगा, क्योंकि तहाँ एक द्रव्य की पर्यायें न होने के कारण एक द्रव्य नाम के सम्बंध का तो अभाव है? <strong>उत्तर</strong>—काल प्रत्यासत्ति नाम के विशेष सम्बंध से तहाँ कार्यकारणभाव सिद्ध हो सकता है। जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है, इस प्रकार कालिक सम्बंध सबको प्रतीत हो रहा है।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="I.3.2" id="I.3.2"> उचित ही | <li><span class="HindiText"><strong name="I.3.2" id="I.3.2"> उचित ही द्रव्य को कारण कहा जाता है, जिस किसी को नहीं</strong></span><br /> | ||
श्लो.वा.3/1/13/48/221/24 तथा 222/19 <span class="SanskritText">स्मरणस्य हि न अनुभवमात्रं कारणं सर्वस्य सर्वत्र स्वानुभूतेऽर्थे स्मरण-प्रसंगात्। नापि दृष्टसजातीयदर्शनं सर्वस्य दृष्टस्य हेतोर्व्यभिचारात्। तदविद्यावासनाप्रहाणं तत्कारणमिति चेत्, सैव योग्यता स्मरणावरणक्षयोपशमलक्षणा तस्यां च सत्यां सदुपयोगविशेषा वासना प्रबोध इति नाममात्रं भिद्यते।</span> =<span class="HindiText">पदार्थों का मात्र अनुभव कर लेना ही स्मरण का कारण नहीं है, क्योंकि इस प्रकार सभी जीवों को सर्वत्र सभी अपने अनुभूत विषयों के स्मरण होने का प्रसंग होगा। देखे हुए पदार्थों के सजातीय पदार्थों को देखने से वासना उद्बोध मानो सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस प्रकार अन्वय व व्यतिरेक का व्यभिचार आता है। यदि उस स्मरणीय पदार्थ की लगी हुई अविद्यावासना का प्रकृष्ट नाश हो जाना उस स्मरण का कारण मानते हो तब तो उसी का नाम योग्यता हमारे यहाँ कहा गया है। वह योग्यता स्मरणावरण कर्म का क्षयोपशम स्वरूप इष्ट की गयी है, और उस योग्यता के होते संते श्रेष्ठ उपयोग विशेषरूप वासना (लब्धि) को प्रबोध कहा जाता है। तब तो हमारे और तुम्हारे यहाँ केवल नाम का ही भेद है।</span><br /> | |||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./99,102 <span class="SanskritText">वैभाविकस्य भावस्य हेतु: स्यात्संनिकर्षत:। तत्रस्थोऽप्यपरो हेतुर्न स्यात्किंवा वतेति चेत्।99। बद्ध: स्याद्बद्धयोर्भाव: स्यादबद्धोऽप्यबद्धयो:। सानुकूलतया बन्धो न बन्ध: प्रतिकूलयो:।102।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि एकक्षेत्रावगाहरूप होने से वह मूर्त द्रव्य जीव के वैभाविक भाव में कारण हो जाता है तो खेद है कि वहीं पर रहने वाला विस्रसोपचय रूप अन्य द्रव्य समुदाय भी विभाव परिणमन का कारण क्यों नहीं हो जाता ? <strong>उत्तर</strong>—एक दूसरे से बँधे हुए दोनों के भाव को बद्ध कहते हैं और एक दूसरे से नहीं बँधे हुए दोनों के भाव को अबद्ध कहते हैं, क्योंकि, जीव में बन्धक शक्ति तथा कर्म में बन्धने की शक्ति की परस्पर अनुकूलताई से बन्ध होता है, और दोनों के प्रतिकूल होने पर बन्ध नहीं होता है।102। अर्थात् बँधे हुए कर्म ही उदय आने पर विभाव में निमित्त होते हैं, विस्रसोपचयरूप अबद्ध कर्म नहीं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.3.3" id="I.3.3"> कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य | <li><span class="HindiText"><strong name="I.3.3" id="I.3.3"> कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तु मात्र को कारण नहीं कह सकते।</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.2/,1/444/3 <span class="PrakritText">‘‘दव्वेंदियाणं णिप्पत्तिं पडुच्च के वि दस पाणे भणंति। तण्ण घडदे। कुदो। भाविंदियाभावादो।’’</span> =<span class="HindiText">कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियों की पूर्णता को (केवली भगवान् के) दश प्राण कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सयोगि जिन के भावेन्द्रिय नहीं पायी जाती है।</span><br /> | ||
प.मु./ | प.मु./3/61,63 <span class="SanskritText">न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धे।61। तद्वयापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।63।</span>=<span class="HindiText">पूर्वचर व उत्तरचर हेतु साध्य के काल में नहीं रहते इसलिए उनका तादात्म्य सम्बंध न होने से तो वे स्वभाव हेतु नहीं कहे जा सकते और तदुत्पत्ति सम्बंध न रहने से कार्य हेतु भी नहीं कहे जा सकते।61। कारण के सद्भाव में कार्य का होना कारण के व्यापार के आधीन है।63। देखें [[ मिथ्यादृष्टि#2.6 | मिथ्यादृष्टि - 2.6 ]](कार्यकाल में उपस्थित होने मात्र से कोई पदार्थ कारण नहीं बन जाता)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.3.4" id="I.3.4">कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="I.3.4" id="I.3.4"></a>कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु कारण कहलाती है</strong> </span><br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./42<span class="SanskritText"> यद्यसत्सर्वथा कार्यं तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वास: कार्यंजन्मनि।42।</span>=<span class="HindiText">कार्य को सर्वथा असत् मानने पर ‘यही इसका कारण है अन्य नहीं’ यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि इसका कोई नियामक नहीं है। और यदि कोई नियामक हो तो वह कारण में कार्य के अस्तित्व को छोड़कर दूसरा भला कौन सा हो सकता है। (ध.12/4,2,8,3/280/5) (ध.15/5/21)</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/9/11/46/8<span class="SanskritText"> दृष्टो हि लोके छेत्तुर्देवदत्ताद् अर्थान्तरभूतस्य परशो: .... काठिन्यादिविशेषलक्षणोपेतस्य सत: करणभाव:। न च तथा ज्ञानस्य स्वरूपं पृथगुपलभामहे। .... दृष्टो हि परशो: देवदत्ताधिष्ठितोद्यमाननिपातनापेक्षस्य करणभाव:, न च तथा ज्ञानेन किंचित्कर्तृसाध्यं क्रियान्तरमपेक्ष्यमस्ति। किंच तत्परिणामाभावात् । छेदनक्रियापरिणतेन हि देवदत्तेन तत्क्रियाया: साचिव्ये नियुज्यमान: परशु: ‘करणम्’ इत्येतदयुक्तम्, न च तथा आत्मा ज्ञानक्रियापरिणत:।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार छेदनेवाले देवदत्त से करणभूत फरसा कठोर तीक्ष्ण आदि रूप से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, उस प्रकार (आप बौद्धों के यहाँ) ज्ञान का पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे कि उसे करण बनाया जाये। फरसा भी तब करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ी के भीतर घुसने रूप व्यापार की अपेक्षा रखता है, किंतु (आपके यहाँ) ज्ञान में कर्ता के द्वारा की जाने वाली कोई क्रिया दिखाई नहीं देती, जिसकी अपेक्षा रखने के कारण उसे करण कहा जा सके।<br /> | ||
स्वयं छेदन क्रिया में परिणत देवदत्त अपनी सहायता के लिए फरसे को लेता है और इसलिए फरसा करण कहलाता है। पर (आपके यहाँ) आत्मा स्वयं ज्ञान क्रिया रूप से परिणति ही नहीं करता (क्योंकि वे दोनों भिन्न स्वीकार किये गये हैं)। </span><br /> | |||
श्लो.वा. 2/1/7/13/563/2 <span class="SanskritText">यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम् ।</span> =<span class="HindiText">जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न होता है, वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है।</span><br /> | |||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./84 <span class="SanskritText">बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापारं कुर्वाण: कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्वयवहार:।</span> =<span class="HindiText">बाह्य में व्याप्यव्यापक भाव से घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल ऐसे व्यापार को करता हुआ तथा घड़े के द्वारा किये गये पानी के उपयोग से उत्पन्न तृप्ति को भाव्यभावक भाव के द्वारा अनुभव करता हुआ, कुम्हार घड़े का कर्ता है और भोक्ता है, ऐसा लोगों का अनादि से रूढ व्यवहार है।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./160/230/13 <span class="SanskritText">निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण परिणममानस्यापि सुवर्णपाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्षमार्गस्य बहिरङ्गसाधको भवतीति सूत्रार्थ:। </span>=<span class="HindiText">अपने ही उपादान कारण से स्वयमेव निश्चयमोक्षमार्ग की अपेक्षा शुद्ध भावों से परिणमता है वहाँ यह व्यवहार निमित्त कारण की अपेक्षा साधन कहा गया है। जैसे –सुवर्ण यद्यपि अपने शुद्ध पीतादि गुणों से प्रत्येक आँच में शुद्ध चोखी अवस्था को धरे है, तथापि बहिरंग निमित्तकारण अग्नि आदिक वस्तु का प्रयत्न है। तैसे ही व्यवहार मोक्षमार्ग है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.3.5" id="I.3.5"> अनेक कारणों में से प्रधान का ही ग्रहण करना | <li><span class="HindiText"><strong name="I.3.5" id="I.3.5"> अनेक कारणों में से प्रधान का ही ग्रहण करना न्याय है</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/21/125 <span class="SanskritText">भवं प्रतीत्य क्षयोपशम: संजायत इति कृत्वा भव: प्रधानकारणमित्युपदिश्यते।</span> =<span class="HindiText">(भवप्रत्यय अवधिज्ञान में यद्यपि भव व क्षयोपशम दोनों ही कारण उपलब्ध हैं, परन्तु) भव का अवलम्बन लेकर (तहाँ) क्षयोपशम होता है, (सम्यक्त्व व चारित्रादि गुणों की अपेक्षा से नहीं)। ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है, ऐसा उपदेश दिया जाता है। (कि यह अवधिज्ञान भव प्रत्यय है)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4" id="I.4">कारण कार्य | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="I.4" id="I.4"></a>कारण कार्य सम्बन्धी नियम</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.1" id="I.4.1">कारण सदृश ही कार्य होता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="I.4.1" id="I.4.1"></a>कारण सदृश ही कार्य होता है</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,41/270/5 <span class="SanskritText">कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेद्धुं पार्यते सकलनैयायिकलोकप्रसिद्धत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, यह बात सम्पूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है।</span><br /> | ||
