योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 144: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- अनित्यं, पीडकं, तृष्णा-वर्धकं, कर्मकारणं पराधीनं अक्षजं शर्म जिना: अशर्म एव विदु: । </p> | <p><b> अन्वय </b>:- अनित्यं, पीडकं, तृष्णा-वर्धकं, कर्मकारणं पराधीनं अक्षजं शर्म जिना: अशर्म एव विदु: । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- जो अनित्य हैं, पीड़ाकारक है, तृष्णावर्धक है, कर्मबंध का कारण है, पराधीन है, उस इंद्रियजन्य सुख को जिनराजों ने असुख अर्थात् दु:ख ही कहा है । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- जो अनित्य हैं, पीड़ाकारक है, तृष्णावर्धक है, कर्मबंध का कारण है, पराधीन है, उस इंद्रियजन्य सुख को जिनराजों ने असुख अर्थात् दु:ख ही कहा है । </p> | ||
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Revision as of 09:04, 19 January 2009
इंद्रिय-जनित सुख, दु:ख ही है -
अनित्यं पीडकं तृष्णा-वर्धकं कर्मकारणम् ।
शर्माक्षजं पराधीनमशर्मैव विदुर्जिना: ।।१४४।।
अन्वय :- अनित्यं, पीडकं, तृष्णा-वर्धकं, कर्मकारणं पराधीनं अक्षजं शर्म जिना: अशर्म एव विदु: ।
सरलार्थ :- जो अनित्य हैं, पीड़ाकारक है, तृष्णावर्धक है, कर्मबंध का कारण है, पराधीन है, उस इंद्रियजन्य सुख को जिनराजों ने असुख अर्थात् दु:ख ही कहा है ।