योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 121: Difference between revisions
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<p><b> अन्वय </b>:- परेण (जीवेन) विहितं कर्म यदि परेण (जीवेन) भुज्यते, तदानीं कोsपि (जीव:) सुख-दु:खेभ्य: कथं मुच्यते ? (न मुच्यते )। </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- परेण (जीवेन) विहितं कर्म यदि परेण (जीवेन) भुज्यते, तदानीं कोsपि (जीव:) सुख-दु:खेभ्य: कथं मुच्यते ? (न मुच्यते )। </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- परजीव के किये हुए कर्म को अर्थात् कर्म के फल को यदि दूसरा जीव भोगता है तो फिर कोई भी जीव सुख-दु:ख से अर्थात् संसार से कैसे मुक्त हो सकता है? अर्थात् कोई भी जीव संसार से मुक्त नहीं हो सकता । अत: प्रत्येक जीव अपने किये हुए कर्म-फल का ही भोक्ता है; यह परम सत्य है । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- परजीव के किये हुए कर्म को अर्थात् कर्म के फल को यदि दूसरा जीव भोगता है तो फिर कोई भी जीव सुख-दु:ख से अर्थात् संसार से कैसे मुक्त हो सकता है? अर्थात् कोई भी जीव संसार से मुक्त नहीं हो सकता । अत: प्रत्येक जीव अपने किये हुए कर्म-फल का ही भोक्ता है; यह परम सत्य है । </p> | ||
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Latest revision as of 10:32, 15 May 2009
एक के किये हुए कर्म के फल को दूसरे के द्वारा भोगने पर आपत्ति -
परेण विहितं कर्म परेण यदि भुज्यते ।
न कोsपि सुख-दु:खेभ्यस्तदानीं मुच्यते कथम् ।।१२१।।
अन्वय :- परेण (जीवेन) विहितं कर्म यदि परेण (जीवेन) भुज्यते, तदानीं कोsपि (जीव:) सुख-दु:खेभ्य: कथं मुच्यते ? (न मुच्यते )।
सरलार्थ :- परजीव के किये हुए कर्म को अर्थात् कर्म के फल को यदि दूसरा जीव भोगता है तो फिर कोई भी जीव सुख-दु:ख से अर्थात् संसार से कैसे मुक्त हो सकता है? अर्थात् कोई भी जीव संसार से मुक्त नहीं हो सकता । अत: प्रत्येक जीव अपने किये हुए कर्म-फल का ही भोक्ता है; यह परम सत्य है ।