ध. | ध.10/4,2,4,175/432/2 <span class="PrakritText">सव्वत्थकारणाणुसारिकज्जुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">सब जगह कारण के अनुसार ही कार्य पाया जाता है।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./368 की चूलिका-<span class="SanskritText">इति न्यायादुपादानकारणसदृशं कार्यं भवति।</span><span class="HindiText"> इस न्याय के अनुसार उपादान सदृश कार्य होता है। (विशेष दे॰‘समयसार’)</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./68 <span class="SanskritText">कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति।</span> =<span class="HindiText">कारण जैसा ही कार्य होता है, ऐसा समझकर जौ पूर्वक होने वाले जो जौ (यव), वे जौ (यव) ही होते हैं। (स.सा./आ./130-130) (पं.ध./पू./406)</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./8/10/11 <span class="SanskritText">उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति।</span>=<span class="HindiText">उपादान कारण सदृश ही कार्य होता है। (पं.का./ता.वृ./23/49/14)</span><br /> | ||
स.म./ | स.म./27/304/18 <span class="SanskritText">उपादानानुरूपत्वाद् उपादेयस्य।</span>=<span class="HindiText">उपादेयरूप कार्य उपादान कारण के अनुरूप होता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.2" id="I.4.2">कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="I.4.2" id="I.4.2"></a>कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/20/120 <span class="SanskritText">यदि मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति ‘कारणसदृशं हि लोके कार्यं दृष्टम्’ इति। नैतदैकान्तिकम्। दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मक:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है; तो वह श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दण्डादि से होती है, तो भी दण्डाद्यात्मक नहीं होता। (और भी देखें [[ कारण#I.3.1 | कारण - I.3.1]])</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/20/5/71/11 <span class="SanskritText">नायमेकान्तोऽस्ति–‘कारणसदृशमेव कार्यम्’ इति कुत:। तत्रापि सप्तभंगीसंभवात् कथम् । घटवत् । यथा घट: कारणेन मृत्पिण्डेन स्यात्सदृश: स्यान्न सदृश: इत्यादि। मृद्द्रव्याजीवानुपयोगाद्यादेशात् स्यात्सदृश:, पिण्डघटसंस्थानादिपर्यायादेशात् स्यान्न सदृश:।…यस्यैकान्तेन कारणानुरूपं कार्यम्, तस्य घटपिण्डशिवकादिपर्याया उपालभ्यन्ते। किंच, घटेन जलधारणादिव्यापारो न क्रियते मृत्पिण्डे तददर्शनात् । अपि च मृत्पिण्डस्य घटत्वेन परिणामवद् घटस्यापि घटत्वेन परिणाम: स्यात् एकान्तसदृशत्वात् । न चैवं भवति। अतो नैकान्तेन कारणसदृशत्वम्। </span>=<span class="HindiText">यह कोई एकान्त नहीं है कि कारण सदृश ही कार्य हो। पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से मिट्टी रूप कारण के समान घड़ा होता है, पर पिण्ड और घट आदि पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं, यदि कारण के सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्था से भी पिण्ड शिवक आदि पर्यायें मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृत्पिण्ड में जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़े में भी नहीं भरा जाना चाहिए और मिट्टी की भाँति घट का घट रूप से ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं। कारण कि दोनों सदृश जो हैं। परन्तु ऐसा तो कभी होता नहीं है अत: कार्य एकान्त से कारण सदृश नहीं होता।</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,7,177/81/3<span class="PrakritText"> संजमासंजमपरिणामादो जेण संजमपरिणामो अणंतगुणो तेण पदेसणिज्जराए वि अणंतगुणाए होदव्वं, एदम्हादो अण्णत्थ सव्वत्थ कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति। ण, जोगगुणगाराणुसारिपदेसगुणगारस्स अणंतगुणत्तविरोहादो। …ण च कज्जं कारणाणुसारी चेव इति णियमो अत्थि, अंतरंगकारणावेक्खाए पव्वत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यत: संयमासंयम रूप परिणाम की अपेक्षा संयमरूप परिणाम अनन्तगुणा है अत: वहाँ प्रदेश निर्जरा भी उससे अनन्तगुणी होनी चाहिए। क्योंकि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारण के अनुरूप ही कार्य की उपलब्धि होती है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, प्रदेश निर्जरा का गुणकार योगगुणकार का अनुसरण करने वाला है, अतएव उसके अनन्तगुणे होने में विरोध आता है। दूसरे–कार्य कारण का अनुसरण करता ही हो, ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरंग कारण की अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्य के बहिरंग कारण के अनुसरण करने का नियम नहीं बन सकता।</span><br /> | ||
ध. | ध.15/16/10 <span class="PrakritText">ण च एयंतेण कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वं, मट्टियपिंडादो मट्टियपिंडं मोत्तूण घटघटी-सरावालिंजरुट्टियादीणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। सुवण्णादो सुवण्णस्स घटस्सेव उप्पत्तिदंसणादो कारणाणुसारि चेव कज्जं त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, कढिणादो, सुवण्णादो जलणादिसंजोगेण सुवण्णजलुप्पत्तिदंसणादो। किं च–कारणं व ण कज्जमुप्पज्जदि, सव्वप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो। जदि एयंतेण (ण) कारणाणुसारि चेव कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदव्वादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेयणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ति पावेज्ज। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि। एत्थ परिहारो वुच्चदे–होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारित्तं, ण सव्वप्पणा; उप्पादवयट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्वाणं सगवइसे सियगुणा विणाभावि सयलगुणाणमपरिञ्चाएण पज्जायंतरगमणदंसणादो।</span> =<span class="HindiText">’कारणानुसारी ही कार्य होना चाहिए, यह एकान्त नियम भी नहीं है, क्योंकि मिट्टी के पिण्ड से मिट्टी के पिण्ड को छोड़कर घट, घटी, शराब, अलिंजर और उष्ट्रिका आदिक पर्याय विशेषों की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग अनिवार्य होगा। यदि कहो कि सुवर्ण से सुवर्ण के घट की ही उत्पत्ति देखी जाने से कार्य कारणानुसारी ही होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, कठोर सुवर्ण से अग्नि आदि का संयोग होने पर सुवर्ण जल की उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि कार्य सर्वात्मना कारणरूप ही रहेगा, इसलिए उसकी उत्पत्ति का विरोध है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि सर्वथा कारण का अनुसरण करने वाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्य से अमूर्त आकाश की उत्पत्ति हो जानी चाहिए। इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्य से सचेतन जीव द्रव्य की भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिए। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता, इसलिए कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिए ? <strong>उत्तर</strong>–यहाँ उपर्युक्त शंका का परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूप से कार्य कारणानुसारी भले ही हो परन्तु वह सर्वात्मस्वरूप वैसा सम्भव नहीं है; क्योंकि, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गुणों के अविनाभावी समस्त गुणों का परित्याग न करके अन्य पर्याय को प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं। </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/146/1 <span class="SanskritText">कारणानुगुणकार्यनियमानुपलम्भात् ।</span>=<span class="HindiText">कारणगुणानुसार कार्य के होने का नियम नहीं पाया जाता। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.3" id="I.4.3"> एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.3" id="I.4.3"> एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते</strong> </span><br /> | ||
