कारण कार्य भाव समन्वय: Difference between revisions
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<ol type="I" start="4"> | <ol type="I" start="4"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="IV" id="IV"> कारण कार्य भाव | <li><span class="HindiText"><strong name="IV" id="IV"> कारण कार्य भाव समन्वय</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.1" id="IV.1"> उपादान निमित्त | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.1" id="IV.1"> उपादान निमित्त सामान्य विषयक</strong> <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परत:</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./4/42/7/251/7 <span class="SanskritText">पुद्गलानामानन्त्यात्तत्तत्पुद्गलद्रव्यमपेक्ष्य एकपुद्गलस्थस्य तस्यैकस्यैव पर्यायस्यान्यत्वभावात् । यथा प्रदेशिन्या: मध्यमाभेदाद् यदन्यत्वं न तदेव अनामिकाभेदात् । मा भूत् मध्यमानामियोरकत्वं मध्यमाप्रदेशिन्यन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषादिति। न चैतत्परावधिकमेवार्थसत्त्वम् । यदि मध्यमासामर्थ्यात् प्रदेशिन्या: ह्रस्वत्वं जायते शशविषाणेऽपि स्याच्छक्रयष्टौ वा। नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तदव्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव। एवं जीवोऽपि कर्मनोकर्मविषयवस्तूपकरणसंबन्धभेदाभेदाविर्भूतजीवस्थानगुणस्थानविकल्पानन्तपर्यायरूप: प्रत्येतव्य:। </span>=<span class="HindiText">जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियों की अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुलि अनेक भेदों को प्राप्त होती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणों के सम्बन्ध से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुण्डली आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुलि में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूप का भेद जुदा-जुदा है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा शशविषाण में भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वत: ही उसमें ह्रस्वत्व था, अन्यथा मध्यमा के अभाव में भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी। तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही तत्तत्सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। (यहाँ द्रव्य की विभिन्नता में सहकारी कारणता का स्थान दर्शाते हुए कहा गया है कि वह न स्वत: है न परत:। इसी प्रकार क्षेत्र, काल व भाव में भी लागू कर लेना चाहिए)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.2" id="IV.1.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.2" id="IV.1.2"> प्रत्येक कार्य अन्तरंग व बाह्य दोनों कारणों के सम्मेल से होता है</strong> </span><br /> | ||
स्व.स्तो./मू./33.59,60 <span class="SanskritText">अलङ्घ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा।...।33। यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न।59। बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:। नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां, तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ।60।</span>=<span class="HindiText">अन्तरंग व बाह्य इन दोनों हेतुओं के अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है।33। जो बाह्य वस्तु गुण दोष अर्थात् पुण्य पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अन्तरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के आभ्यन्तर मूलहेतु की अंगभूत है। केवल अभ्यन्तर कारण ही गुणदोषों की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।59। कार्यों में बाह्य और अभ्यंतर दोनों कारणों की जो यह पूर्णता है वह आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है। अन्यथा पुरुषों के मोक्ष की विधि भी नहीं बनती। इसी से हे परमर्षि ! आप बन्धुजनों के वन्द्य हैं।60।</span><br /> | |||
स.सि./ | स.सि./5/30/300/5 <span class="SanskritText">उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: भृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् ।</span>=<span class="HindiText">अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश से प्रतिसमय जो नवीन अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड की घटपर्याय। (प्र.सा./त.प्र./95,102)</span><br /> | ||
ति.प./ | ति.प./4/281-282 <span class="PrakritGatha">सव्वाणं पयत्थाणं णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।281। बाहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।282।</span>=<span class="HindiText"><span class="HindiText">सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।281। सर्वज्ञदेव ने सर्व पदार्थों के प्रर्वतने का बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।282।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><span class="HindiText"><strong name="IV.1.3" id="IV.1.3"> | <li><span class="HindiText"><span class="HindiText"><strong> <a name="IV.1.3" id="IV.1.3"></a>अन्तरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./278-279 जैसे स्फटिकमणि तमालपत्र के संयोग से परिणमती है वैसे ही जीव भी अन्य द्रव्यों के संयोग से रागादि रूप परिणमन करता है।<br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./283-285 द्रव्य व भाव दोनों प्रतिक्रमण परस्पर सापेक्ष है।<br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/1/14/101/23 बाहर में मनुष्य तिर्यंचादिक औदयिक भाव और अन्तरंग में चैतन्यादि पारिणामिक भाव ही जीव के परिचायक हैं। <br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./88 स्वत: गमन करने वाले जीव पुद्गलों की गति में धर्मास्तिकाय बाह्य सहकारीकारण है। (द्र.सं./टी./17) (और भी देखें [[ निमित्त ]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.4" id="IV.1.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.4" id="IV.1.4"> व्यवहारनय से निमित्त वस्तुभूत है पर निश्चय से कल्पना मात्र है</strong></span><br /> | ||
