अनर्थदंड: Difference between revisions
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<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 74 आभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्यः। </p> | <p class="SanskritText">रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 74 आभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्यः। </p> | ||
<p>= दिशाओं की मर्यादा के भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पापों के कारणों से विरक्त होने को व्रतधारियों में अग्रगण्य पुरुष अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= दिशाओं की मर्यादा के भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पापों के कारणों से विरक्त होने को व्रतधारियों में अग्रगण्य पुरुष अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/359 असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/359 असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः। </p> | ||
<p>= उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, वह अनर्थदण्ड है। </p> | <p class="HindiText">= उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, वह अनर्थदण्ड है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/214/547/26)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 7/214/547/26)।</p> | ||
<p> चारित्रसार पृष्ठ 16/4 प्रयोजनं विना पापादानहेत्वनर्थदण्डः। </p> | <p class="SanskritText">चारित्रसार पृष्ठ 16/4 प्रयोजनं विना पापादानहेत्वनर्थदण्डः। </p> | ||
<p>= बिना ही प्रयोजन के जितने पाप लगते हों उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= बिना ही प्रयोजन के जितने पाप लगते हों उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 343 कज्जं किं पि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो। सो खलु हवदि अणत्थो पंच-पयारो वि सो विविहो॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 343 कज्जं किं पि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो। सो खलु हवदि अणत्थो पंच-पयारो वि सो विविहो॥ </p> | ||
<p>= जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप बन्धता है उसे अनर्थ कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप बन्धता है उसे अनर्थ कहते हैं।</p> | ||
<p> वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा 216 अय-दण्ड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताणं। जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं। </p> | <p class="SanskritText">वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा 216 अय-दण्ड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताणं। जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं। </p> | ||
<p>= लोहे के शस्त्र तलवार कुदाली वगैरह के तथा दण्ड और पाश (जाल) आदि के बेचने का त्याग करना, झूठी तराजु तथा कूट मान आदि के बाँटों को कम नहीं रखना तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना सो यह तीसरा अनर्थदण्ड त्याग नाम का गुणव्रत जानना चाहिए ॥216॥ (गुण. श्रा. 142)।</p> | <p class="HindiText">= लोहे के शस्त्र तलवार कुदाली वगैरह के तथा दण्ड और पाश (जाल) आदि के बेचने का त्याग करना, झूठी तराजु तथा कूट मान आदि के बाँटों को कम नहीं रखना तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना सो यह तीसरा अनर्थदण्ड त्याग नाम का गुणव्रत जानना चाहिए ॥216॥ (गुण. श्रा. 142)।</p> | ||
<p> सागार धर्मामृत अधिकार 5/6 पीडा पापोपदेशाद्यैर्देहाद्यर्थाद्विनाङ्गिनाम्। अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्डव्रतं मतम्। </p> | <p class="SanskritText">सागार धर्मामृत अधिकार 5/6 पीडा पापोपदेशाद्यैर्देहाद्यर्थाद्विनाङ्गिनाम्। अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्डव्रतं मतम्। </p> | ||
<p>= अपने तथा अपने कुटुम्बी जनों के शरीर, वचन तथा मन सम्बन्धी प्रयोजन के बिना, पापोपदेशादिक के द्वारा प्राणियों को पीड़ा नहीं देना, अनर्थदण्ड का त्याग अनर्थ दण्डव्रत माना गया है।</p> | <p class="HindiText">= अपने तथा अपने कुटुम्बी जनों के शरीर, वचन तथा मन सम्बन्धी प्रयोजन के बिना, पापोपदेशादिक के द्वारा प्राणियों को पीड़ा नहीं देना, अनर्थदण्ड का त्याग अनर्थ दण्डव्रत माना गया है।</p> | ||
<p>1. अनर्थदण्ड के भेद</p> | <p>1. अनर्थदण्ड के भेद</p> | ||
<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 75 पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च। प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः। </p> | <p class="SanskritText">रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 75 पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च। प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः। </p> | ||
<p>= दण्डको नहीं धरनेवाले गणधरादिक आचार्य-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पाँचों को अनर्थदण्ड कहते हैं। </p> | <p class="HindiText">= दण्डको नहीं धरनेवाले गणधरादिक आचार्य-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पाँचों को अनर्थदण्ड कहते हैं। </p> | ||
