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| <p><b> अन्वय </b>:- उपयोगेभ्य: कषाया: न (संभवा:) । कषायत: उपयोगा: न (संभवा:)। नहि मूर्त-अमूर्तयो: परस्परं (उत्पाद:) संभव: अस्ति । </p> | | <p><b> अन्वय </b>:- उपयोगेभ्य: कषाया: न (संभवा:) । कषायत: उपयोगा: न (संभवा:)। नहि मूर्त-अमूर्तयो: परस्परं (उत्पाद:) संभव: अस्ति । </p> |
| <p><b> सरलार्थ </b>:- ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग से क्रोधादि कषाय उत्पन्न नहीं होते और कषायों से ज्ञानदश र्नरूप उपयोग उत्पन्न नहीं होते । अमूर्तिक द्रव्य से मूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो और मूर्तिक द्रव्य से अमूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो - ऐसी परस्पर उत्पत्ति संभव ही नहीं है । </p> | | <p><b> सरलार्थ </b>:- ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग से क्रोधादि कषाय उत्पन्न नहीं होते और कषायों से ज्ञानदश र्नरूप उपयोग उत्पन्न नहीं होते । अमूर्तिक द्रव्य से मूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो और मूर्तिक द्रव्य से अमूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो - ऐसी परस्पर उत्पत्ति संभव ही नहीं है । </p> |
| <p><b> भावार्थ </b>:- यह योगसार-प्राभृत अध्यात्म शास्त्र है । अत: इसमें विशिष्ट प्रकार की भेदज्ञान की कला बता रहे हैं । जीव, पुद्गलादि द्रव्यों से भिन्न है, यह विषय बताना मुख्य नहीं है । यह विषय समझना तो सामान्य है । जीव के क्रोधादि विकारों से जीव की चेतना अर्थात् ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग भिन्न है, यह समझना मुख्य है । अत: क्रोध, क्रोध में है और उपयोग, (ज्ञान-दर्शन) उपयोग में है । इसकारण कषायों से ज्ञान-दर्शन और ज्ञान-दर्शन से कषायों के उत्पन्न होने का निषेध किया है । इस श्लोक में क्रोधादि कषायों को विवक्षावश मूर्तिक एवं ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग को अमूर्तिक कहा है । ये परस्पर एक-दूसरे से उत्पन्न नहीं होते; इस विषय को समझाया है । इस विषय को स्पष्ट समझने के लिए समयसार शास्त्र की १८१ से १८३ पर्यंत तीन गाथाये, इनकी टीका तथा भावार्थ का सूक्ष्मता से अध्ययन करना आवश्यक है । इसमें बताया गया है कि भेदविज्ञान ही संवर प्रगट करने का सच्चा उपाय है । उपर्युक्त गाथाओं का भावार्थ निम्नानुसार है -
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| ``उपयोग तो चैतन्य का परिणमन होने से ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादि भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा शरीरादि नोकर्म - सभी पुद्गलद्रव्य के परिणाम होने से जड़ हैं, उनमें और ज्ञान में प्रदेशभेद होने से अत्यन्त भेद है । इसलिये उपयोग में क्रोधादिक, कर्म तथा नोकर्म नहीं हैं और क्रोधादिक में, कर्म में तथा नोकर्म में उपयोग नहीं है । इसप्रकार उनमें पारमार्थिक आधाराधेय सम्बन्ध नहीं है; प्रत्येक वस्तु का अपना-अपना आधाराधेयत्व अपने-अपने में ही है । इसलिये उपयोग, उपयोग में ही है और क्रोध, क्रोध में ही है । इसप्रकार भेदविज्ञान भलीभाँति सिद्ध हो गया । (भावकर्म इत्यादि का और उपयोग का भेद जानना, सो भेदविज्ञान है ।) यही भाव समयसार कलश १२६ में बताया है, वह निम्नानुसार है - ``ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिक पुद्गलविकार होने से जड़ हैं; किन्तु ऐसा भासित होता है कि मानों अज्ञान से ज्ञान भी रागादिरूप हो गया हो अर्थात् ज्ञान और रागादिक दोनों एकरूप - जड़रूप भासित होते हैं । जब अन्तरंग में ज्ञान और रागादि का भेद करने का तीव्र अभ्यास करने से भेदज्ञान प्रगट होता है तब यह ज्ञात होता है कि ज्ञान का स्वभाव तो मात्र जानने का ही है, ज्ञान में जो रागादि की कलुषता/ आकुलतारूप संकल्प-विकल्प भासित होते हैं वे सब पुद्गलविकार हैं; जड़ हैं । इसप्रकार ज्ञान और रागादि के भेद का स्वाद आता है अर्थात् अनुभव होता है । जब ऐसा भेदज्ञान होता है तब आत्मा आनन्दित होता है; क्योंकि उसे ज्ञात है कि ``स्वयं सदा ज्ञानस्वरूप ही रहा है, रागादिरूप कभी नहीं हुआ'' इसलिये आचार्यदेव ने कहा है कि `हे सत्पुरुषो! अब मुदित होओ ।'' </p>
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| [[योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 128 | पिछली गाथा]] | | [[योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 128 | पिछली गाथा]] |
Revision as of 08:59, 19 January 2009
सब स्वतंत्र एवं स्वाधीन -
कषाया नोपयोगेभ्यो नोपयोगा: कषायत: ।
न मूर्ताूर्तयोरस्ति संभवो हि परस्परम् ।।१३०।।
अन्वय :- उपयोगेभ्य: कषाया: न (संभवा:) । कषायत: उपयोगा: न (संभवा:)। नहि मूर्त-अमूर्तयो: परस्परं (उत्पाद:) संभव: अस्ति ।
सरलार्थ :- ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग से क्रोधादि कषाय उत्पन्न नहीं होते और कषायों से ज्ञानदश र्नरूप उपयोग उत्पन्न नहीं होते । अमूर्तिक द्रव्य से मूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो और मूर्तिक द्रव्य से अमूर्तिक द्रव्य उत्पन्न हो - ऐसी परस्पर उत्पत्ति संभव ही नहीं है ।
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