व्यवहारनय निर्देश: Difference between revisions
From जैनकोष
m (Vikasnd moved page व्यवहारनय निर्देश to व्यवहारनय निर्देश without leaving a redirect: RemoveZWNJChar) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4" id="V.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4" id="V.4"> व्यवहारनय सामान्य निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1" id="V.4.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1" id="V.4.1"> व्यवहारनय सामान्य के लक्षण</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> संग्रहनय ग्रहीत अर्थ में विधिपूर्वक भेद</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,1/गा.6/12 <span class="PrakritText">पडिरूवं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारो।</span> =<span class="HindiText">वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना (संग्रहनय का) व्यवहार है। (क.पा./1/13-14/182/89/220)।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/142/2<span class="SanskritText"> संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है। (रा.वा.1/33/6/96/20), (श्लो.वा./4/1/33/श्लो.58/244), (ह.पु./58/45), (ध.1/1,1,1/84/4), (त.सा./1/46), (स्या.म./28/317/14 तथा 316 पृ.उद्धृत श्लो.नं.3)।</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./9 <span class="SanskritText">संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवह्नियतेति व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थ के भेदरूप से जो वस्तु में भेद करता है, वह व्यवहारनय है। (न.च.वृ./210), (का.अ./मू./273)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1.2" id="V.4.1.2"> अभेद | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1.2" id="V.4.1.2"> अभेद वस्तु में गुण-गुणी आदि रूप भेदोपचार</strong> </span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./262 <span class="PrakritText">जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स। =सो ववहारो भणियो ...।262।</span>=<span class="HindiText">एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुण पर्यायों का भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें [[ आगे नय#V.5.1 | आगे नय - V.5.1]]-3), (पं.ध./पू./614), (आ.प./9)।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./522 <span class="SanskritText">व्यवहरणं व्यवहार: स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थ:। स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहां पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी जो भेद करना है वह व्यवहार नय कहलाता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1.3" id="V.4.1.3"> भिन्न पदार्थों में कारकादि रूप से अभेदोपचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1.3" id="V.4.1.3"> भिन्न पदार्थों में कारकादि रूप से अभेदोपचार</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./272 <span class="SanskritText">पराश्रितो व्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (विशेष देखो आगे असद्भूत व्यवहारनय–नय/V/5/4-6)।</span><br /> | ||
त.अनु./ | त.अनु./29 <span class="SanskritText">व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचर:।</span> =<span class="HindiText">व्यवहारनय भिन्न कर्ता कर्मादि विषयक है। (अन.ध./1/102/108)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1.4" id="V.4.1.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.1.4" id="V.4.1.4"> लोकव्यवहारगत-वस्तुविषयक</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,7/199/1 <span class="SanskritText">लोकव्यवहारनिबन्धनं द्रव्यमिच्छन् व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">लोकव्यवहार के कारणभूत द्रव्य को स्वीकार करने वाला पुरुष व्यवहारनय है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2" id="V.4.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2" id="V.4.2"> व्यवहारनय सामान्य के उदाहरण</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2.1" id="V.4.2.1"> संग्रह ग्रहीत अर्थ में भेद करने | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2.1" id="V.4.2.1"> संग्रह ग्रहीत अर्थ में भेद करने सम्बन्धी</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/142/2 <span class="SanskritText">को विधि:। य: संगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्व्येणैव व्यवहार: प्रवर्तत इत्ययं विधि:। तद्यथा–सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। यत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति। द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषानपेक्षेण न शक्य: संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यवहार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारायेति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भेद करने की विधि क्या है? <strong>उत्तर</strong>–जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ है उसी के आनुपूर्वीक्रम से व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है। यथा–सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। यथा–जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रहनय का विषय जो द्रव्य है वह भी जीव अजीव की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रहनय के विषय रहते हैं, तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिए जीवद्रव्य के देव नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है। (रा.वा./1/33/6/6/96/23), (श्लो.वा./4/1/33/60/244/25), (स्या.म./28/317/15)।</span><br /> | ||
श्लो.वा./4/1/33/60/245/1 <span class="SanskritText">व्यवहारस्तद्विभज्यते यद्द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधं, य: पर्याय: स द्विविध: क्रमभावी सहभावी चेति। पुनरपि संग्रह: सर्वानजीवादीन् संगृह्णाति।...व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यो जीव: स मुक्त: संसारी च,...यदाकाशं तल्लोकाकाशमलोकाकाशं ...य: क्रमभावी पर्याय: स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेष:, य: सहभावी पर्याय: स गुण: सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रपञ्च:।</span>=<span class="HindiText">(उपरोक्त से आगे)–व्यवहारनय उसका विभाग करते हुए कहता है कि जो द्रव्य है वह जीवादि के भेद से छ: प्रकार का है, और जो पर्याय है वह क्रमभावी व सहभावी के भेद से दो प्रकार की है। पुन: संग्रहनय इन उपरोक्त जीवादिकों का संग्रह कर लेता है, तब व्यवहारनय पुन: इनका विभाग करता है कि जीव मुक्त व संसारी के भेद से दो प्रकार का है, आकाश लोक व अलोक के भेद से दो प्रकार का है। (इसी प्रकार पुद्गल व काल आदि का भी विभाग करता है)। जो क्रमभावी पर्याय है वह क्रिया रूप व अक्रिया (भाव) रूप है, सो विशेष है। और जो सहभावी पर्याय हैं वह गुण तथा सदृशपरिणामरूप होती हुई सामान्यरूप् हैं। इसी प्रकार अपर व पर संग्रह तथा व्यवहारनय का प्रपंच समझ लेना चाहिए।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2.2" id="V.4.2.2"> अभेद | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2.2" id="V.4.2.2"> अभेद वस्तु में गुणगुणीरूप भेदोपचार सम्बन्धी</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./7 <span class="PrakritText">ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।</span>=<span class="HindiText">ज्ञानी के चारित्र दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार से कहे गये हैं। (द्र.सं./मू./6/17), (स.सा./आ./16/क.17)।</span><br /> | ||
का./ता.वृ./ | का./ता.वृ./111/175/13 <span class="SanskritText">अनलानिलकायिका: तेषु पञ्चस्थावरेषु मध्ये चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसा: भण्यन्ते। </span>=<span class="HindiText">पांच स्थावरों में से तेज वायुकायिक जीवों में चलनक्रिया देखकर व्यवहार से उन्हें त्रस कहा जाता है।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./599<span class="SanskritText"> व्यवहार: स यथा स्यात्सद्द्रव्यं ज्ञानावांश्च जीवो वा। </span>=<span class="HindiText">जैसे ‘सत् द्रव्य है’ अथवा ‘ज्ञानवान् जीव है’ इस प्रकार का जो कथन है, वह व्यवहारनय है। और भी देखो–(नय/IV/2/6/6), (नय/V/5/1-3)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2.3" id="V.4.2.3">भिन्न पदार्थों में कारकरूप से अभेदोपचार | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.4.2.3" id="V.4.2.3"></a>भिन्न पदार्थों में कारकरूप से अभेदोपचार सम्बन्धी</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./59-60 <span class="PrakritGatha">तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।59। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।60।</span>=<span class="HindiText">जीव में कर्मों व नोकर्मों का वर्ण देखकर, जीव का यह वर्ण है, ऐसा जिनदेव ने व्यवहार से कहा है।59। इसी प्रकार गन्ध, रस और स्पर्शरूप देह संस्थान आदिक, सभी व्यवहार से हैं, ऐसा निश्चयनय के देखने वाले कहते हैं।60। (द्र.सं./मू./7), (विशेष देखें [[ नय#V.5.5 | नय - V.5.5]])।</span><br /> | ||
द्र.सं./मू./ | द्र.सं./मू./3,9 <span class="PrakritGatha">तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।3। पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो।8। ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पभुंजेदि।9।</span> =<span class="HindiText">भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों कालों में जो इन्द्रिय बल, आयु व श्वासोच्छ्वासरूप द्रव्यप्राणों से जीता है, उसे व्यवहार से जीव कहते हैं।3। व्यवहार से जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता है।6। और व्यवहार से पुद्गलकर्मों के फल का भोक्ता है।9। (विशेष देखो नय/V/5/5)।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./परि/नय नं. | प्र.सा./त.प्र./परि/नय नं.44 <span class="SanskritText">व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ती।44।</span> =<span class="HindiText">आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बन्ध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है। बन्धक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भांति।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./189 <span class="SanskritText">यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मन: कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यार्थिकनिरूपणात्मको व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">जो ‘पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है वही पुण्य पापरूप द्वैत है; आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, यह अशुद्धद्रव्य का निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है।</span><br /> | ||
प.प्र./ | प.प्र./1/55/54/4 <span class="SanskritText">य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहानयेन लोकालोकव्यापको भणित:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय से ज्ञान की अपेक्षा आत्मा लोकालोकव्यापी है।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/17/369/8 व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौ वा तिनिके भावनिकौं वा कारणकार्यादिकौं काहूको काहूविषै मिलाय निरूपण करै है।<br /> | ||
और भी | और भी दे0(नय/III/2/3), (नय/V/5/4-6)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2.4" id="V.4.2.4"> लोक | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.2.4" id="V.4.2.4"> लोक व्यवहारगत वस्तु सम्बन्धी</strong></span><br /> | ||
स्या.म./28/311/23 <span class="SanskritText">व्यवहारस्त्वेवमाह। यथा लोकग्राहकमेव वस्तु, अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवह्नियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते नेतरस्य। न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमतं प्रमाणभूमि:, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गाच्च। नापि विशेषा: परमाणुलक्षणा: क्षणक्षयिण: प्रमाणगोचरा:, तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणसिद्धं कियत्कालभाविस्थूलतामाबिभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिर्वर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी तत्र प्रमाणप्रसाराभावात् । प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यायालोचनेन। तथाहि। पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्ता: क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति। तन्न ते वस्तुरूपा:। लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पन्था गच्छति, कुण्डिका स्रवति, गिरिर्दह्यते, मञ्चा: क्रोशन्ति इत्यादि व्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्य: ‘लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">व्यवहारनय ऐसा कहता है कि–लोकव्यवहार में आने वाली वस्तु ही मान्य है। अदृष्ट तथा अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना करने से क्या लाभ ? लोकव्यवहार पथपर चलने वाली वस्तु ही अनुग्राहक है और प्रमाणता को प्राप्त होती है, अन्य नहीं। संग्रहनय द्वारा मान्य अनादि निधनरूप सामान्य प्रमाणभूमि को स्पर्श नहीं करता, क्योंकि सर्वसाधारण को उसका अनुभव नहीं होता। तथा उसे मानने पर सबको ही सर्वदर्शीपने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय द्वारा मान्य क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष भी प्रमाण बाह्य होने से हमारी व्यवहार प्रवृत्ति के विषय नहीं हो सकते। इसलिए लोक अबाधित, कियतकाल स्थायी व जलधारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ ऐसी घट आदि वस्तुएं ही पारमार्थिक व प्रमाण सिद्ध हैं। इसी प्रकार घट ज्ञान करते समय, नैगमनय मान्य उसकी पूर्वोत्तर अवस्थाओं का भी विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाणगोचर न होने से वे अवस्तु हैं। और प्रमाणभूत हुए बिना विचार करना अशक्य है। पूर्वोत्तरकालवर्ती द्रव्य की पर्याय अथवा क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष दोनों ही लोकव्यवहार में उपयोगी न होने से अवस्तु हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में उपयोगी ही वस्तु है। अतएव ‘रास्ता जाता है, कुण्ड बहाता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं’ आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होने से प्रमाण हैं। वाचक मुख्य श्री उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थाधिगम भाष्य/1/35 में कहा है कि ‘लोक व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ (देखें [[ उपचार व आगे असद्भूत व्यवहार ]]) को बताने वाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते हैं।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.3" id="V.4.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.3" id="V.4.3"> व्यवहारनय की भेद-प्रवृत्ति की सीमा</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/142/8 <span class="SanskritText">एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग:। </span>=<span class="HindiText">संग्रह गृहीत अर्थ को विधिपूर्वक भेद करते हुए (देखें [[ पीछे शीर्षक नं#2.1 | पीछे शीर्षक नं - 2.1]]) इस नय की प्रवृत्ति वहां तक होती है, जहां तक कि वस्तु में अन्य कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता। (रा.वा./1/33/6/96/29)।</span><br /> | ||
श्लो.वा.4/1/33/60/245/15 <span class="SanskritText">इति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रवञ्च: प्रागृजुसूत्रात्परसंग्रहादुत्तर: प्रतिपत्तव्य:, सर्वस्य वस्तुन: कथंचित्सामान्यविशेषात्मकत्वात् । </span>=<span class="HindiText">इस प्रकार उत्तरोत्तर हो रहा संग्रह और व्यवहारनय का प्रपंच ऋजुसूत्रनय से पहले-पहले और परसंग्रहनय से उत्तर उत्तर अंशों की विवक्षा करने पर समझ लेना चाहिए; क्योंकि, जगत् की सब वस्तुएं कथंचित् सामान्यविशेषात्मक हैं। (श्लो.वा.4/1,33श्लो.59/244)</span><br /> | |||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./273 <span class="PrakritGatha">जं संगहेण गहिदं विसेसरहिदं पि भेददे सददं। परमाणूपज्जंतं ववहारणओ हवे सो हु।273। </span>=<span class="HindiText">जो नय संग्रहनय के द्वारा अभेद रूप से गृहीत वस्तुओं का परमाणुपर्यंत भेद करता है वह व्यवहार नय है।<br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ) वर्तमान पर्याय को विषय करना ऋजु-सूत्र है। इसलिए जब तक द्रव्यगत (देखें [[ नय#III.1.2 | नय - III.1.2]]) भेदों की ही मुख्यता रहती है, तब तक व्यवहारनय चलता है और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है तभी से ऋजुसूत्र नय का प्रारम्भ होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.4" id="V.4.4"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.4.4" id="V.4.4"></a>व्यवहारनय के भेद व लक्षणादि</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.4.1" id="V.4.4.1"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.4.4.1" id="V.4.4.1"></a>पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार</strong> </span><br /> | ||
पं.का./मू.व भाषा/ | पं.का./मू.व भाषा/47 <span class="PrakritText">णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाण्णं च दुविधेहिं। भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू। </span>=<span class="HindiText">धन पुरुष को धनवान् करता है, और ज्ञान आत्मा को ज्ञानी करता है। तैसे ही तत्त्वज्ञ पुरुष पृथक्त्व व एकत्व के भेद से सम्बन्ध दो प्रकार का कहते हैं। व्यवहार दो प्रकार का है–एक पृथक्त्व और एक एकत्व। जहां पर भिन्न द्रव्यों में एकता का सम्बन्ध दिखाया जाता है उसका नाम पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है। और एक वस्तु में भेद दिखाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है।</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ. | न.च./श्रुत/पृ.29 <span class="SanskritText">प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">प्रमाण नय व निक्षेपात्मक वस्तु को जो भेद द्वारा या उपचार द्वारा भेद या अभेदरूप करता है, वह व्यवहार है। (विशेष देखें [[ उपचार#1.2 | उपचार - 1.2]])।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.4.2" id="V.4.4.2"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.4.4.2" id="V.4.4.2"></a>सद्भूत व असद्भूत व्यवहार</strong> </span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ. | न.च./श्रुत/पृ.25 <span class="SanskritText">व्यवहारो द्विविध:–सद्भूतव्यवहारो असद्भूतव्यवहारश्च। तत्रैकवस्तुविषय: सद्भूतव्यवहार:। भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार। तहां सद्भूतव्यवहार एक वस्तुविषयक होता है और असद्भूत व्यवहार भिन्न वस्तु विषयक। (अर्थात् एक वस्तु में गुण-गुणी भेद करना सद्भूत या एकत्व व्यवहार है और भिन्न वस्तुओं में परस्पर कर्ता कर्म व स्वामित्व आदि सम्बन्धी द्वारा अभेद करना असद्भूत या पृथक्त्व व्यवहार है।) (पं.ध./पू./525) (विशेष देखें [[ आगे नय#V.5 | आगे नय - V.5]])<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.4.3" id="V.4.4.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.4.3" id="V.4.4.3"> सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार</strong> </span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./210<span class="PrakritGatha"> जो संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा। सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धत्थभेदकरो।210। </span>=<span class="HindiText">जो संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये शुद्ध या अशुद्ध पदार्थ का भेद करता है वह व्यवहार नय दो प्रकार का है–शुद्धार्थ भेदक और अशुद्धार्थभेदक। (शुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला शुद्धार्थ भेदक व्यवहार है और अशुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला अशुद्धार्थभेदक व्यवहार है।)</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">व्यवहारोऽपि द्वेधा। सामान्यसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––द्रव्याणि जीवाजीवा:। विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––जीवा: संसारिणो मुक्ताश्च।</span> =<span class="HindiText">व्यवहार भी दो प्रकार का है–सामान्यसंग्रहभेदक और विशेष संग्रहभेदक। तहां सामान्य संग्रहभेदक तो ऐसा है जैसे कि ‘द्रव्य जीव व अजीव के भेद से दो प्रकार का है’। और विशेषसंग्रहभेदक ऐसा है जैसे कि ‘जीव संसारी व मुक्त के भेद से दो प्रकार का है’। (सामान्य संग्रहनय के विषय का भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रहनय का भेद करने वाला विशेषसंग्रहभेदक व्यवहार है।)</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/14 <span class="SanskritText">अनेन सामान्यसंग्रहनयेन स्वीकृतसत्तासामान्यरूपार्थ भित्त्वा जीवपुद्गलादिकथनं, सेनाशब्देन स्वीकृतार्थं भित्त्वा हस्त्यश्वरथपदातिकथनं ...इति सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। विशेषसंग्रहनयेन स्वीकृतार्थान् जीवपुद्गलनिचयान् भित्त्वा देवनारकादिकथनं, घटपटादिकथनम् । हस्त्यश्वरथपदातीन् भित्वा भद्रगज-जात्यश्व-महारथ-शतभटसहस्रभटादिकथनं ...इत्याद्यनेकविषयान् भित्त्वा कथनं विशेषसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। </span>=<span class="HindiText">सामान्य संग्रहनय के द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्यरूप अर्थ का भेद करके जीव पुद्गलादि कहना अथवा सेना शब्द का भेद करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे कहना, ऐसा सामान्य संग्रहभेदक व्यवहार होता है। और विशेषसंग्रहनय द्वारा स्वीकृत जीव व पुद्गलसमूह का भेद करके देवनारकादि तथा घट पट आदि कहना, अथवा हाथी, घोड़ा, पदातिका भेद करके भद्र हाथी, जातिवाला घोड़ा, महारथ, शतभट, सहस्रभट आदि कहना, इत्यादि अनेक विषयों को भेद करके कहना विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.5" id="V.4.5"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.5" id="V.4.5"> व्यवहार-नयाभास का लक्षण</strong></span><br /> | ||
श्लो.वा.4/1/33/श्लो./60/244 <span class="SanskritGatha">कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ।60। </span>=<span class="HindiText">द्रव्य और पर्यायों के आरोपित किये गये कल्पित विभागों को जो वास्तविक मान लेता है वह प्रमाणबाधित होने से व्यवहारनयाभास है। (स्या.म. के अनुसार जैसे चार्वाक दर्शन)। (स्या.म./28/317/15 में प्रमाणतत्त्वालोकालंकार/7/1-53 से उद्धृत)<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.6" id="V.4.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.6" id="V.4.6"> व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है</strong> </span><br /> | ||
श्लो.वा.2/1/7/28/585/1<span class="SanskritText"> व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्यार्थिक:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है।</span><br /> | |||
ध. | ध.9/4,1,45/171/3 <span class="SanskritText">पर्यायकलङ्कितया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय पर्याय (भेद) रूप कलंक से युक्त होने से अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (क.पा.1/13-14/182/219/2); (प्र.सा./त.प्र./189)।<br /> | ||
(और भी | (और भी दे0/नय/IV/2/4)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.7" id="V.4.7"> पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.7" id="V.4.7"> पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है</strong> </span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./272/1016 <span class="PrakritText">ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्तिएयट्ठो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार, विकल्प, भेद व पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./521 <span class="SanskritText">पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक और व्यवहार ये दोनों एकार्थवाची हैं, क्योंकि सब ही व्यवहार केवल उपचाररूप होता है।<br /> | ||
स.सा./पं. | स.सा./पं.जयचन्द/6 परसंयोगजनित भेद सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिक नय के विषय हैं। शुद्ध (अभेद) द्रव्य की दृष्टि में यह भी पर्यायार्थिक ही है। इसलिए व्यवहार नय ही है ऐसा आशय जानना। (स.सा./पं.जयचन्द/12/क.4)<br /> | ||
देखें [[ नय#V.2.4 | नय - V.2.4 ]](अशुद्धनिश्चय भी वास्तव में व्यवहार है।)<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.8" id="V.4.8">उपनय निर्देश</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.4.8" id="V.4.8"></a>उपनय निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.8.1" id="V.4.8.1"> उपनय का लक्षण व इसके भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.4.8.1" id="V.4.8.1"> उपनय का लक्षण व इसके भेद</strong></span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">नयानां समीपा: उपनया:। सद्भूतव्यवहार: असद्भूतव्यवहार उपचरितासद्भूतव्यवहारश्चेत्युपनयस्त्रेधा। </span>=<span class="HindiText">जो नयों के समीप हों अर्थात् नय की भांति ही ज्ञाता के अभिप्राय स्वरूप हों उन्हें उपनय कहते हैं, और वह उपनय, सद्भूत, असद्भूत व उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है।</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/187-188<span class="PrakritText"> उवणयभेया वि पभणामो।187। सब्भूदमसब्भूदं उपचरियं चेव दुविहं सब्भूवं। तिविहं पि असब्भूवं उवयरियं जाण तिविहं पि।188।</span>=<span class="HindiText">उपनय के भेद कहते हैं। वह सद्भूत, असद्भूत और उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें भी सद्भूत दो प्रकार का है–शुद्ध व अशुद्ध–देखें [[ आगे नय#V.5 | आगे नय - V.5]]); असद्भूत व उपचरित असद्भूत दोनों ही तीन-तीन प्रकार के है–(स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति।–देखें [[ उपचार#1.2 | उपचार - 1.2]]), (न.च./श्रुत/पृ.22)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.4.8.2" id="V.4.8.2">उपनय भी | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.4.8.2" id="V.4.8.2"></a>उपनय भी व्यवहार नय है</strong></span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/29/17 <span class="SanskritText">उपनयोपजनितो व्यवहार:। प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत्, सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात् असद्भूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् ।</span> =<span class="HindiText">उपनय से व्यवहारनय उत्पन्न होता है। और प्रमाणनय व निक्षेपात्मक वस्तु का भेद व उपचार द्वारा भेद व अभेद करने को व्यवहार कहते हैं। प्रश्न–व्यवहार नय उपनय से कैसे उत्पन्न होता है? उत्तर–क्योंकि सद्भूतरूप उपनय तो अभेदरूप वस्तु में भेद उत्पन्न करता है और असद्भूत रूप उपनय भिन्न वस्तुओं में अभेद का उपचार करता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 100: | Line 100: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5" id="V.5"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.5" id="V.5"></a>सद्भूत असद्भूत व्यवहारनय निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1" id="V.5.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1" id="V.5.1"> सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1.1" id="V.5.1.1"> लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1.1" id="V.5.1.1"> लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10<span class="SanskritText"> एकवस्तुविषयसद्भूतव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहार है। (न.च./श्रुत/25)।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./220 <span class="PrakritGatha">गुणगुणिपज्जायदव्वे कारकसब्भावदो य दव्वेसु। तो णाऊणं भेयं कुणयं सब्भूयसद्धियरो।220।=</span><span class="HindiText">गुण व गुणी में अथवा पर्याय व द्रव्य में कर्ता कर्म करण व सम्बन्ध आदि कारकों का कथंचित् सद्भाव होता है। उसे जानकर जो द्रव्यों में भेद करता है वह सद्भूत व्यवहारनय है।(न.च.वृ./46)।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./221 <span class="PrakritGatha">दव्वाणां खु पएसा बहुआ ववहारदो य एक्केण। णण्णं य णिच्छयदो भणिया कायत्थ खलु हवे जुत्ती।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार अर्थात् सद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यों के बहुत प्रदेश हैं। और निश्चयनय से वही द्रव्य अनन्य है। (न.च.वृ./222)।<br /> | ||