श्लो.वा.2/1/7/13/565/1<span class="SanskritText"> व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबन्ध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित: सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रहर्जुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचित्कश्चित्संबन्धोऽन्यत्र कल्पनामात्रत्वात् इति सर्वमविरुद्धं। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार नय का आश्रय लेने पर संयोग व समवाय आदि सम्बन्धों के समान दो में ठहरने वाला कार्यकारण भाव प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है, काल्पनिक नहीं। (क्योंकि तहाँ व्यवहारनय भेदग्राही होने के कारण असद्भूत व्यवहार भेदोपचार को ग्रहण करके संयोग सम्बन्ध को सत्य घोषित करता है और सद्भूत व्यवहार नय अभेदोपचार को ग्रहण करके समवाय सम्बन्ध को स्वीकार करता है) परन्तु संग्रह नय और ऋजुसूत्र नय का आश्रय करने पर कोई भी किसी का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं है। कोरी कल्पनाएँ है। सब अपने-अपने स्वभाव में लीन हैं। यही निश्चय नय कहता है। (संग्रहनय मात्र अद्वैत एक महा सत् ग्राही होने के कारण और ऋजुसूत्रनय मात्र अन्तिम अवान्तर सत्तारूप एकत्वग्राही होने के कारण, दोनों ही द्विष्ठ नहीं देखते। तब वे कारणकार्य के द्वैत को कैसे अंगीकार कर सकते है। विशेष देखो ‘नय’)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.5" id="IV.1.5"> निमित्त | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.5" id="IV.1.5"> निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तु स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./5/1/27/434/26 <span class="SanskritText">ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति; नैष दोष:; बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।</span><span class="HindiText">=(धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की यहाँ यह स्वतन्त्रता है कि ये स्वयं गति और स्थितिरूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति में स्वयं निमित्त होते हैं।) <strong>प्रश्न</strong>–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं और स्वातन्त्र्य स्वीकार कर लेने पर यह बात विरोध को प्राप्त हो जाती है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र होते हैं। (यहाँ प्रकृत में) गति आदि रूप परिणमन करने वाले जीव व पुद्गल गति आदि उपकार करने के प्रति धर्म आदि द्रव्यों के प्रेरक नहीं हैं। गति आदि कराने के लिए उन्हें उकसाते नहीं हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.6" id="IV.1.6">उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="IV.1.6" id="IV.1.6"></a>उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/36/18/147/7<span class="SanskritText"> यथा घटादिकार्योपलब्धे: परमाण्वनुमानं तथौदारिकादिकार्योपलब्धे: कार्मणानुमानम् ‘‘कार्यलिङ्ग हि कारणम्’’ (आप्त.मी.श्लो.68)। </span>=<span class="HindiText">जैसे घट आदि कार्यों की उपलब्धि होने से परमाणु रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, इसी प्रकार औदारिक शरीर आदि कार्यों की उपलब्धि होने से कर्मों रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, क्योंकि कारण को कार्यलिंगवाला कहा गया है।</span><br /> | ||
श्लो.वा.2/1/5/66/271/30<span class="SanskritText"> सिद्धमेकद्रव्यात्मकचित्तविशेषाणामेकसंतानत्वं द्रव्यप्रत्यासत्तेरेव।</span> =<span class="HindiText">(सर्वथा अनित्य पक्ष के पोषक बौद्ध लोग किसी भी अन्वयी कारण से निरपेक्ष एक सन्ताननामा तत्त्व को स्वीकार करके जिस किस प्रकार सर्वथा पृथक्-पृथक् कार्यों में कारण-कार्य भाव घटित करने का असफल प्रयास करते हैं, पर वह किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होता। हाँ एक द्रव्य के अनेक परिणामों को एक सन्तानपना अवश्य सिद्ध है।) तहाँ द्रव्य नामक प्रत्यासत्तिको ही तिस प्रकार होने वाले एक सन्तानपने की कारणता सिद्ध होती है। एक द्रव्य के केवल परिणामों की एक सन्तान करने में उपादान उपादेयभाव सिद्ध नहीं होता। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.7" id="IV.1.7"> उपादान को | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.7" id="IV.1.7"> उपादान को परतन्त्र कहने का कारण व प्रयोजन</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./2/19/177/3 <span class="SanskritText">लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते। अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमीति। तत: पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् ।</span>=<span class="HindiText">लोक में इन्द्रियों की पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँख से मैं अच्छा देखता हूँ, इस कान से मैं अच्छा सुनता हूँ। अत: पारतन्त्र्य विवक्षा में स्पर्शन आदि इन्द्रियों का करणपना (साधकतमपना) बन जाता है (तात्पर्य ये कि लोक व्यवहार में सर्वत्र व्यवहार नय का आश्रय होने के कारण उपादान की परिणति को निमित्त के आधार पर बताया जाता है। (विशेष देखें [[ नय#V.9 | नय - V.9]]) (रा.वा./2/19/1/131/8)।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./96<span class="SanskritText"> भेदविज्ञानरहित: शुद्धबुद्धैकस्वभावमात्मानमपि च परं स्वस्वरूपाद्भिन्नं करोति रागादिषु योजयतीत्यर्थ:। केन, अज्ञानभावेनेति।