योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 120: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: कर्म को जीव का कर्ता मानने पर आपत्ति - <p class="SanskritGatha"> आत्मानं कुरुते कर्म यदि...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
कर्म को जीव का कर्ता मानने पर आपत्ति - | <p class="Utthanika">कर्म को जीव का कर्ता मानने पर आपत्ति -</p> | ||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तदा कथम् ।<br> | आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तदा कथम् ।<br> | ||
Line 6: | Line 5: | ||
</p> | </p> | ||
<p><b> अन्वय </b>:- यदि कर्म आत्मानं कुरुते तदा कर्म चेतनाय फलं कथं दत्ते ? वा चेतन: (कर्म- फलं) कथं भुङ्क्ते ? </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- यदि कर्म आत्मानं कुरुते तदा कर्म चेतनाय फलं कथं दत्ते ? वा चेतन: (कर्म- फलं) कथं भुङ्क्ते ? </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- यदि कर्म (अपने उपादान से) स्वयं को करता है तो फिर कर्म, चेतन-आत्माको फल कैसे देता है? और चेतनात्मा उस फलको कैसे भोगता है? - ये दोनों बातें फिर बनती ही नहीं । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- यदि कर्म (अपने उपादान से) स्वयं को करता है तो फिर कर्म, चेतन-आत्माको फल कैसे देता है? और चेतनात्मा उस फलको कैसे भोगता है? - ये दोनों बातें फिर बनती ही नहीं । </p> | ||
<p class="GathaLinks"> | <p class="GathaLinks"> | ||
[[योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 119 | पिछली गाथा]] | [[योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 119 | पिछली गाथा]] |
Latest revision as of 10:31, 15 May 2009
कर्म को जीव का कर्ता मानने पर आपत्ति -
आत्मानं कुरुते कर्म यदि कर्म तदा कथम् ।
चेतनाय फलं दत्ते भुङ्क्ते वा चेतन: कथम् ।।१२०।।
अन्वय :- यदि कर्म आत्मानं कुरुते तदा कर्म चेतनाय फलं कथं दत्ते ? वा चेतन: (कर्म- फलं) कथं भुङ्क्ते ?
सरलार्थ :- यदि कर्म (अपने उपादान से) स्वयं को करता है तो फिर कर्म, चेतन-आत्माको फल कैसे देता है? और चेतनात्मा उस फलको कैसे भोगता है? - ये दोनों बातें फिर बनती ही नहीं ।