योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 145: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- सांसारिकं सर्वं सुखं दु:खत: न विशिष्यते ।(एतत् तत्त्वं) य: न एव बुध्यते स: मूढ: चारित्री न भण्यते । </p> | <p><b> अन्वय </b>:- सांसारिकं सर्वं सुखं दु:खत: न विशिष्यते ।(एतत् तत्त्वं) य: न एव बुध्यते स: मूढ: चारित्री न भण्यते । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- `संसार का सम्पूर्ण सुख और दु:ख - इनमें कोई अंतर नहीं', जो इस तत्त्व को नहीं समझता, वह मूढ़/मिथ्यादृष्टि चारित्रवान नहीं है; ऐसा समझना चाहिए । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- `संसार का सम्पूर्ण सुख और दु:ख - इनमें कोई अंतर नहीं', जो इस तत्त्व को नहीं समझता, वह मूढ़/मिथ्यादृष्टि चारित्रवान नहीं है; ऐसा समझना चाहिए । </p> | ||
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Revision as of 09:04, 19 January 2009
सांसारिक सुख को सुख माननेवाला मिथ्याचारित्री है -
सांसारिकं सुखं सर्वं दु:खतो न विशिष्यते ।
यो नैव बुध्यते मूढ़: स चारित्री न भण्यते ।।१४५।।
अन्वय :- सांसारिकं सर्वं सुखं दु:खत: न विशिष्यते ।(एतत् तत्त्वं) य: न एव बुध्यते स: मूढ: चारित्री न भण्यते ।
सरलार्थ :- `संसार का सम्पूर्ण सुख और दु:ख - इनमें कोई अंतर नहीं', जो इस तत्त्व को नहीं समझता, वह मूढ़/मिथ्यादृष्टि चारित्रवान नहीं है; ऐसा समझना चाहिए ।