और भी | और भी देखें [[ नय#V.4.1 | नय - V.4.1]],2 में (गुणगुणी भेदकारी व्यवहार नय सामान्य के लक्षण व उदाहरण)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1.2" id="V.5.1.2"> कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1.2" id="V.5.1.2"> कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./525-528<span class="SanskritGatha"> सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ।525। अस्यावगमे फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धि: स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यञ्जको न नय:।527। अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा। अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ।528। </span>=<span class="HindiText">विवक्षित उस वस्तु के गुणों का नाम सद्भूत है और उन गुणों की उस वस्तु में भेदरूप प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है।525। इस नय का प्रयोजन यह है कि इसके अनुसार ज्ञान होने पर इतर वस्तुओं में निषेध बुद्धि हो जाती है, क्योंकि विकल्पवश दूसरे से भिन्न होना नय है। नय कुछ भेद का अभिव्यंजक नहीं है।527। सम्पूर्ण संकर व शून्य दोषों से रहित यह वस्तु इस नय के कारण ही अनन्य शरण सिद्ध होती है। क्योंकि इससे ऐसा ही ज्ञान होता है।528।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1.3" id="V.5.1.3"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.5.1.3" id="V.5.1.3"></a>व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहार में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./523/526 <span class="SanskritGatha">साधारणगुण इति वा यदि वासाधारण: सतस्तस्य। भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ।523। अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्य: स्यात् । अविवक्षितोऽथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात् ।526।</span>=<span class="HindiText">सत् के साधारण व असाधारण इन दोनों प्रकार के गुणों में से किसी की भी विवक्षा होने पर व्यवहारनय श्रेय होता है।523। और सद्भूत व्यवहारनय में सत् के साधारण व असाधारण गुणों में परस्पर मुख्य गौण विवक्षा होती है। मुख्य गौण विवक्षा को छोड़कर इस नय की प्रवृत्ति नहीं होती।526।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1.4" id="V.5.1.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.1.4" id="V.5.1.4"> सद्भूत व्यवहानय के भेद</strong> </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10<span class="SanskritText"> तत्र सद्भूतव्यवहारो द्विविध:–उपचरितानुपचरितभेदात् ।=</span><span class="HindiText">सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–उपचरित व अनुपचरित। (न.च./श्रुत/पृ.25); (पं.ध./पू./534)।</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">सद्भूतव्यवहारो द्विधा–शुद्धसद्भूतव्यवहारो...अशुद्धसद्भूतव्यवहारो।</span> =<span class="HindiText">सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार की है–शुद्ध सद्भूत और अशुद्ध सद्भूत। (न.च./श्रुत/21)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2" id="V.5.2"> अनुपचरित या | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2" id="V.5.2"> अनुपचरित या शुद्धसद्भूत निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.1" id="V.5.2.1"> क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.1" id="V.5.2.1"> क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10<span class="SanskritText"> निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणा:।</span> =<span class="HindiText">निरुपाधि गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–केवलज्ञानादि जीव के गुण है। (न.च./श्रुत/25)।</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा–शुद्धगुणशुद्धगुणिनो, शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् ।</span>=<span class="HindiText">शुद्धगुण व शुद्धगुणी में अथवा शुद्धपर्याय व शुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है (न.च./श्रुत/21)।</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./13, <span class="SanskritText">अन्या कार्यदृष्टि:...क्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य ... साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मकस्य ...तीर्थंकरपरमदेवस्य केवलज्ञानादियमपि युगपल्लोकालोकव्यापिनी।</span> =<span class="HindiText">दूसरी कार्य शुद्धदृष्टि...क्षायिक जीव को जिसने कि सकल विमल केवलज्ञान द्वारा तीनभुवन को जाना है, जो सादि अनिधन अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहार नयात्मक है, ऐसे तीर्थंकर परमदेव को केवलज्ञान की भांति यह भी युगपत् लोकालोक में व्याप्त होने वाली है। (नि.सा./ता.वृ./43)।<br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./9 शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव:।=शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण ‘कार्यशुद्ध जीव’ है। (प्र.सा./ता.वृ./परि/368/14)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.2" id="V.5.2.2"> पारिणामिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.2" id="V.5.2.2"> पारिणामिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./28 <span class="SanskritText">परमाणुपर्याय: पुद्गलस्य शुद्धपर्याय: परमपारिणामिकभावलक्षण: वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूप: अतिसूक्ष्म: अर्थपर्यायात्मक: सादिसनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक:। </span>=<span class="HindiText">परमाणुपर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है। जो कि परमपारिणामिकभाव स्वरूप है, वस्तु में होने वाली छह प्रकार की हानिवृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्यायात्मक है, और सादि सान्त होने पर भी परद्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण शुद्धसद्भूत व्यवहारनयात्मक है।</span><br /> | ||
पं.ध./ | पं.ध./535-536 <span class="SanskritGatha">स्यादादिमो यथान्तर्लीना या शक्तिरस्ति यस्य सत:। तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिरपेक्षम् ।535। इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुण:। ज्ञेयालम्बनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ।536।</span>=<span class="HindiText">जिस पदार्थ की जो अन्तर्लीन (त्रिकाली) शक्ति है, उसके सामान्यपने से यदि उस पदार्थ विशेष की अपेक्षा न करके निरूपण किया जाता है तो वह अनुपचरित–सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है।535। जैसे कि ज्ञान जीव का जीवोपजीवी गुण है। घट पट आदि ज्ञेयों के अवलम्बन काल में भी वह ज्ञेयोपजीवी नहीं हो जाता। (अर्थात् ज्ञान को ज्ञान कहना ही इस नय को स्वीकार है, घटज्ञान कहना नहीं।536।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.3" id="V.5.2.3"> अनुपचरित व शुद्ध | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.3" id="V.5.2.3"> अनुपचरित व शुद्ध सद्भूत की एकार्थता</strong> </span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./6/18/5 <span class="SanskritText">केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धसद्भूतशब्दवाच्योऽनुपचरितसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">यहां जीव का लक्षण कहते समय केवलज्ञान व केवलदर्शन के प्रति शुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य अनुपचरित सद्भूत व्यवहार है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.4" id="V.5.2.4"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.2.4" id="V.5.2.4"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./539<span class="SanskritText"> फलमास्तिक्यनिदानं सद्द्रव्ये वास्तवप्रतीति: स्यात् । भवति क्षणिकादिमते परमोपेक्षा यतो विनायासात् ।</span>=<span class="HindiText">सत्रूप द्रव्य में आस्तिक्य पूर्वक यथार्थ प्रतीति का होना ही इस नय का फल है, क्योंकि इस नय के द्वारा, बिना किसी परिश्रम के क्षणिकादि मतों में उपेक्षा हो जाती है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3" id="V.5.3"> उपचरित या अशुद्ध | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3" id="V.5.3"> उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3.1" id="V.5.3.1">क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.5.3.1" id="V.5.3.1"></a>क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">अशुद्धसद्भूतव्यवहारो यथाशुद्धगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् । </span>=<span class="HindiText">अशुद्धगुण व अशुद्धगुणी में अथवा अशुद्धपर्याय व अशुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना अशुद्धसद्भूत व्यवहार नय है (न.च./श्रुत/21)।</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10 <span class="SanskritText">सोपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणा:। </span>=<span class="HindiText">उपाधिसहित गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–मतिज्ञानादि जीव के गुण है।(न.च./श्रुत/25)।</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./9 <span class="SanskritText">अशुद्धसद्भूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वादशुद्धजीव:। </span>=<span class="HindiText">अशुद्धसद्भूत व्यवहार से मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधार होने के कारण ‘अशुद्ध जीव’ है। (प्र.सा./ता.वृ./परि./369/1)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3.2" id="V.5.3.2"> पारिणामिक भाव में उपचार करने की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3.2" id="V.5.3.2"> पारिणामिक भाव में उपचार करने की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./540/541 <span class="SanskritGatha">उपचरितो सद्भूतो व्यवहार: स्यान्नयो यथा नाम। अविरुद्धं हेतुवशात्परतोऽप्युपचर्यते यत: स्व गुण:।540। अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा। अर्थ: स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ।541।</span>=<span class="HindiText">किसी हेतु के वश से अपने गुण का भी अविरोधपूर्वक दूसरे में उपचार किया जाये, तहां उपचरित सद्भूत व्यवहारनय होता है।540। जैसे–अर्थविकल्पात्मक ज्ञान को प्रमाण कहना। यहां पर स्व व पर के समुदाय को अर्थ तथा ज्ञान के उस स्व व पर में व्यवसाय को विकल्प कहते हैं। (अर्थात् ज्ञान गुण तो वास्तव में निर्विकल्प तेजमात्र है, फिर भी यहां बाह्य अर्थों का अवलम्बन लेकर उसे अर्थ विकल्पात्मक कहना उपचार है, परमार्थ नहीं।541।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3.3" id="V.5.3.3"> उपचरित व अशुद्ध | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3.3" id="V.5.3.3"> उपचरित व अशुद्ध सद्भूत की एकार्थता</strong></span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./6/18/6 <span class="SanskritText">छद्मस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूतशब्दवाच्य उपचरितासद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">छद्मस्थ जीव के ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से अशुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3.4" id="V.5.3.4"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.3.4" id="V.5.3.4"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./544-545 <span class="SanskritGatha">हेतु: स्वरूपसिद्धिं विना न परसिद्धिरप्रमाणत्वात् । तदपि च शक्तिविशेषाद्द्रव्यविशेषे यथा प्रमाणं स्यात् ।544। अर्थो ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषभ्रमक्षयो यदि वा। अविनाभावात् साध्यं सामान्यं साधको विशेष: स्यात् ।545।</span>=<span class="HindiText">स्वरूप सिद्धि के बिना पर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वह स्व निरपेक्ष पर अप्रमाणभूत है। तथा प्रमाण स्वयं भी स्वपर व्यवसायात्मक शक्तिविशेष के कारण द्रव्य विशेष के विषय में प्रवृत्त होता है, यही इस नय की प्रवृत्ति में हेतु है।544। ज्ञेय ज्ञायक भाव द्वारा सम्भव संकरदोष के भ्रम को दूर करना, तथा अविनाभावरूप से स्थित वस्तु के सामान्य व विशेष अंशों में परस्पर साध्य साधकपने की सिद्धि करना इसका प्रयोजन है।545। </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.4" id="V.5.4"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.5.4" id="V.5.4"></a>असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.4.1" id="V.5.4.1"> लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.4.1" id="V.5.4.1"> लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10<span class="SanskritText"> भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। </span>=<span class="HindiText">भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है। (न.च./श्रुत/25); (और भी देखें [[ नय#V.4.1 | नय - V.4.1 ]]व 2)</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./223-225 <span class="PrakritGatha">अण्णेसिं अण्णगुणो भणइ असब्भूद तिविह ते दोवि। सज्जाइ इयर मिस्सो णायव्वो तिविहभेयजुदो।223।</span>=<span class="HindiText">अन्य द्रव्य के अन्य गुण कहना असद्भूत व्यवहारनय है। वह तीन प्रकार का है–स्वजाति, विजाति, और मिश्र। ये तीनों भी द्रव्य गुण व पर्याय में परस्पर उपचार होने से तीन तीन प्रकार के हो जाते हैं। (विशेष देखें [[ उपचार#5 | उपचार - 5]])।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./113,320 <span class="PrakritGatha">मण वयण काय इंदिय आणप्पाणउगं च जं जीवे। तमसब्भूओ भणदि हु ववहारो लोयमज्झम्मि।113। णेयं खु जत्थ णाणं सद्धेयं जं दंसणं भणियं। चरियं खलु चारित्तं णायव्वं तं असब्भूवं।320।</span>=<span class="HindiText">मन, वचन, काय, इन्द्रिय, आनप्राण और आयु ये जो दश प्रकार के प्राण जीव के हैं, ऐसा असद्भूत व्यवहारनय कहता है।113। ज्ञेय को ज्ञान कहना जैसे घटज्ञान, श्रद्धेय को दर्शन कहना, जैसे देव गुरु शास्त्र की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, आचरण करने योग्य को चारित्र कहते हैं जैसे हिंसा आदि का त्याग चारित्र है; यह सब कथन असद्भूतव्यवहार जानना चाहिए।320।</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./8 <span class="SanskritText">असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभाव:।...जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्त्तस्वभाव: ...असद्भूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वं। ...असद्भूतव्यवहारेण उपचरितस्वभाव:। </span>=<span class="HindiText">असद्भूत व्यवहार से कर्म व नोकर्म भी चेतनस्वभावी है, जीव का भी मूर्त स्वभाव है, और पुद्गल का स्वभाव अमूर्त व उपचरित है।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./1/4/21 <span class="SanskritText">नमो जिनेभ्य: इति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारोऽप्यसद्भूतव्यवहारनयेन।</span>=<span class="HindiText"> ‘जिनेन्द्रभगवान् को नमस्कार हो ऐसा वचनात्मक द्रव्य नमस्कार भी असद्भूतव्यवहारनय से होता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./189/253/11 <span class="SanskritText">द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुङ्क्ते चेत्यशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो भण्यते।</span>=<span class="HindiText">आत्मा द्रव्यकर्म को करता है और उनको भोगता है, ऐसा जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण, उस रूप असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें [[ आगे उपचरित व अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय के उदाहरण ]])</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./529-530 <span class="SanskritGatha">अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणा: संजायन्ते बलात्तदन्यत्र।529। स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् । सत्संयोगत्वादिह मूर्ता: क्रोधादयोऽपि जीवभवा:।530।</span>=<span class="HindiText">जिसके कारण अन्य द्रव्य के गुण बलपूर्वक अर्थात् उपचार से अन्य द्रव्य के कहे जाते हैं, वह असद्भूत व्यवहारनय है।529। जैसे कि वर्णादिमान मूर्तद्रव्य के जो मूर्तकर्म हैं, उनके संयोग को देखकर, जीव में उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव भी मूर्त कह दिये जाते हैं।530।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.4.2" id="V.5.4.2"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.4.2" id="V.5.4.2"> इस नय के कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./531-532<span class="SanskritGatha"> कारणमन्तर्लीना द्रव्यस्य विभावभावशक्ति: स्यात् । सा भवति सहज-सिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयो:।531। फलमागन्तुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह। शेषस्तच्छुद्धगुण: स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ।532।</span>=<span class="HindiText">इस नय में कारण वह वैभाविकी शक्ति है, जो जीव पुद्गलद्रव्य में अन्तर्लीन रहती है (और जिसके कारण वे परस्पर में बन्ध को प्राप्त होते हुए संयोगी द्रव्यों का निर्माण करते हैं।)।531। और इस नय को मानने का फल यह है कि क्रोधादि विकारी भावों को पर का जानकर, उपाधि मात्र को छोड़कर, शेष जीव के शुद्धगुणों को स्वीकार करता हुआ कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है।532। (और भी देखें [[ उपचार#4.6 | उपचार - 4.6]])<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.4.3" id="V.5.4.3"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.5.4.3" id="V.5.4.3"></a>असद्भूत व्यवहारनय के भेद</strong> </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10 <span class="SanskritText">असद्भूतव्यवहारो द्विविध: उपचरितानुपचरितभेदात् ।</span>=<span class="HindiText">असद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार है–उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। (न.च./श्रुत/25); (पं.ध./पू./534)।<br /> | ||
देखें | देखें [[ उपचार ]]–(असद्भूत नाम के उपनय के स्वजाति, विजाति आदि 27 भेद)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.5" id="V.5.5"> अनुपचरित | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.5" id="V.5.5"> अनुपचरित असद्भूत निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.5.1" id="V.5.5.1"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.5.5.1" id="V.5.5.1"></a>भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10 <span class="SanskritText">संश्लेषसहितवस्तुसंबन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति।</span>=<span class="HindiText">संश्लेष सहित वस्तुओं के सम्बन्ध को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–‘जीव का शरीर है’ ऐसा कहना। (न.च./श्रुत/पृ.26)</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./18 <span class="SanskritText">आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदु:खानां भोक्ता च...अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता।</span>=<span class="HindiText">आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्मों का कर्ता और उसके फलरूप सुखदु:ख का भोक्ता है तथा नोकम अर्थात् शरीर का भी कर्ता है। (स.सा./ता.वृ./22 की प्रक्षेपक गाथा की टीका/49/21); (पं.का./ता.वृ./27/60/21); (द्र.सं./टी./8/21/4; 9/23/4)।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./27/60/15 <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यप्राणैश्च यथासंभवं जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो।</span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यथा सम्भव द्रव्यप्राणों के द्वारा जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, इसलिए आत्मा जीव कहलाता है। (द्र.सं./टी./3/11/5); (न.च.वृ./113)</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./58/109/14 <span class="SanskritText">जीवस्यौदयिकादिभावचतुष्टयमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मकृतमिति। </span>=<span class="HindiText">जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कर्मकृत हैं।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./परि./ | प्र.सा./ता.वृ./परि./369/11 <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन द्वयगुणकादिस्कन्धसंश्लेषसंबन्धस्थितपरमाणुवदौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विविक्षितैकदेहस्थितम् । </span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से, द्वि अणुक आदि स्कन्धों में संश्लेषसम्बन्धरूप से स्थित परमाणु की भांति अथवा वीतराग सर्वज्ञ की भांति, यह आत्मा औदारिक आदि शरीरों में से किसी एक विवक्षित शरीर में स्थित है। (प.प्र./टी./1/29/33/1)।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./7/20/1 <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारान्मूर्त्तो।</span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव मूर्त है। (पं.का./ता.वृ./27/57/3)।</span><br /> | ||
पं.प्र./टी./ | पं.प्र./टी./7/13/2 <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबन्ध: द्रव्यकर्मनोकर्मरहितम् ।</span><br /> | ||
पं.प्र./टी./ | पं.प्र./टी./1/1/6/8<span class="SanskritText"> द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन।</span><br /> | ||
पं.प्र./टी./ | पं.प्र./टी./1/14/21/17 <span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन देहादभिन्नं।</span> =<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से जीव द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित है, द्रव्यकर्मों का दहन करने वाला है, देह से अभिन्न है।<br /> | ||
और भी देखो नय/V/ | और भी देखो नय/V/4/2/3–(व्यवहार सामान्य के उदाहरण)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.5.2" id="V.5.5.2"> विभाव भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.5.2" id="V.5.5.2"> विभाव भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./546 <span class="SanskritText">अपि वासद्भूतो योऽनुपचरिताख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवा:। </span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय, अबुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादिक विभावभावों को जीव कहता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.5.3" id="V.5.5.3"> इस नय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.5.3" id="V.5.5.3"> इस नय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./547-548 <span class="SanskritGatha">कारणमिह यस्य सतो या शक्ति: स्याद्विभावभावमयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्ति: स्यात्तदाप्यनन्यमयी।547। फलमागन्तुकभावा: स्वपरनिमित्ता भवन्ति यावन्त:। क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धि: स्यादनात्मधर्मत्वात् ।548।</span>=<span class="HindiText">इस नय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उपयोगात्मक दशा में जीव की वैभाविक शक्ति उसके साथ अनन्यमयरूप से प्रतीत होती है।547। और इसका फल यह है कि क्षणिक होने के कारण स्व-परनिमित्तक सर्व ही आगन्तुक भावों में जीव की हेय बुद्धि हो जाती है।548।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.6" id="V.5.6">उपचरित | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.5.6" id="V.5.6"></a>उपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.6.1" id="V.5.6.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.6.1" id="V.5.6.1"> भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./10 <span class="SanskritText">संश्लेषरहितवस्तुसंबन्धविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा–देवदत्तस्य धनमिति। </span>=<span class="HindiText">संश्लेष रहित वस्तुओं के सम्बन्ध को विषय करने वाला उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–देवदत्त का धन ऐसा कहना। (न.च./श्रुत/25)।</span><br /> | ||