</span>=<span class="HindiText">भेद विज्ञान से रहित व्यक्ति शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी आत्मा को अपने स्वरूप से भिन्न पर पदार्थ रूप करता है (अर्थात् पर पदार्थों के अटूट विकल्प के प्रवाह में बहता हुआ) अपने को रागादिकों के साथ युक्त कर लेता है। यह सब उसका अज्ञान है। (ऐसा बताकर स्वरूप के प्रति सावधान कराना ही परतन्त्रता बताने का प्रयोजन है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.8" id="IV.1.8"> निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.1.8" id="IV.1.8"> निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/1/57/15/15<span class="SanskritText"> तत एवोत्पत्त्यनन्तरं निरन्वयविनाशाभ्युपगमात् परस्परसंश्लेषाभावे निमित्तनैमित्तकव्यवहारापह्नवाद् ‘अविद्याप्रत्यया: संस्कारा:’ इत्येवमादि विरुध्यते।</span>=<span class="HindiText">जिस (बौद्ध) मत में सभी संस्कार क्षणिक हैं उसके यहाँ ज्ञानादि की उत्पत्ति के बाद ही तुरन्त नाश हो जाने पर निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्ध नहीं बनेंगे और समस्त अनुभव सिद्ध लोकव्यवहारों का लोप हो जायेगा। अविद्या के प्रत्ययरूप सन्तान मानना भी विरुद्ध हो जायेगा। (इसी प्रकार सर्वथा अद्वैत नित्यपक्षवालों के प्रति भी समझना। इसीलिए निमित्त नैमित्तिक द्वैत का यथा योग्यरूप से स्वीकार करना आवश्यक है।)</span><br /> | ||
ध./ | ध./12/4,2,8,4/281/2 <span class="SanskritText">एवं विह ववहारो किमट्ठं करिदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है। <strong>उत्तर</strong>—सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./133-134/189/11 <span class="SanskritText">अयमत्रार्थ: यद्यपि पञ्चद्रव्याणि जीवस्योपकारं कुर्वन्ति, तथापि तानि दुःखकारणान्येवेति ज्ञात्वा। यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावं परमात्मद्रव्यं तदेव मनसा ध्येयं वचसा वक्तव्यं कायेन तत्साधकमनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति।=</span><span class="HindiText">यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, तथापि वे सब दुःख के कारण हैं, ऐसा जानकर; जो यह अक्षय अनन्त सुखादि का कारण विशुद्ध ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभावी परमात्म द्रव्य है, वह ही मन के द्वारा ध्येय है, वचन के द्वारा वक्तव्य है और काय के द्वारा उसके साधक अनुष्ठान ही कर्तव्य है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./143/203/17 <span class="SanskritText">अत्र यद्यपि...सिद्धगते: काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन....या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थ:।</span>=<span class="HindiText">यहाँ यद्यपि सिद्ध गति में कालादि लब्धि रूप से कालद्रव्य बहिरंग सहकारीकारण होता है, तथापि निश्चयनय से जो चार प्रकार की आराधना है वही तहाँ उपादान कारण है काल नहीं। इसलिए वह (काल) हेय है, ऐसा भावार्थ है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.1" id="IV.2.1"> जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.1" id="IV.2.1"> जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे</strong></span><br /> | ||
यो.सा.अ./ | यो.सा.अ./3/11-12 <span class="SanskritText">आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तथा कथम् । चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतन: कथम् ।11। परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते। न कोऽपि सुखदु:खेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।12।</span>=<span class="HindiText">यदि कर्म स्वयं ही अपने को कर्ता हो तो वह आत्मा को क्यों फल देता है? वा आत्मा ही क्यों उसके फल को भोगता है?।11। क्योंकि यदि कर्म तो कोई अन्य करेगा और उसका फल कोई अन्य भोगेगा तो कोई भिन्न ही पुरुष क्यों न सुख-दुःख से मुक्त हो सकेगा।12।</span><br /> | ||
यो.सा.अ./ | यो.सा.अ./5/23-27<span class="SanskritText"> विदघादि परो जीव: किंचित्कर्म शुभाशुभम् । पर्यायापेक्षया भुङ्क्ते फलं तस्य पुन: पर:।23। य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीव: शुभाशुभम् । स एव भुजते तस्य द्रव्यार्थापेक्षया फलम् ।24। मनुष्य: कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् । आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ।25। चेतन: कुरुते भुङ्क्ते भावैरौदयिकैरयम् । न विधत्ते न वा भुङ्क्ते किंचित्कर्म तदत्यये।27।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा दूसरा ही पुरुष कर्म को करता है और दूसरा ही उसे भोगता है, जैसे कि मनुष्य द्वारा किया पुण्य देव भोगता है। और द्रव्यार्थिक नय से जो पुरुष कर्म करता है वही उसके फल को भोगता है, जैसे—मनुष्य भव में भी जिस आत्मा ने कर्म किया था देवभव में भी वही आत्मा उसे भोगता है।23-25। जिस समय इस आत्मा में औदयिक भावों का उदय होता है उस समय उनके द्वारा यह शुभ अशुभ कर्मों को करता है और उनके फल को भोगता है। किन्तु औदयिकभाव नष्ट हो जाने पर यह न कोई कर्म करता है और न किसी के फल को भोगता है।27।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.2" id="IV.2.2"> कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.2" id="IV.2.2"> कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं</strong></span><br /> | ||