सांख्यकारिका/9 <span class="SanskritText">सर्व संभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् ।</span>=<span class="HindiText">किसी एक कारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति सम्भव नहीं। समर्थ कारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है। (ध.12/4,2,8,113/280/5)<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.4" id="I.4.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.4" id="I.4.4"> परन्तु एक कारण से अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/10/328/6 <span class="SanskritText">एककारणसाध्यस्य कार्यस्यानेकस्य दर्शनात् तुल्येऽपि प्रदोषादौ ज्ञानदर्शनावरणास्रवहेतव:।</span>=<span class="HindiText">एक कारण से भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिक (कारणों) के एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनों का आस्रव (रूप कार्य) सिद्ध होता है। (रा.वा./6/10/10-12/518)</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,8,2/278/10 <span class="PrakritText">कधमेगो पाणादिवादो अक्कमेण दोण्णं कज्जाणं संपादओ। ण एयादो एयादो मोग घादोअवयव विभागट्ठाणसंचालणक्खेत्तंतरवत्तिखप्परकज्जाणमक्कमेणुप्पत्तिदंसणादो। कथमेगो पाणादिवादो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीयसरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि,, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो। ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–प्राणातिपाति रूप एक ही कारण युगपत् दो कार्यों का उत्पादक कैसे हो सकता है ? (अर्थात् कर्म को ज्ञानावरण रूप परिणमाना और जीव के साथ उसका बन्ध कराना ये दोनों कार्य कैसे कर सकता है) ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, एक मुद्गर से घात, अवयवविभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रान्तर की प्राप्तिरूप खप्पर कार्यों की युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है। <strong>प्रश्न</strong>–प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कार्माण स्कन्धों को एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूप से कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतों में एक की युगपत् वृत्ति का विरोध है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, प्राणातिपातरूप एक ही कारण के अनन्त शक्तियुक्त होने से वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। (और भी देखें [[ वर्गणा#2.6.3 | वर्गणा - 2.6.3 ]]में ध./15)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.5" id="I.4.5"> एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.5" id="I.4.5"> एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./5/17/283/3 <span class="SanskritText">भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–धर्म और अधर्म द्रव्य के जो प्रयोजन हैं, पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक नहीं है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं। यह विशेष रूप से कहा गया है। तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक है।</span><br /> | ||
<strong>रा.वा./ | <strong>रा.वा./5/17/31/464/29</strong> <span class="SanskritText">इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टम्, यथा मृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्तिं प्रति गृहीताभ्यन्तरसामर्थ्य: बाह्यकुलालदण्डचक्रसूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्ष: घटपर्यायेणाविर्भवति, नैक एव मृत्पिण्ड: कुलालादिबाह्यसाधनसंनिधानेन बिना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थ:।</span> =<span class="HindiText">इस लोक में कोई भी कार्य अनेक कारणों से होता देखा जाता है, जैसे मिट्टी का पिण्ड घट कार्यरूप परिणाम की प्राप्ति के प्रति आभ्यन्तर सामर्थ्य को ग्रहण करके भी, बाह्य कुम्हार, दण्ड, चक्र, डोरा, जल, काल व आकाशादि अनेक कारणों की अपेक्षा करके ही घट पर्यायरूप से उत्पन्न होता है। कुम्हार आदिक बाह्य साधनों की सन्निधि के बिना केवल अकेला मिट्टी का पिण्ड घटरूप से उत्पन्न होने को समर्थ नहीं है।</span><br /> | ||
<strong>पं.का./ता.वृ./ | <strong>पं.का./ता.वृ./25/53/4</strong><span class="SanskritText"> गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत: कारणाद् घटोपत्तौ कुम्भकारचक्रचोवरादिवत्, मत्स्यादीनां। जलादिवत्, मनुष्याणां शकटादिवत्, विद्याधराणां विद्यामन्त्रौषधादिवत्, देवानां विमानवदित्यादि कालद्रव्यं गतिकारणम् ।</span>=<span class="HindiText">गतिरूप परिणति में धर्मद्रव्य भी सहकारी है और कालद्रव्य भी। सहकारीकारण बहुत होते हैं जैसे कि घड़े की उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र, चीवर आदि, मछली आदिकों को जल आदि, मनुष्यों को रथ आदि, विद्याधरों को विद्या, मन्त्र, औषधि आदि तथा देवों को विमान आदि। अत: कालद्रव्य भी गति का कारण है। (प.प्र./टी./2/23), (द्र.सं./टी./25/71/12)</span><br /> | ||
<strong>पं.ध./पू./ | <strong>पं.ध./पू./402</strong> <span class="SanskritText">कार्यं प्रतिनियतत्वाद्धेतुद्वैतं न ततोऽतिरिक्त चेत् । तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह।</span>=<span class="HindiText">कार्य के प्रति नियत होने से उपादान और निमित्तरूप दो हेतु ही है, उससे अधिक नहीं है, यदि ऐसा कहो तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, यहाँ पर उन दो हेतुओं के ही मानने रूप नियम का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है।402। (पं.ध./पू./404)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.6" id="I.4.6"> एक ही प्रकार का कार्य | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.6" id="I.4.6"> एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से हो सकता है</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,1,17/69/5 <span class="PrakritText">ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चेव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, खइर-सिंसव-धव-धम्मण-गोमय-सूरयर-सुज्जकंतेहितो समुप्पज्जमाणेक्कग्गिकज्जुवलंभा। </span>=<span class="HindiText">एक कार्य सर्वत्र एक ही कारण से उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि खदिर, शीसम, धौ, धामिन, गोबर, सूर्यकिरण, व सूर्यकान्तमणि, इन भिन्न-भिन्न कारणों से एक अग्निरूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है।</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,8,11/286/11 <span class="PrakritText">कधमेयं कज्जमणेगे उप्पज्जदे। ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघडस्स अण्णादो वि उप्पत्तिदंसणादो। पुरिसं पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचणसरावादओ दीसंति त्ति चे। ण, एत्थ वि कमभाविकोधादीहिंतो उप्पज्जमाणणाणावरणीयस्स दव्वादिभेदेण भेदुवलंभादो। णाणावरणीयसमाणत्तणेण तदेक्कं चे। ण, बहूहिंतो समुप्पज्जमाणघडाणं पि घडभावेण एयत्तुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–एक कार्य अनेक कारणों से कैसे उत्पन्न होता है? (अर्थात् अनेक प्रत्ययों से एक ज्ञानावरणीय ही वेदना कैसे उत्पन्न होती है)। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, एक कुम्भकार से उत्पन्न किये जाने वाले घट की उत्पत्ति अन्य से भी देखी जाती है। <strong>प्रश्न</strong>–पुरूष भेद से पृथक्-पृथक् उत्पन्न होनेवाले कुम्भ, उदंच, व शराब आदि भिन्न-भिन्न कार्य देखे जाते हैं (अथवा पृथक्-पृथक् व्यक्तियों से बनाये गये घड़े भी कुछ न कुछ भिन्न होते ही हैं।) ? <strong>उत्तर</strong>–तो यहाँ भी क्रमभावी क्रोधादिकों से उत्पन्न होने वाले ज्ञानावरणीयकर्म का द्रव्यादिक के भेद से भेद पाया जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानावरणीयत्व की समानता होने से वह (अभेद भेदरूप होकर भी) एक ही है? <strong>उत्तर</strong>–इसी प्रकार यहाँ भी बहुतों के द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले घटों के भी घटत्व रूप से अभेद पाया जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.7" id="I.4.7"> कारण व कार्य पूर्वोत्तर कालवर्ती ही होते हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.7" id="I.4.7"> कारण व कार्य पूर्वोत्तर कालवर्ती ही होते हैं</strong></span><br /> | ||
श्लो.वा.2/1/4/23/121/19 <span class="SanskritText">य एव आत्मन: कर्मबन्धविनाशस्य काल: स एव केवलत्वाख्यमोक्षोत्पादस्येति चेत्, न, तस्यायोगकेवलिचरमसमयत्वविरोधात् पूर्वस्य समयस्यैव तथात्वापत्ते:।=</span><span class="HindiText">यदि इस उपान्त्य समय में होने वाली निर्जरा को भी मोक्ष कहा जायेगा तो उससे भी पहले समय में परमनिर्जरा कहनी पड़ेगी। क्योंकि कार्य एक समयपूर्व में रहना चाहिए। प्रतिबन्धकों का अभावरूप कारण भले कार्यकाल में रहता होय किन्तु प्रेरक या कारक कारण तो कार्य के पूर्व समय में विद्यमान होने चाहिए–(ऐसा कहना भी ठीक नहीं है) क्योंकि इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम आदि समयों में मोक्ष होने का प्रसंग हो जायेगा; कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत: यही व्यवस्था होना ठीक है कि अयोग केवली का चरम समय ही परम निर्जरा का काल है और उसके पीछे का समय मोक्ष का है।</span><br /> | |||
ध. | ध.1/1,1,47/279/7<span class="SanskritText"> कार्यकारणयोरेककालं समुत्पत्तिविरोधात् ।</span>=<span class="HindiText">कार्य और कारण इन दोनों की एक काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती है।</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,1/3/8<span class="PrakritText"> ण च कारणपुव्वकालभावि कज्जमत्थि, अणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">कारण से पूर्व काल में कार्य होता नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।</span><br /> | ||