आ.प./ | आ.प./5 <span class="SanskritText">असद्भूतव्यवहार एवोपचार:। उपचारादप्युपचारं य: करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">असद्भूत व्यवहार ही उपचार है। उपचार का भी जो उपचार करता है वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। (न.च./श्रुत/29) (विशेष देखें [[ उपचार ]])।</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./18/<span class="SanskritText">उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से आत्मा घट, पट, रथ आदि का कर्ता है। (द्र.सं./टी./8/21/5)।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./परि./ | प्र.सा./ता.वृ./परि./369/13 <span class="SanskritText">उपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन काष्ठासनाद्युपविष्टदेवदत्तवत्समवशरणस्थितवीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितैकग्रामगृहादिस्थिम् ।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह आत्मा, काष्ठ, आसन आदि पर बैठे हुए देवदत्त की भांति, अथवा समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञ की भांति, विवक्षित किसी एक ग्राम या घर आदि में स्थित है।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./19/57/10<span class="SanskritText"> उपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यते।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./9/23/3 <span class="SanskritText">उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रियविषयजनितसुखदु:ख भुङ्क्ते।</span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./45/196/11<span class="SanskritText"> योऽसौ बहिर्विषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्याग: स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण। </span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से सिद्ध जीव मोक्षशिला पर तिष्ठते हैं। जीव इष्टानिष्ट पंचेन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न सुखदुख को भोगता है। बाह्यविषयों–पंचेन्द्रिय के विषयों का त्याग कहना भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.6.2" id="V.5.6.2"> विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.6.2" id="V.5.6.2"> विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./549 <span class="SanskritGatha">उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या: औदयिकाश्चेदबुद्धिजा विवक्ष्या: स्यु:।549।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादि विभावभाव भी जीव के कहे जाते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.5.6.3" id="V.5.6.3"> इस नय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.5.6.3" id="V.5.6.3"> इस नय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./550-551 <span class="SanskritGatha">बीजं विभावभावा: स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यत:।550। तत्फलभविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावा:। तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावा:।551।</span>=<span class="HindiText">उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उक्त क्रोधादिकरूप विभावभाव नियम से स्व व पर दोनों के निमित्त से होते हैं; क्योंकि शक्तिविशेष के रहने पर भी वे बिना निमित्त के नहीं हो सकते।550। और इस नय का फल यह है कि बुद्धिपूर्वक के क्रोधादि भावों के साधन से अबुद्धिपूर्वक के क्रोधादिभावों की सत्ता भी साध्य हो जाती है, अर्थात् सिद्ध हो जाती है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 229: | Line 229: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6" id="V.6"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.6" id="V.6"></a>व्यवहार नय की कथंचित् गौणता</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.1" id="V.6.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.1" id="V.6.1"> व्यवहारनय असत्यार्थ है तथा इसका हेतु</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./11 <span class="PrakritText">ववहारोऽभूयत्थो।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय अभूतार्थ है। (न.च./श्रुत/30)।</span><br /> | ||
आप्त.मी./ | आप्त.मी./49 <span class="SanskritText">संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।49। </span>=<span class="HindiText">संवृत्ति अर्थात् व्यवहार प्रवृत्तिरूप उपचार मिथ्या है। क्योंकि यह परमार्थ से विपरीत है।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,37/263/8 <span class="SanskritText">अथवा नेदं व्याख्यानं समीचीनं। </span>=<span class="HindiText">(द्रव्येन्द्रियों के सद्भाव की अपेक्षा केवली को पंचेन्द्रिय कहने रूप व्यवहारनय के) उक्त व्याख्यान को ठीक नहीं समझना।</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/29-30<span class="SanskritText"> योऽसौ भेदोपचारलक्षणोऽर्थ: सोऽपरमार्थ:। अभेदानुपचारस्यार्थस्यापरमार्थत्वात् । व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादभूतार्थ:।</span>=<span class="HindiText">जो यह भेद और उपचार लक्षण वाला पदार्थ है, सो अपरमार्थ है; क्योंकि, अभेद व अनुपचाररूप पदार्थ को ही परमार्थपना है। व्यवहार नय उस अपरमार्थ पदार्थ का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ है। (पं.ध./पू./522)।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./631,635 <span class="SanskritGatha">ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ:। गुणपर्ययवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च।631। तदसत् गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग:। केवलमद्वैतं सद् भवतु गुणो वा तदेव सद्द्रव्यम् ।635। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सब ही व्यवहारनय को अभूतार्थ क्यों कहते हो, क्योंकि द्रव्य जैसे व्यवहारोपदेश से गुणपर्याय वाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभव से ही गुणपर्याय वाला प्रतीत होता है?।631। <strong>उत्तर</strong>–निश्चय करके वह ‘सत्’ न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनों का योग है किन्तु केवल अद्वैत सत् है। उसी सत् को चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परन्तु वह भिन्न नहीं है।635।<br /> | ||
पं.का./पं.हेमराज/ | पं.का./पं.हेमराज/45 लोक व्यवहार से कुछ वस्तु का स्वरूप सधता नहीं।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/369/8 व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनके भावनिकौं वा कारणकार्यादिककौं काहूकौ काहूविषै मिलाय निरूपण करै है। सो ऐसे श्रद्धानतै मिथ्यात्व है। तातै याका त्याग करना।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/407/2 करणानुयोगविषै भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये उपदेश हो है, ताकौ सर्वथा तैसै ही न मानना।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.2" id="V.6.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.2" id="V.6.2"> व्यवहारनय उपचार मात्र है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./15 <span class="PrakritText">जीवम्हि हेदुभूदबंधस्स दु पस्सिदूण परिणायं। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण। </span>=<span class="HindiText">जीव को निमित्तरूप होने से कर्मबन्ध का परिणाम होता है। उसे देखकर, ‘जीव ने कर्म किये हैं’ वह उपचार मात्र से कहा जाता है। (स.सा./आ./107)।</span><br /> | ||
स्या.म./28/312/8 पर उद्धृत–<span class="SanskritText">‘‘तथा च वाचकमुख्य:’’ लौकिक समउपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:।</span> =<span class="HindiText">वाचकमुख श्री उमास्वामी ने (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/1/3,5 में) कहा है, कि लोक व्यवहार के अनुसार तथा उपचारप्राय विस्तृत व्याख्यान को उपचार कहते हैं।</span><br /> | |||
न.दी./ | न.दी./1/14/12 <span class="SanskritText">चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचार: शरणम् ।</span>=<span class="HindiText">‘आंखों से जानते हैं’ इत्यादि व्यवहार तो उपचार से प्रवृत्त होता है।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./521 <span class="SanskritGatha">पर्यायार्थिक नय इति वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।521। </span>=<span class="HindiText">पर्यायार्थिक नय और व्यवहारनय दोनों ही एकार्थवाची हैं, क्योंकि सकल व्यवहार उपचार मात्र होता है।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./113 <span class="SanskritText">तत्राद्वैतेऽपि यद्द्वैतं तद्द्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्यं स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् ।</span>=<span class="HindiText">अद्वैत में दो प्रकार से द्वैत किया जाता है–पहिला तो अभेद द्रव्य में गुण गुणी रूप अंश या भेद कल्पना के द्वारा तथा दूसरा सोपाधिक अर्थात् भिन्न द्रव्यों में अभेदरूप। ये दोनों ही द्वैत औपचारिक हैं।<br /> | ||
और भी देखो उपचार/ | और भी देखो उपचार/5 (उपचार कोई पृथक् नय नहीं है। व्यवहार का नाम ही उपचार है)।<br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/366/3 उपचार निरूपण सो व्यवहार। (मो.मा.प्र./7/366/11); <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="V.6.3" id="V.6.3"> | <li class="HindiText"><strong> <a name="V.6.3" id="V.6.3"></a>व्यवहारनय व्यभिचारी है</strong> <br /> | ||
स.सा./पं. | स.सा./पं.जयचन्द/12/क.6 व्यवहारनय जहां आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शन को अनेक भेदरूप कहता है, वहां व्यभिचार दोष आता है, नियम नहीं रहता।<br /> | ||
और भी देखो नय/V/ | और भी देखो नय/V/8/2 व्यभिचारी होने के कारण व्यवहारनय निषिद्ध है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.4" id="V.6.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.4" id="V.6.4"> व्यवहारनय लौकिक रूढ़ि है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./84<span class="SanskritText"> कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्व्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">कुम्हार कलश को बनाता है तथा भोगता है ऐसा लोगों का अनादि से प्रसिद्ध व्यवहार है।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./567 <span class="SanskritText">अस्ति व्यवहार: किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् । </span>=<span class="HindiText">अलब्धबुद्धि होने के कारण लोगों का यह व्यवहार होता है, कि जो ये मनुष्यादि का शरीर है, वह जीव है। (पं.ध./उ./593)।<br /> | ||
और भी देखो नय/V/ | और भी देखो नय/V/4/2/7 में स.म–(व्यवहार लोकानुसार प्रवर्तता है)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.5" id="V.6.5"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.5" id="V.6.5"> व्यवहारनय अध्यवसान है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./272 <span class="SanskritText">निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वे मुमुक्षो: प्रतिषेधयता व्यवहानय एव किल प्रतिषिद्ध:, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् ।</span>=<span class="HindiText">बन्ध का हेतु होने के कारण, मुमुक्षु जनों को जो निश्चयनय के द्वारा पराश्रित समस्त अध्यवसान का त्याग करने को कहा गया है, सो उससे वास्तव में व्यवहारनय का ही निषेध कराया है; क्योंकि, (अध्यवसान की भांति) व्यवहारनय के भी पराश्रितता समान ही है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.6" id="V.6.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.6" id="V.6.6"> व्यवहारनय कथन मात्र है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./गा.<span class="PrakritGatha"> | स.सा./मू./गा.<span class="PrakritGatha"> ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरितदंसणं णाणं। णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।7। पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।58। तह...जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो।59।</span> =<span class="HindiText">ज्ञानी के चारित्र है, दर्शन है, ज्ञान है, ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। निश्चय से तो न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है।7। मार्ग में जाते हुए पथिक को लुटता देखकर ही व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है। वास्तव में तो कोई लुटता नहीं है।58। (इसी प्रकार जीव में कर्म नोकर्मों के वर्णादि का संयोग देखकर) जिनेन्द्र भगवान् ने व्यवहारनय से ऐसा कह दिया है कि यह वर्ण (तथा देह के संस्थान आदि) जीव के हैं।59।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./414 <span class="SanskritText">द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकार:, स केवलं व्यवहार एव न परमार्थ:। </span>=<span class="HindiText">श्रावक व श्रमण के लिंग के भेद से दो प्रकार का मोक्षमार्ग होता है, यह केवल प्ररूपण करने का प्रकार या विधि है। वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.7" id="V.6.7"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.6.7" id="V.6.7"></a>व्यवहारनय साधकतम नहीं है</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./189 <span class="SanskritText">निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धद्योतको व्यवहारनय:।</span>=<span class="HindiText">निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्ध का द्योतन करने वाला व्यवहारनय नहीं।<br /> | ||
देखो नय/V/ | देखो नय/V/6/1 (व्यवहारनय से परमार्थवस्तु की सिद्धि नहीं होती)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.8" id="V.6.8"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.8" id="V.6.8"> व्यवहारनय सिद्धान्त विरुद्ध है तथा नयाभास है</strong></span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./श्लोक नं. <span class="SanskritGatha">ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोप:। दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ।552। तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञका: सन्ति। स्वयमप्यतद्गुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ।553। सोऽयं व्यवहार: स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात् ।568। अथ चेद्धटकर्तासौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुर्वारो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभास:।579।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–दूसरी वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करने को असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं (देखें [[ नय#V.5.4 | नय - V.5.4]]-6)। जैसे कि जीव को वर्णादिकमान कहना?।552। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अतद्गुण होने से, न्यायानुसार अव्यवहार के साथ कोई भी विशेषता न रखने के कारण, वे नय नहीं हैं, किन्तु नयाभास संज्ञक हैं।553। ऐसा व्यवहार क्योंकि सिद्धान्त विरुद्ध है, इसलिए अव्यवहार है। इसका अपसिद्धान्तपना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि यहां उपरोक्त दृष्टान्त में जीव व शरीर ये दो भिन्न-भिन्न धर्मी हैं पर इन्हें एक कहा जा रहा है।568। <strong>प्रश्न</strong>–कुम्भकार घड़े का कर्ता है, ऐसा जो लोकव्यवहार है वह दुर्निवार हो जायेगा अर्थात् उसका लोप हो जायेगा ?।579। <strong>उत्तर</strong>–दुर्निवार होता है तो होओ, इसमें हमारी क्या हानि है; क्योंकि वह लोकव्यवहार तो नयाभास है।(579)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.9" id="V.6.9"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.9" id="V.6.9"> व्यवहारनय का विषय सदा गौण होता है</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./5/22/292/4 <span class="SanskritText">अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेशस्तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:; गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">(ओदनपाक काल इत्यादि रूप से) जो काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है; क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,5,145/403/3 <span class="SanskritText">के वि आइरिया...कज्जे कारणोवयारमवलंविय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छंति, तन्न घटते, ‘गौणमुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय’ इति न्यायात् ।</span> =<span class="HindiText">कितने ही आचार्य कार्य में कारण का उपचार का अवलम्बन करके बादरस्थिति की ही ‘कर्मस्थिति’ यह संज्ञा मानते हैं; किन्तु यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि, ‘गौण और मुख्य में विवाद होने पर मुख्य में ही संप्रत्यय होता है’ ऐसा न्याय है।</span><br /> | ||
न.दी./ | न.दी./2/12/34<span class="SanskritText"> इदं चामुख्यप्रत्यक्षम् उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौण प्रत्यक्ष है; क्योंकि उपचार से ही इसके प्रत्यक्षपने की सिद्धि है। वस्तुत: तो यह परोक्ष ही है; क्योंकि यह मतिज्ञानरूप है। (जिसे इन्द्रिय व बाह्यपदार्थ सापेक्ष होने के कारण परोक्ष कहा गया है।)</span><br /> | ||
न.दी./ | न.दी./3/30/75 <span class="SanskritText">परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचित्; त एवं प्रष्टव्या:; तत्किं मुख्यानुमानम् । अथ गौणानुमानम् । इति, न तावन्मुख्यानुमानम् वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं तद्वाक्यमिति त्वनुमन्यामहे, तत्कारणे तद्वयपदेशोपपत्तेरायुर्घृतमित्यादिवत् ।</span>=<span class="HindiText">‘(पंचावयव समवेत) परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है’, ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं वह वाक्य मुख्य अनुमान है या कि गौण अनुमान है? मुख्य तो वह हो नहीं सकता; क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि उसे गौण कहते हो तो, हमें स्वीकार है; क्योंकि ज्ञानरूप मुख्य अनुमान के कारण ही उसमें (उपचार या व्यवहार से) यह व्यपदेश हो सकता है। जैसे ‘घी आयु है’ ऐसा व्यपदेश होता है। प्रमाणमीमांसा (सिंघी ग्रन्थमाला कलकत्ता/2/1/2)।<br /> | ||
और भी | और भी देखें [[ नय#V.9.2.3 | नय - V.9.2.3 ]](निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.10" id="V.6.10"> शुद्ध दृष्टि में | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.10" id="V.6.10"> शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं</strong></span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./47/क 71 <span class="SanskritText">प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि। नयेन केनाचित्तेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम् ।71।</span>=<span class="HindiText">सुबुद्धि हो या कुबुद्धि अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सबमें ही जब शुद्धता पहले ही से विद्यमान है, तब उनमें कुछ भी भेद मैं किस नय से करूं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.11" id="V.6.11"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.6.11" id="V.6.11"></a>व्यवहारनय का विषय निष्फल है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./266 <span class="SanskritText">यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव।</span> =<span class="HindiText">(मैं पर जीवों को सुखी दुखी करता हूं) इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का पर में व्यापार न होने से स्वार्थक्रियाकारीपन नहीं है, परभाव पर में प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार कि ‘मैं आकश के फूल तोड़ता हूं’ ऐसा कहना मिथ्या है तथा अपने अनर्थ के लिए है, पर का कुछ भी करने वाला नहीं।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./993-594 <span class="SanskritGatha">तद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नानाविकल्पसात् । नि:सारैराश्रिता पुम्भिरथानिष्टफलप्रदा।593। अफलानिष्टफला हेतुशून्या योगापहारिणी। दुस्त्याज्या लौकिकी रूढि: कैश्चिद्दुष्कर्मपाकत:।594।</span>=<span class="HindiText">अनेक विकल्पों वाली यह लौकिक रूढि है और वह निस्सार पुरुषों द्वारा आश्रित है तथा अनिष्ट फल को देने वाली है।593। यह लौकिकी रूढि निष्फल है, दुष्फल है, युक्तिरहित है, अन्वर्थ अर्थ से असम्बद्ध है, मिथ्याकर्म के उदय से होती है तथा किन्हीं के द्वारा दुस्त्याज्य है।594। (पं.ध./पू./563)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.12" id="V.6.12"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.12" id="V.6.12"> व्यवहारनय का आश्रय मिथ्यात्व है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./414 <span class="SanskritText">ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते ते समयसारमेव न संचेतयन्ते।</span> =<span class="HindiText">जो व्यवहार को ही परमार्थ बुद्धि से अनुभव करते हैं, वे समयसार का ही अनुभव नहीं करते। (पु.सि.उ./6)।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./94 <span class="SanskritText">ते खलूच्छलितनिरर्गलैकान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ...मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येण कर्मणा सङ्गतत्वात्परसमया जायन्ते। </span>=<span class="HindiText">वे जिनकी निरर्गल एकान्त दृष्टि उछलती है, ऐसे, ‘यह मैं मनुष्य ही हूं’, ऐसे मनुष्य–व्यवहार का आश्रय करके रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./190<span class="SanskritText"> यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनितमोह: सन् ...परद्रव्ये ममत्वं न जहाति स खलु...उन्मार्गमेव प्रतिपद्यते।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता है वह आत्मा वास्तव में उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./628 <span class="SanskritText">व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।</span> =<span class="HindiText">स्वयमेव मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला होने के कारण व्यवहारनय निश्चय करके मिथ्या है। तथा इसके अर्थ पर दृष्टि रखने वाला मिथ्यादृष्टि है। इसलिए यह नय हेय है।<br /> | ||
देखें [[ कर्ता#3 | कर्ता - 3 ]](एक द्रव्य को दूसरे का कर्ता कहना मिथ्या है)।<br /> | |||
कारक/ | कारक/4 (एक द्रव्य को दूसरे का बताना मिथ्या है)।<br /> | ||
कारण/III/ | कारण/III/2/12 (कार्य को सर्वथा निमित्ताधीन कहना मिथ्या है)।<br /> | ||
देखें [[ नय#V.3.3 | नय - V.3.3 ]](निश्चयनय का आश्रय करने वाले ही सम्यग्दृष्टि होते हैं, व्यवहार का आश्रय करने वाले नहीं।)<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.6.13" id="V.6.13"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.6.13" id="V.6.13"> व्यवहारनय हेय है</strong> </span><br /> | ||
मो.पा./मू./ | मो.पा./मू./32 <span class="PrakritText">इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं।</span>=<span class="HindiText">(जो व्यवहार में जागता है सो आत्मा के कार्य में सोता है। गा.31) ऐसा जानकर योगी व्यवहार को सर्व प्रकार छोड़ता है।32।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./145 <span class="SanskritText">प्राणचतुष्काभिसंबन्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति।</span>=<span class="HindiText">इस व्यवहार जीवत्व की कारणरूप जो चार प्राणी की संयुक्तता है, उससे जीव को भिन्न करना चाहिए।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./11<span class="SanskritText"> अत: प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्य: ।</span>=<span class="HindiText">अत: कर्मों से भिन्न शुद्धात्मा को देखने वालों को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./189/253/12 <span class="SanskritText">इदं नयद्वयं तावदस्ति। किन्त्वत्र निश्चयनय उपादेय; न चासद्भूतव्यवहार:।</span>=<span class="HindiText">यद्यपि नय दो है, किन्तु यहां निश्चयनय उपादेय है, असद्भूत व्यवहारनय नहीं। (पं.ध./पू./630)।<br /> | ||
और भी | और भी देखें [[ आगे नय#V.9.2 | आगे नय - V.9.2 ]](दोनों नयों के समन्वय में इस नय का कथंचित् हेयपना)।<br /> | ||
और भी | और भी देखें [[ आगे नय#V.8 | आगे नय - V.8 ]](इस नय को हेय कहने का कारण व प्रयोजन)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7" id="V.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.7" id="V.7"> व्यवहारनय की कथंचित् प्रधानता</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.1" id="V.7.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.7.1" id="V.7.1"> व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,30/230/4 <span class="SanskritText">प्रमाणाभावे वचनाभावात: सकलव्यवहारोच्छित्तिप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, वस्तुविषयविधिप्रतिषेधयोरप्यभावप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, तथानुपलम्भात् । </span>=<span class="HindiText">प्रमाण का अभाव होने पर वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, और उसके बिना सम्पूर्ण लोकव्यवहार के विनाश का प्रसंग आता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि लोकव्यवहार का विनाश होता हो तो हो जाओ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वस्तु विषयक विधिप्रतिषेध का भी अभाव हो जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–वह भी हो जाओ ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि वस्तु का विधि प्रतिषेध रूप व्यवहार देखा जाता है। (और भी देखें [[ नय#V.9.3 | नय - V.9.3]])</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./356-365/447/15<span class="SanskritText"> ननु सौगतोऽपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञ:; तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। तत्र परिहारमाह-सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति, जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसङ्ग:। एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुन: स्वद्रव्यमेवेति। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सौगत मतवाले (बौद्ध जन) भी सर्वज्ञपना व्यवहार से मानते हैं, तब आप उनको दूषण क्यों देते हैं (क्योंकि, जैन मत में भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनय से कहा जाता है)? <strong>उत्तर</strong>–इसका परिहार करते हैं–सौगत आदि मतों में, जिस प्रकार निश्चय की अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसी प्रकार व्यवहाररूप से भी वह सत्य नहीं है। परन्तु जैन मत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चय की अपेक्षा मृषा (झूठ) है, तथापि व्यवहार रूप से वह सत्य है। यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाये तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जायेगा; और ऐसा होने पर अतिप्रसंग दोष आयेगा। इसलिए आत्मा व्यवहार से परद्रव्य को जानता देखता है, पर निश्चयनय से केवल आत्मा को ही। (विशेष दे0–केवलज्ञान/6; ज्ञान/I/3/4; दर्शन/2/4)<br /> | ||
स.सा./पं. | स.सा./पं.जयचन्द/6 शुद्धता अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं। अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ ही न मानना।...अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से ऐसा तो न समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं; आकाश के फूल की तरह असत् है। ऐसे सर्वथा एकान्त मानने से मिथ्यात्व आता है। (सं.सा./पं.जयचन्द/14)<br /> | ||