यो.सा./ | यो.सा./3/13 <span class="SanskritText">जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् । जायते भास्वरस्येव शुद्धस्य घनमण्डलम् ।13।</span><span class="HindiText">=जिस प्रकार ज्वलंत प्रभा के धारक भी सूर्य को मेघ मण्डल ढँक लेता है, उसी प्रकार अतिशय विमल भी आत्मा के स्वरूप को मलिन कर्म ढँक देते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.3" id="IV.2.3"> कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.3" id="IV.2.3"> कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु</strong></span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.1/1-1/42/60/1 <span class="PrakritText">तं च कम्मं सहेअं, अण्णहा णिव्वावाराणं पि बंधप्पसंगादो। कम्मस्स कारणं किं मिच्छात्तासंजमकसाया होंति, आहा सम्मत्तसंजदविरायदादो।</span>=<span class="HindiText">जीव से सम्बद्ध कर्म को सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा निर्व्यापार अर्थात् अयोगियों के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। उस कर्म के कारण मिथ्यात्व असंयम और कषाय हैं, सम्यक्त्व, संयम व वीतरागता नहीं। (आप्त.प./2/5/8)</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,8,12/288/6<span class="PrakritText"> ण, जोगेण विणा णाणावरणीयपयडीए पादब्भावादंसणादो। जेण विणा जं णियमेण णोवलब्भदे तं तस्स कज्जं इयरं च कारणमिदि सयलणयाइयाइयअजणप्पसिद्धं। तम्हा पदेसग्गवेयणा व पयडिवेयणा वि जोग पच्चएण त्ति सिद्धं।<br /> | ||
ध./ | ध./12/4,2,8,13/289/4 यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोगकसाएहि चेव होदि त्ति सिद्धं।</span>=<span class="HindiText">1. योग के बिना ज्ञानावरणीय की प्रकृतिवेदना का प्रादुर्भाव देखा नहीं जाता। जिसके बिना जो नियम से नहीं पाया जाता है वह उसका कारण व दूसरा कार्य होता है, ऐसा समस्त नैयायिक जनों में प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रदेशाग्रवेदना के समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्यय से होती है, यह सिद्ध है। 2. जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके नहीं होने पर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इस कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषाय से ही होती है, यह सिद्ध होता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.4" id="IV.2.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.4" id="IV.2.4"> वास्तव में विभाव कर्म के निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं</strong></span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./1072<span class="SanskritText"> अन्तर्दृष्टया कषायणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्त-नैमित्तिकको भाव: स्यान्न स्याज्जीवकर्मणो:।1072।</span>=<span class="HindiText">सूक्ष्म तत्त्वदृष्टि से कषायों व कर्मों का परस्पर में निमित्त नैमित्तिक भाव है किन्तु जीवद्रव्य तथा कर्म का नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.5" id="IV.2.5">समकालवर्ती इन दोनों में कारणकार्य भाव कैसे हो सकता है?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="IV.2.5" id="IV.2.5"></a>समकालवर्ती इन दोनों में कारणकार्य भाव कैसे हो सकता है?</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,1,39/81/10 <span class="SanskritText">वेदाभावलद्धीणं एक्ककालम्मि चेव उप्पज्जमाणीणं कधमाहाराहेयभावो, कज्जकारणभावो वा। ण समकालेणुप्पज्जमाणच्छायंकुराणं कज्जकारणभावदंसणादो, घडुप्पत्तीए कुसलाभावदंसणादो च। </span><span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वेद (कर्म) का अभाव और उस अभाव सम्बन्धी लब्धि (जीव का शुद्ध भाव) ये दोनों जब एक ही काल में उत्पन्न होते हैं, तब उनमें आधार-आधेयभाव या कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है? <strong>उत्तर</strong>–बन सकता है; क्योंकि, समान काल में उत्पन्न होने वाले छाया और अंकुर में, तथा दीपक व प्रकाश में (छहढाला) कार्यकारणभाव देखा जाता है। तथा घट की उत्पत्ति में कुसूल का अभाव भी देखा जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.6" id="IV.2.6">कर्म व जीव के | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="IV.2.6" id="IV.2.6"></a>कर्म व जीव के परस्पर निमित्तनैमित्तिकपने से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आ सकता</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./121 <span class="SanskritText">यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविध: परिणाम: स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतु:। अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतु:। द्रव्यकर्महेतु: तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनैवोपलम्भात् । एवं सतीतरेतराश्रयदोष:। न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबन्धस्यात्मन: प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।</span>=<span class="HindiText">’संसार’ नामक जो यह आत्मा का तथाविध परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकने का हेतु है। <strong>प्रश्न</strong>–उस तथाविध परिणाम का हेतु कौन है? <strong>उत्तर</strong>–द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही वह देखा जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आयेगा? <strong>उत्तर</strong>–नहीं आयेगा, क्योंकि अनादि सिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्मा का जो पूर्व का द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतु रूप से ग्रहण किया गया है (और नवीनबद्ध कर्म का कार्य रूप से ग्रहण किया गया है)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.7" id="IV.2.7"> कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.7" id="IV.2.7"> कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष सम्भव है</strong></span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./37/155/10 <span class="HindiText">अत्राह शिष्य:–संसारिणां निरन्तरं कर्मबन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति। तत्र प्रत्युत्तरं। यथा शत्रो: क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्तत: पौरुषं कृत्वा शत्रुं हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति। हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रुं हन्तीति। यत्पुनरन्त:कोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयरूपेण च कर्म लघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव आगमभाषया अध:प्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्म हननबुद्धिं क्वापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बन्ध व उदय पाया जाता है। अत: उनके शुद्धात्म ध्यान का प्रसंग भी नहीं है। तब मोक्ष कैसे होता है? <strong>उत्तर</strong>–जैसे कोई बुद्धिमान शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर ‘यह समय शत्रु को मारने का है’ ऐसा विचारकर उद्यम करता है वह अपने शत्रु को मारता है। इसी प्रकार–कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती। स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध की न्यूनता (काललब्धि) होने पर जब कर्म लघु व क्षीण होते हैं, उस समय कोई भव्य जीव अवसर विचारकर आगमकथित पंचलब्धि अथवा अध्यात्म कथित निजशुद्धात्म सम्मुख परिणामों नामक निर्मलभावना विशेषरूप खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रु को नष्ट करता है। और जो उपरोक्त काललब्धि हो जाने पर भी अध:करण आदि त्रिकरण अथवा आत्मसम्मुख परिणाम रूप बुद्धि किसी भी समय न करेगा तो यह अभव्यत्व गुण का लक्षण जानना चाहिए। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.8" id="IV.2.8"> कर्म व जीव के निमित्त-नैमित्तिकपने में कारण व प्रयोजन</strong> </span><BR>प.प्र./टी./ | <li><span class="HindiText"><strong name="IV.2.8" id="IV.2.8"> कर्म व जीव के निमित्त-नैमित्तिकपने में कारण व प्रयोजन</strong> </span><BR>प.प्र./टी./1/66 <span class="SanskritText">अत्र वीतरागसदानन्दैकरूपात्सर्वप्रकारोपादेयभूतात्परमात्मनो यद्भिन्नं शुभाशुभकर्मद्वयं तद्धेयमिति भावार्थ:।</span>=<span class="HindiText">(यहाँ जो जीव को कर्मों के सामने पंगु बताया गया है) भावार्थ ऐसा है कि वीतराग सदा एक आनन्दरूप तथा सर्व प्रकार से उपादेयभूत जो यह परमात्म तत्त्व है, उससे भिन्न जो शुभ और अशुभ ये दोनों कर्म हैं, वे हेय हैं।</span></li> | ||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
- कारण कार्य भाव समन्वय
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परत:
रा.वा./4/42/7/251/7 पुद्गलानामानन्त्यात्तत्तत्पुद्गलद्रव्यमपेक्ष्य एकपुद्गलस्थस्य तस्यैकस्यैव पर्यायस्यान्यत्वभावात् । यथा प्रदेशिन्या: मध्यमाभेदाद् यदन्यत्वं न तदेव अनामिकाभेदात् । मा भूत् मध्यमानामियोरकत्वं मध्यमाप्रदेशिन्यन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषादिति। न चैतत्परावधिकमेवार्थसत्त्वम् । यदि मध्यमासामर्थ्यात् प्रदेशिन्या: ह्रस्वत्वं जायते शशविषाणेऽपि स्याच्छक्रयष्टौ वा। नापि स्वत एव, परापेक्षाभावे तदव्यक्त्यभावात् । तस्मात्तस्यानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य तत्तत्सहकारिकारणं प्रतीत्य तत्तद्रूपं वक्ष्यते। न तत् स्वत एव नापि परकृतमेव। एवं जीवोऽपि कर्मनोकर्मविषयवस्तूपकरणसंबन्धभेदाभेदाविर्भूतजीवस्थानगुणस्थानविकल्पानन्तपर्यायरूप: प्रत्येतव्य:। =जैसे अनन्त पुद्गल सम्बन्धियों की अपेक्षा एक ही प्रदेशिनी अंगुलि अनेक भेदों को प्राप्त होती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय उपकरणों के सम्बन्ध से जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, दंडी, कुण्डली आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है। प्रदेशिनी अंगुलि में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पर रूप का भेद जुदा-जुदा है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया, अन्यथा शशविषाण में भी उत्पन्न हो जाना चाहिए था, और न स्वत: ही उसमें ह्रस्वत्व था, अन्यथा मध्यमा के अभाव में भी उसकी प्रतीति हो जानी चाहिए थी। तात्पर्य यह कि अनन्त परिणामी द्रव्य ही तत्तत्सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूप से व्यवहार में आता है। (यहाँ द्रव्य की विभिन्नता में सहकारी कारणता का स्थान दर्शाते हुए कहा गया है कि वह न स्वत: है न परत:। इसी प्रकार क्षेत्र, काल व भाव में भी लागू कर लेना चाहिए)
- प्रत्येक कार्य अन्तरंग व बाह्य दोनों कारणों के सम्मेल से होता है
स्व.स्तो./मू./33.59,60 अलङ्घ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा।...।33। यद्वस्तु बाह्यं गुणदोषसूतेर्निमित्तमभ्यन्तरमूलहेतो:। अध्यात्मवृत्तस्य तदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलमप्यलं न।59। बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं, कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:। नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां, तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ।60।=अन्तरंग व बाह्य इन दोनों हेतुओं के अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्यशक्ति है।33। जो बाह्य वस्तु गुण दोष अर्थात् पुण्य पाप की उत्पत्ति का निमित्त होती है वह अन्तरंग में वर्तनेवाले गुणदोषों की उत्पत्ति के आभ्यन्तर मूलहेतु की अंगभूत है। केवल अभ्यन्तर कारण ही गुणदोषों की उत्पत्ति में समर्थ नहीं है।59। कार्यों में बाह्य और अभ्यंतर दोनों कारणों की जो यह पूर्णता है वह आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है। अन्यथा पुरुषों के मोक्ष की विधि भी नहीं बनती। इसी से हे परमर्षि ! आप बन्धुजनों के वन्द्य हैं।60।
स.सि./5/30/300/5 उभयनिमित्तवशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पाद: भृत्पिण्डस्य घटपर्यायवत् ।=अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के वश से प्रतिसमय जो नवीन अवस्था की प्राप्ति होती है, उसे उत्पाद कहते हैं। जैसे मिट्टी के पिण्ड की घटपर्याय। (प्र.सा./त.प्र./95,102)
ति.प./4/281-282 सव्वाणं पयत्थाणं णियमा परिणामपहुदिवित्तीओ। बहिरंतरंगहेदुहि सव्वब्भेदेसु वट्टंति।281। बाहिरहेदू कहिदो णिच्छयकालो त्ति सव्वदरसीहिं। अब्भंतरं णिमित्तं णियणियदव्वेसु चेट्ठेदि।282।=सर्व पदार्थों के समस्त भेदों में नियम से बाह्य और अभ्यन्तर निमित्तों के द्वारा परिणामादिक (परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व) वृत्तियाँ प्रवर्तती हैं।281। सर्वज्ञदेव ने सर्व पदार्थों के प्रर्वतने का बाह्य निमित्त निश्चयकाल कहा है। अभ्यन्तर निमित्त अपने-अपने द्रव्यों में स्थित है।282।
