योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 88: Difference between revisions
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अचेतनत्वमेतस्य तदा केन निषिध्यते ।।८८।।<br> | |||
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<p><b> सरलार्थ </b>:- यदि | <p><b> सरलार्थ </b>:- यदि कर्म अपने उपादानभाव से/अन्तरंग शक्ति से चेतन अर्थात् जीव का निर्माण करता है तो इस चेतनरूप जीव के अचेतनपने/जडपने के प्रसंग का निषेध कैसे किया जा सकता है? अर्थात् निषेध नहीं किया जा सकता । </p> | ||
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Revision as of 23:06, 19 January 2009
कर्म, स्वभाव से जीव को करे तो आपत्ति -
यद्युपादानभावेन विधत्ते कर्म चेतनम् ।
अचेतनत्वमेतस्य तदा केन निषिध्यते ।।८८।।
अन्वय :- यदि कर्म उपादान-भावेन चेतनं विधत्ते तदा एतस्य (चेतन-जीवस्य) अचेतनत्वं केन निषिध्यते ?
सरलार्थ :- यदि कर्म अपने उपादानभाव से/अन्तरंग शक्ति से चेतन अर्थात् जीव का निर्माण करता है तो इस चेतनरूप जीव के अचेतनपने/जडपने के प्रसंग का निषेध कैसे किया जा सकता है? अर्थात् निषेध नहीं किया जा सकता ।