स्या.म./16/196/22 <span class="SanskritText">न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयो: सव्येतरगोविषाणयोरिव कारणकार्यभावो युक्त:। नियतप्राक्कालभावित्वात् कारणस्य। नियतोत्तरकालभावित्वात् कार्यस्य। एतदेवाहु: न तुल्यकाल: फलहेतुभाव इति। फलं कार्यं हेतु: कारणम्, तयोर्भाव: स्वरूपम्, कार्य-कारणभाव:। स तुल्यकाल: समानकालो न युज्यत इत्यर्थं:।</span> =<span class="HindiText">प्रमाण और प्रमाण का फल बौद्ध लोगों के मत में गाय के बायें और दाहिने सींगों की तरह एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें कार्यकारण सम्बन्ध नहीं हो सकता। क्योंकि नियत पूर्वकालवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरकालवर्ती उसका कार्य होता है। फल कार्य है और हेतु कारण। उनका भाव या स्वरूप ही कार्यकारण भाव है। वह तुल्यकाल में ही नहीं हो सकता।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.8" id="I.4.8"> कारण व कार्य में | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.8" id="I.4.8"> कारण व कार्य में व्याप्ति आवश्यक होती है</strong> </span><br /> | ||
आप्त.प./ | आप्त.प./9/41/2 <span class="SanskritText">तत्कारणकत्वस्य तदन्वयव्यतिरेकोपलम्भेन व्याप्तत्वात् कुलालकारणकस्य घटादे: कुलालान्वयव्यतिरेकोपलम्भप्रसिद्धे:।</span>=<span class="HindiText">जैसे कुम्हार से उत्पन्न होने वाले घड़ा आदि में कुम्हार का अन्वय व्यतिरेक स्पष्टत: प्रसिद्ध है। अत: सब जगह बाधकों के अभाव से अन्वय व्यतिरेक कार्य के व्यवस्थित होते हैं, अर्थात् जो जिसका कारण होता है उसके साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है।</span><br /> | ||
ध./पु. | ध./पु. 7/2, 1, 7/10/5 <span class="PrakritText">जस्स अण्ण–विदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयविदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं।</span>=<span class="HindiText">जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ नियम से जिसका अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है। (ध./8/3,20/51/3)।</span><br /> | ||
ध./ | ध./12/4,2,8,13/289/4 <span class="SanskritText">यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिदि न्यायात्</span>=<span class="HindiText">जो जिसके होने पर ही होता है न होने पर नहीं वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। (ध./14/5,6,93/?/2)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.9" id="I.4.9"> कारण | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.9" id="I.4.9"> कारण अवश्य कार्य का उत्पादक हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong> </span><br /> | ||
ध./ | ध./12/4,2,8,13/289/8<span class="SanskritText"> नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति, कुम्भमकुर्वत्यपि कुम्भकारे कुम्भकारव्यवहारोपलम्भात् ।</span>=<span class="HindiText">कारण कार्यवाले अवश्य हों ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि, घट को न करने वाले भी कुम्भकार के लिए ‘कुम्भकार’ शब्द का व्यवहार पाया जाता है।</span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./194/410/9 <span class="SanskritText">न चावश्यं कारणानि कार्यवन्ति। धूमजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात् काष्ठाद्यपेक्षस्य।</span>=<span class="HindiText">कारण अवश्य कार्यवान् होते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है, काष्ठादि की अपेक्षा रखने वाला अग्नि धूम को उत्पन्न करेगा ही, ऐसा नियम नहीं।</span><br /> | ||
न्या.दी./3/53/96 <span class="SanskritText">ननु कार्यं कारणानुमापकमस्तु कारणाभावे कार्यस्यानुपपत्ते:। कारणं तु कार्यभावेऽपि संभवति, यथा धूमाभावेऽपि वह्नि: सुप्रतीत:। अतएव वह्निर्न धूमं गमयतीति चेत्; तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्य कार्याव्यभिचारित्वेन कार्यं प्रति हेतुत्वाविरोधात्।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–कारण तो कार्य का ज्ञापक (जनाने वाला) हो सकता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता किन्तु कारण कार्य के बिना भी सम्भव है, जैसे-धूम के बिना भी अग्नि देखी जाती है। अतएव अग्नि धूम की गमक नहीं होती, (धूम ही अग्नि का गमक होता है), अत: कारणरूप हेतु को मानना ठीक नहीं है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, जिस कारण की शक्ति प्रकट है–अप्रतिहत है, वह कारण कार्य का व्यभिचारी नहीं होता है। अत: (उत्पादक न भी हो, पर) ऐसे कारण को कार्य का ज्ञापक हेतु मानने में कोई दोष नहीं है।<br /> | |||
देखें [[ मंगल#2.6 | मंगल - 2.6 ]](जिस प्रकार औषधियों का औषधित्व व्याधियों के शमन न करने पर भी नष्ट नहीं होता इसी प्रकार मंगल का मंगलपना विघ्नों का नाश न करने पर भी नष्ट नहीं होता)। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="I.4.10" id="I.4.10"> कारण कार्य का | <li><span class="HindiText"><strong name="I.4.10" id="I.4.10"> कारण कार्य का उत्पादक न ही हो यह भी कोई नियम नहीं</strong><BR> </span>ध./9/4,1,44/117/10<span class="PrakritText"> ण च कारणाणि कज्जं ण जणेंति चेवेति णियमो अत्थि, तहाणुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText">कारण कार्य को उत्पन्न करते ही नहीं हैं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव किसी काल में किसी भी जीव में कारणकलाप सामग्री निश्चय से होना चाहिए।</span></li> | ||
<li><strong class="HindiText" name="I.4.11" id="I.4.11"> कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong><BR> रा.वा./ | <li><strong class="HindiText" name="I.4.11" id="I.4.11"> कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं</strong><BR> रा.वा./10/3/1/642/10 <span class="SanskritText">नायमेकान्त: निमित्तापाये नैमित्तिकानां निवृत्ति: इति।</span>=<span class="HindiText">निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है। (जैसे दीपक जला चुकने के पश्चात् उसके कारणभूत दियासलाई के बुझ जाने पर भी कार्यभूत दीपक बुझ नहीं जाता)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="i.4.12" id="i.4.12"> कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य की | <li><span class="HindiText"><strong name="i.4.12" id="i.4.12"> कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य की सम्भावना</strong></span> <BR>ध./1/1,1,50/283/6 <span class="SanskritText">किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानन्त्याच्छ्रोतुरावरणक्षयोपशमातिशयाभावात् ।</span> =<span class="HindiText">केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता के आवरण क्षयोपशम अतिशयतारहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से (भी) संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है।</span></li> | ||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
- कारण सामान्य निर्देश
- कारण के भेद व लक्षण
- कारण सामान्य का लक्षण
स.सि./1/21/125/7 प्रत्यय: कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम् । =प्रत्यय, कारण और निमित्त ये एकार्थवाची नाम हैं। (स.सि./1/20/120/7); (रा.वा./1/20/2/70/30)
स.सि./1/7/22/3 साधनमुत्पत्तिनिमित्तं। =जिस निमित्त से वस्तु उत्पन्न होती है वह साधन है।
रा.वा./1/7/.../38/1 साधनं कारणम् । =साधन अर्थात् कारण।
- कारण के भेद
रा.वा./2/8/1/118/12 द्विविधो हेतुर्बाह्य आभ्यन्तरश्च। ....तत्र बाह्यो हेतुर्द्विविध:–आत्मभूतोऽनात्मभूतश्चेति। ....आभ्यन्तरश्च द्विविध:–अनात्मभूत आत्मभूतश्चेति। =हेतु दो प्रकार का है—बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य हेतु भी दो प्रकार का है—अनात्मभूत और आत्मभूत और अभ्यन्तर हेतु भी दो प्रकार का होता है–आत्मभूत और अनात्मभूत। (और भी देखें निमित्त - 1)
- कारण के भेदों के लक्षण
रा.वा./2/8/1/118/14 तत्रात्मना संबन्धमापन्नविशिष्टनामकर्मोपात्तचक्षुरादिकरणग्राम आत्मभूत:। प्रदीपादिरनात्मभूत:।....तत्र मनोवाक्कायवर्गणालक्षणो द्रव्ययोग: चिन्ताद्यालम्बनभूत अन्तरभिनिविष्टत्वादाभ्यन्तर इति व्यपदिश्यमान आत्मनोऽन्यत्वादनात्मभूत इत्यभिधीयते। तन्निमित्तो भावयोगो वीर्यान्तरायज्ञानदर्शनावरणक्षयोपशमनिमित्त आत्मन: प्रसादश्चात्मभूत इत्याख्यामर्हति। =(ज्ञान दर्शनरूप उपयोग के प्रकरण में) आत्मा से सम्बद्ध शरीर में निर्मित चक्षु आदि इन्द्रियाँ आत्मभूत बाह्यहेतु हैं और प्रदीप आदि अनात्मभूत बाह्य हेतु हैं। मनवचनकाय की वर्गणाओं के निमित्त से होनेवाला आत्मप्रदेश परिस्पन्दन रूप द्रव्य योग अन्त:प्रविष्ट होने से आभ्यन्तर अनात्मभूतहेतु है तथा द्रव्ययोगनिमित्तक ज्ञानादिरूप भावयोग तथा वीर्यान्तराय तथा ज्ञानदर्शनावरण के क्षयोपशम के निमित्त से उत्पन्न आत्मा की विशुद्धि आभ्यन्तर आत्मभूत हेतु है।
- कारण सामान्य का लक्षण
- उपादान कारणकार्य निर्देश
- निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है
रा.वा./1/33/1/95/5 न च कार्यकारणयो: कश्चिद्रूपभेद: तदुभयमेकाकारमेव पर्वाङ्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिक:। =कार्य व कारण में कोई भेद नहीं है। वे दोनों एकाकार ही हैं। जैसे–पर्व व अंगुलि। यह द्रव्यार्थिक नय है।
ध.12/4,2,8,3/3 सव्वस्स सच्चकलापस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं। ....कारणे कार्यमस्तीति विवक्षातो वा कारणात्कार्यमभिन्नम्। =सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप का कारण से अभेद है। इस नय का अवलम्बन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है, तथा कार्य से कारण भी अभिन्न है। ....अथवा ‘कारण में कार्य है’ इस विवक्षा से भी कारण से कार्य अभिन्न है। (प्रकृत में प्राणिवियोग और वचनकलाप चूँकि ज्ञानावरणीय बन्ध के कारणभूत परिणाम से उत्पन्न होते हैं अतएव वे उससे अभिन्न हैं। इसी कारण वे ज्ञानावरणीयबन्ध के प्रत्यय भी सिद्ध होते हैं)।