सं.सा./पं. | सं.सा./पं.जयचन्द/12 व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा है; यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोड़ दे; और चूंकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उलटा अशुभोपयोग में ही आकर भ्रष्ट हुआ। यथा कथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नारकादिगति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.2" id="V.7.2"> निचली भूमिका में | <li><span class="HindiText"><strong name="V.7.2" id="V.7.2"> निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./12 <span class="PrakritText">सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे। </span>=<span class="HindiText">परमभावदर्शियों को (अर्थात् शुद्धात्मध्यानरत पुरुषों को) शुद्धतत्त्व का उपदेश करने वाला शुद्धनय जानना योग्य है। और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं (अर्थात् बाह्य क्रियाओं का अवलम्बन लेने वाले हैं) वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./12/26/6 <span class="SanskritText">व्यवहारदेशितो व्यवहारनय: पुन: अधस्तनवार्णिकसुवर्णलाभवत्प्रयोजनवान् भवति। केषां। ये पुरुषा: पुन: अशुद्धेअसंयतसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिता:, कस्मिन् स्थिता:। जीवपदार्थे तेषामिति भावार्थ:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहार का उपदेश करने पर व्यवहारनय प्रथम द्वितीयादि बार पके हुए सुवर्ण की भांति जो पुरुष अशुद्ध अवस्था में स्थित अर्थात् भेदरत्नत्रय लक्षणवाले 1-7 गुणस्थानों में स्थित हैं, उनको व्यवहारनय प्रयोजनवान् है। (मो.मा.प्र./17/372/8)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.3" id="V.7.3"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.7.3" id="V.7.3"></a>मन्दबुद्धियों के लिए उपकारी है</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,37/263/7<span class="SanskritText"> सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अत्र व्यवहारनय: किमित्यवलम्ब्यते इति चेन्नैष दोष:, मन्दमेधसामनुग्रहार्थत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सब जगह निश्चयनय का आश्रय लेकर वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के पश्चात् फिर यहां पर व्यवहारनय का आलम्बन क्यों लिया जा रहा है? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रह के लिए उक्त प्रकार से वस्तुस्वरूप का विचार किया है। (ध.4/1,3,55/120/1) (पं.वि./11/8)</span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,8,3/281/2 <span class="PrakritText">एवंविहवहारो किमट्ठं कीरदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./7<span class="SanskritText"> यतोऽनन्तधर्मण्येकस्मिन् ह्यधर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभि: कैश्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं, ज्ञानं चारित्रमित्युपदेश:।</span> =<span class="HindiText">क्योंकि अनन्त धर्मों वाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं, ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतलाने वाले कितने ही धर्मों के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का–यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहार मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। (पु.सि.उ./6), (पं.वि./11/8) (मो.मा.प्र./7/372/15)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.4" id="V.7.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.7.4" id="V.7.4"> व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान सम्भव है</strong> </span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./11/11<span class="SanskritText"> मुख्योपचारविवृतिं व्यवहारोपायतो यत: सन्त:। ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तत्त्वमिति: व्यवहृति: पूज्या।</span> <span class="HindiText">चूंकि सज्जन पुरुष व्यवहारनय के आश्रय से ही मुख्य और उपचारभूत कथन को जानकर शुद्धस्वरूप का आश्रय लेते हैं, अतएव व्यवहारनय पूज्य है।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./9/20/14<span class="SanskritText"> व्यवहारेण परमार्थो ज्ञायते।</span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय से परमार्थ जाना जाता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.5" id="V.7.5"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.7.5" id="V.7.5"></a>व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./8 <span class="SanskritText">तहिं परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत् । </span>(उत्थानिका)–<span class="SanskritGatha">जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जं-भासं विणा उ गाहेउं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।8।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न–तब तो एक परमार्थ का ही उपदेश देना चाहिए था, व्यवहार का उपदेश किसलिए दिया जाता है? उत्तर–जैसे अनार्यजन को अनार्य भाषा के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने के लिए कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। (पं.ध./पू./641); (मो.मा.प्र./7/370/4)</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/33/142/3<span class="SanskritText"> सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते।</span>=<span class="HindiText">सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। (रा.वा./1/33/6/96/22)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.6" id="V.7.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.7.6" id="V.7.6"> वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि कराना इसका प्रयोजन है</strong></span><br /> | ||
स्या.म./28/315/28 पर उद्धृत श्लोक नं.3<span class="SanskritGatha"> व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिन:।</span> =<span class="HindiText">संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय जीवों का उन भिन्न-भिन्न पदार्थों में व्यापार कराता है, क्योंकि जगत् में वैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं।</span><br /> | |||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./524<span class="SanskritText"> फलमास्तिक्यमति: स्यादनन्तधर्मैकधर्मिणस्तस्य। गुणसद्भावे यस्माद्द्रव्यास्तित्वस्य सुप्रतीतत्वात् ।</span>=<span class="HindiText">अनन्तधर्म वाले धर्मों के विषय में आस्तिक्य बुद्धि का होना ही उसका फल है, क्योंकि गुणों का अस्तित्व मानने पर ही नियम से द्रव्य का अस्तित्व प्रतीत होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.7" id="V.7.7"> वस्तु की | <li><span class="HindiText"><strong name="V.7.7" id="V.7.7"> वस्तु की निश्चित प्रतिपत्ति के अर्थ यही प्रधान है</strong></span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./637-639 <span class="SanskritGatha">ननु चैवं चेन्नियमादादरणीयो नयो हि परमार्थ:। किमकिंचत्कारित्वाद्व्यवहारेण तथाविधेन यत:।637। नैवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ। वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलम्बितज्ज्ञानम् ।638। तस्मादाश्रयणीय: केषांचित् स नय: प्रसङ्गत्वात् ।...।639। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जब निश्चयनय ही वास्तव में आदरणीय है तब फिर अकिंचित्कारी और अपरमार्थभूत व्यवहारनय से क्या प्रयोजन है ?।637। <strong>उत्तर</strong>–ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि तत्त्व के सम्बन्ध में विप्रतिपत्ति (विपर्यय) होने पर अथवा संशय आ पड़ने पर, वस्तु का विचार करने में वह व्यवहारनय बलपूर्वक प्रवृत्त होता है। अथवा जो ज्ञान निश्चय व व्यवहार दोनों नयों का अवलम्बन करने वाला है वही प्रमाण कहलाता है।638। इसलिए प्रसंगवश वह किन्हीं के लिए आश्रय करने योग्य है।639।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.7.8" id="V.7.8"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.7.8" id="V.7.8"></a>व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है</strong> </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./1/100/107 <span class="SanskritGatha">व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति। बीजादिना बिना मूढ: स सस्यानि सिसृक्षति।100।</span>=<span class="HindiText">वह मनुष्य बीज खेत जल खाद आदि के बिना ही धान्य उत्पन्न करना चाहता है, जो व्यवहार से पराङ्मुख होकर केवल निश्चयनय से ही कार्य सिद्ध करना चाहता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8" id="V.8"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.8" id="V.8"></a>व्यवहार व निश्चय की हेयोपादेयता का समन्वय</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8.1" id="V.8.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.8.1" id="V.8.1"> निश्चयनय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./272 <span class="PrakritText">णिच्छयणयासिदा मुणिणो पावंति णिव्वाणं।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय के आश्रित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।<br /> | ||
नय/V/ | नय/V/3/3 (निश्चयनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है।)</span><br /> | ||
प.प्र./ | प.प्र./1/71 <span class="PrakritGatha">देहहं पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभपरु सो अप्पाणु मुणेउ।71।</span>=<span class="HindiText">हे जीव ! तू इस देह के बुढ़ापे व मरण को देखकर भय मत कर। जो वह अजर व अमर परमब्रह्म तत्त्व है उस ही को आत्मा मान।</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/32 <span class="SanskritText">निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचेतन्ये संस्थाप्य परमानन्दं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रान्तं करोति तमिति पूज्यतम:। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय एकत्व को प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्य में स्थापित करता है। परमानन्द को उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वत: निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार वह जीव को नयपक्ष से अतीत कर देता है। इस कारण वह पूज्यतम है।</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/69-70 <span class="SanskritText">यथा सम्वग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्त्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनैकविकल्पोऽपि निवर्तते। एवं हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीत:।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार सम्यक्व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति हो जाती है। उसी प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है उसी प्रकार स्व में स्थित स्वभाव से निश्चयनय की एकता का विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसलिए स्वस्थित स्वभाव ही नयपक्षातीत है। (सू.पा./टी./6/59/9)।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./180/क.122<span class="SanskritText"> इदमेवात्र तात्पर्यं हेय: शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्वन्ध एव हि। </span>=<span class="HindiText">यहां यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि, उसके अत्याग से बन्ध नहीं होता है और उसके त्याग से बन्ध होता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./191 <span class="SanskritText">निश्चयनयापहस्तितमोह:...आत्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येकस्मिन्नग्रे चिन्तां निरुणाद्धि खलु...निरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभ:।</span> =<span class="HindiText">निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है, वह पुरुष आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करता है, और परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप एक अग्र में ही चिन्ता को रोकता है (अर्थात् निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होता है)। उस एकाग्रचिन्तानिरोध के समय वास्तव में वह शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। (स.सा./ता.वृ./49/89/16), (पं.ध./पू./663)।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./189/253/13 <span class="SanskritText">ननु रागादीनात्मा करोति भुङ्क्ते चेत्येवं लक्षणो निश्चयनयो व्याख्यात:, स कथमुपादेयो भवति। परिहारमाह–रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्म, रागादय एव बन्धकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादिविकल्पजालत्यागेन रागादिविनाशार्थं निजशुद्धात्मानं भावयति। ततश्च रागादिविनाशो भवति। रागादिविनाशे च आत्मा शुद्धो भवति।...तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्राय:। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–रागादिक को आत्मा करता है और भोगता है ऐसा (अशुद्ध) निश्चय का लक्षण कहा गया है। वह कैसे उपादेय हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–इस शंका का परिहार करते हैं–रागादिक को ही आत्मा करता (व भोगता है) द्रव्यकर्मों को नहीं। इसलिए रागादिक ही बन्ध के कारण हैं (द्रव्यकर्म नहीं)। ऐसा यह जीव जब जान जाता है तब रागादि विकल्पजाल का त्याग करके रागादिक के विनाशार्थ शुद्धात्मा की भावना भाता है। उससे रागादिक का विनाश होता है। और रागादिक का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध हो जाती है। इसलिए इस (अशुद्ध निश्चयनय को भी) उपादेय कहा जाता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2" id="V.8.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2" id="V.8.2"> व्यवहारनय के निषेध का कारण</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2.1" id="V.8.2.1"> अभूतार्थ प्रतिपादक होने के कारण निषिद्ध है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2.1" id="V.8.2.1"> अभूतार्थ प्रतिपादक होने के कारण निषिद्ध है</strong> </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./627-28 <span class="SanskritGatha">न यतो विकल्पमर्थाकृतिपरिणतं यथा वस्तु। प्रतिषेधस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य।627। व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।628। </span>=<span class="HindiText">वस्तु के अनुसार केवल विकल्परूप अर्थाकार परिणत होना प्रतिषेध्य का कारण नहीं है, किन्तु वास्तविक न होने के कारण इसका प्रतिषेध होता है।627। निश्चय करके व्यवहारनय स्वयं ही मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला है, अत: मिथ्या है। इसलिए यहां पर प्रतिषेध्य है। और इसके अर्थ पर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है।628। (विशेष देखें [[ नय#V.6.1 | नय - V.6.1]])।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2.2" id="V.8.2.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2.2" id="V.8.2.2"> अनिष्ट फलप्रदायी होने के कारण निषिद्ध है</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./98 <span class="SanskritText">अतोऽवधार्यते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव।</span> =<span class="HindiText">इससे जाना जाता है कि अशुद्धनय से अशुद्धआत्मा का लाभ होता है।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./563 <span class="SanskritText">तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोप:। इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीव:।</span> =<span class="HindiText">इसी कारण, अतद्गुण में तदारोप करने वाला व्यवहारनय इष्ट फल के अभाव से उपादेय नहीं है। जैसे कि यहां पर जीव को वर्णादिमान् कहना नय नहीं है (नयाभास है), (विशेष देखें [[ नय#V.6.1 | नय - V.6.1]]1)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2.3" id="V.8.2.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.8.2.3" id="V.8.2.3"> व्यभिचारी होने के कारण निषिद्ध है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./277 <span class="SanskritText">तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकान्तिकत्वाद्वयवहारनय: प्रतिषेध्य:। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधक:। </span>=<span class="HindiText">व्यवहारनय प्रतिषेध्य है; क्योंकि (इसके विषयभूत परद्रव्यस्वरूप) आचारांगादि (द्वादशांग श्रुतज्ञान, व्यवहारसम्यग्दर्शन व व्यवहारसम्यग्चारित्र) का आश्रयत्व अनैकान्तिक है, व्यभिचारी है (अर्थात् व्यवहारावलम्बी को निश्चय रत्नत्रय हो अथवा न भी हो) और निश्चयनय व्यवहार का निषेधक है; क्योंकि (उसके विषयभूत) शुद्धात्मा के ज्ञानादि (निश्चयरत्नत्रय का) आश्रय एकान्तिक है अर्थात् निश्चित है। (नय/V/6/3) और व्यवहार के प्रतिषेधक हैं। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8.3" id="V.8.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.8.3" id="V.8.3"> व्यवहारनय निषेध का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पु.सि.उ./ | पु.सि.उ./6,7 <span class="SanskritGatha">अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।6। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।7।</span> =<span class="HindiText">अज्ञानी को समझाने के लिए ही मुनिजन अभूतार्थ जो व्यवहारनय, उसका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को सत्य मानते हैं, उनके लिए उपदेश नहीं है।6। जो सच्चे सिंह को नहीं जानते हैं उनको यदि ‘विलाव जैसा सिंह होता है’ यह कहा जाये तो बिलाव को ही सिंह मान बैठेंगे। इसी प्रकार जो निश्चय को नहीं जानते उनको यदि व्यवहार का उपदेश दिया जाये तो वे उसी को निश्चय मान लेंगे।7। (मो.मा.प्र./7/372/8)।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./11 <span class="SanskritText">प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनया नानुसर्तव्य:। </span>=<span class="HindiText">अन्य पदार्थों से भिन्न आत्मा को देखने वालों को व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए।</span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./11/8 <span class="SanskritText">व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनय:।</span>=<span class="HindiText">अबोधजनों को समझाने के लिए ही व्यवहारनय है, परन्तु शुद्धनय कर्मों के क्षय का कारण है।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./324-327/414/9 <span class="SanskritText">ज्ञानी भूत्वा व्यवहारेण परद्रव्यमात्मीयं वदन् सन् कथमज्ञानी भवतीति चेत् । व्यवहारो हि म्लेच्छानां म्लेच्छभाषेव प्राथमिकजनसंबोधनार्थं काल एवानुसर्तव्य:। प्राथमिकजनप्रतिबोधनकालं विहाय कतकफलवदात्मशुद्धि कारकात् शुद्धनयाच्च्युतो भूत्वा यदि परद्रव्यमात्मीयं करोतीति तदा मिथ्यादृष्टिर्भवति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानी होकर व्यवहारनय से परद्रव्य को अपना कहने से वह अज्ञानी कैसे हो जाता है? <strong>उत्तर</strong>–म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा की भांति प्राथमिक जनों को समझाने के समय ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य है। प्राथमिकजनों के सम्बोधनकाल को छोड़कर अन्य समयों में नहीं। अर्थात् कतकफल की भांति जो आत्मा की शुद्धि करने वाला है, ऐसे शुद्धनय से च्युत होकर यदि परद्रव्य को अपना करता है तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (अर्थात् निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहार दृष्टिवाला मिथ्यादृष्टि हो सर्वदा सर्वप्रकार व्यवहार का अनुसरण करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.8.4" id="V.8.4"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.8.4" id="V.8.4"></a>व्यवहार नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन</strong> <br /> | ||
देखें [[ नय#V.7 | नय - V.7 ]]निचली भूमिकावालों के लिए तथा मन्दबुद्धिजनों के लिए यह नय उपकारी है। व्यवहार से ही निश्चय तत्त्वज्ञान की सिद्धि होती है तथा व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन भी शक्य नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नय द्वारा वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।</span><br /> | |||
श्लो.वा.4/1/33/60/246/28 <span class="SanskritText">तदुक्तं–व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता। सान्यथा बाध्यमानानां, तेषां च तत्प्रसङ्गत:। </span>=<span class="HindiText">लौकिक व्यवहारों की अनुकूलता करके ही प्रमाणों का प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है, दूसरे प्रकारों से नहीं। क्योंकि, वैसा मानने पर तो साध्यमान जो स्वप्न, भ्रान्ति व संशय ज्ञान हैं, उन्हें भी प्रमाणता प्राप्त हो जायेगी।</span><br /> | |||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/31 <span class="SanskritText">किमर्थं व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सद्रत्नत्रयसिद्धयर्थं च।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अर्थ का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? <strong>उत्तर</strong>–असत् कल्पना की निवृत्ति के अर्थ तथा सम्यक् रत्नत्रय की प्राप्ति के अर्थ।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./12 <span class="SanskritText">अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । (उत्थानिका)। ...ये तु...अपरमं भावमनुभवन्ति तेषां ...व्यवहारनयो...परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च–‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./46 <span class="SanskritText">व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्तेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थ तो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शङ्कमुपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बन्धस्याभाव:। तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषविमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव:।</span>= | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> व्यवहारनय भी किसी किसी को किसी काल प्रयोजनवान् है।–जो पुरुष अपरमभाव में स्थित है [अर्थात् अनुत्कृष्ट या मध्यमभूमिका अनुभव करते हैं अर्थात् 4-7 गुणस्थान तक के जीवों को (देखें [[ नय#V.7.2 | नय - V.7.2]])] उनको व्यवहारनय जानने में आता हुआ उस समय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ व तीर्थ के फल की ऐसी ही व्यवस्थिति है। अन्यत्र भी कहा है–हे भव्य जीवो! यदि तुम जिनमत का प्रवर्ताना कराना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ का नाश हो जायेगा और निश्चय के बिना तत्त्व का नाश हो जायेगा। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> जैसे | <li><span class="HindiText"> जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तु का स्वरूप बतलाती है (नय/V/7/5) उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह (व्यवहारनय) बतलाना न्यायसंगत ही है। परन्तु यदि व्यवहारनय न बतलाया जाय तो, क्योंकि परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया गया है, इसलिए जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है, उसी प्रकार त्रसस्थावर जीवों को नि:शंकतया मसल देने में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्ध का ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ से जीव क्योंकि रागद्वेष मोह से भिन्न बताया गया है, इसलिए ‘रागी द्वेषी मोही जीव कर्म से बन्धता है, उसे छुड़ाना’–इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय का अभाव होने से मोक्ष का अभाव हो जायेगा।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
Line 394: | Line 394: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9" id="V.9"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.9" id="V.9"> निश्चय व्यवहार के विषयों का समन्वय</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.1" id="V.9.1">दोनों नयों के विषय विरोध निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.9.1" id="V.9.1"></a>दोनों नयों के विषय विरोध निर्देश</strong></span><br /> | ||
श्लो.वा.4/1/7/28/585/2<span class="SanskritText"> निश्चयनयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीव: व्यवहारादौपशमिकादिभावचतुष्टयस्वभाव:; निश्चयत: स्वपरिणामस्य, व्यवहारत: सर्वेषां; निश्चयनयो जीवत्वसाधन:, व्यवहारादौपशमिकादिभावसाधनश्च; निश्चयत: स्वप्रदेशाधिकरणो, व्यवहारत: शरीराद्यधिकरण:; निश्चयतो जीवनसमयस्थिति व्यवहारतो द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसानस्थितिर्वा; निश्चयतोऽनन्तविधान एव व्यवहारतो नारकादिसंख्येयासंख्येयानन्तविधानश्च। </span>=<span class="HindiText">निश्चयनय से तो अनादि पारिणामिक चैतन्यलक्षण जो जीवत्व भाव, उससे परिणत जीव है, तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिक आदि जो चार भाव उन स्वभाव वाला जीव है (नय/V/1/3,5,8)। निश्चय से स्वपरिणामों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है, तथा व्यवहारनय से सब पदार्थों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है (नय/V/1/3,5,8 तथा नय/V/5) निश्चय से पारिणामिक भावरूप जीवत्व का साधन है तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिकादि भावों का साधन है। (नय/V/1/5,8) निश्चय से जीव स्वप्रदेशों में अधिष्ठित है (नय/V/1/3), और व्यवहार से शरीरादि में अधिष्ठित है (नय/V/5/5)। निश्चय से जीवन की स्थिति एक समयमात्र है और व्यवहार नय से दो समय आदि अथवा अनादि अनन्त स्थिति है। (नय/III/5/7) (नय/IV/3)। निश्चयनय से जितने जीव हैं उतने ही अनन्त उसके प्रकार हैं, और व्यवहारनय से नरक तिर्यंच आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकार का है। (इसी प्रकार अन्य भी इन नयों के अनेकों उदाहरण यथायोग्य समझ लेना)। (विशेष देखो पृथक्-पृथक् उस उस नय के उदाहरण) (पं.का./ता.वृ./27/56-60)।<br /> | |||
देखें [[ अनेकान्त#5.4 | अनेकान्त - 5.4 ]](वस्तु एक अपेक्षा से जैसी है दूसरी अपेक्षा से वैसी नहीं है।)<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.2" id="V.9.2"> दोनों नयों में | <li><span class="HindiText"><strong name="V.9.2" id="V.9.2"> दोनों नयों में स्वरूप विरोध निर्देश</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong name="V.9.2.1" id="V.9.2.1"> इस प्रकार दोनों नय | <li class="HindiText"><strong name="V.9.2.1" id="V.9.2.1"> इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी हैं</strong> <br /> | ||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/366/6 निश्चय व्यवहार का स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिये हैं। जातै समयसार विषै ऐसा कहा है–व्यवहार अभूतार्थ है–और निश्चय है सो भूतार्थ है (नय/V/3/1 तथा नय/V/6/1)।<br /> | ||
