कुंथु: Difference between revisions
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Revision as of 16:30, 5 July 2020
(1) अवसर्पिणी काल के दु:षमा सुषमा नामक चतुर्थ काल में उत्पन्न शलाकापुरुष, छठें चक्रवर्ती एवं सत्रहवें तीर्थंकर । ये सोलह स्वप्नपूर्वक कृत्ति का नक्षत्र में श्रावणकृष्णा दशमी की रात्रि के पिछले प्रहर में हस्तिनापुर के कौरववंशी एवं काश्यपगोत्री महाराज शूरसेन की रानी श्रीकान्ता के गर्भ में आये । वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन आग्नेय योग में इनका जन्म हुआ । क्षीरसागर के जल से अभिषेक करने के पश्चात् इन्द्र ने इनका नाम कुन्थु रखा । इनका जन्म तीर्थंकर शान्तिनाथ के बाद आधा पल्य समय बीत जाने पर हुआ था । इनकी आयु पचानवें हजार वर्ष, शरीर की अवगाहना पैंतीस धनुष और कान्ति तप्त स्वर्ण के समान थी । कुमारकाल के तेईस हजार सात सी पचास वर्ष बीत जाने पर इनका राज्याभिषेक हुआ और इतना ही समय और निकल जाने पर इन्हें चक्रवर्तित्व मिला । राज्य-भोगों से विरक्त होकर इन्होंने पुत्र को राज्य दे दिया । ये विजया नामक पाल की में बैठकर सहेतुक वन में पहुँचे । वहाँ इन्होंने वेला (दो दिन का उपवास) किया । वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ ये दीक्षित हुए । दीक्षित होते ही ये मन:पर्ययज्ञानी हो गये । इस समय कृत्ति का नक्षत्र था । इसी नक्षत्र मे 16 वर्ष तप करने के बाद तिलक वृक्ष के नीचे चैत्र शुक्ल तृतीया की सायं वेला में ये केवली हुए । इनके संघ में स्वयंभू आदि पैंतीस गणधर, साठ हजार मुनि, साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ, तीन लाख श्राविकाएँ और दो लाख श्रावक थे । एक मास की आयु शेष रहने पर ये सम्मेदगिरि आये । इन्होंने प्रतिमायोग धारण किया और वैशाख अमल प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्व भाग में कृत्ति का नक्षत्र में निर्वाण प्राप्त किया । दूसरे पूर्वभव में ये वत्स देश की सुसीमा नगरी के राजा सिंहरथ थे । तपश्चर्या पूर्वक मरण होने से ये पहले पूर्वभव में सर्वार्थसिद्धि के अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए । वहाँ से च्युत होकर इस पर्याय में आये और तीर्थंकर हुए । महापुराण 2. 132, 64. 2-5, 10-15, 22-28, 36-54, पद्मपुराण 5.215,223, 20.15-35, 53, 61-68, 87, 115, 121, हरिवंशपुराण 1.19, 45. 20, 60.154-198, 341-349, पांडवपुराण 6.27,51 वीरवर्द्धमान चरित्र 18. 101-109
(2) एक प्रकार के जीव । मनुष्य 64.1
(3) तीर्थंकर श्रेयांस के प्रथम गणधर । मनुष्य 57.44, हरिवंशपुराण 60.347
(4) तीर्थंकर अरनाथ के प्रथम गणधर । हरिवंशपुराण 60. 348