स.सा./आ./65 निश्चयत: कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा, यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव व त्वन्यत् । =निश्चय नय से कर्म और करण की अभिन्नता होने से जो जिससे किया जाता है (होता है) वह वही है—जैसे सुवर्णपत्र सुवर्ण से किया जाता होने से सुवर्ण ही है अन्य कुछ नहीं है।
- द्रव्य का स्वभाव कारण है और पर्याय कार्य है
श्लो. वा./2/1/7/12/546 भाषाकार द्वारा उद्धृत—यावन्ति कार्याणि तावन्त: प्रत्येकं वस्तुस्वभावा:। =जितने कार्य होते हैं उतने प्रत्येक वस्तु के स्वभाव होते हैं।
न.च.वृ./360-361 कारणकज्जसहावं समयं णाऊण होइ ज्झायव्वं। कज्जं सुद्धसरूवं कारणभूदं तु साहणं तस्स।360। सुद्धो कम्मखयादो कारणसमओ हु जीवसव्भावो। खय पुण सहावझाणे तम्हा तं कारणं झेयं।361। =समय अर्थात् आत्मा को कारण व कार्यरूप जानकर ध्याना चाहिए। कार्य तो उस आत्मा का प्रगट होने वाला शुद्ध स्वरूप है और कारणभूत शुद्ध स्वरूप उसका साधन है।360। कार्य शुद्ध समय तो कर्मों के क्षय से प्रगट होता है और कारण समय जीव का स्वभाव है। कर्मों का क्षय स्वभाव के ध्यान से होता है इसलिए वह कारण समय ध्येय है। (और भी देखें कारण कार्य परमात्मा कारण कार्य समयसार )।
स.सा./आ./परि./क. 265 के आगे—आत्मवस्तुनो हि ज्ञानमात्रत्वेऽप्युपायोपेयभावो विद्यत एव। तस्यैकस्यापि स्वयं साधकसिद्धरूपोभयपरिणामित्वात् । तत्र यत्साधकं रूपं स उपाय: यत्सिद्धं रूपं स उपेय:। =आत्म वस्तु को ज्ञानमात्र होने पर भी उसे उपायउपेय भाव है; क्योंकि वह एक होने पर भी स्वयं साधक रूप से और सिद्ध रूप से दोनों प्रकार से परिणमित होता है (अर्थात् आत्मा परिणामी है और साधकत्व और सिद्धत्व ये दोनों परिणाम हैं) जो साधक रूप है वह उपाय है और जो सिद्ध रूप है वह उपेय है।
- त्रिकाली द्रव्य कारण है और पर्याय कार्य
रा.वा./1/33/1/95/4 अर्यते गम्यते निष्पाद्यते इत्यर्थकार्यम् । द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । =जो निष्पादन या प्राप्त किया जाये ऐसी पर्याय तो कार्य है और जो परिणमन करे ऐसा द्रव्य कारण है।
न.च.वृ./365 उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स व कारणं कज्ज।365। =उत्पद्यमान कार्य होता है और उसको उत्पन्न करने वाला निज आत्मा कारण होता है। इसलिए एक ही द्रव्य में कारण व कार्य भाव विरोध को प्राप्त नहीं होते।
का.आ./मू./232 स सरूवत्थो जीवो कज्जं साहेदि वट्टमाणं पि। खेत्ते एक्कम्मि ट्ठिदो णिय दव्वे संठिदो चेव।232। =स्वरूप में, स्वक्षेत्र में, स्वद्रव्य में और स्वकाल में स्थित जीव ही अपने पर्यायरूप कार्य को करता है।
- पूर्व पर्याय विशिष्ट द्रव्य कारण है और उत्तर पर्याय उसका कार्य है
आ.मी./58 कार्योत्पाद: क्षयो हेतुर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् । न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षा: खपुष्पवत् ।58। =हेतु कहिये उपादान कारण ताका क्षय कहिए विनाश है सो ही कार्य का उत्पाद है। जातै हेतु के नियमते कार्य का उपजना है। ते उत्पाद विनाश भिन्न लक्षणतै न्यारे न्यारे हैं। जाति आदि के अवस्थानतै भिन्न नाहीं हैं–कथंचित् अभेद रूप हैं। परस्पर अपेक्षा रहित होय तो आकाश पुष्पवत् अवस्तु होय। (अष्टसहस्री/श्लो.58)
रा.वा./1/6/14/37/25 सर्वेषामेव तेषां पूर्वोत्तरकालभाव्यवस्थाविशेषार्पणाभेदादेकस्य कार्यकारणशक्तिसमन्वयो न विरोधस्यास्पदमित्यविरोधसिद्धि:। =सभी वादी पूर्वावस्था को कारण और उत्तरावस्था को कार्य मानते हैं। अत: एक ही पदार्थ में अपनी पूर्व और उत्तर पर्याय की दृष्टि से कारण कार्य व्यवहार निर्विरोध रूप से होता ही है।
अष्टसहस्री/श्लो.10 टीका का भावार्थ (द्रव्यार्थिक व्यवहार नय से मिट्टी घट का उपादान कारण है। ऋजुसूत्रनय से पूर्व पर्याय घट का उपादान कारण है। तथा प्रमाण से पूर्व पर्याय विशिष्ट मिट्टी घट का उपादान कारण है।)
श्लो.वा. 2/1/7/12/539/5 तथा सति रुपरसयोरेकार्थात्मकयोरेकद्रव्यप्रत्यासत्तिरेव लिङ्गलिङ्गिव्यवहारहेतु: कार्यकारणभावस्यापि नियतस्य तदभावेऽनुपपत्ते: संतानान्तरवत् । =आप बौद्धों के यहाँ मान्य अर्थक्रिया में नियत रहना रूप कार्यकारण भाव भी एक द्रव्य प्रत्यासत्ति नामक सम्बन्ध के बिना नहीं बन सकता है। किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि उत्तरवर्ती पर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं। (श्लो.वा./पु.2/1/8/10/596)
अष्टसहस्री/पृ.211 की टिप्पणी–नियतपूर्वक्षणवर्तित्वं कारणलक्षणम् । नियतोत्तरक्षणवर्तित्वं कार्यलक्षणम् । =नियतपूर्वक्षणवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरक्षणवर्ती कार्य होता है।
क.पा.1/245/289/3 पागभावो कारणं। पागभावस्स विणासो वि दव्व-खेत्त-काल-भवावेक्खाए जायदे। =(जिस कारण से द्रव्य कर्म सर्वदा विशिष्टपने को प्राप्त नहीं होते हैं) वह कारण प्रागभाव है। प्रागभाव का विनाश हुए बिना कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। और प्रागभाव का विनाश द्रव्य क्षेत्र काल और भव की अपेक्षा लेकर होता है, (इसलिए द्रव्य कर्म सर्वदा अपने कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं।)
का.अ./मू./222-223 पुव्वपरिणामजुत्तं कारणभावेण वट्टदे दव्वं। उत्तर—परिणामजुदं तं चिय कज्जं हवे णियमा।222। कारणकज्जविसेसा तीसु वि कालेसु हुंति वत्थूणं। एक्केक्कम्मि य समए पुव्वुत्तर-भावमासिज्ज।223। =पूर्व परिणाम सहित द्रव्य कारण रूप है और उत्तर परिणाम सहित द्रव्य नियम से कार्य रूप है।222। वस्तु के पूर्व और उत्तर परिणामों को लेकर तीनों ही कालों में प्रत्येक समय में कारणकार्य भाव होता है।223।
स.सा./ता.वृ./119/168/10 मुक्तात्मनां य एव....मोक्षपर्यायेण भव उत्पाद: स एव.... निश्चयमोक्षमार्गपर्यायेण विलयो विनाशस्तौ च मोक्षपर्यायमोक्षमार्गपर्यायौ कार्यकारणरूपेण भिन्नौ। =मुक्तात्माओं की जो मोक्ष पर्याय का उत्पाद है वह निश्चयमोक्षमार्गपर्याय का विलय है। इस प्रकार अभिन्न होते हुए भी मोक्ष और मोक्षमार्गरूप दोनों पर्यायों में कार्यकारणरूप से भेद पाया जाता है (प्र.सा.ता.वृ./8/60/11) (और भी देखो)—‘समयसार’ व ‘मोक्षमार्ग/3/3’
- एक वर्तमानमात्र पर्याय स्वयं ही कारण है और स्वयं ही कार्य है—
रा.वा./1/33/1/95/6 पर्याय एवार्थ: कार्यमस्य न द्रव्यम् । अतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात्, स एवैक: कार्यकारणव्यपदेशमार्गात् पर्यायार्थिक:। =पर्याय ही है अर्थ या कार्य जिसका सो पर्यायार्थिक नय है। उसकी अपेक्षा करने पर अतीत और अनागत पर्याय विनष्ट व अनुत्पन्न होने के कारण व्यवहार योग्य ही नहीं हैं। एक वर्तमान पर्याय में ही कारणकार्य का व्यपदेश होता है।
- <a name="I.2.6" id="I.2.6"></a>कारणकार्य में कथंचित् भेदाभेद
आप्त.मी./58 नियमाल्लक्षणात्पृथक् । =पूर्वोत्तर पर्याय विशिष्ट वे उत्पाद व विनाश रूप कार्यकारण क्षेत्रादि से एक होते हुए भी अपने-अपने लक्षणों से पृथक् है।
आप्त.मी./9-14 (कार्य के सर्वथा भाव या अभाव का निरास)
आप्त.मी./24-36 (सर्वथा अद्वैत या पृथक्त्व का निराकरण)
आप्त.मी./37-45 (सर्वथा नित्य व अनित्यत्व का निराकरण)
आप्त.मी./57-60 (सामान्यरूप से उत्पाद व्ययरहित है, विशेषरूप से वही उत्पाद व्ययसहित है)
आप्त.मी./61-72 (सर्वथा एक व अनेक पक्ष का निराकरण)
श्लो.वा./2/1/7/12/539/6 न हि क्वचित् पूर्वे रसादिपर्याया: पररसादिपर्यायाणामुपादानं नान्यत्र द्रव्ये वर्तमाना इति नियमस्तेषामेकद्रव्यतादात्म्यविरहे कथंचिदुपपन्न:।=किसी एक द्रव्य में पूर्व समय के रस आदि पर्याय उत्तरवर्ती समय में होने वाले रसादिपर्यायों के उपादान कारण हो जाते हैं, किन्तु दूसरे द्रव्यों में वर्त रहे पूर्वसमयवर्ती रस आदि पर्याय इस प्रकृत द्रव्य में होने वाले रसादिक उपादान कारण नहीं है। इस प्रकार नियम करना उन-उन रूपादिकों के एक द्रव्य तादात्म्य के बिना कैसे भी नहीं हो सकता।
ध.12/4,2,8,3/280/3 सव्वस्स कज्जकलावस्स कारणादो अभेदो सत्तादीहिंतो त्ति णए अवलंबिज्जमाणे कारणादो कज्जमभिण्णं, कज्जादो कारणं पि, असदकरणाद् उपादानग्रहणात्, सर्वसंभवाभावात्, शक्तस्य शक्यकरणात्, कारणभावाच्च। =सत्ता आदि की अपेक्षा सभी कार्यकलाप कारण से अभेद है। इस (द्रव्यार्थिक) नय का अवलम्बन करने पर कारण से कार्य अभिन्न है तथा कार्य से कारण भी अभिन्न हैं, क्योंकि—1. असत् कार्य कभी किया नहीं जा सकता, 2. नियत उपादान की अपेक्षा की जाती है, 3. किसी एक कारण से सभी कार्य उत्पन्न नहीं हो सकते, 4. समर्थकारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है, 5. तथा असत् कार्य के साथ कारण का सम्बंध भी नहीं बन सकता।
नोट—(इन सभी पक्षों का ग्रहण उपरोक्त आप्तमीमांसा के उद्धरणों में तथा उसी के आधार पर (ध.15/17-31) में विशद रीति से किया गया है)
न.च.वृ./365 उप्पज्जंतो कज्जं कारणमप्पा णियं तु जणयंतो। तम्हा इह ण विरूद्ध एकस्स वि कारणं कज्जं।365। =उत्पद्यमान पर्याय तो कार्य है और उसको उत्पन्न करने वाला आत्मा कारण है, इसलिए एक ही द्रव्य में कारणकार्य भाव का भेद विरूद्ध नहीं है।
द्र.सं./टी./37/97-98 उपादानकारणमपि .... मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिण्डस्थासकोशकुशूलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति। यदि पुनरेकान्तेनोपादानकारणस्य कार्येण सहाभेदो भेदो वा भवति तर्हि पूर्वोक्तसुवर्णमृत्तिकादृष्टान्तद्वयवत्कार्यकारणभावो न घटते। =उपादान कारण भी मिट्टीरूप घट कार्य के प्रति मिट्टी का पिण्ड, स्थास, कोश तथा कुशूलरूप उपादान कारण के समान (अथवा सुवर्ण की अधस्तन व अपरितन पाक अवस्थाओंवत्) कार्य से एकदेश भिन्न होता है। यदि सर्वथा उपादान कारण का कार्य के साथ अभेद व भेद हो तो उपरोक्त सुवर्ण और मिट्टी के दो दृष्टांतों की भाँति कार्य और कारण भाव सिद्ध नहीं होता।
- निश्चय से कारण व कार्य में अभेद है
- निमित्त कारणकार्य निर्देश