नोट––(इसी प्रकार | नोट––(इसी प्रकार निश्चयनय साधकतम है, व्यवहारनय साधकतम नहीं है। निश्चयनय सम्यक्त्व का कारण है तथा व्यवहारनय के विषय का आश्रय करना मिथ्यात्व है। निश्चयनय उपादेय है और व्यवहारनय हेय है। (नय/V/3 व 6)। निश्चयनय अभेद विषयक है और व्यवहारनय भेद विषयक; निश्चयनय स्वाश्रित है और व्यवहारनय पराश्रित; (नय/V/1 व 4) निश्चयनय निर्विकल्प, एक वचनातीत, व उदाहरण रहित है तथा व्यवहारनय सविकल्प, अनेकों, वचनगोचर व उदाहरण सहित है (नय/V/2/2,5)।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.2.2" id="V.9.2.2"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="V.9.2.2" id="V.9.2.2"></a>निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण</strong></span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/32 <span class="SanskritText">तर्ह्येवं द्वावपि सामान्येन पूज्यतां गतौ। नह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(यदि दोनों ही नयों के अवलम्बन से परोक्षानुभूति तथा नयातिक्रान्त होने पर प्रत्यक्षानुभूति होती है) तो दोनों नय समानरूप से पूज्यता को प्राप्त हो जायेंगे ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, वास्तव में व्यवहारनय पूज्यतर हैं और निश्चयनय पूज्यतर हैं और निश्चयनय पूज्यतम।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./809<span class="SanskritGatha"> तद् द्विधाय च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबन्धि गुणो यावत् परात्मनि।809। </span>=<span class="HindiText">वह वात्सल्य अंग भी स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से जो स्वात्मा सम्बन्धी अर्थात् निश्चय वात्सल्य है वह प्रधान है और जो परमात्मा सम्बन्धी अर्थात् व्यवहार वात्सल्य है वह गौण है।809।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.2.3" id="V.9.2.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.9.2.3" id="V.9.2.3"> निश्चयनय साध्य है और व्यवहारनय साधक</strong></span><br /> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./13/33/9 <span class="SanskritText">निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् ...परद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते।</span> =<span class="HindiText">परमात्मद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य त्याज्य है, इस तरह सर्वज्ञदेव प्रणीत निश्चय व्यवहारनय को साध्यसाधक भाव से मानता है। (देखें [[ नय#V.7.4 | नय - V.7.4]])।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.2.4" id="V.9.2.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.9.2.4" id="V.9.2.4"> व्यवहार प्रतिषेध्य है और निश्चय प्रतिषेधक</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./272 <span class="PrakritText">एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण।</span> =<span class="HindiText">इस प्रकार व्यवहारनय को निश्चयनय के द्वारा प्रतिषिद्ध जान। (पं.ध./पू./598,625,643)।<br /> | ||
देखें | देखें [[ स ]]सा./आ./142/क.70-89 का सारार्थ (एक नय की अपेक्षा जीवबद्ध है तो दूसरे की अपेक्षा वह अबद्ध है, इत्यादि 20 उदाहरणों द्वारा दोनों नयों का परस्पर विरोध दर्शाया गया है)।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.3" id="V.9.3"> दोनों में | <li><span class="HindiText"><strong name="V.9.3" id="V.9.3"> दोनों में मुख्य गौण व्यवस्था का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./191 <span class="SanskritText">यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थ: शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयापहस्तितमोह: सन् ...स खलु...शुद्धात्मा स्यात् ।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान ऐसे अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा, जिसने मोह को दूर किया है, ऐसा होता हुआ (एकमात्र आत्मा में चित्त को एकाग्र करता है) वह वास्तव में शुद्धात्मा होता है।<br /> | ||
देखें [[ नय#V.8.3 | नय - V.8.3 ]](निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का अनुसरण मिथ्यात्व है।)<br /> | |||
मो.मा.प्र./ | मो.मा.प्र./7/पृष्ठ/पंक्ति जिनमार्गविषै कहीं तौ निश्चय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौं तौ ‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहार नय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ, ‘ऐसे है नाहीं, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है’ ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनि के व्याख्यान को सत्यार्थ जानि ‘ऐसै भी है और ऐसे भी है’ ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तनेकरि तौ दोऊ नयनि का ग्रहण करना कह्या नाहीं। (पृ.369/14)। ...नोवली दशाविषैं आपकौ भी व्यवहारनय कार्यकारी है; परन्तु व्यवहार को उपचारमात्र मानि वाकै द्वारै वस्तु का श्रद्धान ठीक करै तौं कार्यकारी होय। बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि ‘वस्तु ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान करे तौ उलटा अकार्यकारी हो जाय। (पृ.372/9) तथा (और भी देखें [[ नय#V.8.3 | नय - V.8.3]])।<br /> | ||
का.अ./पं. | का.अ./पं.जयचन्द/464 निश्चय के लिए तो व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चय के व्यवहार सारहीन है। (का.अ./पं.जयचन्द/467)।<br /> | ||
देखें [[ ज्ञान#IV.3.1 | ज्ञान - IV.3.1 ]](निश्चय व व्यवहार ज्ञान द्वारा हेयोपादेय का निर्णय करके, शुद्धात्मस्वभाव की ओर झुकना ही प्रयोजनीय है।)<br /> | |||
(और भी देखें | (और भी देखें [[ जीव ]], अजीव, आस्रव आदि तत्त्व व विषय) (सर्वत्र यही कहा गया है कि व्यवहारनय द्वारा बताये गये भेदों या संयोगों को हेय करके मात्र शुद्धात्मतत्त्व में स्थित होना ही उस तत्त्व को जानने का भावार्थ है।)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.4" id="V.9.4"> दोनों में | <li><span class="HindiText"><strong name="V.9.4" id="V.9.4"> दोनों में साध्य-साधनभाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता</strong></span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/53 <span class="SanskritText">वस्तुत: स्याद्भेद: कस्मान्न कृत इति नाशङ्कनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं। तद्यथा–निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति। परमार्थमुग्धानां व्यवहारिणां व्यवहारमुग्धानां निश्चयवादिनां उभयमुग्धानामुभयवादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थं निश्चयव्यवहाराभ्यामालिङ्गितं कृत्वा वस्तु निर्णेयं। एवं हि कथंचिद्भेदपरस्पराविनाभावित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि:। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माद्व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वस्तुत: ही इन दोनों नयों का कथंचित् भेद क्यों नहीं किया गया ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करने से उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि–निश्चय से अविरोधी व्यवहार को तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चय को ही परमार्थपना है। इस प्रकार परमार्थ से मूढ़ केवल व्यवहारावलम्बियों के, अथवा व्यवहार से मूढ केवल निश्चयावलम्बियों के, अथवा दोनों की परस्पर सापेक्षतारूप उभय से मूढ़ निश्चयव्यवहारावलम्बियों के, अथवा दोनों नयों का सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ़ अनुभयावलम्बियों के मोह को दूर करने के लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयों से आलिंगित करके ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए।<br /> | ||
इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी | इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूप से निश्चय और व्यवहार की अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात् एक दूसरे से निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेंगे । इसलिए व्यवहार की प्रसिद्धि से ही निश्चय की प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा तत्त्व का सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रय की सिद्धि होती है। (पं.ध./पू./662)।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./285-292 <span class="PrakritText">णो ववहारो मग्गो मोहो हवदि सुहासुहमिदि वयणं। उक्तं चान्यत्र, णियदव्वजाणट्ठं इयरं कहियं जिणेहि छद्दव्वं। तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं।–ण हु ऐसा सुंदरा जुत्ती। णियसमयं पि य मिच्छा अह जदु सुण्णो य तस्स सो चेदा जाणगभावो मिच्छा उवयरिओ तेण सो भणई।285। जं चिय जीवसहायं उवयारं भणिय तं पि ववहारो। तम्हा णहु तं मिच्छा विसेसदो भणइ सब्भावं।286। ज्झेओ जीवसहाओ सो इह सपरावभासगो भणिओ। तस्स य साहणहेऊ उवयारो भणिय अत्थेसु।287। जह सब्भूओ भणिदो साहणहेऊ अभेदपरमट्ठो। तह उवयारो जाणह साहणहेऊ अणवयारे।288। जो इह सुदेण भणिओ जाणदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुयकेवलिरिसिणो भणंति लोयप्पदीपयरा।289। उवयारेण विजाणइ सम्मगुरूवेण जेण परदव्वं। सम्मगणिच्छय तेण वि सइय सहावं तु जाणंतो।290। ण दु णय पक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविविग्गयं सुद्धं।292।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–व्यवहारमार्ग कोई मार्ग नहीं है, क्योंकि शुभाशुभरूप वह व्यवहार वास्तव में मोह है, ऐसा आगम का वचन है। अन्य ग्रन्थों में कहा भी है कि ‘निज द्रव्य के जानने के लिए ही जिनेन्द्र भगवान् ने छह द्रव्यों का कथन किया है, इसलिए केवल पररूप उन छह द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है। (देखें [[ द्रव्य#2.4 | द्रव्य - 2.4]])। <strong>उत्तर</strong>–आपकी युक्ति सुन्दर नहीं है, क्योंकि परद्रव्यों को जाने बिना उसका स्वसमयपना मिथ्या है, उसकी चेतना शून्य है, और उसका ज्ञायकभाव भी मिथ्या है। इसीलिए अर्थात् पर को जानने के कारण ही उस जीवस्वभाव को उपचरित भी कहा गया है (देखें [[ स्वभाव ]])।285। क्योंकि कहा गया वह जीव का उपचरित स्वभाव व्यवहार है, इसीलिए वह मिथ्या नहीं है, बल्कि उसी स्वभाव की विशेषता को दर्शाने वाला है (देखें [[ नय#V.7.1 | नय - V.7.1]])।286। जीव का शुद्ध स्वभाव ध्येय है और वह स्व-पर प्रकाशक कहा गया है। (देखें [[ केवलज्ञान#6 | केवलज्ञान - 6]]; ज्ञान/I/3; दर्शन/2)। उसका कारण व हेतु भी वास्तव में परपदार्थों में किया गया ज्ञेयज्ञायक रूप उपचार ही है।287। जिस प्रकार अभेद व परमार्थ पदार्थ में गुण गुणी का भेद करना सद्भूत है, उसी प्रकार अनुपचार अर्थात् अबद्ध व अस्पृष्ट तत्त्व में परपदार्थों को जानने का उपचार करना भी सद्भूत है।288। आगम में भी ऐसा कहा गया है कि जो श्रुत के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं, ऐसा लोक को प्रकाशित करने वाले ऋषि अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं। (देखें [[ श्रुतकेवली#2 | श्रुतकेवली - 2]])।289। सम्यक् निश्चय के द्वारा स्वकीय स्वभाव को जानता हुआ वह आत्मा सम्यक् रूप उपचार से परद्रव्यों को भी जानता है।290। इसलिए अनेकान्त पक्ष को सिद्ध करने वाला नय पक्ष मिथ्या नहीं है, क्योंकि जिनवचन से उत्पन्न ‘स्यात्’ शब्द से आलिंगित होकर वह शुद्ध हो जाता है। (देखें [[ नय#II | नय - II]])।292। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="V.9.5" id="V.9.5"> दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="V.9.5" id="V.9.5"> दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
न.च./श्रुत/ | न.च./श्रुत/52<span class="SanskritText"> यद्यपि मोक्षकार्ये भूतार्थेन परिच्छिन्न आत्माद्युपादानकारणं भवति तथापि सहकारिकारणेन विना न सेत्स्यतीति सहकारिकारणप्रसिद्धयर्थं निश्चयव्यवहारयोरविनाभावित्वमाह। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि मोक्षरूप कार्य में भूतार्थ निश्चय नय से जाना हुआ आत्मा आदि उपादान कारण तो सबके पास हैं, तो भी वह आत्मा सहकारी कारण के बिना मुक्त नहीं होता है। अत: सहकारी कारण की प्रसिद्धि के लिए, निश्चय व व्यवहार का अविनाभाव सम्बन्ध बतलाते हैं। </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./114 <span class="SanskritText">सर्वस्य हि वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छन्दती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति। तत्र पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं ...द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा...तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं। ...पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा..अन्यदन्यत्प्रतिभाति...यदा तु ते उभे अपि...तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा...जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता:...विशेषाश्च तुल्यकालमेवालोक्यन्ते। तत्र एकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं। तत: सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते।</span>=<span class="HindiText">वस्तुत: सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से, वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को जानने वाली दो आंखें हैं—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (या निश्चय व व्यवहार)। इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, जब केवल द्रव्यार्थिक (निश्चय) चक्षु के द्वारा देखा जाता है, तब ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, केवल पर्यायार्थिक (व्यवहार) चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब वह जीव द्रव्य (नारक तिर्यक् आदि रूप) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है। और जब उन दोनों आंखों को एक ही साथ खोलकर देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा उसमें व्यवस्थित (नारक तिर्यक् आदि) विशेष भी तुल्यकाल में ही दिखाई देते हैं। वहां एक आंख से देखना एकदेशावलोकन है और दोनों आंखों से देखना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व व अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते। (विशेष देखें [[ नय#I.2 | नय - I.2]]) (स.सा./ता.वृ./114/174/11)। </span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./187 <span class="SanskritText">ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्त: समस्तशास्त्रहृदयवेदिन: परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिण:...शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति।</span> =<span class="HindiText">इस भागवत शास्त्र को जो निश्चय और व्यवहार नय के अविरोध से जानते हैं वे महापुरुष, समस्त अध्यात्म शास्त्रों के हृदय को जानने वाले और परमानन्दरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं। और भी देखो नय/II–(अन्य नय का निषेध करने वाले सभी नय मिथ्या हैं।) <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="V.9.6" id="V.9.6"> दोनों की सापेक्षता के उदाहरण</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="V.9.6" id="V.9.6"> दोनों की सापेक्षता के उदाहरण</strong> <br /> | ||
देखें [[ उपयोग#II.3 | उपयोग - II.3 ]]व अनुभव/5/8 सम्यग्दृष्टि जीवों को अल्पभूमिकाओं में शुभोपयोग (व्यवहार रूप शुभोपयोग) के साथ-साथ शुद्धोपयोग का अंश विद्यमान रहता है। <br /> | |||
देखें [[ संवर#2 | संवर - 2 ]]साधक दशा में जीव की प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का अंश भी विद्यमान रहता है, इसलिए उसे आस्रव व संवर दोनों एक साथ होते हैं। देखें [[ छेदोपस्थापना#2 | छेदोपस्थापना - 2 ]]संयम यद्यपि एक ही प्रकार का है, पर समता व व्रतादिरूप अन्तरंग व बाह्य चारित्र की युगपतता के कारण सामायिक व छेदोपस्थापना ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है। <br /> | |||
देखें [[ मोक्षमार्ग#3.1 | मोक्षमार्ग - 3.1 ]]आत्मा यद्यपि एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञायकभाव मात्र है, पर वही आत्मा व्यवहार की विवक्षा से दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप कहा जाता है। देखें [[ मोक्षमार्ग#4 | मोक्षमार्ग - 4 ]]मोक्षमार्ग यद्यपि एक व अभेद ही है, फिर भी विवक्षावश उसे निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है। <br /> | |||
<strong>नोट</strong>–(इसी प्रकार | <strong>नोट</strong>–(इसी प्रकार अन्य भी अनेक विषयों में जहां-जहां निश्चय व्यवहार का विकल्प सम्भव है वहां-वहां यही समाधान है।) </li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="V.9.7" id="V.9.7"> इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="V.9.7" id="V.9.7"> इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं</strong> <br /> | ||
देखें [[ नय#V.8.4 | नय - V.8.4 ]]दोनों ही नय प्रयोजनीय हैं, क्योंकि व्यवहार नय के बिना तीर्थ का नाश हो जाता है और निश्चय के बिना तत्त्व के स्वरूप का नाश हो जाता है। देखें [[ नय#V.8.1 | नय - V.8.1 ]]जिस प्रकार सम्यक् व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति होती है, उसी प्रकार सम्यक् निश्चय से उस व्यवहार की भी निवृत्ति हो जाती है। <br /> | |||
देखें [[ मोक्षमार्ग#4.6 | मोक्षमार्ग - 4.6 ]]साधक पहले सविकल्प दशा में व्यवहार मार्गी होता है और पीछे निर्विकल्प दशा में निश्चयमार्गी हो जाता है। देखें [[ धर्म#6.4 | धर्म - 6.4 ]]अशुभ प्रवृत्ति को रोकने के लिए पहले व्यवहार धर्म का ग्रहण होता है। पीछे निश्चय धर्म में स्थित होकर मोक्षलाभ करता है।</li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 451: | Line 451: | ||
</li> | </li> | ||
[[ | <noinclude> | ||
[[ | [[ व्यवहारनय | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[ व्यवहारपल्य | अगला पृष्ठ ]] | |||
</noinclude> | |||
[[Category: व]] |
Revision as of 21:47, 5 July 2020
- व्यवहारनय सामान्य के लक्षण
- संग्रहनय ग्रहीत अर्थ में विधिपूर्वक भेद
ध.1/1,1,1/गा.6/12 पडिरूवं पुण वयणत्थणिच्छयो तस्स ववहारो। =वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना (संग्रहनय का) व्यवहार है। (क.पा./1/13-14/182/89/220)।
स.सि./1/33/142/2 संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार:। =संग्रहनय के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहारनय है। (रा.वा.1/33/6/96/20), (श्लो.वा./4/1/33/श्लो.58/244), (ह.पु./58/45), (ध.1/1,1,1/84/4), (त.सा./1/46), (स्या.म./28/317/14 तथा 316 पृ.उद्धृत श्लो.नं.3)।
आ.प./9 संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवह्नियतेति व्यवहार:। =संग्रहनय द्वारा गृहीत पदार्थ के भेदरूप से जो वस्तु में भेद करता है, वह व्यवहारनय है। (न.च.वृ./210), (का.अ./मू./273)।
- अभेद वस्तु में गुण-गुणी आदि रूप भेदोपचार
न.च.वृ./262 जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स। =सो ववहारो भणियो ...।262।=एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुण पर्यायों का भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें आगे नय - V.5.1-3), (पं.ध./पू./614), (आ.प./9)।
पं.ध./पू./522 व्यवहरणं व्यवहार: स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थ:। स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदकरणं स्यात् ।=विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है। यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है, परमार्थ नहीं। जैसा कि यहां पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी जो भेद करना है वह व्यवहार नय कहलाता है।
- भिन्न पदार्थों में कारकादि रूप से अभेदोपचार
स.सा./आ./272 पराश्रितो व्यवहार:।=परपदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है। (विशेष देखो आगे असद्भूत व्यवहारनय–नय/V/5/4-6)।
त.अनु./29 व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचर:। =व्यवहारनय भिन्न कर्ता कर्मादि विषयक है। (अन.ध./1/102/108)।
- लोकव्यवहारगत-वस्तुविषयक
ध.13/5,5,7/199/1 लोकव्यवहारनिबन्धनं द्रव्यमिच्छन् व्यवहारनय:।=लोकव्यवहार के कारणभूत द्रव्य को स्वीकार करने वाला पुरुष व्यवहारनय है।
- संग्रहनय ग्रहीत अर्थ में विधिपूर्वक भेद
- व्यवहारनय सामान्य के उदाहरण
- संग्रह ग्रहीत अर्थ में भेद करने सम्बन्धी
स.सि./1/33/142/2 को विधि:। य: संगृहीतोऽर्थस्तदानुपूर्व्येणैव व्यवहार: प्रवर्तत इत्ययं विधि:। तद्यथा–सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते। यत्सत्तद् द्रव्यं गुणो वेति। द्रव्येणापि संग्रहाक्षिप्तेन जीवाजीवविशेषानपेक्षेण न शक्य: संव्यवहार इति जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति वा व्यवहार आश्रीयते। जीवाजीवावपि च संग्रहाक्षिप्तौ नालं संव्यवहारायेति प्रत्येकं देवनारकादिर्घटादिश्च व्यवहारेणाश्रीयते।=प्रश्न–भेद करने की विधि क्या है? उत्तर–जो संग्रहनय के द्वारा गृहीत अर्थ है उसी के आनुपूर्वीक्रम से व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है। यथा–सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। यथा–जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रहनय का विषय जो द्रव्य है वह भी जीव अजीव की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है, इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है। जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रहनय के विषय रहते हैं, तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ हैं, इसलिए जीवद्रव्य के देव नारकी आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता है। (रा.वा./1/33/6/6/96/23), (श्लो.वा./4/1/33/60/244/25), (स्या.म./28/317/15)।
श्लो.वा./4/1/33/60/245/1 व्यवहारस्तद्विभज्यते यद्द्रव्यं तज्जीवादिषड्विधं, य: पर्याय: स द्विविध: क्रमभावी सहभावी चेति। पुनरपि संग्रह: सर्वानजीवादीन् संगृह्णाति।...व्यवहारस्तु तद्विभागमभिप्रैति यो जीव: स मुक्त: संसारी च,...यदाकाशं तल्लोकाकाशमलोकाकाशं ...य: क्रमभावी पर्याय: स क्रियारूपोऽक्रियारूपश्च विशेष:, य: सहभावी पर्याय: स गुण: सदृशपरिणामश्च सामान्यमिति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रपञ्च:।=(उपरोक्त से आगे)–व्यवहारनय उसका विभाग करते हुए कहता है कि जो द्रव्य है वह जीवादि के भेद से छ: प्रकार का है, और जो पर्याय है वह क्रमभावी व सहभावी के भेद से दो प्रकार की है। पुन: संग्रहनय इन उपरोक्त जीवादिकों का संग्रह कर लेता है, तब व्यवहारनय पुन: इनका विभाग करता है कि जीव मुक्त व संसारी के भेद से दो प्रकार का है, आकाश लोक व अलोक के भेद से दो प्रकार का है। (इसी प्रकार पुद्गल व काल आदि का भी विभाग करता है)। जो क्रमभावी पर्याय है वह क्रिया रूप व अक्रिया (भाव) रूप है, सो विशेष है। और जो सहभावी पर्याय हैं वह गुण तथा सदृशपरिणामरूप होती हुई सामान्यरूप् हैं। इसी प्रकार अपर व पर संग्रह तथा व्यवहारनय का प्रपंच समझ लेना चाहिए।
- अभेद वस्तु में गुणगुणीरूप भेदोपचार सम्बन्धी
स.सा./मू./7 ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं।=ज्ञानी के चारित्र दर्शन व ज्ञान ये तीन भाव व्यवहार से कहे गये हैं। (द्र.सं./मू./6/17), (स.सा./आ./16/क.17)।
का./ता.वृ./111/175/13 अनलानिलकायिका: तेषु पञ्चस्थावरेषु मध्ये चलनक्रियां दृष्ट्वा व्यवहारेण त्रसा: भण्यन्ते। =पांच स्थावरों में से तेज वायुकायिक जीवों में चलनक्रिया देखकर व्यवहार से उन्हें त्रस कहा जाता है।
पं.ध./पू./599 व्यवहार: स यथा स्यात्सद्द्रव्यं ज्ञानावांश्च जीवो वा। =जैसे ‘सत् द्रव्य है’ अथवा ‘ज्ञानवान् जीव है’ इस प्रकार का जो कथन है, वह व्यवहारनय है। और भी देखो–(नय/IV/2/6/6), (नय/V/5/1-3)।
- <a name="V.4.2.3" id="V.4.2.3"></a>भिन्न पदार्थों में कारकरूप से अभेदोपचार सम्बन्धी
स.सा./मू./59-60 तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।59। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।60।=जीव में कर्मों व नोकर्मों का वर्ण देखकर, जीव का यह वर्ण है, ऐसा जिनदेव ने व्यवहार से कहा है।59। इसी प्रकार गन्ध, रस और स्पर्शरूप देह संस्थान आदिक, सभी व्यवहार से हैं, ऐसा निश्चयनय के देखने वाले कहते हैं।60। (द्र.सं./मू./7), (विशेष देखें नय - V.5.5)।
द्र.सं./मू./3,9 तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स।3। पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो।8। ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मफलं पभुंजेदि।9। =भूत भविष्यत् व वर्तमान तीनों कालों में जो इन्द्रिय बल, आयु व श्वासोच्छ्वासरूप द्रव्यप्राणों से जीता है, उसे व्यवहार से जीव कहते हैं।3। व्यवहार से जीव पुद्गलकर्मों का कर्ता है।6। और व्यवहार से पुद्गलकर्मों के फल का भोक्ता है।9। (विशेष देखो नय/V/5/5)।
प्र.सा./त.प्र./परि/नय नं.44 व्यवहारनयेन बन्धकमोचकपरमाण्वन्तरसंयुज्यमानवियुज्यमानपरमाणुवद्बन्धमोक्षयोर्द्वैतानुवर्ती।44। =आत्मद्रव्य व्यवहारनय से बन्ध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करने वाला है। बन्धक और मोचक अन्य परमाणु के साथ संयुक्त होने वाले और उससे वियुक्त होने वाले परमाणु की भांति।
प्र.सा./त.प्र./189 यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मन: कर्म स एव पुण्यपापद्वैतं पुद्गलपरिणामस्यात्मा कर्ता तस्योपदाता हाता चेति सोऽशुद्धद्रव्यार्थिकनिरूपणात्मको व्यवहारनय:।=जो ‘पुद्गल परिणाम आत्मा का कर्म है वही पुण्य पापरूप द्वैत है; आत्मा पुद्गल परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, यह अशुद्धद्रव्य का निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है।
प.प्र./1/55/54/4 य एव ज्ञानापेक्षया व्यवहानयेन लोकालोकव्यापको भणित:।=व्यवहारनय से ज्ञान की अपेक्षा आत्मा लोकालोकव्यापी है।
मो.मा.प्र./7/17/369/8 व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौ वा तिनिके भावनिकौं वा कारणकार्यादिकौं काहूको काहूविषै मिलाय निरूपण करै है।
और भी दे0(नय/III/2/3), (नय/V/5/4-6)।
- लोक व्यवहारगत वस्तु सम्बन्धी
स्या.म./28/311/23 व्यवहारस्त्वेवमाह। यथा लोकग्राहकमेव वस्तु, अस्तु, किमनया अदृष्टाव्यवह्नियमाणवस्तुपरिकल्पनकष्टपिष्टिकया। यदेव च लोकव्यवहारपथमवतरति तस्यैवानुग्राहकं प्रमाणमुपलभ्यते नेतरस्य। न हि सामान्यमनादिनिधनमेकं संग्रहाभिमतं प्रमाणभूमि:, तथानुभवाभावात् । सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसङ्गाच्च। नापि विशेषा: परमाणुलक्षणा: क्षणक्षयिण: प्रमाणगोचरा:, तथा प्रवृत्तेरभावात् । तस्माद् इदमेव निखिललोकाबाधितं प्रमाणसिद्धं कियत्कालभाविस्थूलतामाबिभ्राणमुदकाद्याहरणाद्यर्थक्रियानिर्वर्तनक्षमं घटादिकं वस्तुरूपं पारमार्थिकम् । पूर्वोत्तरकालभावितत्पर्यायपर्यालोचना पुनरज्यायसी तत्र प्रमाणप्रसाराभावात् । प्रमाणमन्तरेण विचारस्य कर्तुमशक्यत्वात् । अवस्तुत्वाच्च तेषां किं तद्गोचरपर्यायालोचनेन। तथाहि। पूर्वोत्तरकालभाविनो द्रव्यविवर्ता: क्षणक्षयिपरमाणुलक्षणा वा विशेषा न कथंचन लोकव्यवहारमुपरचयन्ति। तन्न ते वस्तुरूपा:। लोकव्यवहारोपयोगिनामेव वस्तुत्वात् । अत एव पन्था गच्छति, कुण्डिका स्रवति, गिरिर्दह्यते, मञ्चा: क्रोशन्ति इत्यादि व्यवहाराणां प्रामाण्यम् । तथा च वाचकमुख्य: ‘लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:। =व्यवहारनय ऐसा कहता है कि–लोकव्यवहार में आने वाली वस्तु ही मान्य है। अदृष्ट तथा अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना करने से क्या लाभ ? लोकव्यवहार पथपर चलने वाली वस्तु ही अनुग्राहक है और प्रमाणता को प्राप्त होती है, अन्य नहीं। संग्रहनय द्वारा मान्य अनादि निधनरूप सामान्य प्रमाणभूमि को स्पर्श नहीं करता, क्योंकि सर्वसाधारण को उसका अनुभव नहीं होता। तथा उसे मानने पर सबको ही सर्वदर्शीपने का प्रसंग आता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्रनय द्वारा मान्य क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष भी प्रमाण बाह्य होने से हमारी व्यवहार प्रवृत्ति के विषय नहीं हो सकते। इसलिए लोक अबाधित, कियतकाल स्थायी व जलधारण आदि अर्थक्रिया करने में समर्थ ऐसी घट आदि वस्तुएं ही पारमार्थिक व प्रमाण सिद्ध हैं। इसी प्रकार घट ज्ञान करते समय, नैगमनय मान्य उसकी पूर्वोत्तर अवस्थाओं का भी विचार करना व्यर्थ है, क्योंकि प्रमाणगोचर न होने से वे अवस्तु हैं। और प्रमाणभूत हुए बिना विचार करना अशक्य है। पूर्वोत्तरकालवर्ती द्रव्य की पर्याय अथवा क्षणक्षयी परमाणुरूप विशेष दोनों ही लोकव्यवहार में उपयोगी न होने से अवस्तु हैं, क्योंकि लोक व्यवहार में उपयोगी ही वस्तु है। अतएव ‘रास्ता जाता है, कुण्ड बहाता है, पहाड़ जलता है, मंच रोते हैं’ आदि व्यवहार भी लोकोपयोगी होने से प्रमाण हैं। वाचक मुख्य श्री उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थाधिगम भाष्य/1/35 में कहा है कि ‘लोक व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ (देखें उपचार व आगे असद्भूत व्यवहार ) को बताने वाले विस्तृत अर्थ को व्यवहार कहते हैं।