- <a name="IV.1.3" id="IV.1.3"></a>अन्तरंग व बहिरंग कारणों से होने के उदाहरण
स.सा./मू./278-279 जैसे स्फटिकमणि तमालपत्र के संयोग से परिणमती है वैसे ही जीव भी अन्य द्रव्यों के संयोग से रागादि रूप परिणमन करता है।
स.सा./मू./283-285 द्रव्य व भाव दोनों प्रतिक्रमण परस्पर सापेक्ष है।
रा.वा./2/1/14/101/23 बाहर में मनुष्य तिर्यंचादिक औदयिक भाव और अन्तरंग में चैतन्यादि पारिणामिक भाव ही जीव के परिचायक हैं।
पं.का./त.प्र./88 स्वत: गमन करने वाले जीव पुद्गलों की गति में धर्मास्तिकाय बाह्य सहकारीकारण है। (द्र.सं./टी./17) (और भी देखें निमित्त )।
- व्यवहारनय से निमित्त वस्तुभूत है पर निश्चय से कल्पना मात्र है
श्लो.वा.2/1/7/13/565/1 व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठ: संबन्ध: संयोगसमवायादिवत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुन: कल्पनारोपित: सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रहर्जुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचित्कश्चित्संबन्धोऽन्यत्र कल्पनामात्रत्वात् इति सर्वमविरुद्धं। =व्यवहार नय का आश्रय लेने पर संयोग व समवाय आदि सम्बन्धों के समान दो में ठहरने वाला कार्यकारण भाव प्रतीतियों से सिद्ध होने के कारण वस्तुभूत ही है, काल्पनिक नहीं। (क्योंकि तहाँ व्यवहारनय भेदग्राही होने के कारण असद्भूत व्यवहार भेदोपचार को ग्रहण करके संयोग सम्बन्ध को सत्य घोषित करता है और सद्भूत व्यवहार नय अभेदोपचार को ग्रहण करके समवाय सम्बन्ध को स्वीकार करता है) परन्तु संग्रह नय और ऋजुसूत्र नय का आश्रय करने पर कोई भी किसी का किसी के साथ सम्बन्ध नहीं है। कोरी कल्पनाएँ है। सब अपने-अपने स्वभाव में लीन हैं। यही निश्चय नय कहता है। (संग्रहनय मात्र अद्वैत एक महा सत् ग्राही होने के कारण और ऋजुसूत्रनय मात्र अन्तिम अवान्तर सत्तारूप एकत्वग्राही होने के कारण, दोनों ही द्विष्ठ नहीं देखते। तब वे कारणकार्य के द्वैत को कैसे अंगीकार कर सकते है। विशेष देखो ‘नय’)।
- निमित्त स्वीकार करने पर भी वस्तु स्वतन्त्रता बाधित नहीं होती
रा.वा./5/1/27/434/26 ननु च बाह्यद्रव्यादिनिमित्तवशात् परिणामिनां परिणाम उपलभ्यते, स च स्वातन्त्र्ये सति विरुध्यत इति; नैष दोष:; बाह्यस्य निमित्तमात्रत्वात् । न हि गत्यादिपरिणामिनो जीवपुद्गला: गत्याद्युपग्रहे धर्मादीनां प्रेरका:।=(धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की यहाँ यह स्वतन्त्रता है कि ये स्वयं गति और स्थितिरूप से परिणत जीव और पुद्गलों की गति में स्वयं निमित्त होते हैं।) प्रश्न–बाह्य द्रव्यादि के निमित्त से परिणामियों के परिणाम उपलब्ध होते हैं और स्वातन्त्र्य स्वीकार कर लेने पर यह बात विरोध को प्राप्त हो जाती है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बाह्य द्रव्य निमित्तमात्र होते हैं। (यहाँ प्रकृत में) गति आदि रूप परिणमन करने वाले जीव व पुद्गल गति आदि उपकार करने के प्रति धर्म आदि द्रव्यों के प्रेरक नहीं हैं। गति आदि कराने के लिए उन्हें उकसाते नहीं हैं।
- <a name="IV.1.6" id="IV.1.6"></a>उपादान उपादेय भाव का कारण प्रयोजन
रा.वा./2/36/18/147/7 यथा घटादिकार्योपलब्धे: परमाण्वनुमानं तथौदारिकादिकार्योपलब्धे: कार्मणानुमानम् ‘‘कार्यलिङ्ग हि कारणम्’’ (आप्त.मी.श्लो.68)। =जैसे घट आदि कार्यों की उपलब्धि होने से परमाणु रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, इसी प्रकार औदारिक शरीर आदि कार्यों की उपलब्धि होने से कर्मों रूप उपादान कारण का अनुमान किया जाता है, क्योंकि कारण को कार्यलिंगवाला कहा गया है।
श्लो.वा.2/1/5/66/271/30 सिद्धमेकद्रव्यात्मकचित्तविशेषाणामेकसंतानत्वं द्रव्यप्रत्यासत्तेरेव। =(सर्वथा अनित्य पक्ष के पोषक बौद्ध लोग किसी भी अन्वयी कारण से निरपेक्ष एक सन्ताननामा तत्त्व को स्वीकार करके जिस किस प्रकार सर्वथा पृथक्-पृथक् कार्यों में कारण-कार्य भाव घटित करने का असफल प्रयास करते हैं, पर वह किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होता। हाँ एक द्रव्य के अनेक परिणामों को एक सन्तानपना अवश्य सिद्ध है।) तहाँ द्रव्य नामक प्रत्यासत्तिको ही तिस प्रकार होने वाले एक सन्तानपने की कारणता सिद्ध होती है। एक द्रव्य के केवल परिणामों की एक सन्तान करने में उपादान उपादेयभाव सिद्ध नहीं होता।
- उपादान को परतन्त्र कहने का कारण व प्रयोजन
स.सि./2/19/177/3 लोके इन्द्रियाणां पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते। अनेनाक्ष्णा सुष्ठु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्ठु शृणोमीति। तत: पारतन्त्र्यात्स्पर्शनादीनां करणत्वम् ।=लोक में इन्द्रियों की पारतन्त्र्य विवक्षा देखी जाती है। जैसे इस आँख से मैं अच्छा देखता हूँ, इस कान से मैं अच्छा सुनता हूँ। अत: पारतन्त्र्य विवक्षा में स्पर्शन आदि इन्द्रियों का करणपना (साधकतमपना) बन जाता है (तात्पर्य ये कि लोक व्यवहार में सर्वत्र व्यवहार नय का आश्रय होने के कारण उपादान की परिणति को निमित्त के आधार पर बताया जाता है। (विशेष देखें नय - V.9) (रा.वा./2/19/1/131/8)।
स.सा./ता.वृ./96 भेदविज्ञानरहित: शुद्धबुद्धैकस्वभावमात्मानमपि च परं स्वस्वरूपाद्भिन्नं करोति रागादिषु योजयतीत्यर्थ:। केन, अज्ञानभावेनेति।=भेद विज्ञान से रहित व्यक्ति शुद्ध बुद्ध एक स्वभावी आत्मा को अपने स्वरूप से भिन्न पर पदार्थ रूप करता है (अर्थात् पर पदार्थों के अटूट विकल्प के प्रवाह में बहता हुआ) अपने को रागादिकों के साथ युक्त कर लेता है। यह सब उसका अज्ञान है। (ऐसा बताकर स्वरूप के प्रति सावधान कराना ही परतन्त्रता बताने का प्रयोजन है।)
- निमित्त को प्रधान कहने का कारण प्रयोजन