- भिन्न गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है
रा.वा./1/20/3-4/70/33 कश्चिदाह--मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति, कारणगुणानुविधानं हि कार्यं दृष्टं यथा मृन्निमित्तो घटो मृदात्मक:। अथातदात्मकमिष्यते तत्पूर्वकत्वं तर्हि तस्य हीयते इति।3। न वैष दोष:। किं कारणम् । निमित्तमात्रत्वाद् दण्डादिवत्.... मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसांनिध्याद् घटो भवति न दण्डादय:, इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वम् । तथा पर्यायिपर्याययो: स्यादन्यत्वाद् आत्मन: स्वयमन्त:श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्ये मतिज्ञानं निमित्तमात्रं भवति .... अतो बाह्यमतिज्ञानादिनिमित्तापेक्ष आत्मैव ....श्रुतभवनपरिणामाभिमुख्यात् श्रुतीभवति, न मतिज्ञानस्य श्रुतीभवनमस्ति तस्य निमित्तमात्रत्वात् । =प्रश्न—जैसे मिट्टी के पिण्ड से बना हुआ घड़ा मिट्टी रूप होता है, उसी तरह मतिपूर्वक श्रुत भी मतिरूप ही होना चाहिए अन्यथा उसे मतिपूर्वक नहीं कह सकते ? उत्तर—मतिज्ञान श्रुतज्ञान में निमित्तमात्र है, उपादान नहीं। उपादान तो श्रुत पर्याय से परिणत होने वाला आत्मा है। जैसे मिट्टी ही बाह्य दण्डादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर अभ्यन्तर परिणाम के सान्निध्य से घड़ा बनती है, परन्तु दण्ड आदिक घड़ा नहीं बन जाते और इसलिए दण्ड आदिकों को निमित्तमात्रपना प्राप्त होता है। उसी प्रकार पर्यायी व पर्याय में कथंचित् अन्यत्व होने के कारण आत्मा स्वयं ही जब अपने अन्तरंग श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होता है तब मतिज्ञान निमित्तमात्र होता है। इसलिए बाह्य मतिज्ञानादि निमित्तों की अपेक्षा रखकर आत्मा ही श्रुतज्ञानरूप परिणाम के अभिमुख होने से श्रुतरूप होता है, मतिज्ञान नहीं होता। इसलिए उसको निमित्तपना प्राप्त होता है। (स.सि./1/20/120/8)
श्लो.वा./2/1/7/13/563/19 सहकारिकारणेण कार्यस्य कथं तत्स्यादेकद्रव्यप्रत्यासत्तेरभावादिति चेत् कालप्रत्यासत्तिविशेषात् तत्सिद्धि:; यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमन्यत्कार्यमितिप्रतीतम् । = प्रश्न–सहकारी कारणों के साथ पूर्वोक्त कार्यकारण भाव कैसे ठहरेगा, क्योंकि तहाँ एक द्रव्य की पर्यायें न होने के कारण एक द्रव्य नाम के सम्बंध का तो अभाव है? उत्तर—काल प्रत्यासत्ति नाम के विशेष सम्बंध से तहाँ कार्यकारणभाव सिद्ध हो सकता है। जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न हो जाता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है, इस प्रकार कालिक सम्बंध सबको प्रतीत हो रहा है।
- उचित ही द्रव्य को कारण कहा जाता है, जिस किसी को नहीं
श्लो.वा.3/1/13/48/221/24 तथा 222/19 स्मरणस्य हि न अनुभवमात्रं कारणं सर्वस्य सर्वत्र स्वानुभूतेऽर्थे स्मरण-प्रसंगात्। नापि दृष्टसजातीयदर्शनं सर्वस्य दृष्टस्य हेतोर्व्यभिचारात्। तदविद्यावासनाप्रहाणं तत्कारणमिति चेत्, सैव योग्यता स्मरणावरणक्षयोपशमलक्षणा तस्यां च सत्यां सदुपयोगविशेषा वासना प्रबोध इति नाममात्रं भिद्यते। =पदार्थों का मात्र अनुभव कर लेना ही स्मरण का कारण नहीं है, क्योंकि इस प्रकार सभी जीवों को सर्वत्र सभी अपने अनुभूत विषयों के स्मरण होने का प्रसंग होगा। देखे हुए पदार्थों के सजातीय पदार्थों को देखने से वासना उद्बोध मानो सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, इस प्रकार अन्वय व व्यतिरेक का व्यभिचार आता है। यदि उस स्मरणीय पदार्थ की लगी हुई अविद्यावासना का प्रकृष्ट नाश हो जाना उस स्मरण का कारण मानते हो तब तो उसी का नाम योग्यता हमारे यहाँ कहा गया है। वह योग्यता स्मरणावरण कर्म का क्षयोपशम स्वरूप इष्ट की गयी है, और उस योग्यता के होते संते श्रेष्ठ उपयोग विशेषरूप वासना (लब्धि) को प्रबोध कहा जाता है। तब तो हमारे और तुम्हारे यहाँ केवल नाम का ही भेद है।
पं.ध./उ./99,102 वैभाविकस्य भावस्य हेतु: स्यात्संनिकर्षत:। तत्रस्थोऽप्यपरो हेतुर्न स्यात्किंवा वतेति चेत्।99। बद्ध: स्याद्बद्धयोर्भाव: स्यादबद्धोऽप्यबद्धयो:। सानुकूलतया बन्धो न बन्ध: प्रतिकूलयो:।102।=प्रश्न–यदि एकक्षेत्रावगाहरूप होने से वह मूर्त द्रव्य जीव के वैभाविक भाव में कारण हो जाता है तो खेद है कि वहीं पर रहने वाला विस्रसोपचय रूप अन्य द्रव्य समुदाय भी विभाव परिणमन का कारण क्यों नहीं हो जाता ? उत्तर—एक दूसरे से बँधे हुए दोनों के भाव को बद्ध कहते हैं और एक दूसरे से नहीं बँधे हुए दोनों के भाव को अबद्ध कहते हैं, क्योंकि, जीव में बन्धक शक्ति तथा कर्म में बन्धने की शक्ति की परस्पर अनुकूलताई से बन्ध होता है, और दोनों के प्रतिकूल होने पर बन्ध नहीं होता है।102। अर्थात् बँधे हुए कर्म ही उदय आने पर विभाव में निमित्त होते हैं, विस्रसोपचयरूप अबद्ध कर्म नहीं।
- कार्यानुसरण निरपेक्ष बाह्य वस्तु मात्र को कारण नहीं कह सकते।
ध.2/,1/444/3 ‘‘दव्वेंदियाणं णिप्पत्तिं पडुच्च के वि दस पाणे भणंति। तण्ण घडदे। कुदो। भाविंदियाभावादो।’’ =कितने ही आचार्य द्रव्येन्द्रियों की पूर्णता को (केवली भगवान् के) दश प्राण कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि सयोगि जिन के भावेन्द्रिय नहीं पायी जाती है।
प.मु./3/61,63 न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धे।61। तद्वयापाराश्रितं हि तद्भावभावित्वम् ।63।=पूर्वचर व उत्तरचर हेतु साध्य के काल में नहीं रहते इसलिए उनका तादात्म्य सम्बंध न होने से तो वे स्वभाव हेतु नहीं कहे जा सकते और तदुत्पत्ति सम्बंध न रहने से कार्य हेतु भी नहीं कहे जा सकते।61। कारण के सद्भाव में कार्य का होना कारण के व्यापार के आधीन है।63। देखें मिथ्यादृष्टि - 2.6 (कार्यकाल में उपस्थित होने मात्र से कोई पदार्थ कारण नहीं बन जाता)
- <a name="I.3.4" id="I.3.4"></a>कार्यानुसरण सापेक्ष ही बाह्य वस्तु कारण कहलाती है
आप्त.मी./42 यद्यसत्सर्वथा कार्यं तन्मा जनि खपुष्पवत् । मोपादाननियामो भून्माश्वास: कार्यंजन्मनि।42।=कार्य को सर्वथा असत् मानने पर ‘यही इसका कारण है अन्य नहीं’ यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि इसका कोई नियामक नहीं है। और यदि कोई नियामक हो तो वह कारण में कार्य के अस्तित्व को छोड़कर दूसरा भला कौन सा हो सकता है। (ध.12/4,2,8,3/280/5) (ध.15/5/21)
रा.वा./1/9/11/46/8 दृष्टो हि लोके छेत्तुर्देवदत्ताद् अर्थान्तरभूतस्य परशो: .... काठिन्यादिविशेषलक्षणोपेतस्य सत: करणभाव:। न च तथा ज्ञानस्य स्वरूपं पृथगुपलभामहे। .... दृष्टो हि परशो: देवदत्ताधिष्ठितोद्यमाननिपातनापेक्षस्य करणभाव:, न च तथा ज्ञानेन किंचित्कर्तृसाध्यं क्रियान्तरमपेक्ष्यमस्ति। किंच तत्परिणामाभावात् । छेदनक्रियापरिणतेन हि देवदत्तेन तत्क्रियाया: साचिव्ये नियुज्यमान: परशु: ‘करणम्’ इत्येतदयुक्तम्, न च तथा आत्मा ज्ञानक्रियापरिणत:। =जिस प्रकार छेदनेवाले देवदत्त से करणभूत फरसा कठोर तीक्ष्ण आदि रूप से अपना पृथक् अस्तित्व रखता है, उस प्रकार (आप बौद्धों के यहाँ) ज्ञान का पृथक् सिद्ध कोई स्वरूप उपलब्ध नहीं होता जिससे कि उसे करण बनाया जाये। फरसा भी तब करण बनता है जब वह देवदत्तकृत ऊपर उठने और नीचे गिरकर लकड़ी के भीतर घुसने रूप व्यापार की अपेक्षा रखता है, किंतु (आपके यहाँ) ज्ञान में कर्ता के द्वारा की जाने वाली कोई क्रिया दिखाई नहीं देती, जिसकी अपेक्षा रखने के कारण उसे करण कहा जा सके।
स्वयं छेदन क्रिया में परिणत देवदत्त अपनी सहायता के लिए फरसे को लेता है और इसलिए फरसा करण कहलाता है। पर (आपके यहाँ) आत्मा स्वयं ज्ञान क्रिया रूप से परिणति ही नहीं करता (क्योंकि वे दोनों भिन्न स्वीकार किये गये हैं)।
श्लो.वा. 2/1/7/13/563/2 यदनन्तरं हि यदवश्यं भवति तत्तस्य सहकारिकारणमितरत्कार्यमिति प्रतीतम् । =जिससे अव्यवहित उत्तरकाल में नियम से जो अवश्य उत्पन्न होता है, वह उसका सहकारी कारण है और दूसरा कार्य है।
स.सा./आ./84 बहिर्व्याप्यव्यापकभावेन कलशसंभवानुकूलं व्यापारं कुर्वाण: कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावेनानुभवंश्च कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्वयवहार:। =बाह्य में व्याप्यव्यापक भाव से घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल ऐसे व्यापार को करता हुआ तथा घड़े के द्वारा किये गये पानी के उपयोग से उत्पन्न तृप्ति को भाव्यभावक भाव के द्वारा अनुभव करता हुआ, कुम्हार घड़े का कर्ता है और भोक्ता है, ऐसा लोगों का अनादि से रूढ व्यवहार है।
पं.का./ता.वृ./160/230/13 निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण परिणममानस्यापि सुवर्णपाषाणस्याग्निरिव निश्चयमोक्षमार्गस्य बहिरङ्गसाधको भवतीति सूत्रार्थ:। =अपने ही उपादान कारण से स्वयमेव निश्चयमोक्षमार्ग की अपेक्षा शुद्ध भावों से परिणमता है वहाँ यह व्यवहार निमित्त कारण की अपेक्षा साधन कहा गया है। जैसे –सुवर्ण यद्यपि अपने शुद्ध पीतादि गुणों से प्रत्येक आँच में शुद्ध चोखी अवस्था को धरे है, तथापि बहिरंग निमित्तकारण अग्नि आदिक वस्तु का प्रयत्न है। तैसे ही व्यवहार मोक्षमार्ग है।
- अनेक कारणों में से प्रधान का ही ग्रहण करना न्याय है
स.सि./1/21/125 भवं प्रतीत्य क्षयोपशम: संजायत इति कृत्वा भव: प्रधानकारणमित्युपदिश्यते। =(भवप्रत्यय अवधिज्ञान में यद्यपि भव व क्षयोपशम दोनों ही कारण उपलब्ध हैं, परन्तु) भव का अवलम्बन लेकर (तहाँ) क्षयोपशम होता है, (सम्यक्त्व व चारित्रादि गुणों की अपेक्षा से नहीं)। ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है, ऐसा उपदेश दिया जाता है। (कि यह अवधिज्ञान भव प्रत्यय है)।
- भिन्न गुणों व द्रव्यों में भी कारणकार्य भाव होता है
- <a name="I.4" id="I.4"></a>कारण कार्य सम्बन्धी नियम
- <a name="I.4.1" id="I.4.1"></a>कारण सदृश ही कार्य होता है