- संग्रह ग्रहीत अर्थ में भेद करने सम्बन्धी
- व्यवहारनय की भेद-प्रवृत्ति की सीमा
स.सि./1/33/142/8 एवमयं नयस्तावद्वर्तते यावत्पुनर्नास्ति विभाग:। =संग्रह गृहीत अर्थ को विधिपूर्वक भेद करते हुए (देखें पीछे शीर्षक नं - 2.1) इस नय की प्रवृत्ति वहां तक होती है, जहां तक कि वस्तु में अन्य कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता। (रा.वा./1/33/6/96/29)।
श्लो.वा.4/1/33/60/245/15 इति अपरापरसंग्रहव्यवहारप्रवञ्च: प्रागृजुसूत्रात्परसंग्रहादुत्तर: प्रतिपत्तव्य:, सर्वस्य वस्तुन: कथंचित्सामान्यविशेषात्मकत्वात् । =इस प्रकार उत्तरोत्तर हो रहा संग्रह और व्यवहारनय का प्रपंच ऋजुसूत्रनय से पहले-पहले और परसंग्रहनय से उत्तर उत्तर अंशों की विवक्षा करने पर समझ लेना चाहिए; क्योंकि, जगत् की सब वस्तुएं कथंचित् सामान्यविशेषात्मक हैं। (श्लो.वा.4/1,33श्लो.59/244)
का.अ./मू./273 जं संगहेण गहिदं विसेसरहिदं पि भेददे सददं। परमाणूपज्जंतं ववहारणओ हवे सो हु।273। =जो नय संग्रहनय के द्वारा अभेद रूप से गृहीत वस्तुओं का परमाणुपर्यंत भेद करता है वह व्यवहार नय है।
ध.1/1,1,1/13/11 (विशेषार्थ) वर्तमान पर्याय को विषय करना ऋजु-सूत्र है। इसलिए जब तक द्रव्यगत (देखें नय - III.1.2) भेदों की ही मुख्यता रहती है, तब तक व्यवहारनय चलता है और जब कालकृत भेद प्रारम्भ हो जाता है तभी से ऋजुसूत्र नय का प्रारम्भ होता है।
- <a name="V.4.4" id="V.4.4"></a>व्यवहारनय के भेद व लक्षणादि
- <a name="V.4.4.1" id="V.4.4.1"></a>पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार
पं.का./मू.व भाषा/47 णाणं धणं च कुव्वदि धणिणं जह णाण्णं च दुविधेहिं। भण्णंति तह पुधत्तं एयत्तं चावि तच्चण्हू। =धन पुरुष को धनवान् करता है, और ज्ञान आत्मा को ज्ञानी करता है। तैसे ही तत्त्वज्ञ पुरुष पृथक्त्व व एकत्व के भेद से सम्बन्ध दो प्रकार का कहते हैं। व्यवहार दो प्रकार का है–एक पृथक्त्व और एक एकत्व। जहां पर भिन्न द्रव्यों में एकता का सम्बन्ध दिखाया जाता है उसका नाम पृथक्त्व व्यवहार कहा जाता है। और एक वस्तु में भेद दिखाया जाय उसका नाम एकत्व व्यवहार कहा जाता है।
न.च./श्रुत/पृ.29 प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। =प्रमाण नय व निक्षेपात्मक वस्तु को जो भेद द्वारा या उपचार द्वारा भेद या अभेदरूप करता है, वह व्यवहार है। (विशेष देखें उपचार - 1.2)।
- <a name="V.4.4.2" id="V.4.4.2"></a>सद्भूत व असद्भूत व्यवहार
न.च./श्रुत/पृ.25 व्यवहारो द्विविध:–सद्भूतव्यवहारो असद्भूतव्यवहारश्च। तत्रैकवस्तुविषय: सद्भूतव्यवहार:। भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। =व्यवहार दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहार और असद्भूत व्यवहार। तहां सद्भूतव्यवहार एक वस्तुविषयक होता है और असद्भूत व्यवहार भिन्न वस्तु विषयक। (अर्थात् एक वस्तु में गुण-गुणी भेद करना सद्भूत या एकत्व व्यवहार है और भिन्न वस्तुओं में परस्पर कर्ता कर्म व स्वामित्व आदि सम्बन्धी द्वारा अभेद करना असद्भूत या पृथक्त्व व्यवहार है।) (पं.ध./पू./525) (विशेष देखें आगे नय - V.5)
- सामान्य व विशेष संग्रह भेदक व्यवहार
न.च.वृ./210 जो संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्ध सुद्धं वा। सो ववहारो दुविहो असुद्धसुद्धत्थभेदकरो।210। =जो संग्रह नय के द्वारा ग्रहण किये गये शुद्ध या अशुद्ध पदार्थ का भेद करता है वह व्यवहार नय दो प्रकार का है–शुद्धार्थ भेदक और अशुद्धार्थभेदक। (शुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला शुद्धार्थ भेदक व्यवहार है और अशुद्धसंग्रह के विषय का भेद करने वाला अशुद्धार्थभेदक व्यवहार है।)
आ.प./5 व्यवहारोऽपि द्वेधा। सामान्यसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––द्रव्याणि जीवाजीवा:। विशेषसंग्रहभेदको व्यवहारो यथा––जीवा: संसारिणो मुक्ताश्च। =व्यवहार भी दो प्रकार का है–सामान्यसंग्रहभेदक और विशेष संग्रहभेदक। तहां सामान्य संग्रहभेदक तो ऐसा है जैसे कि ‘द्रव्य जीव व अजीव के भेद से दो प्रकार का है’। और विशेषसंग्रहभेदक ऐसा है जैसे कि ‘जीव संसारी व मुक्त के भेद से दो प्रकार का है’। (सामान्य संग्रहनय के विषय का भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक और विशेष संग्रहनय का भेद करने वाला विशेषसंग्रहभेदक व्यवहार है।)
न.च./श्रुत/14 अनेन सामान्यसंग्रहनयेन स्वीकृतसत्तासामान्यरूपार्थ भित्त्वा जीवपुद्गलादिकथनं, सेनाशब्देन स्वीकृतार्थं भित्त्वा हस्त्यश्वरथपदातिकथनं ...इति सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। विशेषसंग्रहनयेन स्वीकृतार्थान् जीवपुद्गलनिचयान् भित्त्वा देवनारकादिकथनं, घटपटादिकथनम् । हस्त्यश्वरथपदातीन् भित्वा भद्रगज-जात्यश्व-महारथ-शतभटसहस्रभटादिकथनं ...इत्याद्यनेकविषयान् भित्त्वा कथनं विशेषसंग्रहभेदकव्यवहारनयो भवति। =सामान्य संग्रहनय के द्वारा स्वीकृत सत्ता सामान्यरूप अर्थ का भेद करके जीव पुद्गलादि कहना अथवा सेना शब्द का भेद करके हाथी, घोड़ा, रथ, पियादे कहना, ऐसा सामान्य संग्रहभेदक व्यवहार होता है। और विशेषसंग्रहनय द्वारा स्वीकृत जीव व पुद्गलसमूह का भेद करके देवनारकादि तथा घट पट आदि कहना, अथवा हाथी, घोड़ा, पदातिका भेद करके भद्र हाथी, जातिवाला घोड़ा, महारथ, शतभट, सहस्रभट आदि कहना, इत्यादि अनेक विषयों को भेद करके कहना विशेषसंग्रहभेदक व्यवहारनय है।
- <a name="V.4.4.1" id="V.4.4.1"></a>पृथक्त्व व एकत्व व्यवहार
- व्यवहार-नयाभास का लक्षण
श्लो.वा.4/1/33/श्लो./60/244 कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् । प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ।60। =द्रव्य और पर्यायों के आरोपित किये गये कल्पित विभागों को जो वास्तविक मान लेता है वह प्रमाणबाधित होने से व्यवहारनयाभास है। (स्या.म. के अनुसार जैसे चार्वाक दर्शन)। (स्या.म./28/317/15 में प्रमाणतत्त्वालोकालंकार/7/1-53 से उद्धृत)
- व्यवहार नय अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है
श्लो.वा.2/1/7/28/585/1 व्यवहारनयोऽशुद्धद्रव्यार्थिक:। =व्यवहारनय अशुद्धद्रव्यार्थिकनय है।
ध.9/4,1,45/171/3 पर्यायकलङ्कितया अशुद्धद्रव्यार्थिक: व्यवहारनय:।=व्यवहारनय पर्याय (भेद) रूप कलंक से युक्त होने से अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। (क.पा.1/13-14/182/219/2); (प्र.सा./त.प्र./189)।
(और भी दे0/नय/IV/2/4)।
- पर्यायार्थिक नय भी कथंचित् व्यवहार है
गो.जी./मू./272/1016 ववहारो य वियप्पो भेदो तह पज्जओत्तिएयट्ठो।=व्यवहार, विकल्प, भेद व पर्याय ये एकार्थवाची शब्द हैं।
पं.ध./पू./521 पर्यायार्थिकनय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।=पर्यायार्थिक और व्यवहार ये दोनों एकार्थवाची हैं, क्योंकि सब ही व्यवहार केवल उपचाररूप होता है।
स.सा./पं.जयचन्द/6 परसंयोगजनित भेद सब भेदरूप अशुद्धद्रव्यार्थिक नय के विषय हैं। शुद्ध (अभेद) द्रव्य की दृष्टि में यह भी पर्यायार्थिक ही है। इसलिए व्यवहार नय ही है ऐसा आशय जानना। (स.सा./पं.जयचन्द/12/क.4)
देखें नय - V.2.4 (अशुद्धनिश्चय भी वास्तव में व्यवहार है।)
- <a name="V.4.8" id="V.4.8"></a>उपनय निर्देश
- उपनय का लक्षण व इसके भेद
आ.प./5 नयानां समीपा: उपनया:। सद्भूतव्यवहार: असद्भूतव्यवहार उपचरितासद्भूतव्यवहारश्चेत्युपनयस्त्रेधा। =जो नयों के समीप हों अर्थात् नय की भांति ही ज्ञाता के अभिप्राय स्वरूप हों उन्हें उपनय कहते हैं, और वह उपनय, सद्भूत, असद्भूत व उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है।
न.च./श्रुत/187-188 उवणयभेया वि पभणामो।187। सब्भूदमसब्भूदं उपचरियं चेव दुविहं सब्भूवं। तिविहं पि असब्भूवं उवयरियं जाण तिविहं पि।188।=उपनय के भेद कहते हैं। वह सद्भूत, असद्भूत और उपचरित असद्भूत के भेद से तीन प्रकार का है। उनमें भी सद्भूत दो प्रकार का है–शुद्ध व अशुद्ध–देखें आगे नय - V.5); असद्भूत व उपचरित असद्भूत दोनों ही तीन-तीन प्रकार के है–(स्वजाति, विजाति और स्वजाति-विजाति।–देखें उपचार - 1.2), (न.च./श्रुत/पृ.22)।
- <a name="V.4.8.2" id="V.4.8.2"></a>उपनय भी व्यवहार नय है
न.च./श्रुत/29/17 उपनयोपजनितो व्यवहार:। प्रमाणनयनिक्षेपात्मक: भेदोपचाराभ्यां वस्तु व्यवहरतीति व्यवहार:। कथमुपनयस्तस्य जनक इति चेत्, सद्भूतो भेदोत्पादकत्वात् असद्भूतस्तूपचारोत्पादकत्वात् । =उपनय से व्यवहारनय उत्पन्न होता है। और प्रमाणनय व निक्षेपात्मक वस्तु का भेद व उपचार द्वारा भेद व अभेद करने को व्यवहार कहते हैं। प्रश्न–व्यवहार नय उपनय से कैसे उत्पन्न होता है? उत्तर–क्योंकि सद्भूतरूप उपनय तो अभेदरूप वस्तु में भेद उत्पन्न करता है और असद्भूत रूप उपनय भिन्न वस्तुओं में अभेद का उपचार करता है।
- उपनय का लक्षण व इसके भेद
- सद्भूत व्यवहारनय सामान्य निर्देश
- लक्षण व उदाहरण
आ.प./10 एकवस्तुविषयसद्भूतव्यवहार:। =एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहार है। (न.च./श्रुत/25)।
न.च.वृ./220 गुणगुणिपज्जायदव्वे कारकसब्भावदो य दव्वेसु। तो णाऊणं भेयं कुणयं सब्भूयसद्धियरो।220।=गुण व गुणी में अथवा पर्याय व द्रव्य में कर्ता कर्म करण व सम्बन्ध आदि कारकों का कथंचित् सद्भाव होता है। उसे जानकर जो द्रव्यों में भेद करता है वह सद्भूत व्यवहारनय है।(न.च.वृ./46)।
न.च.वृ./221 दव्वाणां खु पएसा बहुआ ववहारदो य एक्केण। णण्णं य णिच्छयदो भणिया कायत्थ खलु हवे जुत्ती।=व्यवहार अर्थात् सद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यों के बहुत प्रदेश हैं। और निश्चयनय से वही द्रव्य अनन्य है। (न.च.वृ./222)।
और भी देखें नय - V.4.1,2 में (गुणगुणी भेदकारी व्यवहार नय सामान्य के लक्षण व उदाहरण)।
- कारण व प्रयोजन
पं.ध./पू./525-528 सद्भूतस्तद्गुण इति व्यवहारस्तत्प्रवृत्तिमात्रत्वात् ।525। अस्यावगमे फलमिति तदितरवस्तुनि निषेधबुद्धि: स्यात् । इतरविभिन्नो नय इति भेदाभिव्यञ्जको न नय:।527। अस्तमितसर्वसंकरदोषं क्षतसर्वशून्यदोषं वा। अणुरिव वस्तुसमस्तं ज्ञानं भवतीत्यनन्यशरणमिदम् ।528। =विवक्षित उस वस्तु के गुणों का नाम सद्भूत है और उन गुणों की उस वस्तु में भेदरूप प्रवृत्तिमात्र का नाम व्यवहार है।525। इस नय का प्रयोजन यह है कि इसके अनुसार ज्ञान होने पर इतर वस्तुओं में निषेध बुद्धि हो जाती है, क्योंकि विकल्पवश दूसरे से भिन्न होना नय है। नय कुछ भेद का अभिव्यंजक नहीं है।527। सम्पूर्ण संकर व शून्य दोषों से रहित यह वस्तु इस नय के कारण ही अनन्य शरण सिद्ध होती है। क्योंकि इससे ऐसा ही ज्ञान होता है।528।
- <a name="V.5.1.3" id="V.5.1.3"></a>व्यवहार सामान्य व सद्भूत व्यवहार में अन्तर
पं.ध./पू./523/526 साधारणगुण इति वा यदि वासाधारण: सतस्तस्य। भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयान् ।523। अत्र निदानं च यथा सदसाधारणगुणो विवक्ष्य: स्यात् । अविवक्षितोऽथवापि च सत्साधारणगुणो न चान्यतरात् ।526।=सत् के साधारण व असाधारण इन दोनों प्रकार के गुणों में से किसी की भी विवक्षा होने पर व्यवहारनय श्रेय होता है।523। और सद्भूत व्यवहारनय में सत् के साधारण व असाधारण गुणों में परस्पर मुख्य गौण विवक्षा होती है। मुख्य गौण विवक्षा को छोड़कर इस नय की प्रवृत्ति नहीं होती।526।
- सद्भूत व्यवहानय के भेद
आ.प./10 तत्र सद्भूतव्यवहारो द्विविध:–उपचरितानुपचरितभेदात् ।=सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार का है–उपचरित व अनुपचरित। (न.च./श्रुत/पृ.25); (पं.ध./पू./534)।
आ.प./5 सद्भूतव्यवहारो द्विधा–शुद्धसद्भूतव्यवहारो...अशुद्धसद्भूतव्यवहारो। =सद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार की है–शुद्ध सद्भूत और अशुद्ध सद्भूत। (न.च./श्रुत/21)।
- लक्षण व उदाहरण
- अनुपचरित या शुद्धसद्भूत निर्देश
- क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आ.प./10 निरुपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषयोऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य केवलज्ञानादयो गुणा:। =निरुपाधि गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–केवलज्ञानादि जीव के गुण है। (न.च./श्रुत/25)।
आ.प./5 शुद्धसद्भूतव्यवहारो यथा–शुद्धगुणशुद्धगुणिनो, शुद्धपर्यायशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् ।=शुद्धगुण व शुद्धगुणी में अथवा शुद्धपर्याय व शुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय है (न.च./श्रुत/21)।
नि.सा./ता.वृ./13, अन्या कार्यदृष्टि:...क्षायिकजीवस्य सकलविमलकेवलावबोधबुद्धभुवनत्रयस्य ... साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मकस्य ...तीर्थंकरपरमदेवस्य केवलज्ञानादियमपि युगपल्लोकालोकव्यापिनी। =दूसरी कार्य शुद्धदृष्टि...क्षायिक जीव को जिसने कि सकल विमल केवलज्ञान द्वारा तीनभुवन को जाना है, जो सादि अनिधन अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्धसद्भूत व्यवहार नयात्मक है, ऐसे तीर्थंकर परमदेव को केवलज्ञान की भांति यह भी युगपत् लोकालोक में व्याप्त होने वाली है। (नि.सा./ता.वृ./43)।
नि.सा./ता.वृ./9 शुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानादि शुद्धगुणानामाधारभूतत्वात्कार्यशुद्धजीव:।=शुद्धसद्भूत व्यवहार से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधार होने के कारण ‘कार्यशुद्ध जीव’ है। (प्र.सा./ता.वृ./परि/368/14)।
- पारिणामिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
नि.सा./ता.वृ./28 परमाणुपर्याय: पुद्गलस्य शुद्धपर्याय: परमपारिणामिकभावलक्षण: वस्तुगतषट्प्रकारहानिवृद्धिरूप: अतिसूक्ष्म: अर्थपर्यायात्मक: सादिसनिधनोऽपि परद्रव्यनिरपेक्षत्वाच्छुद्धसद्भूतव्यवहारनयात्मक:। =परमाणुपर्याय पुद्गल की शुद्ध पर्याय है। जो कि परमपारिणामिकभाव स्वरूप है, वस्तु में होने वाली छह प्रकार की हानिवृद्धि रूप है, अति सूक्ष्म है, अर्थ पर्यायात्मक है, और सादि सान्त होने पर भी परद्रव्य से निरपेक्ष होने के कारण शुद्धसद्भूत व्यवहारनयात्मक है।
पं.ध./535-536 स्यादादिमो यथान्तर्लीना या शक्तिरस्ति यस्य सत:। तत्तत्सामान्यतया निरूप्यते चेद्विशेषनिरपेक्षम् ।535। इदमत्रोदाहरणं ज्ञानं जीवोपजीवि जीवगुण:। ज्ञेयालम्बनकाले न तथा ज्ञेयोपजीवि स्यात् ।536।=जिस पदार्थ की जो अन्तर्लीन (त्रिकाली) शक्ति है, उसके सामान्यपने से यदि उस पदार्थ विशेष की अपेक्षा न करके निरूपण किया जाता है तो वह अनुपचरित–सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है।535। जैसे कि ज्ञान जीव का जीवोपजीवी गुण है। घट पट आदि ज्ञेयों के अवलम्बन काल में भी वह ज्ञेयोपजीवी नहीं हो जाता। (अर्थात् ज्ञान को ज्ञान कहना ही इस नय को स्वीकार है, घटज्ञान कहना नहीं।536।
- अनुपचरित व शुद्ध सद्भूत की एकार्थता
द्र.सं./टी./6/18/5 केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धसद्भूतशब्दवाच्योऽनुपचरितसद्भूतव्यवहार:। =यहां जीव का लक्षण कहते समय केवलज्ञान व केवलदर्शन के प्रति शुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य अनुपचरित सद्भूत व्यवहार है।
- इस नय के कारण व प्रयोजन
पं.ध./पू./539 फलमास्तिक्यनिदानं सद्द्रव्ये वास्तवप्रतीति: स्यात् । भवति क्षणिकादिमते परमोपेक्षा यतो विनायासात् ।=सत्रूप द्रव्य में आस्तिक्य पूर्वक यथार्थ प्रतीति का होना ही इस नय का फल है, क्योंकि इस नय के द्वारा, बिना किसी परिश्रम के क्षणिकादि मतों में उपेक्षा हो जाती है।
- क्षायिक शुद्ध की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- उपचरित या अशुद्ध सद्भूत निर्देश
- <a name="V.5.3.1" id="V.5.3.1"></a>क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आ.प./5 अशुद्धसद्भूतव्यवहारो यथाशुद्धगुणाशुद्धगुणिनोरशुद्धपर्यायाशुद्धपर्यायिणोर्भेदकथनम् । =अशुद्धगुण व अशुद्धगुणी में अथवा अशुद्धपर्याय व अशुद्धपर्यायी में भेद का कथन करना अशुद्धसद्भूत व्यवहार नय है (न.च./श्रुत/21)।
आ.प./10 सोपाधिगुणगुणिनोर्भेदविषय उपचरितसद्भूतव्यवहारो यथा–जीवस्य मतिज्ञानादयो गुणा:। =उपाधिसहित गुण व गुणी में भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–मतिज्ञानादि जीव के गुण है।(न.च./श्रुत/25)।
नि.सा./ता.वृ./9 अशुद्धसद्भूतव्यवहारेण मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतत्वादशुद्धजीव:। =अशुद्धसद्भूत व्यवहार से मतिज्ञानादि विभावगुणों का आधार होने के कारण ‘अशुद्ध जीव’ है। (प्र.सा./ता.वृ./परि./369/1)
- पारिणामिक भाव में उपचार करने की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
पं.ध./पू./540/541 उपचरितो सद्भूतो व्यवहार: स्यान्नयो यथा नाम। अविरुद्धं हेतुवशात्परतोऽप्युपचर्यते यत: स्व गुण:।540। अर्थविकल्पो ज्ञानं प्रमाणमिति लक्ष्यतेऽधुनापि यथा। अर्थ: स्वपरनिकायो भवति विकल्पस्तु चित्तदाकारम् ।541।=किसी हेतु के वश से अपने गुण का भी अविरोधपूर्वक दूसरे में उपचार किया जाये, तहां उपचरित सद्भूत व्यवहारनय होता है।540। जैसे–अर्थविकल्पात्मक ज्ञान को प्रमाण कहना। यहां पर स्व व पर के समुदाय को अर्थ तथा ज्ञान के उस स्व व पर में व्यवसाय को विकल्प कहते हैं। (अर्थात् ज्ञान गुण तो वास्तव में निर्विकल्प तेजमात्र है, फिर भी यहां बाह्य अर्थों का अवलम्बन लेकर उसे अर्थ विकल्पात्मक कहना उपचार है, परमार्थ नहीं।541।
- उपचरित व अशुद्ध सद्भूत की एकार्थता
द्र.सं./टी./6/18/6 छद्मस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूतशब्दवाच्य उपचरितासद्भूतव्यवहार:। =छद्मस्थ जीव के ज्ञानदर्शन की अपेक्षा से अशुद्धसद्भूत शब्द से वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है।
- इस नय के कारण व प्रयोजन
पं.ध./पू./544-545 हेतु: स्वरूपसिद्धिं विना न परसिद्धिरप्रमाणत्वात् । तदपि च शक्तिविशेषाद्द्रव्यविशेषे यथा प्रमाणं स्यात् ।544। अर्थो ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषभ्रमक्षयो यदि वा। अविनाभावात् साध्यं सामान्यं साधको विशेष: स्यात् ।545।=स्वरूप सिद्धि के बिना पर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि वह स्व निरपेक्ष पर अप्रमाणभूत है। तथा प्रमाण स्वयं भी स्वपर व्यवसायात्मक शक्तिविशेष के कारण द्रव्य विशेष के विषय में प्रवृत्त होता है, यही इस नय की प्रवृत्ति में हेतु है।544। ज्ञेय ज्ञायक भाव द्वारा सम्भव संकरदोष के भ्रम को दूर करना, तथा अविनाभावरूप से स्थित वस्तु के सामान्य व विशेष अंशों में परस्पर साध्य साधकपने की सिद्धि करना इसका प्रयोजन है।545।
- <a name="V.5.3.1" id="V.5.3.1"></a>क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- <a name="V.5.4" id="V.5.4"></a>असद्भूत व्यवहार सामान्य निर्देश
- लक्षण व उदाहरण
आ.प./10 भिन्नवस्तुविषयोऽसद्भूतव्यवहार:। =भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूत व्यवहारनय है। (न.च./श्रुत/25); (और भी देखें नय - V.4.1 व 2)
न.च.वृ./223-225 अण्णेसिं अण्णगुणो भणइ असब्भूद तिविह ते दोवि। सज्जाइ इयर मिस्सो णायव्वो तिविहभेयजुदो।223।=अन्य द्रव्य के अन्य गुण कहना असद्भूत व्यवहारनय है। वह तीन प्रकार का है–स्वजाति, विजाति, और मिश्र। ये तीनों भी द्रव्य गुण व पर्याय में परस्पर उपचार होने से तीन तीन प्रकार के हो जाते हैं। (विशेष देखें उपचार - 5)।
न.च.वृ./113,320 मण वयण काय इंदिय आणप्पाणउगं च जं जीवे। तमसब्भूओ भणदि हु ववहारो लोयमज्झम्मि।113। णेयं खु जत्थ णाणं सद्धेयं जं दंसणं भणियं। चरियं खलु चारित्तं णायव्वं तं असब्भूवं।320।=मन, वचन, काय, इन्द्रिय, आनप्राण और आयु ये जो दश प्रकार के प्राण जीव के हैं, ऐसा असद्भूत व्यवहारनय कहता है।113। ज्ञेय को ज्ञान कहना जैसे घटज्ञान, श्रद्धेय को दर्शन कहना, जैसे देव गुरु शास्त्र की श्रद्धा सम्यग्दर्शन है, आचरण करने योग्य को चारित्र कहते हैं जैसे हिंसा आदि का त्याग चारित्र है; यह सब कथन असद्भूतव्यवहार जानना चाहिए।320।
आ.प./8 असद्भूतव्यवहारेण कर्मनोकर्मणोरपि चेतनस्वभाव:।...जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेण मूर्त्तस्वभाव: ...असद्भूतव्यवहारेणाप्युपचारेणामूर्तत्वं। ...असद्भूतव्यवहारेण उपचरितस्वभाव:। =असद्भूत व्यवहार से कर्म व नोकर्म भी चेतनस्वभावी है, जीव का भी मूर्त स्वभाव है, और पुद्गल का स्वभाव अमूर्त व उपचरित है।
पं.का./ता.वृ./1/4/21 नमो जिनेभ्य: इति वचनात्मकद्रव्यनमस्कारोऽप्यसद्भूतव्यवहारनयेन।= ‘जिनेन्द्रभगवान् को नमस्कार हो ऐसा वचनात्मक द्रव्य नमस्कार भी असद्भूतव्यवहारनय से होता है।
प्र.सा./ता.वृ./189/253/11 द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुङ्क्ते चेत्यशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो भण्यते।=आत्मा द्रव्यकर्म को करता है और उनको भोगता है, ऐसा जो अशुद्ध द्रव्य का निरूपण, उस रूप असद्भूत व्यवहारनय कहा जाता है। (विशेष देखें आगे उपचरित व अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय के उदाहरण )
पं.ध./पू./529-530 अपि चासद्भूतादिव्यवहारान्तो नयश्च भवति यथा। अन्यद्रव्यस्य गुणा: संजायन्ते बलात्तदन्यत्र।529। स यथा वर्णादिमतो मूर्तद्रव्यस्य कर्म किल मूर्तम् । सत्संयोगत्वादिह मूर्ता: क्रोधादयोऽपि जीवभवा:।530।=जिसके कारण अन्य द्रव्य के गुण बलपूर्वक अर्थात् उपचार से अन्य द्रव्य के कहे जाते हैं, वह असद्भूत व्यवहारनय है।529। जैसे कि वर्णादिमान मूर्तद्रव्य के जो मूर्तकर्म हैं, उनके संयोग को देखकर, जीव में उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव भी मूर्त कह दिये जाते हैं।530।
- इस नय के कारण व प्रयोजन
पं.ध./पू./531-532 कारणमन्तर्लीना द्रव्यस्य विभावभावशक्ति: स्यात् । सा भवति सहज-सिद्धा केवलमिह जीवपुद्गलयो:।531। फलमागन्तुकभावादुपाधिमात्रं विहाय यावदिह। शेषस्तच्छुद्धगुण: स्यादिति मत्वा सुदृष्टिरिह कश्चित् ।532।=इस नय में कारण वह वैभाविकी शक्ति है, जो जीव पुद्गलद्रव्य में अन्तर्लीन रहती है (और जिसके कारण वे परस्पर में बन्ध को प्राप्त होते हुए संयोगी द्रव्यों का निर्माण करते हैं।)।531। और इस नय को मानने का फल यह है कि क्रोधादि विकारी भावों को पर का जानकर, उपाधि मात्र को छोड़कर, शेष जीव के शुद्धगुणों को स्वीकार करता हुआ कोई जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है।532। (और भी देखें उपचार - 4.6)
- <a name="V.5.4.3" id="V.5.4.3"></a>असद्भूत व्यवहारनय के भेद
आ.प./10 असद्भूतव्यवहारो द्विविध: उपचरितानुपचरितभेदात् ।=असद्भूत व्यवहारनय दो प्रकार है–उपचरित असद्भूत और अनुपचरित असद्भूत। (न.च./श्रुत/25); (पं.ध./पू./534)।
देखें उपचार –(असद्भूत नाम के उपनय के स्वजाति, विजाति आदि 27 भेद)
- लक्षण व उदाहरण
- अनुपचरित असद्भूत निर्देश
- <a name="V.5.5.1" id="V.5.5.1"></a>भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आ.प./10 संश्लेषसहितवस्तुसंबन्धविषयोऽनुपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा जीवस्य शरीरमिति।=संश्लेष सहित वस्तुओं के सम्बन्ध को विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय है। जैसे–‘जीव का शरीर है’ ऐसा कहना। (न.च./श्रुत/पृ.26)
नि.सा./ता.वृ./18 आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदु:खानां भोक्ता च...अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता।=आत्मा निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्यकर्मों का कर्ता और उसके फलरूप सुखदु:ख का भोक्ता है तथा नोकम अर्थात् शरीर का भी कर्ता है। (स.सा./ता.वृ./22 की प्रक्षेपक गाथा की टीका/49/21); (पं.का./ता.वृ./27/60/21); (द्र.सं./टी./8/21/4; 9/23/4)।
पं.का./ता.वृ./27/60/15 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यप्राणैश्च यथासंभवं जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवो।=अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यथा सम्भव द्रव्यप्राणों के द्वारा जीता है, जीवेगा, और पहले जीता था, इसलिए आत्मा जीव कहलाता है। (द्र.सं./टी./3/11/5); (न.च.वृ./113)
पं.का./ता.वृ./58/109/14 जीवस्यौदयिकादिभावचतुष्टयमनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मकृतमिति। =जीव के औदयिक आदि चार भाव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कर्मकृत हैं।
प्र.सा./ता.वृ./परि./369/11 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन द्वयगुणकादिस्कन्धसंश्लेषसंबन्धस्थितपरमाणुवदौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा विविक्षितैकदेहस्थितम् । =अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से, द्वि अणुक आदि स्कन्धों में संश्लेषसम्बन्धरूप से स्थित परमाणु की भांति अथवा वीतराग सर्वज्ञ की भांति, यह आत्मा औदारिक आदि शरीरों में से किसी एक विवक्षित शरीर में स्थित है। (प.प्र./टी./1/29/33/1)।
द्र.सं./टी./7/20/1 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारान्मूर्त्तो।=अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह जीव मूर्त है। (पं.का./ता.वृ./27/57/3)।
पं.प्र./टी./7/13/2 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारसंबन्ध: द्रव्यकर्मनोकर्मरहितम् ।
पं.प्र./टी./1/1/6/8 द्रव्यकर्मदहनमनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन।
पं.प्र./टी./1/14/21/17 अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन देहादभिन्नं। =अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से जीव द्रव्यकर्म व नोकर्म से रहित है, द्रव्यकर्मों का दहन करने वाला है, देह से अभिन्न है।
और भी देखो नय/V/4/2/3–(व्यवहार सामान्य के उदाहरण)।
- विभाव भाव की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
पं.ध./पू./546 अपि वासद्भूतो योऽनुपचरिताख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या जीवस्य हि विवक्षिताश्चेदबुद्धिभवा:। =अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय, अबुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादिक विभावभावों को जीव कहता है।
- इस नय का कारण व प्रयोजन
पं.ध./पू./547-548 कारणमिह यस्य सतो या शक्ति: स्याद्विभावभावमयी। उपयोगदशाविष्टा सा शक्ति: स्यात्तदाप्यनन्यमयी।547। फलमागन्तुकभावा: स्वपरनिमित्ता भवन्ति यावन्त:। क्षणिकत्वान्नादेया इति बुद्धि: स्यादनात्मधर्मत्वात् ।548।=इस नय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उपयोगात्मक दशा में जीव की वैभाविक शक्ति उसके साथ अनन्यमयरूप से प्रतीत होती है।547। और इसका फल यह है कि क्षणिक होने के कारण स्व-परनिमित्तक सर्व ही आगन्तुक भावों में जीव की हेय बुद्धि हो जाती है।548।