रा.वा./1/1/57/15/15 तत एवोत्पत्त्यनन्तरं निरन्वयविनाशाभ्युपगमात् परस्परसंश्लेषाभावे निमित्तनैमित्तकव्यवहारापह्नवाद् ‘अविद्याप्रत्यया: संस्कारा:’ इत्येवमादि विरुध्यते।=जिस (बौद्ध) मत में सभी संस्कार क्षणिक हैं उसके यहाँ ज्ञानादि की उत्पत्ति के बाद ही तुरन्त नाश हो जाने पर निमित्त नैमित्तिक आदि सम्बन्ध नहीं बनेंगे और समस्त अनुभव सिद्ध लोकव्यवहारों का लोप हो जायेगा। अविद्या के प्रत्ययरूप सन्तान मानना भी विरुद्ध हो जायेगा। (इसी प्रकार सर्वथा अद्वैत नित्यपक्षवालों के प्रति भी समझना। इसीलिए निमित्त नैमित्तिक द्वैत का यथा योग्यरूप से स्वीकार करना आवश्यक है।)
ध./12/4,2,8,4/281/2 एवं विह ववहारो किमट्ठं करिदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च।=प्रश्न–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है। उत्तर—सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।
प्र.सा./ता.वृ./133-134/189/11 अयमत्रार्थ: यद्यपि पञ्चद्रव्याणि जीवस्योपकारं कुर्वन्ति, तथापि तानि दुःखकारणान्येवेति ज्ञात्वा। यदि वाक्षयानन्तसुखादिकारणं विशुद्धज्ञानदर्शनोपयोगस्वभावं परमात्मद्रव्यं तदेव मनसा ध्येयं वचसा वक्तव्यं कायेन तत्साधकमनुष्ठानं च कर्त्तव्यमिति।=यहाँ यह तात्पर्य है कि यद्यपि पाँच द्रव्य जीव का उपकार करते हैं, तथापि वे सब दुःख के कारण हैं, ऐसा जानकर; जो यह अक्षय अनन्त सुखादि का कारण विशुद्ध ज्ञानदर्शन उपयोग स्वभावी परमात्म द्रव्य है, वह ही मन के द्वारा ध्येय है, वचन के द्वारा वक्तव्य है और काय के द्वारा उसके साधक अनुष्ठान ही कर्तव्य है।
प्र.सा./ता.वृ./143/203/17 अत्र यद्यपि...सिद्धगते: काललब्धिरूपेण बहिरङ्गसहकारी भवति कालस्तथापि निश्चयनयेन....या तु निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं न च कालस्तेन कारणेन स हेय इति भावार्थ:।=यहाँ यद्यपि सिद्ध गति में कालादि लब्धि रूप से कालद्रव्य बहिरंग सहकारीकारण होता है, तथापि निश्चयनय से जो चार प्रकार की आराधना है वही तहाँ उपादान कारण है काल नहीं। इसलिए वह (काल) हेय है, ऐसा भावार्थ है।
- कार्य न सर्वथा स्वत: होता है न सर्वथा परत:
- कर्म व जीवगत कारणकार्य भाव विषयक
- जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे
यो.सा.अ./3/11-12 आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तथा कथम् । चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतन: कथम् ।11। परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते। न कोऽपि सुखदु:खेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।12।=यदि कर्म स्वयं ही अपने को कर्ता हो तो वह आत्मा को क्यों फल देता है? वा आत्मा ही क्यों उसके फल को भोगता है?।11। क्योंकि यदि कर्म तो कोई अन्य करेगा और उसका फल कोई अन्य भोगेगा तो कोई भिन्न ही पुरुष क्यों न सुख-दुःख से मुक्त हो सकेगा।12।
यो.सा.अ./5/23-27 विदघादि परो जीव: किंचित्कर्म शुभाशुभम् । पर्यायापेक्षया भुङ्क्ते फलं तस्य पुन: पर:।23। य एव कुरुते कर्म किंचिज्जीव: शुभाशुभम् । स एव भुजते तस्य द्रव्यार्थापेक्षया फलम् ।24। मनुष्य: कुरुते पुण्यं देवो वेदयते फलम् । आत्मा वा कुरुते पुण्यमात्मा वेदयते फलम् ।25। चेतन: कुरुते भुङ्क्ते भावैरौदयिकैरयम् । न विधत्ते न वा भुङ्क्ते किंचित्कर्म तदत्यये।27।=पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा दूसरा ही पुरुष कर्म को करता है और दूसरा ही उसे भोगता है, जैसे कि मनुष्य द्वारा किया पुण्य देव भोगता है। और द्रव्यार्थिक नय से जो पुरुष कर्म करता है वही उसके फल को भोगता है, जैसे—मनुष्य भव में भी जिस आत्मा ने कर्म किया था देवभव में भी वही आत्मा उसे भोगता है।23-25। जिस समय इस आत्मा में औदयिक भावों का उदय होता है उस समय उनके द्वारा यह शुभ अशुभ कर्मों को करता है और उनके फल को भोगता है। किन्तु औदयिकभाव नष्ट हो जाने पर यह न कोई कर्म करता है और न किसी के फल को भोगता है।27।
- कर्म जीव को किस प्रकार फल देते हैं
यो.सा./3/13 जीवस्याच्छादकं कर्म निर्मलस्य मलीमसम् । जायते भास्वरस्येव शुद्धस्य घनमण्डलम् ।13।=जिस प्रकार ज्वलंत प्रभा के धारक भी सूर्य को मेघ मण्डल ढँक लेता है, उसी प्रकार अतिशय विमल भी आत्मा के स्वरूप को मलिन कर्म ढँक देते हैं।
- कर्म व जीव के निमित्त नैमित्तिकपने में हेतु
क.पा.1/1-1/42/60/1 तं च कम्मं सहेअं, अण्णहा णिव्वावाराणं पि बंधप्पसंगादो। कम्मस्स कारणं किं मिच्छात्तासंजमकसाया होंति, आहा सम्मत्तसंजदविरायदादो।=जीव से सम्बद्ध कर्म को सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा निर्व्यापार अर्थात् अयोगियों के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। उस कर्म के कारण मिथ्यात्व असंयम और कषाय हैं, सम्यक्त्व, संयम व वीतरागता नहीं। (आप्त.प./2/5/8)
ध.12/4,2,8,12/288/6 ण, जोगेण विणा णाणावरणीयपयडीए पादब्भावादंसणादो। जेण विणा जं णियमेण णोवलब्भदे तं तस्स कज्जं इयरं च कारणमिदि सयलणयाइयाइयअजणप्पसिद्धं। तम्हा पदेसग्गवेयणा व पयडिवेयणा वि जोग पच्चएण त्ति सिद्धं।
ध./12/4,2,8,13/289/4 यद्यस्मिन् सत्येव भवति नासति तत्तस्य कारणमिति न्यायात् । तम्हा णाणावरणीयवेयणा जोगकसाएहि चेव होदि त्ति सिद्धं।=1. योग के बिना ज्ञानावरणीय की प्रकृतिवेदना का प्रादुर्भाव देखा नहीं जाता। जिसके बिना जो नियम से नहीं पाया जाता है वह उसका कारण व दूसरा कार्य होता है, ऐसा समस्त नैयायिक जनों में प्रसिद्ध है। इस प्रकार प्रदेशाग्रवेदना के समान प्रकृतिवेदना भी योग प्रत्यय से होती है, यह सिद्ध है। 2. जो जिसके होने पर ही होता है और जिसके नहीं होने पर नहीं होता है वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय है। इस कारण ज्ञानावरणीय वेदना योग और कषाय से ही होती है, यह सिद्ध होता है। - वास्तव में विभाव कर्म के निमित्त नैमित्तिक भाव है, जीव व कर्म में नहीं
पं.ध./उ./1072 अन्तर्दृष्टया कषायणां कर्मणां च परस्परम् । निमित्त-नैमित्तिकको भाव: स्यान्न स्याज्जीवकर्मणो:।1072।=सूक्ष्म तत्त्वदृष्टि से कषायों व कर्मों का परस्पर में निमित्त नैमित्तिक भाव है किन्तु जीवद्रव्य तथा कर्म का नहीं।
- <a name="IV.2.5" id="IV.2.5"></a>समकालवर्ती इन दोनों में कारणकार्य भाव कैसे हो सकता है?