ध.1/1,1,41/270/5 कारणानुरूपं कार्यमिति न निषेद्धुं पार्यते सकलनैयायिकलोकप्रसिद्धत्वात् । =कारण के अनुरूप ही कार्य होता है, इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, यह बात सम्पूर्ण नैयायिक लोगों में प्रसिद्ध है।
ध.10/4,2,4,175/432/2 सव्वत्थकारणाणुसारिकज्जुवलंभादो।=सब जगह कारण के अनुसार ही कार्य पाया जाता है।
न.च.वृ./368 की चूलिका-इति न्यायादुपादानकारणसदृशं कार्यं भवति। इस न्याय के अनुसार उपादान सदृश कार्य होता है। (विशेष दे॰‘समयसार’)
स.सा./आ./68 कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति। =कारण जैसा ही कार्य होता है, ऐसा समझकर जौ पूर्वक होने वाले जो जौ (यव), वे जौ (यव) ही होते हैं। (स.सा./आ./130-130) (पं.ध./पू./406)
प्र.सा./ता.वृ./8/10/11 उपादानकारणसदृशं हि कार्यमिति।=उपादान कारण सदृश ही कार्य होता है। (पं.का./ता.वृ./23/49/14)
स.म./27/304/18 उपादानानुरूपत्वाद् उपादेयस्य।=उपादेयरूप कार्य उपादान कारण के अनुरूप होता है। - <a name="I.4.2" id="I.4.2"></a>कारण सदृश ही कार्य हो ऐसा कोई नियम नहीं
स.सि./1/20/120 यदि मतिपूर्वं श्रुतं तदपि मत्यात्मकं प्राप्नोति ‘कारणसदृशं हि लोके कार्यं दृष्टम्’ इति। नैतदैकान्तिकम्। दण्डादिकारणोऽयं घटो न दण्डाद्यात्मक:। =प्रश्न–यदि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है; तो वह श्रुतज्ञान भी मत्यात्मक ही प्राप्त होता है; क्योंकि लोक में कारण के समान ही कार्य देखा जाता है? उत्तर–यह कोई एकान्त नियम नहीं है कि कारण के समान कार्य होता है। यद्यपि घट की उत्पत्ति दण्डादि से होती है, तो भी दण्डाद्यात्मक नहीं होता। (और भी देखें कारण - I.3.1)
रा.वा./1/20/5/71/11 नायमेकान्तोऽस्ति–‘कारणसदृशमेव कार्यम्’ इति कुत:। तत्रापि सप्तभंगीसंभवात् कथम् । घटवत् । यथा घट: कारणेन मृत्पिण्डेन स्यात्सदृश: स्यान्न सदृश: इत्यादि। मृद्द्रव्याजीवानुपयोगाद्यादेशात् स्यात्सदृश:, पिण्डघटसंस्थानादिपर्यायादेशात् स्यान्न सदृश:।…यस्यैकान्तेन कारणानुरूपं कार्यम्, तस्य घटपिण्डशिवकादिपर्याया उपालभ्यन्ते। किंच, घटेन जलधारणादिव्यापारो न क्रियते मृत्पिण्डे तददर्शनात् । अपि च मृत्पिण्डस्य घटत्वेन परिणामवद् घटस्यापि घटत्वेन परिणाम: स्यात् एकान्तसदृशत्वात् । न चैवं भवति। अतो नैकान्तेन कारणसदृशत्वम्। =यह कोई एकान्त नहीं है कि कारण सदृश ही कार्य हो। पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से मिट्टी रूप कारण के समान घड़ा होता है, पर पिण्ड और घट आदि पर्यायों की अपेक्षा दोनों विलक्षण हैं, यदि कारण के सदृश ही कार्य हो तो घट अवस्था से भी पिण्ड शिवक आदि पर्यायें मिलनी चाहिए थीं। जैसे मृत्पिण्ड में जल नहीं भर सकते उसी तरह घड़े में भी नहीं भरा जाना चाहिए और मिट्टी की भाँति घट का घट रूप से ही परिणमन होना चाहिए, कपालरूप नहीं। कारण कि दोनों सदृश जो हैं। परन्तु ऐसा तो कभी होता नहीं है अत: कार्य एकान्त से कारण सदृश नहीं होता।
ध.12/4,2,7,177/81/3 संजमासंजमपरिणामादो जेण संजमपरिणामो अणंतगुणो तेण पदेसणिज्जराए वि अणंतगुणाए होदव्वं, एदम्हादो अण्णत्थ सव्वत्थ कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो त्ति। ण, जोगगुणगाराणुसारिपदेसगुणगारस्स अणंतगुणत्तविरोहादो। …ण च कज्जं कारणाणुसारी चेव इति णियमो अत्थि, अंतरंगकारणावेक्खाए पव्वत्तस्स कज्जस्स बहिरंगकारणाणुसारित्तणियमाणुववत्तीदो।=प्रश्न–यत: संयमासंयम रूप परिणाम की अपेक्षा संयमरूप परिणाम अनन्तगुणा है अत: वहाँ प्रदेश निर्जरा भी उससे अनन्तगुणी होनी चाहिए। क्योंकि इससे दूसरी जगह सर्वत्र कारण के अनुरूप ही कार्य की उपलब्धि होती है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्रदेश निर्जरा का गुणकार योगगुणकार का अनुसरण करने वाला है, अतएव उसके अनन्तगुणे होने में विरोध आता है। दूसरे–कार्य कारण का अनुसरण करता ही हो, ऐसा भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि अन्तरंग कारण की अपेक्षा प्रवृत्त होने वाले कार्य के बहिरंग कारण के अनुसरण करने का नियम नहीं बन सकता।
ध.15/16/10 ण च एयंतेण कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वं, मट्टियपिंडादो मट्टियपिंडं मोत्तूण घटघटी-सरावालिंजरुट्टियादीणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। सुवण्णादो सुवण्णस्स घटस्सेव उप्पत्तिदंसणादो कारणाणुसारि चेव कज्जं त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, कढिणादो, सुवण्णादो जलणादिसंजोगेण सुवण्णजलुप्पत्तिदंसणादो। किं च–कारणं व ण कज्जमुप्पज्जदि, सव्वप्पणा कारणसरूवमावण्णस्स उप्पत्तिविरोहादो। जदि एयंतेण (ण) कारणाणुसारि चेव कज्जमुप्पज्जदि तो मुत्तादो पोग्गलदव्वादो अमुत्तस्स गयणुप्पत्ती होज्ज, णिच्चेयणादो पोग्गलदव्वादो सचेयणस्स जीवदव्वस्स वा उप्पत्ति पावेज्ज। ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तम्हा कारणाणुसारिणा कज्जेण होदव्वमिदि। एत्थ परिहारो वुच्चदे–होदु णाम केण वि सरूवेण कज्जस्स कारणाणुसारित्तं, ण सव्वप्पणा; उप्पादवयट्ठिदिलक्खणाणं जीव-पोग्गल-धम्माधम्म-कालागासदव्वाणं सगवइसे सियगुणा विणाभावि सयलगुणाणमपरिञ्चाएण पज्जायंतरगमणदंसणादो। =’कारणानुसारी ही कार्य होना चाहिए, यह एकान्त नियम भी नहीं है, क्योंकि मिट्टी के पिण्ड से मिट्टी के पिण्ड को छोड़कर घट, घटी, शराब, अलिंजर और उष्ट्रिका आदिक पर्याय विशेषों की उत्पत्ति न हो सकने का प्रसंग अनिवार्य होगा। यदि कहो कि सुवर्ण से सुवर्ण के घट की ही उत्पत्ति देखी जाने से कार्य कारणानुसारी ही होता है, सो ऐसा कहना भी योग्य नहीं है; क्योंकि, कठोर सुवर्ण से अग्नि आदि का संयोग होने पर सुवर्ण जल की उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार कारण उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कार्य भी उत्पन्न नहीं होगा, क्योंकि कार्य सर्वात्मना कारणरूप ही रहेगा, इसलिए उसकी उत्पत्ति का विरोध है। प्रश्न–यदि सर्वथा कारण का अनुसरण करने वाला ही कार्य नहीं होता है तो फिर मूर्त पुद्गल द्रव्य से अमूर्त आकाश की उत्पत्ति हो जानी चाहिए। इसी प्रकार अचेतन पुद्गल द्रव्य से सचेतन जीव द्रव्य की भी उत्पत्ति पायी जानी चाहिए। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता, इसलिए कार्य कारणानुसारी ही होना चाहिए ? उत्तर–यहाँ उपर्युक्त शंका का परिहार कहते हैं। किसी विशेष स्वरूप से कार्य कारणानुसारी भले ही हो परन्तु वह सर्वात्मस्वरूप वैसा सम्भव नहीं है; क्योंकि, उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य लक्षणवाले जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश द्रव्य अपने विशेष गुणों के अविनाभावी समस्त गुणों का परित्याग न करके अन्य पर्याय को प्राप्त होते हुए देखे जाते हैं।
ध.9/4,1,45/146/1 कारणानुगुणकार्यनियमानुपलम्भात् ।=कारणगुणानुसार कार्य के होने का नियम नहीं पाया जाता।
- एक कारण से सभी कार्य नहीं हो सकते
सांख्यकारिका/9 सर्व संभवाभावात् । शक्तस्य शक्यकरणात् ।=किसी एक कारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति सम्भव नहीं। समर्थ कारण के द्वारा शक्य कार्य ही किया जाता है। (ध.12/4,2,8,113/280/5)
- परन्तु एक कारण से अनेक कार्य अवश्य हो सकते हैं
स.सि./6/10/328/6 एककारणसाध्यस्य कार्यस्यानेकस्य दर्शनात् तुल्येऽपि प्रदोषादौ ज्ञानदर्शनावरणास्रवहेतव:।=एक कारण से भी अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं, इसलिए प्रदोषादिक (कारणों) के एक समान रहते हुए भी इनसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण दोनों का आस्रव (रूप कार्य) सिद्ध होता है। (रा.वा./6/10/10-12/518)
ध.12/4,2,8,2/278/10 कधमेगो पाणादिवादो अक्कमेण दोण्णं कज्जाणं संपादओ। ण एयादो एयादो मोग घादोअवयव विभागट्ठाणसंचालणक्खेत्तंतरवत्तिखप्परकज्जाणमक्कमेणुप्पत्तिदंसणादो। कथमेगो पाणादिवादो अणंते कम्मइयक्खंधे णाणावरणीयसरूवेण अक्कमेण परिणमावेदि,, बहुसु एक्कस्स अक्कमेण वुत्तिविरोहादो। ण, एयस्स पाणादिवादस्स अणंतसत्तिजुत्तस्स तदविरोहादो।=प्रश्न–प्राणातिपाति रूप एक ही कारण युगपत् दो कार्यों का उत्पादक कैसे हो सकता है ? (अर्थात् कर्म को ज्ञानावरण रूप परिणमाना और जीव के साथ उसका बन्ध कराना ये दोनों कार्य कैसे कर सकता है) ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, एक मुद्गर से घात, अवयवविभाग, स्थानसंचालन और क्षेत्रान्तर की प्राप्तिरूप खप्पर कार्यों की युगपत् उत्पत्ति देखी जाती है। प्रश्न–प्राणातिपात रूप एक ही कारण अनन्त कार्माण स्कन्धों को एक साथ ज्ञानावरणीय स्वरूप से कैसे परिणमाता है, क्योंकि, बहुतों में एक की युगपत् वृत्ति का विरोध है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, प्राणातिपातरूप एक ही कारण के अनन्त शक्तियुक्त होने से वैसा होने में कोई विरोध नहीं आता। (और भी देखें वर्गणा - 2.6.3 में ध./15)
- एक कार्य को अनेकों कारण चाहिए
स.सि./5/17/283/3 भूमिजलादीन्येव तत्प्रयोजनसमर्थानि नार्थो धर्माधर्माभ्यामिति चेत् । न साधारणाश्रय इति विशिष्योक्तत्वात् । अनेककारणसाध्यत्वाच्चैकस्य कार्यस्य।=प्रश्न–धर्म और अधर्म द्रव्य के जो प्रयोजन हैं, पृथिवी और जल आदिक ही उनके करने में समर्थ हैं, अत: धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक नहीं है? उत्तर–नहीं, क्योंकि धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के साधारण कारण हैं। यह विशेष रूप से कहा गया है। तथा एक कार्य अनेक कारणों से होता है, इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्य का मानना ठीक है।