- <a name="V.5.5.1" id="V.5.5.1"></a>भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- <a name="V.5.6" id="V.5.6"></a>उपचरित असद्भूत व्यवहार निर्देश
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
आ.प./10 संश्लेषरहितवस्तुसंबन्धविषय उपचरितासद्भूतव्यवहारो यथा–देवदत्तस्य धनमिति। =संश्लेष रहित वस्तुओं के सम्बन्ध को विषय करने वाला उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे–देवदत्त का धन ऐसा कहना। (न.च./श्रुत/25)।
आ.प./5 असद्भूतव्यवहार एवोपचार:। उपचारादप्युपचारं य: करोति स उपचरितासद्भूतव्यवहार:। =असद्भूत व्यवहार ही उपचार है। उपचार का भी जो उपचार करता है वह उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। (न.च./श्रुत/29) (विशेष देखें उपचार )।
नि.सा./ता.वृ./18/उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से आत्मा घट, पट, रथ आदि का कर्ता है। (द्र.सं./टी./8/21/5)।
प्र.सा./ता.वृ./परि./369/13 उपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन काष्ठासनाद्युपविष्टदेवदत्तवत्समवशरणस्थितवीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितैकग्रामगृहादिस्थिम् ।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से यह आत्मा, काष्ठ, आसन आदि पर बैठे हुए देवदत्त की भांति, अथवा समवशरण में स्थित वीतराग सर्वज्ञ की भांति, विवक्षित किसी एक ग्राम या घर आदि में स्थित है।
द्र.सं./टी./19/57/10 उपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यते।
द्र.सं./टी./9/23/3 उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टानिष्टपञ्चेन्द्रियविषयजनितसुखदु:ख भुङ्क्ते।
द्र.सं./टी./45/196/11 योऽसौ बहिर्विषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्याग: स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण। =उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से सिद्ध जीव मोक्षशिला पर तिष्ठते हैं। जीव इष्टानिष्ट पंचेन्द्रियों के विषयों से उत्पन्न सुखदुख को भोगता है। बाह्यविषयों–पंचेन्द्रिय के विषयों का त्याग कहना भी उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से है।
- विभाव भावों की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
पं.ध./पू./549 उपचरितोऽसद्भूतो व्यवहाराख्यो नय: स भवति यथा। क्रोधाद्या: औदयिकाश्चेदबुद्धिजा विवक्ष्या: स्यु:।549।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बुद्धिपूर्वक होने वाले क्रोधादि विभावभाव भी जीव के कहे जाते हैं।
- इस नय का कारण व प्रयोजन
पं.ध./पू./550-551 बीजं विभावभावा: स्वपरोभयहेतवस्तथा नियमात् । सत्यपि शक्तिविशेषे न परनिमित्ताद्विना भवन्ति यत:।550। तत्फलभविनाभावात्साध्यं तदबुद्धिपूर्वका भावा:। तत्सत्तामात्रं प्रति साधनमिह बुद्धिपूर्वका भावा:।551।=उपचरित असद्भूत व्यवहारनय की प्रवृत्ति में कारण यह है कि उक्त क्रोधादिकरूप विभावभाव नियम से स्व व पर दोनों के निमित्त से होते हैं; क्योंकि शक्तिविशेष के रहने पर भी वे बिना निमित्त के नहीं हो सकते।550। और इस नय का फल यह है कि बुद्धिपूर्वक के क्रोधादि भावों के साधन से अबुद्धिपूर्वक के क्रोधादिभावों की सत्ता भी साध्य हो जाती है, अर्थात् सिद्ध हो जाती है।
- भिन्न द्रव्यों में अभेद की अपेक्षा लक्षण व उदाहरण
- व्यवहारनय असत्यार्थ है तथा इसका हेतु
स.सा./मू./11 ववहारोऽभूयत्थो।=व्यवहारनय अभूतार्थ है। (न.च./श्रुत/30)।
आप्त.मी./49 संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।49। =संवृत्ति अर्थात् व्यवहार प्रवृत्तिरूप उपचार मिथ्या है। क्योंकि यह परमार्थ से विपरीत है।
ध.1/1,1,37/263/8 अथवा नेदं व्याख्यानं समीचीनं। =(द्रव्येन्द्रियों के सद्भाव की अपेक्षा केवली को पंचेन्द्रिय कहने रूप व्यवहारनय के) उक्त व्याख्यान को ठीक नहीं समझना।
न.च./श्रुत/29-30 योऽसौ भेदोपचारलक्षणोऽर्थ: सोऽपरमार्थ:। अभेदानुपचारस्यार्थस्यापरमार्थत्वात् । व्यवहारोऽपरमार्थप्रतिपादकत्वादभूतार्थ:।=जो यह भेद और उपचार लक्षण वाला पदार्थ है, सो अपरमार्थ है; क्योंकि, अभेद व अनुपचाररूप पदार्थ को ही परमार्थपना है। व्यवहार नय उस अपरमार्थ पदार्थ का प्रतिपादक होने से अभूतार्थ है। (पं.ध./पू./522)।
पं.ध./पू./631,635 ननु च व्यवहारनयो भवति स सर्वोऽपि कथमभूतार्थ:। गुणपर्ययवद्द्रव्यं यथोपदेशात्तथानुभूतेश्च।631। तदसत् गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योग:। केवलमद्वैतं सद् भवतु गुणो वा तदेव सद्द्रव्यम् ।635। =प्रश्न–सब ही व्यवहारनय को अभूतार्थ क्यों कहते हो, क्योंकि द्रव्य जैसे व्यवहारोपदेश से गुणपर्याय वाला कहा जाता है, वैसा ही अनुभव से ही गुणपर्याय वाला प्रतीत होता है?।631। उत्तर–निश्चय करके वह ‘सत्’ न गुण, न द्रव्य है, न उभय है और न उन दोनों का योग है किन्तु केवल अद्वैत सत् है। उसी सत् को चाहे गुण मान लो अथवा द्रव्य मान लो, परन्तु वह भिन्न नहीं है।635।
पं.का./पं.हेमराज/45 लोक व्यवहार से कुछ वस्तु का स्वरूप सधता नहीं।
मो.मा.प्र./7/369/8 व्यवहारनय स्वद्रव्य परद्रव्यकौं वा तिनके भावनिकौं वा कारणकार्यादिककौं काहूकौ काहूविषै मिलाय निरूपण करै है। सो ऐसे श्रद्धानतै मिथ्यात्व है। तातै याका त्याग करना।
मो.मा.प्र./7/407/2 करणानुयोगविषै भी कहीं उपदेश की मुख्यता लिये उपदेश हो है, ताकौ सर्वथा तैसै ही न मानना।
- व्यवहारनय उपचार मात्र है
स.सा./मू./15 जीवम्हि हेदुभूदबंधस्स दु पस्सिदूण परिणायं। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण। =जीव को निमित्तरूप होने से कर्मबन्ध का परिणाम होता है। उसे देखकर, ‘जीव ने कर्म किये हैं’ वह उपचार मात्र से कहा जाता है। (स.सा./आ./107)।
स्या.म./28/312/8 पर उद्धृत–‘‘तथा च वाचकमुख्य:’’ लौकिक समउपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार:। =वाचकमुख श्री उमास्वामी ने (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य/1/3,5 में) कहा है, कि लोक व्यवहार के अनुसार तथा उपचारप्राय विस्तृत व्याख्यान को उपचार कहते हैं।
न.दी./1/14/12 चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचार: शरणम् ।=‘आंखों से जानते हैं’ इत्यादि व्यवहार तो उपचार से प्रवृत्त होता है।
पं.ध./उ./521 पर्यायार्थिक नय इति वा व्यवहार एव नामेति। एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचारमात्र: स्यात् ।521। =पर्यायार्थिक नय और व्यवहारनय दोनों ही एकार्थवाची हैं, क्योंकि सकल व्यवहार उपचार मात्र होता है।
पं.ध./उ./113 तत्राद्वैतेऽपि यद्द्वैतं तद्द्विधाप्यौपचारिकम् । तत्राद्यं स्वांशसंकल्पश्चेत्सोपाधि द्वितीयकम् ।=अद्वैत में दो प्रकार से द्वैत किया जाता है–पहिला तो अभेद द्रव्य में गुण गुणी रूप अंश या भेद कल्पना के द्वारा तथा दूसरा सोपाधिक अर्थात् भिन्न द्रव्यों में अभेदरूप। ये दोनों ही द्वैत औपचारिक हैं।
और भी देखो उपचार/5 (उपचार कोई पृथक् नय नहीं है। व्यवहार का नाम ही उपचार है)।
मो.मा.प्र./7/366/3 उपचार निरूपण सो व्यवहार। (मो.मा.प्र./7/366/11);
- <a name="V.6.3" id="V.6.3"></a>व्यवहारनय व्यभिचारी है
स.सा./पं.जयचन्द/12/क.6 व्यवहारनय जहां आत्मा को अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शन को अनेक भेदरूप कहता है, वहां व्यभिचार दोष आता है, नियम नहीं रहता।
और भी देखो नय/V/8/2 व्यभिचारी होने के कारण व्यवहारनय निषिद्ध है।
- व्यवहारनय लौकिक रूढ़ि है
स.सा./आ./84 कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोऽस्ति तावद्व्यवहार:।=कुम्हार कलश को बनाता है तथा भोगता है ऐसा लोगों का अनादि से प्रसिद्ध व्यवहार है।
पं.ध./पू./567 अस्ति व्यवहार: किल लोकानामयमलब्धबुद्धित्वात् । योऽयं मनुजादिवपुर्भवति सजीवस्ततोऽप्यनन्यत्वात् । =अलब्धबुद्धि होने के कारण लोगों का यह व्यवहार होता है, कि जो ये मनुष्यादि का शरीर है, वह जीव है। (पं.ध./उ./593)।
और भी देखो नय/V/4/2/7 में स.म–(व्यवहार लोकानुसार प्रवर्तता है)।
- व्यवहारनय अध्यवसान है
स.सा./आ./272 निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बन्धहेतुत्वे मुमुक्षो: प्रतिषेधयता व्यवहानय एव किल प्रतिषिद्ध:, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् ।=बन्ध का हेतु होने के कारण, मुमुक्षु जनों को जो निश्चयनय के द्वारा पराश्रित समस्त अध्यवसान का त्याग करने को कहा गया है, सो उससे वास्तव में व्यवहारनय का ही निषेध कराया है; क्योंकि, (अध्यवसान की भांति) व्यवहारनय के भी पराश्रितता समान ही है।
- व्यवहारनय कथन मात्र है
स.सा./मू./गा. ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरितदंसणं णाणं। णवि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो।7। पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।58। तह...जीवस्स एस वण्णो जिणेहि ववहारदो उत्तो।59। =ज्ञानी के चारित्र है, दर्शन है, ज्ञान है, ऐसा व्यवहार से कहा जाता है। निश्चय से तो न ज्ञान है, न दर्शन है और न चारित्र है।7। मार्ग में जाते हुए पथिक को लुटता देखकर ही व्यवहारी जन ऐसा कहते हैं कि यह मार्ग लुटता है। वास्तव में तो कोई लुटता नहीं है।58। (इसी प्रकार जीव में कर्म नोकर्मों के वर्णादि का संयोग देखकर) जिनेन्द्र भगवान् ने व्यवहारनय से ऐसा कह दिया है कि यह वर्ण (तथा देह के संस्थान आदि) जीव के हैं।59।
स.सा./आ./414 द्विविधं द्रव्यलिङ्गं भवति मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकार:, स केवलं व्यवहार एव न परमार्थ:। =श्रावक व श्रमण के लिंग के भेद से दो प्रकार का मोक्षमार्ग होता है, यह केवल प्ररूपण करने का प्रकार या विधि है। वह केवल व्यवहार ही है, परमार्थ नहीं।
- <a name="V.6.7" id="V.6.7"></a>व्यवहारनय साधकतम नहीं है
प्र.सा./त.प्र./189 निश्चयनय एव साधकतमो न पुनरशुद्धद्योतको व्यवहारनय:।=निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्ध का द्योतन करने वाला व्यवहारनय नहीं।
देखो नय/V/6/1 (व्यवहारनय से परमार्थवस्तु की सिद्धि नहीं होती)।
- व्यवहारनय सिद्धान्त विरुद्ध है तथा नयाभास है
पं.ध./पू./श्लोक नं. ननु चासद्भूतादिर्भवति स यत्रेत्यतद्गुणारोप:। दृष्टान्तादपि च यथा जीवो वर्णादिमानिहास्त्विति चेत् ।552। तन्न यतो न नयास्ते किन्तु नयाभाससंज्ञका: सन्ति। स्वयमप्यतद्गुणत्वादव्यवहाराविशेषतो न्यायात् ।553। सोऽयं व्यवहार: स्यादव्यवहारो यथापसिद्धान्तात् । अप्यपसिद्धान्तत्वं नासिद्धं स्यादनेकधर्मित्वात् ।568। अथ चेद्धटकर्तासौ घटकारो जनपदोक्तिलेशोऽयम् । दुर्वारो भवतु तदा का नो हानिर्यदा नयाभास:।579।=प्रश्न–दूसरी वस्तु के गुणों को दूसरी वस्तु में आरोपित करने को असद्भूत व्यवहारनय कहते हैं (देखें नय - V.5.4-6)। जैसे कि जीव को वर्णादिकमान कहना?।552। उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अतद्गुण होने से, न्यायानुसार अव्यवहार के साथ कोई भी विशेषता न रखने के कारण, वे नय नहीं हैं, किन्तु नयाभास संज्ञक हैं।553। ऐसा व्यवहार क्योंकि सिद्धान्त विरुद्ध है, इसलिए अव्यवहार है। इसका अपसिद्धान्तपना भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि यहां उपरोक्त दृष्टान्त में जीव व शरीर ये दो भिन्न-भिन्न धर्मी हैं पर इन्हें एक कहा जा रहा है।568। प्रश्न–कुम्भकार घड़े का कर्ता है, ऐसा जो लोकव्यवहार है वह दुर्निवार हो जायेगा अर्थात् उसका लोप हो जायेगा ?।579। उत्तर–दुर्निवार होता है तो होओ, इसमें हमारी क्या हानि है; क्योंकि वह लोकव्यवहार तो नयाभास है।(579)।
- व्यवहारनय का विषय सदा गौण होता है
स.सि./5/22/292/4 अध्यारोप्यमाण: कालव्यपदेशस्तद्व्यपदेशनिमित्तस्य कालस्यास्तित्वं गमयति। कुत:; गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् ।=(ओदनपाक काल इत्यादि रूप से) जो काल संज्ञा का अध्यारोप होता है, वह उस संज्ञा के निमित्तभूत मुख्यकाल के अस्तित्व का ज्ञान कराता है; क्योंकि गौण व्यवहार मुख्य की अपेक्षा रखता है।
ध.4/1,5,145/403/3 के वि आइरिया...कज्जे कारणोवयारमवलंविय बादरट्ठिदीए चेय कम्मट्ठिदिसण्णमिच्छंति, तन्न घटते, ‘गौणमुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय’ इति न्यायात् । =कितने ही आचार्य कार्य में कारण का उपचार का अवलम्बन करके बादरस्थिति की ही ‘कर्मस्थिति’ यह संज्ञा मानते हैं; किन्तु यह कथन घटित नहीं होता है; क्योंकि, ‘गौण और मुख्य में विवाद होने पर मुख्य में ही संप्रत्यय होता है’ ऐसा न्याय है।
न.दी./2/12/34 इदं चामुख्यप्रत्यक्षम् उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव मतिज्ञानत्वात् ।=यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य अर्थात् गौण प्रत्यक्ष है; क्योंकि उपचार से ही इसके प्रत्यक्षपने की सिद्धि है। वस्तुत: तो यह परोक्ष ही है; क्योंकि यह मतिज्ञानरूप है। (जिसे इन्द्रिय व बाह्यपदार्थ सापेक्ष होने के कारण परोक्ष कहा गया है।)
न.दी./3/30/75 परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचित्; त एवं प्रष्टव्या:; तत्किं मुख्यानुमानम् । अथ गौणानुमानम् । इति, न तावन्मुख्यानुमानम् वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं तद्वाक्यमिति त्वनुमन्यामहे, तत्कारणे तद्वयपदेशोपपत्तेरायुर्घृतमित्यादिवत् ।=‘(पंचावयव समवेत) परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है’, ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं वह वाक्य मुख्य अनुमान है या कि गौण अनुमान है? मुख्य तो वह हो नहीं सकता; क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि उसे गौण कहते हो तो, हमें स्वीकार है; क्योंकि ज्ञानरूप मुख्य अनुमान के कारण ही उसमें (उपचार या व्यवहार से) यह व्यपदेश हो सकता है। जैसे ‘घी आयु है’ ऐसा व्यपदेश होता है। प्रमाणमीमांसा (सिंघी ग्रन्थमाला कलकत्ता/2/1/2)।
और भी देखें नय - V.9.2.3 (निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण)।
- शुद्ध दृष्टि में व्यवहार को स्थान नहीं
नि.सा./ता.वृ./47/क 71 प्रागेव शुद्धता येषां सुधियां कुधियामपि। नयेन केनाचित्तेषां भिदां कामपि वेद्म्यहम् ।71।=सुबुद्धि हो या कुबुद्धि अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो या मिथ्यादृष्टि, सबमें ही जब शुद्धता पहले ही से विद्यमान है, तब उनमें कुछ भी भेद मैं किस नय से करूं।
- <a name="V.6.11" id="V.6.11"></a>व्यवहारनय का विषय निष्फल है
स.सा./आ./266 यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव। =(मैं पर जीवों को सुखी दुखी करता हूं) इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभाव का पर में व्यापार न होने से स्वार्थक्रियाकारीपन नहीं है, परभाव पर में प्रवेश नहीं करता। जिस प्रकार कि ‘मैं आकश के फूल तोड़ता हूं’ ऐसा कहना मिथ्या है तथा अपने अनर्थ के लिए है, पर का कुछ भी करने वाला नहीं।
पं.ध./उ./993-594 तद्यथा लौकिकी रूढिरस्ति नानाविकल्पसात् । नि:सारैराश्रिता पुम्भिरथानिष्टफलप्रदा।593। अफलानिष्टफला हेतुशून्या योगापहारिणी। दुस्त्याज्या लौकिकी रूढि: कैश्चिद्दुष्कर्मपाकत:।594।=अनेक विकल्पों वाली यह लौकिक रूढि है और वह निस्सार पुरुषों द्वारा आश्रित है तथा अनिष्ट फल को देने वाली है।593। यह लौकिकी रूढि निष्फल है, दुष्फल है, युक्तिरहित है, अन्वर्थ अर्थ से असम्बद्ध है, मिथ्याकर्म के उदय से होती है तथा किन्हीं के द्वारा दुस्त्याज्य है।594। (पं.ध./पू./563)।
- व्यवहारनय का आश्रय मिथ्यात्व है
स.सा./आ./414 ये व्यवहारमेव परमार्थबुद्धया चेतयन्ते ते समयसारमेव न संचेतयन्ते। =जो व्यवहार को ही परमार्थ बुद्धि से अनुभव करते हैं, वे समयसार का ही अनुभव नहीं करते। (पु.सि.उ./6)।
प्र.सा./त.प्र./94 ते खलूच्छलितनिरर्गलैकान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ...मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येण कर्मणा सङ्गतत्वात्परसमया जायन्ते। =वे जिनकी निरर्गल एकान्त दृष्टि उछलती है, ऐसे, ‘यह मैं मनुष्य ही हूं’, ऐसे मनुष्य–व्यवहार का आश्रय करके रागी द्वेषी होते हुए परद्रव्यरूप कर्म के साथ संगतता के कारण वास्तव में परसमय होते हैं।
प्र.सा./त.प्र./190 यो हि नाम शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयनयनिरपेक्षोऽशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयोपजनितमोह: सन् ...परद्रव्ये ममत्वं न जहाति स खलु...उन्मार्गमेव प्रतिपद्यते।=जो आत्मा शुद्ध द्रव्य के निरूपण स्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष रहकर अशुद्ध द्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय से जिसे मोह उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता है वह आत्मा वास्तव में उन्मार्ग का ही आश्रय लेता है।
पं.ध./पू./628 व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च। =स्वयमेव मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला होने के कारण व्यवहारनय निश्चय करके मिथ्या है। तथा इसके अर्थ पर दृष्टि रखने वाला मिथ्यादृष्टि है। इसलिए यह नय हेय है।
देखें कर्ता - 3 (एक द्रव्य को दूसरे का कर्ता कहना मिथ्या है)।
कारक/4 (एक द्रव्य को दूसरे का बताना मिथ्या है)।
कारण/III/2/12 (कार्य को सर्वथा निमित्ताधीन कहना मिथ्या है)।
देखें नय - V.3.3 (निश्चयनय का आश्रय करने वाले ही सम्यग्दृष्टि होते हैं, व्यवहार का आश्रय करने वाले नहीं।)
- व्यवहारनय हेय है
मो.पा./मू./32 इय जाणिऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं।=(जो व्यवहार में जागता है सो आत्मा के कार्य में सोता है। गा.31) ऐसा जानकर योगी व्यवहार को सर्व प्रकार छोड़ता है।32।
प्र.सा./त.प्र./145 प्राणचतुष्काभिसंबन्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति।=इस व्यवहार जीवत्व की कारणरूप जो चार प्राणी की संयुक्तता है, उससे जीव को भिन्न करना चाहिए।
स.सा./आ./11 अत: प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनयो नानुसर्तव्य: ।=अत: कर्मों से भिन्न शुद्धात्मा को देखने वालों को व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।
प्र.सा./ता.वृ./189/253/12 इदं नयद्वयं तावदस्ति। किन्त्वत्र निश्चयनय उपादेय; न चासद्भूतव्यवहार:।=यद्यपि नय दो है, किन्तु यहां निश्चयनय उपादेय है, असद्भूत व्यवहारनय नहीं। (पं.ध./पू./630)।
और भी देखें आगे नय - V.9.2 (दोनों नयों के समन्वय में इस नय का कथंचित् हेयपना)।
और भी देखें आगे नय - V.8 (इस नय को हेय कहने का कारण व प्रयोजन)
- व्यवहारनय सर्वथा निषिद्ध नहीं है
ध.1/1,1,30/230/4 प्रमाणाभावे वचनाभावात: सकलव्यवहारोच्छित्तिप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, वस्तुविषयविधिप्रतिषेधयोरप्यभावप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न, तथानुपलम्भात् । =प्रमाण का अभाव होने पर वचन की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, और उसके बिना सम्पूर्ण लोकव्यवहार के विनाश का प्रसंग आता है। प्रश्न–यदि लोकव्यवहार का विनाश होता हो तो हो जाओ? उत्तर–नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर वस्तु विषयक विधिप्रतिषेध का भी अभाव हो जाता है। प्रश्न–वह भी हो जाओ ? उत्तर–नहीं, क्योंकि वस्तु का विधि प्रतिषेध रूप व्यवहार देखा जाता है। (और भी देखें नय - V.9.3)
स.सा./ता.वृ./356-365/447/15 ननु सौगतोऽपि ब्रूते व्यवहारेण सर्वज्ञ:; तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति। तत्र परिहारमाह-सौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेणापि व्यवहारो न सत्य इति, जैनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति। यदि पुनर्लोकव्यवहाररूपेणापि सत्यो न भवति तर्हि सर्वोऽपि लोकव्यवहारो मिथ्या भवति, तथा सत्यतिप्रसङ्ग:। एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुन: स्वद्रव्यमेवेति। =प्रश्न–सौगत मतवाले (बौद्ध जन) भी सर्वज्ञपना व्यवहार से मानते हैं, तब आप उनको दूषण क्यों देते हैं (क्योंकि, जैन मत में भी परपदार्थों का जानना व्यवहारनय से कहा जाता है)? उत्तर–इसका परिहार करते हैं–सौगत आदि मतों में, जिस प्रकार निश्चय की अपेक्षा व्यवहार झूठ है, उसी प्रकार व्यवहाररूप से भी वह सत्य नहीं है। परन्तु जैन मत में व्यवहारनय यद्यपि निश्चय की अपेक्षा मृषा (झूठ) है, तथापि व्यवहार रूप से वह सत्य है। यदि लोकव्यवहाररूप से भी उसे सत्य न माना जाये तो सभी लोकव्यवहार मिथ्या हो जायेगा; और ऐसा होने पर अतिप्रसंग दोष आयेगा। इसलिए आत्मा व्यवहार से परद्रव्य को जानता देखता है, पर निश्चयनय से केवल आत्मा को ही। (विशेष दे0–केवलज्ञान/6; ज्ञान/I/3/4; दर्शन/2/4)
स.सा./पं.जयचन्द/6 शुद्धता अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं। अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ ही न मानना।...अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से ऐसा तो न समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं; आकाश के फूल की तरह असत् है। ऐसे सर्वथा एकान्त मानने से मिथ्यात्व आता है। (सं.सा./पं.जयचन्द/14)
सं.सा./पं.जयचन्द/12 व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा है; यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो शुभोपयोगरूप व्यवहार छोड़ दे; और चूंकि शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई, इसलिए उलटा अशुभोपयोग में ही आकर भ्रष्ट हुआ। यथा कथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नारकादिगति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा।
- निचली भूमिका में व्यवहार प्रयोजनीय है
स.सा./मू./12 सुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे। =परमभावदर्शियों को (अर्थात् शुद्धात्मध्यानरत पुरुषों को) शुद्धतत्त्व का उपदेश करने वाला शुद्धनय जानना योग्य है। और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं (अर्थात् बाह्य क्रियाओं का अवलम्बन लेने वाले हैं) वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।
स.सा./ता.वृ./12/26/6 व्यवहारदेशितो व्यवहारनय: पुन: अधस्तनवार्णिकसुवर्णलाभवत्प्रयोजनवान् भवति। केषां। ये पुरुषा: पुन: अशुद्धेअसंयतसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिता:, कस्मिन् स्थिता:। जीवपदार्थे तेषामिति भावार्थ:। =व्यवहार का उपदेश करने पर व्यवहारनय प्रथम द्वितीयादि बार पके हुए सुवर्ण की भांति जो पुरुष अशुद्ध अवस्था में स्थित अर्थात् भेदरत्नत्रय लक्षणवाले 1-7 गुणस्थानों में स्थित हैं, उनको व्यवहारनय प्रयोजनवान् है। (मो.मा.प्र./17/372/8)
- <a name="V.7.3" id="V.7.3"></a>मन्दबुद्धियों के लिए उपकारी है
ध.1/1,1,37/263/7 सर्वत्र निश्चयनयमाश्रित्य प्रतिपाद्य अत्र व्यवहारनय: किमित्यवलम्ब्यते इति चेन्नैष दोष:, मन्दमेधसामनुग्रहार्थत्वात् ।=प्रश्न–सब जगह निश्चयनय का आश्रय लेकर वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के पश्चात् फिर यहां पर व्यवहारनय का आलम्बन क्यों लिया जा रहा है? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मन्दबुद्धि शिष्यों के अनुग्रह के लिए उक्त प्रकार से वस्तुस्वरूप का विचार किया है। (ध.4/1,3,55/120/1) (पं.वि./11/8)
ध.12/4,2,8,3/281/2 एवंविहवहारो किमट्ठं कीरदे। सुहेण णाणावरणीयपच्चयपडिबोहणट्ठं कज्जपडिसेहदुवारेण कारणपडिसेहट्ठं च। प्रश्न–इस प्रकार का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? उत्तर–सुखपूर्वक ज्ञानावरणीय के प्रत्ययों का प्रतिबोध कराने के लिए तथा कार्य के प्रतिषेध द्वारा कारण का प्रतिषेध करने के लिए भी उपर्युक्त व्यवहार किया जाता है।
स.सा./आ./7 यतोऽनन्तधर्मण्येकस्मिन् ह्यधर्मिण्यनिष्णातस्यान्तेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभि: कैश्चिद्धर्मैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणो: स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं, ज्ञानं चारित्रमित्युपदेश:। =क्योंकि अनन्त धर्मों वाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं, ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतलाने वाले कितने ही धर्मों के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का–यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहार मात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है। (पु.सि.उ./6), (पं.वि./11/8) (मो.मा.प्र./7/372/15)
- व्यवहार पूर्वक ही निश्चय तत्त्व का ज्ञान सम्भव है
पं.वि./11/11 मुख्योपचारविवृतिं व्यवहारोपायतो यत: सन्त:। ज्ञात्वा श्रयन्ति शुद्धं तत्त्वमिति: व्यवहृति: पूज्या। चूंकि सज्जन पुरुष व्यवहारनय के आश्रय से ही मुख्य और उपचारभूत कथन को जानकर शुद्धस्वरूप का आश्रय लेते हैं, अतएव व्यवहारनय पूज्य है।
स.सा./ता.वृ./9/20/14 व्यवहारेण परमार्थो ज्ञायते।=व्यवहारनय से परमार्थ जाना जाता है।
- <a name="V.7.5" id="V.7.5"></a>व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन शक्य नहीं
स.सा./मू./8 तहिं परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत् । (उत्थानिका)–जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जं-भासं विणा उ गाहेउं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।8। =प्रश्न–तब तो एक परमार्थ का ही उपदेश देना चाहिए था, व्यवहार का उपदेश किसलिए दिया जाता है? उत्तर–जैसे अनार्यजन को अनार्य भाषा के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने के लिए कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। (पं.ध./पू./641); (मो.मा.प्र./7/370/4)
स.सि./1/33/142/3 सर्वसंग्रहेण यत्सत्त्वं गृहीतं तच्चानपेक्षितविशेषं नालं संव्यवहारायेति व्यवहारनय आश्रीयते।=सर्व संग्रहनय के द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है, वह अपने उत्तरभेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहारनय का आश्रय लिया जाता है। (रा.वा./1/33/6/96/22)
- वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि कराना इसका प्रयोजन है
स्या.म./28/315/28 पर उद्धृत श्लोक नं.3 व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद् व्यापारयति देहिन:। =संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहार नय कहते हैं। यह नय जीवों का उन भिन्न-भिन्न पदार्थों में व्यापार कराता है, क्योंकि जगत् में वैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
पं.ध./पू./524 फलमास्तिक्यमति: स्यादनन्तधर्मैकधर्मिणस्तस्य। गुणसद्भावे यस्माद्द्रव्यास्तित्वस्य सुप्रतीतत्वात् ।=अनन्तधर्म वाले धर्मों के विषय में आस्तिक्य बुद्धि का होना ही उसका फल है, क्योंकि गुणों का अस्तित्व मानने पर ही नियम से द्रव्य का अस्तित्व प्रतीत होता है।
- वस्तु की निश्चित प्रतिपत्ति के अर्थ यही प्रधान है
पं.ध./पू./637-639 ननु चैवं चेन्नियमादादरणीयो नयो हि परमार्थ:। किमकिंचत्कारित्वाद्व्यवहारेण तथाविधेन यत:।637। नैवं यतो बलादिह विप्रतिपत्तौ च संशयापत्तौ। वस्तुविचारे यदि वा प्रमाणमुभयावलम्बितज्ज्ञानम् ।638। तस्मादाश्रयणीय: केषांचित् स नय: प्रसङ्गत्वात् ।...।639। =प्रश्न–जब निश्चयनय ही वास्तव में आदरणीय है तब फिर अकिंचित्कारी और अपरमार्थभूत व्यवहारनय से क्या प्रयोजन है ?।637। उत्तर–ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि तत्त्व के सम्बन्ध में विप्रतिपत्ति (विपर्यय) होने पर अथवा संशय आ पड़ने पर, वस्तु का विचार करने में वह व्यवहारनय बलपूर्वक प्रवृत्त होता है। अथवा जो ज्ञान निश्चय व व्यवहार दोनों नयों का अवलम्बन करने वाला है वही प्रमाण कहलाता है।638। इसलिए प्रसंगवश वह किन्हीं के लिए आश्रय करने योग्य है।639।
- <a name="V.7.8" id="V.7.8"></a>व्यवहार शून्य निश्चयनय कल्पनामात्र है
अन.ध./1/100/107 व्यवहारपराचीनो निश्चयं यश्चिकीर्षति। बीजादिना बिना मूढ: स सस्यानि सिसृक्षति।100।=वह मनुष्य बीज खेत जल खाद आदि के बिना ही धान्य उत्पन्न करना चाहता है, जो व्यवहार से पराङ्मुख होकर केवल निश्चयनय से ही कार्य सिद्ध करना चाहता है।
- निश्चयनय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन
स.सा./मू./272 णिच्छयणयासिदा मुणिणो पावंति णिव्वाणं। =निश्चयनय के आश्रित मुनि निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
नय/V/3/3 (निश्चयनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है।)
प.प्र./1/71 देहहं पेक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभपरु सो अप्पाणु मुणेउ।71।=हे जीव ! तू इस देह के बुढ़ापे व मरण को देखकर भय मत कर। जो वह अजर व अमर परमब्रह्म तत्त्व है उस ही को आत्मा मान।
न.च./श्रुत/32 निश्चयनयस्त्वेकत्वे समुपनीय ज्ञानचेतन्ये संस्थाप्य परमानन्दं समुत्पाद्य वीतरागं कृत्वा स्वयं निवर्तमानो नयपक्षातिक्रान्तं करोति तमिति पूज्यतम:। =निश्चयनय एकत्व को प्राप्त कराके ज्ञानरूपी चैतन्य में स्थापित करता है। परमानन्द को उत्पन्न कर वीतराग बनाता है। इतना काम करके वह स्वत: निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार वह जीव को नयपक्ष से अतीत कर देता है। इस कारण वह पूज्यतम है।
न.च./श्रुत/69-70 यथा सम्वग्व्यवहारेण मिथ्याव्यवहारो निवर्तते तथा निश्चयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्त्तते। यथा निश्चयनयेन व्यवहारविकल्पोऽपि निवर्तते तथा स्वपर्यवसितभावेनैकविकल्पोऽपि निवर्तते। एवं हि जीवस्य योऽसौ स्वपर्यवसितस्वभाव स एव नयपक्षातीत:। =जिस प्रकार सम्यक्व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति हो जाती है। उसी प्रकार निश्चयनय से व्यवहार के विकल्पों की निवृत्ति होती है उसी प्रकार स्व में स्थित स्वभाव से निश्चयनय की एकता का विकल्प भी निवृत्त हो जाता है। इसलिए स्वस्थित स्वभाव ही नयपक्षातीत है। (सू.पा./टी./6/59/9)।
स.सा./आ./180/क.122 इदमेवात्र तात्पर्यं हेय: शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्वन्ध एव हि। =यहां यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है; क्योंकि, उसके अत्याग से बन्ध नहीं होता है और उसके त्याग से बन्ध होता है।
प्र.सा./त.प्र./191 निश्चयनयापहस्तितमोह:...आत्मानमेवात्मत्वेनोपादाय परद्रव्यव्यावृत्तत्वादात्मन्येकस्मिन्नग्रे चिन्तां निरुणाद्धि खलु...निरोधसमये शुद्धात्मा स्यात् । अतोऽवधार्यते शुद्धनयादेव शुद्धात्मलाभ:। =निश्चयनय के द्वारा जिसने मोह को दूर किया है, वह पुरुष आत्मा को ही आत्मरूप से ग्रहण करता है, और परद्रव्य से भिन्नत्व के कारण आत्मारूप एक अग्र में ही चिन्ता को रोकता है (अर्थात् निर्विकल्प समाधि को प्राप्त होता है)। उस एकाग्रचिन्तानिरोध के समय वास्तव में वह शुद्धात्मा होता है। इससे निश्चित होता है कि शुद्धनय से ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है। (स.सा./ता.वृ./49/89/16), (पं.ध./पू./663)।
प्र.सा./ता.वृ./189/253/13 ननु रागादीनात्मा करोति भुङ्क्ते चेत्येवं लक्षणो निश्चयनयो व्याख्यात:, स कथमुपादेयो भवति। परिहारमाह–रागादीनेवात्मा करोति न च द्रव्यकर्म, रागादय एव बन्धकारणमिति यदा जानाति जीवस्तदा रागद्वेषादिविकल्पजालत्यागेन रागादिविनाशार्थं निजशुद्धात्मानं भावयति। ततश्च रागादिविनाशो भवति। रागादिविनाशे च आत्मा शुद्धो भवति।...तथैवोपादेयो भण्यते इत्यभिप्राय:। = प्रश्न–रागादिक को आत्मा करता है और भोगता है ऐसा (अशुद्ध) निश्चय का लक्षण कहा गया है। वह कैसे उपादेय हो सकता है? उत्तर–इस शंका का परिहार करते हैं–रागादिक को ही आत्मा करता (व भोगता है) द्रव्यकर्मों को नहीं। इसलिए रागादिक ही बन्ध के कारण हैं (द्रव्यकर्म नहीं)। ऐसा यह जीव जब जान जाता है तब रागादि विकल्पजाल का त्याग करके रागादिक के विनाशार्थ शुद्धात्मा की भावना भाता है। उससे रागादिक का विनाश होता है। और रागादिक का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध हो जाती है। इसलिए इस (अशुद्ध निश्चयनय को भी) उपादेय कहा जाता है।
- व्यवहारनय के निषेध का कारण
- अभूतार्थ प्रतिपादक होने के कारण निषिद्ध है
पं.ध./पू./627-28 न यतो विकल्पमर्थाकृतिपरिणतं यथा वस्तु। प्रतिषेधस्य न हेतुश्चेदयथार्थस्तु हेतुरिह तस्य।627। व्यवहार: किल मिथ्या स्वयमपि मिथ्योपदेशकश्च यत:। प्रतिषेध्यस्तस्मादिह मिथ्यादृष्टिस्तदर्थदृष्टिश्च।628। =वस्तु के अनुसार केवल विकल्परूप अर्थाकार परिणत होना प्रतिषेध्य का कारण नहीं है, किन्तु वास्तविक न होने के कारण इसका प्रतिषेध होता है।627। निश्चय करके व्यवहारनय स्वयं ही मिथ्या अर्थ का उपदेश करने वाला है, अत: मिथ्या है। इसलिए यहां पर प्रतिषेध्य है। और इसके अर्थ पर दृष्टि रखनेवाला मिथ्यादृष्टि है।628। (विशेष देखें नय - V.6.1)।
- अनिष्ट फलप्रदायी होने के कारण निषिद्ध है
प्र.सा./त.प्र./98 अतोऽवधार्यते अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव। =इससे जाना जाता है कि अशुद्धनय से अशुद्धआत्मा का लाभ होता है।
पं.ध./पू./563 तस्मादनुपादेयो व्यवहारोऽतद्गुणे तदारोप:। इष्टफलाभावादिह न नयो वर्णादिमान् यथा जीव:। =इसी कारण, अतद्गुण में तदारोप करने वाला व्यवहारनय इष्ट फल के अभाव से उपादेय नहीं है। जैसे कि यहां पर जीव को वर्णादिमान् कहना नय नहीं है (नयाभास है), (विशेष देखें नय - V.6.11)।
- व्यभिचारी होने के कारण निषिद्ध है
स.सा./आ./277 तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकान्तिकत्वाद्वयवहारनय: प्रतिषेध्य:। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधक:। =व्यवहारनय प्रतिषेध्य है; क्योंकि (इसके विषयभूत परद्रव्यस्वरूप) आचारांगादि (द्वादशांग श्रुतज्ञान, व्यवहारसम्यग्दर्शन व व्यवहारसम्यग्चारित्र) का आश्रयत्व अनैकान्तिक है, व्यभिचारी है (अर्थात् व्यवहारावलम्बी को निश्चय रत्नत्रय हो अथवा न भी हो) और निश्चयनय व्यवहार का निषेधक है; क्योंकि (उसके विषयभूत) शुद्धात्मा के ज्ञानादि (निश्चयरत्नत्रय का) आश्रय एकान्तिक है अर्थात् निश्चित है। (नय/V/6/3) और व्यवहार के प्रतिषेधक हैं।
- अभूतार्थ प्रतिपादक होने के कारण निषिद्ध है
- व्यवहारनय निषेध का प्रयोजन
पु.सि.उ./6,7 अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।6। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।7। =अज्ञानी को समझाने के लिए ही मुनिजन अभूतार्थ जो व्यवहारनय, उसका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को सत्य मानते हैं, उनके लिए उपदेश नहीं है।6। जो सच्चे सिंह को नहीं जानते हैं उनको यदि ‘विलाव जैसा सिंह होता है’ यह कहा जाये तो बिलाव को ही सिंह मान बैठेंगे। इसी प्रकार जो निश्चय को नहीं जानते उनको यदि व्यवहार का उपदेश दिया जाये तो वे उसी को निश्चय मान लेंगे।7। (मो.मा.प्र./7/372/8)।
स.सा./आ./11 प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारनया नानुसर्तव्य:। =अन्य पदार्थों से भिन्न आत्मा को देखने वालों को व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए।
पं.वि./11/8 व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनय:।=अबोधजनों को समझाने के लिए ही व्यवहारनय है, परन्तु शुद्धनय कर्मों के क्षय का कारण है।
स.सा./ता.वृ./324-327/414/9 ज्ञानी भूत्वा व्यवहारेण परद्रव्यमात्मीयं वदन् सन् कथमज्ञानी भवतीति चेत् । व्यवहारो हि म्लेच्छानां म्लेच्छभाषेव प्राथमिकजनसंबोधनार्थं काल एवानुसर्तव्य:। प्राथमिकजनप्रतिबोधनकालं विहाय कतकफलवदात्मशुद्धि कारकात् शुद्धनयाच्च्युतो भूत्वा यदि परद्रव्यमात्मीयं करोतीति तदा मिथ्यादृष्टिर्भवति। =प्रश्न–ज्ञानी होकर व्यवहारनय से परद्रव्य को अपना कहने से वह अज्ञानी कैसे हो जाता है? उत्तर–म्लेच्छों को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा की भांति प्राथमिक जनों को समझाने के समय ही व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य है। प्राथमिकजनों के सम्बोधनकाल को छोड़कर अन्य समयों में नहीं। अर्थात् कतकफल की भांति जो आत्मा की शुद्धि करने वाला है, ऐसे शुद्धनय से च्युत होकर यदि परद्रव्य को अपना करता है तो वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है। (अर्थात् निश्चयनय निरपेक्ष व्यवहार दृष्टिवाला मिथ्यादृष्टि हो सर्वदा सर्वप्रकार व्यवहार का अनुसरण करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं।
- <a name="V.8.4" id="V.8.4"></a>व्यवहार नय की उपादेयता का कारण व प्रयोजन
देखें नय - V.7 निचली भूमिकावालों के लिए तथा मन्दबुद्धिजनों के लिए यह नय उपकारी है। व्यवहार से ही निश्चय तत्त्वज्ञान की सिद्धि होती है तथा व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन भी शक्य नहीं है। इसके अतिरिक्त इस नय द्वारा वस्तु में आस्तिक्य बुद्धि उत्पन्न हो जाती है।
श्लो.वा.4/1/33/60/246/28 तदुक्तं–व्यवहारानुकूल्येन प्रमाणानां प्रमाणता। सान्यथा बाध्यमानानां, तेषां च तत्प्रसङ्गत:। =लौकिक व्यवहारों की अनुकूलता करके ही प्रमाणों का प्रमाणपना व्यवस्थित हो रहा है, दूसरे प्रकारों से नहीं। क्योंकि, वैसा मानने पर तो साध्यमान जो स्वप्न, भ्रान्ति व संशय ज्ञान हैं, उन्हें भी प्रमाणता प्राप्त हो जायेगी।
न.च./श्रुत/31 किमर्थं व्यवहारोऽसत्कल्पनानिवृत्त्यर्थं सद्रत्नत्रयसिद्धयर्थं च। =प्रश्न–अर्थ का व्यवहार किसलिए किया जाता है ? उत्तर–असत् कल्पना की निवृत्ति के अर्थ तथा सम्यक् रत्नत्रय की प्राप्ति के अर्थ।
स.सा./आ./12 अथ च केषांचित्कदाचित्सोऽपि प्रयोजनवान् । (उत्थानिका)। ...ये तु...अपरमं भावमनुभवन्ति तेषां ...व्यवहारनयो...परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च–‘जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।
स.सा./आ./46 व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्तेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थ तो भेददर्शनात्त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शङ्कमुपमर्दनेन हिंसाभावाद्भवत्येव बन्धस्याभाव:। तथा रक्तद्विष्टविमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषविमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव:।=- व्यवहारनय भी किसी किसी को किसी काल प्रयोजनवान् है।–जो पुरुष अपरमभाव में स्थित है [अर्थात् अनुत्कृष्ट या मध्यमभूमिका अनुभव करते हैं अर्थात् 4-7 गुणस्थान तक के जीवों को (देखें नय - V.7.2)] उनको व्यवहारनय जानने में आता हुआ उस समय प्रयोजनवान् है, क्योंकि तीर्थ व तीर्थ के फल की ऐसी ही व्यवस्थिति है। अन्यत्र भी कहा है–हे भव्य जीवो! यदि तुम जिनमत का प्रवर्ताना कराना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ का नाश हो जायेगा और निश्चय के बिना तत्त्व का नाश हो जायेगा।
- जैसे म्लेच्छों को म्लेच्छभाषा वस्तु का स्वरूप बतलाती है (नय/V/7/5) उसी प्रकार व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है, इसलिए अपरमार्थभूत होने पर भी, धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिए वह (व्यवहारनय) बतलाना न्यायसंगत ही है। परन्तु यदि व्यवहारनय न बतलाया जाय तो, क्योंकि परमार्थ से जीव को शरीर से भिन्न बताया गया है, इसलिए जैसे भस्म को मसल देने से हिंसा का अभाव है, उसी प्रकार त्रसस्थावर जीवों को नि:शंकतया मसल देने में भी हिंसा का अभाव ठहरेगा और इस कारण बन्ध का ही अभाव सिद्ध होगा। तथा परमार्थ से जीव क्योंकि रागद्वेष मोह से भिन्न बताया गया है, इसलिए ‘रागी द्वेषी मोही जीव कर्म से बन्धता है, उसे छुड़ाना’–इस प्रकार मोक्ष के उपाय के ग्रहण का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार मोक्ष के उपाय का अभाव होने से मोक्ष का अभाव हो जायेगा।
- <a name="V.9.1" id="V.9.1"></a>दोनों नयों के विषय विरोध निर्देश
श्लो.वा.4/1/7/28/585/2 निश्चयनयादनादिपारिणामिकचैतन्यलक्षणजीवत्वपरिणतो जीव: व्यवहारादौपशमिकादिभावचतुष्टयस्वभाव:; निश्चयत: स्वपरिणामस्य, व्यवहारत: सर्वेषां; निश्चयनयो जीवत्वसाधन:, व्यवहारादौपशमिकादिभावसाधनश्च; निश्चयत: स्वप्रदेशाधिकरणो, व्यवहारत: शरीराद्यधिकरण:; निश्चयतो जीवनसमयस्थिति व्यवहारतो द्विसमयादिस्थितिरनाद्यवसानस्थितिर्वा; निश्चयतोऽनन्तविधान एव व्यवहारतो नारकादिसंख्येयासंख्येयानन्तविधानश्च। =निश्चयनय से तो अनादि पारिणामिक चैतन्यलक्षण जो जीवत्व भाव, उससे परिणत जीव है, तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिक आदि जो चार भाव उन स्वभाव वाला जीव है (नय/V/1/3,5,8)। निश्चय से स्वपरिणामों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है, तथा व्यवहारनय से सब पदार्थों का स्वामी व कर्ता भोक्ता है (नय/V/1/3,5,8 तथा नय/V/5) निश्चय से पारिणामिक भावरूप जीवत्व का साधन है तथा व्यवहारनय से औदयिक औपशमिकादि भावों का साधन है। (नय/V/1/5,8) निश्चय से जीव स्वप्रदेशों में अधिष्ठित है (नय/V/1/3), और व्यवहार से शरीरादि में अधिष्ठित है (नय/V/5/5)। निश्चय से जीवन की स्थिति एक समयमात्र है और व्यवहार नय से दो समय आदि अथवा अनादि अनन्त स्थिति है। (नय/III/5/7) (नय/IV/3)। निश्चयनय से जितने जीव हैं उतने ही अनन्त उसके प्रकार हैं, और व्यवहारनय से नरक तिर्यंच आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकार का है। (इसी प्रकार अन्य भी इन नयों के अनेकों उदाहरण यथायोग्य समझ लेना)। (विशेष देखो पृथक्-पृथक् उस उस नय के उदाहरण) (पं.का./ता.वृ./27/56-60)।
देखें अनेकान्त - 5.4 (वस्तु एक अपेक्षा से जैसी है दूसरी अपेक्षा से वैसी नहीं है।)
- दोनों नयों में स्वरूप विरोध निर्देश
- इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी हैं
मो.मा.प्र./7/366/6 निश्चय व्यवहार का स्वरूप तौ परस्पर विरोध लिये हैं। जातै समयसार विषै ऐसा कहा है–व्यवहार अभूतार्थ है–और निश्चय है सो भूतार्थ है (नय/V/3/1 तथा नय/V/6/1)।
नोट––(इसी प्रकार निश्चयनय साधकतम है, व्यवहारनय साधकतम नहीं है। निश्चयनय सम्यक्त्व का कारण है तथा व्यवहारनय के विषय का आश्रय करना मिथ्यात्व है। निश्चयनय उपादेय है और व्यवहारनय हेय है। (नय/V/3 व 6)। निश्चयनय अभेद विषयक है और व्यवहारनय भेद विषयक; निश्चयनय स्वाश्रित है और व्यवहारनय पराश्रित; (नय/V/1 व 4) निश्चयनय निर्विकल्प, एक वचनातीत, व उदाहरण रहित है तथा व्यवहारनय सविकल्प, अनेकों, वचनगोचर व उदाहरण सहित है (नय/V/2/2,5)।
- <a name="V.9.2.2" id="V.9.2.2"></a>निश्चय मुख्य है और व्यवहार गौण
न.च./श्रुत/32 तर्ह्येवं द्वावपि सामान्येन पूज्यतां गतौ। नह्येवं, व्यवहारस्य पूज्यतरत्वान्निश्चयस्य तु पूज्यतमत्वात् ।=प्रश्न–(यदि दोनों ही नयों के अवलम्बन से परोक्षानुभूति तथा नयातिक्रान्त होने पर प्रत्यक्षानुभूति होती है) तो दोनों नय समानरूप से पूज्यता को प्राप्त हो जायेंगे ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, वास्तव में व्यवहारनय पूज्यतर हैं और निश्चयनय पूज्यतर हैं और निश्चयनय पूज्यतम।
पं.ध./उ./809 तद् द्विधाय च वात्सल्यं भेदात्स्वपरगोचरात् । प्रधानं स्वात्मसंबन्धि गुणो यावत् परात्मनि।809। =वह वात्सल्य अंग भी स्व और पर के विषय के भेद से दो प्रकार का है। उनमें से जो स्वात्मा सम्बन्धी अर्थात् निश्चय वात्सल्य है वह प्रधान है और जो परमात्मा सम्बन्धी अर्थात् व्यवहार वात्सल्य है वह गौण है।809।
- निश्चयनय साध्य है और व्यवहारनय साधक
द्र.सं./टी./13/33/9 निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम् ...परद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते। =परमात्मद्रव्य उपादेय है और परद्रव्य त्याज्य है, इस तरह सर्वज्ञदेव प्रणीत निश्चय व्यवहारनय को साध्यसाधक भाव से मानता है। (देखें नय - V.7.4)।
- व्यवहार प्रतिषेध्य है और निश्चय प्रतिषेधक
स.सा./मू./272 एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणयेण। =इस प्रकार व्यवहारनय को निश्चयनय के द्वारा प्रतिषिद्ध जान। (पं.ध./पू./598,625,643)।
देखें स सा./आ./142/क.70-89 का सारार्थ (एक नय की अपेक्षा जीवबद्ध है तो दूसरे की अपेक्षा वह अबद्ध है, इत्यादि 20 उदाहरणों द्वारा दोनों नयों का परस्पर विरोध दर्शाया गया है)।
- इस प्रकार दोनों नय परस्पर विरोधी हैं
- दोनों में मुख्य गौण व्यवस्था का प्रयोजन
प्र.सा./त.प्र./191 यो हि नाम स्वविषयमात्रप्रवृत्ताशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकव्यवहारनयाविरोधमध्यस्थ: शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मकनिश्चयापहस्तितमोह: सन् ...स खलु...शुद्धात्मा स्यात् ।=जो आत्मा मात्र अपने विषय में प्रवर्तमान ऐसे अशुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय में अविरोधरूप से मध्यस्थ रहकर, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय के द्वारा, जिसने मोह को दूर किया है, ऐसा होता हुआ (एकमात्र आत्मा में चित्त को एकाग्र करता है) वह वास्तव में शुद्धात्मा होता है।
देखें नय - V.8.3 (निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का अनुसरण मिथ्यात्व है।)
मो.मा.प्र./7/पृष्ठ/पंक्ति जिनमार्गविषै कहीं तौ निश्चय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौं तौ ‘सत्यार्थ ऐसे ही है’ ऐसा जानना। बहुरि कहीं व्यवहार नय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, ताकौ, ‘ऐसे है नाहीं, निमित्तादि अपेक्षा उपचार किया है’ ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयों का ग्रहण है। बहुरि दोऊ नयनि के व्याख्यान को सत्यार्थ जानि ‘ऐसै भी है और ऐसे भी है’ ऐसा भ्रमरूप प्रवर्तनेकरि तौ दोऊ नयनि का ग्रहण करना कह्या नाहीं। (पृ.369/14)। ...नोवली दशाविषैं आपकौ भी व्यवहारनय कार्यकारी है; परन्तु व्यवहार को उपचारमात्र मानि वाकै द्वारै वस्तु का श्रद्धान ठीक करै तौं कार्यकारी होय। बहुरि जो निश्चयवत् व्यवहार भी सत्यभूत मानि ‘वस्तु ऐसे ही है’ ऐसा श्रद्धान करे तौ उलटा अकार्यकारी हो जाय। (पृ.372/9) तथा (और भी देखें नय - V.8.3)।
का.अ./पं.जयचन्द/464 निश्चय के लिए तो व्यवहार भी सत्यार्थ है और बिना निश्चय के व्यवहार सारहीन है। (का.अ./पं.जयचन्द/467)।
देखें ज्ञान - IV.3.1 (निश्चय व व्यवहार ज्ञान द्वारा हेयोपादेय का निर्णय करके, शुद्धात्मस्वभाव की ओर झुकना ही प्रयोजनीय है।)
(और भी देखें जीव , अजीव, आस्रव आदि तत्त्व व विषय) (सर्वत्र यही कहा गया है कि व्यवहारनय द्वारा बताये गये भेदों या संयोगों को हेय करके मात्र शुद्धात्मतत्त्व में स्थित होना ही उस तत्त्व को जानने का भावार्थ है।)
- दोनों में साध्य-साधनभाव का प्रयोजन दोनों की परस्पर सापेक्षता
न.च./श्रुत/53 वस्तुत: स्याद्भेद: कस्मान्न कृत इति नाशङ्कनीयम् । यतो न तेन साध्यसाधकयोरविनाभावित्वं। तद्यथा–निश्चयाविरोधेन व्यवहारस्य सम्यग्व्यवहारेण सिद्धस्य निश्चयस्य च परमार्थत्वादिति। परमार्थमुग्धानां व्यवहारिणां व्यवहारमुग्धानां निश्चयवादिनां उभयमुग्धानामुभयवादिनामनुभयमुग्धानामनुभयवादिनां मोहनिरासार्थं निश्चयव्यवहाराभ्यामालिङ्गितं कृत्वा वस्तु निर्णेयं। एवं हि कथंचिद्भेदपरस्पराविनाभावित्वेन निश्चयव्यवहारयोरनाकुला सिद्धि:। अन्यथाभास एव स्यात् । तस्माद्व्यवहारप्रसिद्धयैव निश्चयप्रसिद्धिर्नान्यथेति, सम्यग्द्रव्यागमप्रसाधिततत्त्वसेवया व्यवहाररत्नत्रयस्य सम्यग्रूपेण सिद्धत्वात् ।=प्रश्न–वस्तुत: ही इन दोनों नयों का कथंचित् भेद क्यों नहीं किया गया ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वैसा करने से उनमें परस्पर साध्यसाधक भाव नहीं रहता। वह ऐसे कि–निश्चय से अविरोधी व्यवहार को तथा समीचीन व्यवहार द्वारा सिद्ध किये गये निश्चय को ही परमार्थपना है। इस प्रकार परमार्थ से मूढ़ केवल व्यवहारावलम्बियों के, अथवा व्यवहार से मूढ केवल निश्चयावलम्बियों के, अथवा दोनों की परस्पर सापेक्षतारूप उभय से मूढ़ निश्चयव्यवहारावलम्बियों के, अथवा दोनों नयों का सर्वथा निषेध करनेरूप अनुभयमूढ़ अनुभयावलम्बियों के मोह को दूर करने के लिए, निश्चय व व्यवहार दोनों नयों से आलिंगित करके ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए।
इस प्रकार कथंचित् भेद रहते हुए भी परस्पर अविनाभावरूप से निश्चय और व्यवहार की अनाकुल सिद्धि होती है। अन्यथा अर्थात् एक दूसरे से निरपेक्ष वे दोनों ही नयाभास होकर रह जायेंगे । इसलिए व्यवहार की प्रसिद्धि से ही निश्चय की प्रसिद्धि है, अन्यथा नहीं। क्योंकि समीचीन द्रव्यागम के द्वारा तत्त्व का सेवन करके ही समीचीन रत्नत्रय की सिद्धि होती है। (पं.ध./पू./662)।
न.च.वृ./285-292 णो ववहारो मग्गो मोहो हवदि सुहासुहमिदि वयणं। उक्तं चान्यत्र, णियदव्वजाणट्ठं इयरं कहियं जिणेहि छद्दव्वं। तम्हा परछद्दव्वे जाणगभावो ण होइ सण्णाणं।–ण हु ऐसा सुंदरा जुत्ती। णियसमयं पि य मिच्छा अह जदु सुण्णो य तस्स सो चेदा जाणगभावो मिच्छा उवयरिओ तेण सो भणई।285। जं चिय जीवसहायं उवयारं भणिय तं पि ववहारो। तम्हा णहु तं मिच्छा विसेसदो भणइ सब्भावं।286। ज्झेओ जीवसहाओ सो इह सपरावभासगो भणिओ। तस्स य साहणहेऊ उवयारो भणिय अत्थेसु।287। जह सब्भूओ भणिदो साहणहेऊ अभेदपरमट्ठो। तह उवयारो जाणह साहणहेऊ अणवयारे।288। जो इह सुदेण भणिओ जाणदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं। तं सुयकेवलिरिसिणो भणंति लोयप्पदीपयरा।289। उवयारेण विजाणइ सम्मगुरूवेण जेण परदव्वं। सम्मगणिच्छय तेण वि सइय सहावं तु जाणंतो।290। ण दु णय पक्खो मिच्छा तं पिय णेयंतदव्वसिद्धियरा। सियसद्दसमारूढं जिणवयणविविग्गयं सुद्धं।292। =प्रश्न–व्यवहारमार्ग कोई मार्ग नहीं है, क्योंकि शुभाशुभरूप वह व्यवहार वास्तव में मोह है, ऐसा आगम का वचन है। अन्य ग्रन्थों में कहा भी है कि ‘निज द्रव्य के जानने के लिए ही जिनेन्द्र भगवान् ने छह द्रव्यों का कथन किया है, इसलिए केवल पररूप उन छह द्रव्यों का जानना सम्यग्ज्ञान नहीं है। (देखें द्रव्य - 2.4)। उत्तर–आपकी युक्ति सुन्दर नहीं है, क्योंकि परद्रव्यों को जाने बिना उसका स्वसमयपना मिथ्या है, उसकी चेतना शून्य है, और उसका ज्ञायकभाव भी मिथ्या है। इसीलिए अर्थात् पर को जानने के कारण ही उस जीवस्वभाव को उपचरित भी कहा गया है (देखें स्वभाव )।285। क्योंकि कहा गया वह जीव का उपचरित स्वभाव व्यवहार है, इसीलिए वह मिथ्या नहीं है, बल्कि उसी स्वभाव की विशेषता को दर्शाने वाला है (देखें नय - V.7.1)।286। जीव का शुद्ध स्वभाव ध्येय है और वह स्व-पर प्रकाशक कहा गया है। (देखें केवलज्ञान - 6; ज्ञान/I/3; दर्शन/2)। उसका कारण व हेतु भी वास्तव में परपदार्थों में किया गया ज्ञेयज्ञायक रूप उपचार ही है।287। जिस प्रकार अभेद व परमार्थ पदार्थ में गुण गुणी का भेद करना सद्भूत है, उसी प्रकार अनुपचार अर्थात् अबद्ध व अस्पृष्ट तत्त्व में परपदार्थों को जानने का उपचार करना भी सद्भूत है।288। आगम में भी ऐसा कहा गया है कि जो श्रुत के द्वारा केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं वे श्रुतकेवली हैं, ऐसा लोक को प्रकाशित करने वाले ऋषि अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं। (देखें श्रुतकेवली - 2)।289। सम्यक् निश्चय के द्वारा स्वकीय स्वभाव को जानता हुआ वह आत्मा सम्यक् रूप उपचार से परद्रव्यों को भी जानता है।290। इसलिए अनेकान्त पक्ष को सिद्ध करने वाला नय पक्ष मिथ्या नहीं है, क्योंकि जिनवचन से उत्पन्न ‘स्यात्’ शब्द से आलिंगित होकर वह शुद्ध हो जाता है। (देखें नय - II)।292। - दोनों की सापेक्षता का कारण व प्रयोजन
न.च./श्रुत/52 यद्यपि मोक्षकार्ये भूतार्थेन परिच्छिन्न आत्माद्युपादानकारणं भवति तथापि सहकारिकारणेन विना न सेत्स्यतीति सहकारिकारणप्रसिद्धयर्थं निश्चयव्यवहारयोरविनाभावित्वमाह। =यद्यपि मोक्षरूप कार्य में भूतार्थ निश्चय नय से जाना हुआ आत्मा आदि उपादान कारण तो सबके पास हैं, तो भी वह आत्मा सहकारी कारण के बिना मुक्त नहीं होता है। अत: सहकारी कारण की प्रसिद्धि के लिए, निश्चय व व्यवहार का अविनाभाव सम्बन्ध बतलाते हैं।
प्र.सा./त.प्र./114 सर्वस्य हि वस्तुन: सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छन्दती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति। तत्र पर्यायार्थिकमेकान्तनिमीलितं ...द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा...तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं। ...पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा..अन्यदन्यत्प्रतिभाति...यदा तु ते उभे अपि...तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा...जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता:...विशेषाश्च तुल्यकालमेवालोक्यन्ते। तत्र एकचक्षुरवलोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनं। तत: सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते।=वस्तुत: सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होने से, वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को जानने वाली दो आंखें हैं—द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक (या निश्चय व व्यवहार)। इनमें से पर्यायार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, जब केवल द्रव्यार्थिक (निश्चय) चक्षु के द्वारा देखा जाता है, तब ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षु को सर्वथा बन्द करके, केवल पर्यायार्थिक (व्यवहार) चक्षु के द्वारा देखा जाता है तब वह जीव द्रव्य (नारक तिर्यक् आदि रूप) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है। और जब उन दोनों आंखों को एक ही साथ खोलकर देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा उसमें व्यवस्थित (नारक तिर्यक् आदि) विशेष भी तुल्यकाल में ही दिखाई देते हैं। वहां एक आंख से देखना एकदेशावलोकन है और दोनों आंखों से देखना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकन में द्रव्य के अन्यत्व व अनन्यत्व विरोध को प्राप्त नहीं होते। (विशेष देखें नय - I.2) (स.सा./ता.वृ./114/174/11)।
नि.सा./ता.वृ./187 ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्त: समस्तशास्त्रहृदयवेदिन: परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिण:...शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति। =इस भागवत शास्त्र को जो निश्चय और व्यवहार नय के अविरोध से जानते हैं वे महापुरुष, समस्त अध्यात्म शास्त्रों के हृदय को जानने वाले और परमानन्दरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं। और भी देखो नय/II–(अन्य नय का निषेध करने वाले सभी नय मिथ्या हैं।)
- दोनों की सापेक्षता के उदाहरण
देखें उपयोग - II.3 व अनुभव/5/8 सम्यग्दृष्टि जीवों को अल्पभूमिकाओं में शुभोपयोग (व्यवहार रूप शुभोपयोग) के साथ-साथ शुद्धोपयोग का अंश विद्यमान रहता है।
देखें संवर - 2 साधक दशा में जीव की प्रवृत्ति के साथ निवृत्ति का अंश भी विद्यमान रहता है, इसलिए उसे आस्रव व संवर दोनों एक साथ होते हैं। देखें छेदोपस्थापना - 2 संयम यद्यपि एक ही प्रकार का है, पर समता व व्रतादिरूप अन्तरंग व बाह्य चारित्र की युगपतता के कारण सामायिक व छेदोपस्थापना ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है।
देखें मोक्षमार्ग - 3.1 आत्मा यद्यपि एक शुद्ध-बुद्ध ज्ञायकभाव मात्र है, पर वही आत्मा व्यवहार की विवक्षा से दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप कहा जाता है। देखें मोक्षमार्ग - 4 मोक्षमार्ग यद्यपि एक व अभेद ही है, फिर भी विवक्षावश उसे निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है।
नोट–(इसी प्रकार अन्य भी अनेक विषयों में जहां-जहां निश्चय व्यवहार का विकल्प सम्भव है वहां-वहां यही समाधान है।) - इसलिए दोनों ही नय उपादेय हैं
देखें नय - V.8.4 दोनों ही नय प्रयोजनीय हैं, क्योंकि व्यवहार नय के बिना तीर्थ का नाश हो जाता है और निश्चय के बिना तत्त्व के स्वरूप का नाश हो जाता है। देखें नय - V.8.1 जिस प्रकार सम्यक् व्यवहार से मिथ्या व्यवहार की निवृत्ति होती है, उसी प्रकार सम्यक् निश्चय से उस व्यवहार की भी निवृत्ति हो जाती है।
देखें मोक्षमार्ग - 4.6 साधक पहले सविकल्प दशा में व्यवहार मार्गी होता है और पीछे निर्विकल्प दशा में निश्चयमार्गी हो जाता है। देखें धर्म - 6.4 अशुभ प्रवृत्ति को रोकने के लिए पहले व्यवहार धर्म का ग्रहण होता है। पीछे निश्चय धर्म में स्थित होकर मोक्षलाभ करता है।