योगसार - आस्रव-अधिकार गाथा 139: Difference between revisions
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हिंसने वितथे स्तेये मैथुने च परिग्रहे ।<br> | हिंसने वितथे स्तेये मैथुने च परिग्रहे ।<br> | ||
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<p><b> अन्वय </b>:- हिंसने वितथे स्तेये मैथुने परिग्रहे च मनोवृत्ति: अचारित्रं कर्मसंतते: कारणं । </p> | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- हिंसने वितथे स्तेये मैथुने परिग्रहे च मनोवृत्ति: अचारित्रं कर्मसंतते: कारणं । </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों में मन की जो प्रवृत्ति होती है; उसे अचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र कहते हैं, यह प्रवृत्ति, कर्म-संतति अर्थात् कर्म की उत्पत्ति, स्थिति तथा परंपरा का कारण है । </p> | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों में मन की जो प्रवृत्ति होती है; उसे अचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र कहते हैं, यह प्रवृत्ति, कर्म-संतति अर्थात् कर्म की उत्पत्ति, स्थिति तथा परंपरा का कारण है । </p> | ||
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Latest revision as of 10:37, 15 May 2009
अचारित्र का स्वरूप -
हिंसने वितथे स्तेये मैथुने च परिग्रहे ।
मनोवृत्तिरचारित्रं कारणं कर्मसंतते: ।।१३९।।
अन्वय :- हिंसने वितथे स्तेये मैथुने परिग्रहे च मनोवृत्ति: अचारित्रं कर्मसंतते: कारणं ।
सरलार्थ :- हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों में मन की जो प्रवृत्ति होती है; उसे अचारित्र अर्थात् मिथ्याचारित्र कहते हैं, यह प्रवृत्ति, कर्म-संतति अर्थात् कर्म की उत्पत्ति, स्थिति तथा परंपरा का कारण है ।