योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 126: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- यावत् (जीव:) परेभ्य: द्रव्येभ्य: सुख-दु:खानि इच्छति, तावत् मनाक् अपि आस्रव- विच्छेद: न जायते । </p> | <p><b> अन्वय </b>:- यावत् (जीव:) परेभ्य: द्रव्येभ्य: सुख-दु:खानि इच्छति, तावत् मनाक् अपि आस्रव- विच्छेद: न जायते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जबतक यह जीव परद्रव्यों से सुख-दु:ख की इच्छा करता है अर्थात् परद्रव्यों से सुख-दु:ख की प्राप्ति की मान्यता रखता है, तबतक आस्रव का किंचित्/अल्प भी विच्छेद अर्थात् नाश नहीं हो सकता अर्थात् आस्रव निरन्तर होता ही रहता है । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- जबतक यह जीव परद्रव्यों से सुख-दु:ख की इच्छा करता है अर्थात् परद्रव्यों से सुख-दु:ख की प्राप्ति की मान्यता रखता है, तबतक आस्रव का किंचित्/अल्प भी विच्छेद अर्थात् नाश नहीं हो सकता अर्थात् आस्रव निरन्तर होता ही रहता है । </p> | ||
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Revision as of 08:58, 19 January 2009
पर से सुख-दु:ख की मान्यता से निरन्तर आस्रव -
परेभ्य: सुख-दु:खानि द्रव्येभ्यो यावदिच्छति ।
तावदास्रव-विच्छेदो न मनागपि जायते ।।१२६।।
अन्वय :- यावत् (जीव:) परेभ्य: द्रव्येभ्य: सुख-दु:खानि इच्छति, तावत् मनाक् अपि आस्रव- विच्छेद: न जायते ।
सरलार्थ :- जबतक यह जीव परद्रव्यों से सुख-दु:ख की इच्छा करता है अर्थात् परद्रव्यों से सुख-दु:ख की प्राप्ति की मान्यता रखता है, तबतक आस्रव का किंचित्/अल्प भी विच्छेद अर्थात् नाश नहीं हो सकता अर्थात् आस्रव निरन्तर होता ही रहता है ।