रा.वा./5/17/31/464/29 इह लोके कार्यमनेकोपकरणसाध्यं दृष्टम्, यथा मृत्पिण्डो घटकार्यपरिणामप्राप्तिं प्रति गृहीताभ्यन्तरसामर्थ्य: बाह्यकुलालदण्डचक्रसूत्रोदककालाकाशाद्यनेकोपकरणापेक्ष: घटपर्यायेणाविर्भवति, नैक एव मृत्पिण्ड: कुलालादिबाह्यसाधनसंनिधानेन बिना घटात्मनाविर्भवितुं समर्थ:। =इस लोक में कोई भी कार्य अनेक कारणों से होता देखा जाता है, जैसे मिट्टी का पिण्ड घट कार्यरूप परिणाम की प्राप्ति के प्रति आभ्यन्तर सामर्थ्य को ग्रहण करके भी, बाह्य कुम्हार, दण्ड, चक्र, डोरा, जल, काल व आकाशादि अनेक कारणों की अपेक्षा करके ही घट पर्यायरूप से उत्पन्न होता है। कुम्हार आदिक बाह्य साधनों की सन्निधि के बिना केवल अकेला मिट्टी का पिण्ड घटरूप से उत्पन्न होने को समर्थ नहीं है।
पं.का./ता.वृ./25/53/4 गतिपरिणतेर्धर्मद्रव्यं सहकारिकारणं भवति कालद्रव्यं च, सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्ति यत: कारणाद् घटोपत्तौ कुम्भकारचक्रचोवरादिवत्, मत्स्यादीनां। जलादिवत्, मनुष्याणां शकटादिवत्, विद्याधराणां विद्यामन्त्रौषधादिवत्, देवानां विमानवदित्यादि कालद्रव्यं गतिकारणम् ।=गतिरूप परिणति में धर्मद्रव्य भी सहकारी है और कालद्रव्य भी। सहकारीकारण बहुत होते हैं जैसे कि घड़े की उत्पत्ति में कुम्हार, चक्र, चीवर आदि, मछली आदिकों को जल आदि, मनुष्यों को रथ आदि, विद्याधरों को विद्या, मन्त्र, औषधि आदि तथा देवों को विमान आदि। अत: कालद्रव्य भी गति का कारण है। (प.प्र./टी./2/23), (द्र.सं./टी./25/71/12)
पं.ध./पू./402 कार्यं प्रतिनियतत्वाद्धेतुद्वैतं न ततोऽतिरिक्त चेत् । तन्न यतस्तन्नियमग्राहकमिव न प्रमाणमिह।=कार्य के प्रति नियत होने से उपादान और निमित्तरूप दो हेतु ही है, उससे अधिक नहीं है, यदि ऐसा कहो तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, यहाँ पर उन दो हेतुओं के ही मानने रूप नियम का ग्राहक कोई प्रमाण नहीं है।402। (पं.ध./पू./404)
- एक ही प्रकार का कार्य विभिन्न कारणों से हो सकता है
ध.7/2,1,17/69/5 ण च एक्कं कज्जं एक्कादो चेव कारणादो सव्वत्थ उप्पज्जदि, खइर-सिंसव-धव-धम्मण-गोमय-सूरयर-सुज्जकंतेहितो समुप्पज्जमाणेक्कग्गिकज्जुवलंभा। =एक कार्य सर्वत्र एक ही कारण से उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि खदिर, शीसम, धौ, धामिन, गोबर, सूर्यकिरण, व सूर्यकान्तमणि, इन भिन्न-भिन्न कारणों से एक अग्निरूप कार्य उत्पन्न होता पाया जाता है।
ध.12/4,2,8,11/286/11 कधमेयं कज्जमणेगे उप्पज्जदे। ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघडस्स अण्णादो वि उप्पत्तिदंसणादो। पुरिसं पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचणसरावादओ दीसंति त्ति चे। ण, एत्थ वि कमभाविकोधादीहिंतो उप्पज्जमाणणाणावरणीयस्स दव्वादिभेदेण भेदुवलंभादो। णाणावरणीयसमाणत्तणेण तदेक्कं चे। ण, बहूहिंतो समुप्पज्जमाणघडाणं पि घडभावेण एयत्तुवलंभादो।=प्रश्न–एक कार्य अनेक कारणों से कैसे उत्पन्न होता है? (अर्थात् अनेक प्रत्ययों से एक ज्ञानावरणीय ही वेदना कैसे उत्पन्न होती है)। उत्तर–नहीं, क्योंकि, एक कुम्भकार से उत्पन्न किये जाने वाले घट की उत्पत्ति अन्य से भी देखी जाती है। प्रश्न–पुरूष भेद से पृथक्-पृथक् उत्पन्न होनेवाले कुम्भ, उदंच, व शराब आदि भिन्न-भिन्न कार्य देखे जाते हैं (अथवा पृथक्-पृथक् व्यक्तियों से बनाये गये घड़े भी कुछ न कुछ भिन्न होते ही हैं।) ? उत्तर–तो यहाँ भी क्रमभावी क्रोधादिकों से उत्पन्न होने वाले ज्ञानावरणीयकर्म का द्रव्यादिक के भेद से भेद पाया जाता है। प्रश्न–ज्ञानावरणीयत्व की समानता होने से वह (अभेद भेदरूप होकर भी) एक ही है? उत्तर–इसी प्रकार यहाँ भी बहुतों के द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले घटों के भी घटत्व रूप से अभेद पाया जाता है।
- कारण व कार्य पूर्वोत्तर कालवर्ती ही होते हैं
श्लो.वा.2/1/4/23/121/19 य एव आत्मन: कर्मबन्धविनाशस्य काल: स एव केवलत्वाख्यमोक्षोत्पादस्येति चेत्, न, तस्यायोगकेवलिचरमसमयत्वविरोधात् पूर्वस्य समयस्यैव तथात्वापत्ते:।=यदि इस उपान्त्य समय में होने वाली निर्जरा को भी मोक्ष कहा जायेगा तो उससे भी पहले समय में परमनिर्जरा कहनी पड़ेगी। क्योंकि कार्य एक समयपूर्व में रहना चाहिए। प्रतिबन्धकों का अभावरूप कारण भले कार्यकाल में रहता होय किन्तु प्रेरक या कारक कारण तो कार्य के पूर्व समय में विद्यमान होने चाहिए–(ऐसा कहना भी ठीक नहीं है) क्योंकि इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम आदि समयों में मोक्ष होने का प्रसंग हो जायेगा; कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अत: यही व्यवस्था होना ठीक है कि अयोग केवली का चरम समय ही परम निर्जरा का काल है और उसके पीछे का समय मोक्ष का है।
ध.1/1,1,47/279/7 कार्यकारणयोरेककालं समुत्पत्तिविरोधात् ।=कार्य और कारण इन दोनों की एक काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
ध.9/4,1,1/3/8 ण च कारणपुव्वकालभावि कज्जमत्थि, अणुवलंभादो।=कारण से पूर्व काल में कार्य होता नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।
स्या.म./16/196/22 न हि युगपदुत्पद्यमानयोस्तयो: सव्येतरगोविषाणयोरिव कारणकार्यभावो युक्त:। नियतप्राक्कालभावित्वात् कारणस्य। नियतोत्तरकालभावित्वात् कार्यस्य। एतदेवाहु: न तुल्यकाल: फलहेतुभाव इति। फलं कार्यं हेतु: कारणम्, तयोर्भाव: स्वरूपम्, कार्य-कारणभाव:। स तुल्यकाल: समानकालो न युज्यत इत्यर्थं:। =प्रमाण और प्रमाण का फल बौद्ध लोगों के मत में गाय के बायें और दाहिने सींगों की तरह एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनमें कार्यकारण सम्बन्ध नहीं हो सकता। क्योंकि नियत पूर्वकालवर्ती तो कारण होता है और नियत उत्तरकालवर्ती उसका कार्य होता है। फल कार्य है और हेतु कारण। उनका भाव या स्वरूप ही कार्यकारण भाव है। वह तुल्यकाल में ही नहीं हो सकता।
- कारण व कार्य में व्याप्ति आवश्यक होती है
आप्त.प./9/41/2 तत्कारणकत्वस्य तदन्वयव्यतिरेकोपलम्भेन व्याप्तत्वात् कुलालकारणकस्य घटादे: कुलालान्वयव्यतिरेकोपलम्भप्रसिद्धे:।=जैसे कुम्हार से उत्पन्न होने वाले घड़ा आदि में कुम्हार का अन्वय व्यतिरेक स्पष्टत: प्रसिद्ध है। अत: सब जगह बाधकों के अभाव से अन्वय व्यतिरेक कार्य के व्यवस्थित होते हैं, अर्थात् जो जिसका कारण होता है उसके साथ अन्वय व्यतिरेक अवश्य पाया जाता है।
ध./पु. 7/2, 1, 7/10/5 जस्स अण्ण–विदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयविदिरेगा उवलंभंति तं तस्स कज्जमियरं च कारणं।=जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ नियम से जिसका अन्वय और व्यतिरेक पाये जावें वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है। (ध./8/3,20/51/3)।
ध./12/4,2,8,13/289/4 यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिदि न्यायात्=जो जिसके होने पर ही होता है न होने पर नहीं वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। (ध./14/5,6,93/?/2)
- कारण अवश्य कार्य का उत्पादक हो ऐसा कोई नियम नहीं
ध./12/4,2,8,13/289/8 नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्ति, कुम्भमकुर्वत्यपि कुम्भकारे कुम्भकारव्यवहारोपलम्भात् ।=कारण कार्यवाले अवश्य हों ऐसा सम्भव नहीं, क्योंकि, घट को न करने वाले भी कुम्भकार के लिए ‘कुम्भकार’ शब्द का व्यवहार पाया जाता है।
भ.आ./वि./194/410/9 न चावश्यं कारणानि कार्यवन्ति। धूमजनयतोऽप्यग्नेर्दर्शनात् काष्ठाद्यपेक्षस्य।=कारण अवश्य कार्यवान् होते ही हैं, ऐसा नियम नहीं है, काष्ठादि की अपेक्षा रखने वाला अग्नि धूम को उत्पन्न करेगा ही, ऐसा नियम नहीं।
न्या.दी./3/53/96 ननु कार्यं कारणानुमापकमस्तु कारणाभावे कार्यस्यानुपपत्ते:। कारणं तु कार्यभावेऽपि संभवति, यथा धूमाभावेऽपि वह्नि: सुप्रतीत:। अतएव वह्निर्न धूमं गमयतीति चेत्; तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्य कार्याव्यभिचारित्वेन कार्यं प्रति हेतुत्वाविरोधात्।=प्रश्न–कारण तो कार्य का ज्ञापक (जनाने वाला) हो सकता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता किन्तु कारण कार्य के बिना भी सम्भव है, जैसे-धूम के बिना भी अग्नि देखी जाती है। अतएव अग्नि धूम की गमक नहीं होती, (धूम ही अग्नि का गमक होता है), अत: कारणरूप हेतु को मानना ठीक नहीं है। उत्तर–नहीं, जिस कारण की शक्ति प्रकट है–अप्रतिहत है, वह कारण कार्य का व्यभिचारी नहीं होता है। अत: (उत्पादक न भी हो, पर) ऐसे कारण को कार्य का ज्ञापक हेतु मानने में कोई दोष नहीं है।
देखें मंगल - 2.6 (जिस प्रकार औषधियों का औषधित्व व्याधियों के शमन न करने पर भी नष्ट नहीं होता इसी प्रकार मंगल का मंगलपना विघ्नों का नाश न करने पर भी नष्ट नहीं होता)। - कारण कार्य का उत्पादक न ही हो यह भी कोई नियम नहीं
ध./9/4,1,44/117/10 ण च कारणाणि कज्जं ण जणेंति चेवेति णियमो अत्थि, तहाणुवलंभादो।=कारण कार्य को उत्पन्न करते ही नहीं हैं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अतएव किसी काल में किसी भी जीव में कारणकलाप सामग्री निश्चय से होना चाहिए। - कारण की निवृत्ति से कार्य की भी निवृत्ति हो ऐसा कोई नियम नहीं
रा.वा./10/3/1/642/10 नायमेकान्त: निमित्तापाये नैमित्तिकानां निवृत्ति: इति।=निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो ही ऐसा कोई नियम नहीं है। (जैसे दीपक जला चुकने के पश्चात् उसके कारणभूत दियासलाई के बुझ जाने पर भी कार्यभूत दीपक बुझ नहीं जाता)। - कदाचित् निमित्त से विपरीत भी कार्य की सम्भावना
ध./1/1,1,50/283/6 किमिति केवलिनो वचनं संशयानध्यवसायजनकमिति चेत्स्वार्थानन्त्याच्छ्रोतुरावरणक्षयोपशमातिशयाभावात् । =केवली के ज्ञान के विषयभूत पदार्थ अनन्त होने से और श्रोता के आवरण क्षयोपशम अतिशयतारहित होने से केवली के वचनों के निमित्त से (भी) संशय और अनध्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है।
- <a name="I.4.1" id="I.4.1"></a>कारण सदृश ही कार्य होता है
- कारण के भेद व लक्षण