ध.7/2,1,39/81/10 वेदाभावलद्धीणं एक्ककालम्मि चेव उप्पज्जमाणीणं कधमाहाराहेयभावो, कज्जकारणभावो वा। ण समकालेणुप्पज्जमाणच्छायंकुराणं कज्जकारणभावदंसणादो, घडुप्पत्तीए कुसलाभावदंसणादो च। प्रश्न–वेद (कर्म) का अभाव और उस अभाव सम्बन्धी लब्धि (जीव का शुद्ध भाव) ये दोनों जब एक ही काल में उत्पन्न होते हैं, तब उनमें आधार-आधेयभाव या कार्य-कारणभाव कैसे बन सकता है? उत्तर–बन सकता है; क्योंकि, समान काल में उत्पन्न होने वाले छाया और अंकुर में, तथा दीपक व प्रकाश में (छहढाला) कार्यकारणभाव देखा जाता है। तथा घट की उत्पत्ति में कुसूल का अभाव भी देखा जाता है।
- <a name="IV.2.6" id="IV.2.6"></a>कर्म व जीव के परस्पर निमित्तनैमित्तिकपने से इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आ सकता
प्र.सा./त.प्र./121 यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविध: परिणाम: स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतु:। अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतु:। द्रव्यकर्महेतु: तस्य, द्रव्यकर्मसंयुक्तत्वेनैवोपलम्भात् । एवं सतीतरेतराश्रयदोष:। न हि अनादिप्रसिद्धद्रव्यकर्माभिसंबन्धस्यात्मन: प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् ।=’संसार’ नामक जो यह आत्मा का तथाविध परिणाम है वही द्रव्यकर्म के चिपकने का हेतु है। प्रश्न–उस तथाविध परिणाम का हेतु कौन है? उत्तर–द्रव्यकर्म उसका हेतु है, क्योंकि द्रव्यकर्म की संयुक्तता से ही वह देखा जाता है। प्रश्न–ऐसा होने से इतरेतराश्रय दोष आयेगा? उत्तर–नहीं आयेगा, क्योंकि अनादि सिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्मा का जो पूर्व का द्रव्यकर्म है उसका वहाँ हेतु रूप से ग्रहण किया गया है (और नवीनबद्ध कर्म का कार्य रूप से ग्रहण किया गया है)।
- कर्मोदय का अनुसरण करते हुए भी जीव को मोक्ष सम्भव है
द्र.सं./टी./37/155/10 अत्राह शिष्य:–संसारिणां निरन्तरं कर्मबन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति। तत्र प्रत्युत्तरं। यथा शत्रो: क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्तत: पौरुषं कृत्वा शत्रुं हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति। हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रुं हन्तीति। यत्पुनरन्त:कोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयरूपेण च कर्म लघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव आगमभाषया अध:प्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्म हननबुद्धिं क्वापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति।=प्रश्न–संसारी जीवों के निरन्तर कर्मों का बन्ध व उदय पाया जाता है। अत: उनके शुद्धात्म ध्यान का प्रसंग भी नहीं है। तब मोक्ष कैसे होता है? उत्तर–जैसे कोई बुद्धिमान शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर ‘यह समय शत्रु को मारने का है’ ऐसा विचारकर उद्यम करता है वह अपने शत्रु को मारता है। इसी प्रकार–कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती। स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध की न्यूनता (काललब्धि) होने पर जब कर्म लघु व क्षीण होते हैं, उस समय कोई भव्य जीव अवसर विचारकर आगमकथित पंचलब्धि अथवा अध्यात्म कथित निजशुद्धात्म सम्मुख परिणामों नामक निर्मलभावना विशेषरूप खड्ग से पौरुष करके कर्मशत्रु को नष्ट करता है। और जो उपरोक्त काललब्धि हो जाने पर भी अध:करण आदि त्रिकरण अथवा आत्मसम्मुख परिणाम रूप बुद्धि किसी भी समय न करेगा तो यह अभव्यत्व गुण का लक्षण जानना चाहिए। - कर्म व जीव के निमित्त-नैमित्तिकपने में कारण व प्रयोजन
प.प्र./टी./1/66 अत्र वीतरागसदानन्दैकरूपात्सर्वप्रकारोपादेयभूतात्परमात्मनो यद्भिन्नं शुभाशुभकर्मद्वयं तद्धेयमिति भावार्थ:।=(यहाँ जो जीव को कर्मों के सामने पंगु बताया गया है) भावार्थ ऐसा है कि वीतराग सदा एक आनन्दरूप तथा सर्व प्रकार से उपादेयभूत जो यह परमात्म तत्त्व है, उससे भिन्न जो शुभ और अशुभ ये दोनों कर्म हैं, वे हेय हैं।
- जीव यदि कर्म न करे तो कर्म भी उसे फल क्यों दे
- उपादान निमित्त सामान्य विषयक