<p>( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360) (राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/5) ( चारित्रसार पृष्ठ 16/4)।</p> | <p>( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360) (राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/5) ( चारित्रसार पृष्ठ 16/4)।</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 141-146 अपध्यान ।141।, पापोपदेश ।142।, प्रमादाचरित ।143।, हिंसादान ।144।, दुःश्रुति ।145। द्युतक्रीड़ा ।146।</p> | <p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 141-146 अपध्यान ।141।, पापोपदेश ।142।, प्रमादाचरित ।143।, हिंसादान ।144।, दुःश्रुति ।145। द्युतक्रीड़ा ।146।</p> | ||
<p> चारित्रसार पृष्ठ 16/5 पापोपदेशश्चतुर्विधः-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरम्भकोपदेशश्च। </p> | <p class="SanskritText">चारित्रसार पृष्ठ 16/5 पापोपदेशश्चतुर्विधः-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरम्भकोपदेशश्च। </p> | ||
<p>= पापोपदेश चार प्रकार का है - क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरम्भकोपदेश। (दुःश्रुति चार प्रकार की है-स्त्रीकथा, भोगकथा, चोरकथा व राजकथा - देखें [[ कथा ]]) ।</p> | <p class="HindiText">= पापोपदेश चार प्रकार का है - क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरम्भकोपदेश। (दुःश्रुति चार प्रकार की है-स्त्रीकथा, भोगकथा, चोरकथा व राजकथा - देखें [[ कथा ]]) ।</p> | ||
<p>2. अपध्यानादि विशेष अनर्थदण्डों के लक्षण</p> | <p>2. अपध्यानादि विशेष अनर्थदण्डों के लक्षण</p> | ||
<p>1. अपध्यान अनर्थदण्ड - देखें [[ अपध्यान ]]।</p> | <p>1. अपध्यान अनर्थदण्ड - देखें [[ अपध्यान ]]।</p> | ||
<p>2. पापोपदेश अनर्थदण्ड</p> | <p>2. पापोपदेश अनर्थदण्ड</p> | ||
<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 76 तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम्। कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मर्त्तव्यः पाप उपदेशः ॥76॥ </p> | <p class="SanskritText">रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 76 तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम्। कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मर्त्तव्यः पाप उपदेशः ॥76॥ </p> | ||
<p>= तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आरंभ, ठगाई आदिकी कथाओं के प्रसंग उठाने को पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड जानना चाहिए। </p> | <p class="HindiText">= तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आरंभ, ठगाई आदिकी कथाओं के प्रसंग उठाने को पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड जानना चाहिए। </p> | ||
<p>( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/60)</p> | <p>( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/60)</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 7/21/549/7 क्लेशतिर्यग्वणिज्यावधकारम्भादिषु पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। तद्यथा अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थ लाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीन् अमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या। वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभृतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति वचनं वधकोपदेशः। आरम्भकेभ्यः कृषीवलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारम्भोऽनेनोपायेन कर्तव्यः इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः। इत्येवं प्रकारं पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 7/21/549/7 क्लेशतिर्यग्वणिज्यावधकारम्भादिषु पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। तद्यथा अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थ लाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीन् अमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या। वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभृतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति वचनं वधकोपदेशः। आरम्भकेभ्यः कृषीवलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारम्भोऽनेनोपायेन कर्तव्यः इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः। इत्येवं प्रकारं पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। </p> | ||
<p>= क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा आरम्भादिकमें पाप संयुक्त वचन पापोपदेश कहलाता है। वह इस प्रकार कि-1. इस देशमें दास-दासी बहुत सुलभ हैं। उनको अमुक देशमें ले जाकर बेचने से महान् अर्थ लाभ होता है। इसे क्लेशवणिज्या कहते हैं। 2. गाय, भैंस आदि पशु अमुक स्थानसे ले जाकर अन्यत्र देशमें व्यवहार करने से महान् अर्थ लाभ होता है, इसे तिर्यग्वणिज्या कहते हैं। 3. वधक व शिकारी लोगों को यह बताना कि हिरण, सूअर व पक्षी आदि अमुक देशमें अधिक होते हैं, ऐसा वचन वधकोपदेश है। 4. खेती आदि करनेवालों से यह कहना कि पृथ्वी का अथवा जल, अग्नि, पवन, वनस्पति आदि का आरम्भ इस उपाय से करना चाहिए। ऐसा कथन आरम्भकोपदेश है। इस प्रकार के पाप संयुक्त वचन पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड है। </p> | <p class="HindiText">= क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा आरम्भादिकमें पाप संयुक्त वचन पापोपदेश कहलाता है। वह इस प्रकार कि-1. इस देशमें दास-दासी बहुत सुलभ हैं। उनको अमुक देशमें ले जाकर बेचने से महान् अर्थ लाभ होता है। इसे क्लेशवणिज्या कहते हैं। 2. गाय, भैंस आदि पशु अमुक स्थानसे ले जाकर अन्यत्र देशमें व्यवहार करने से महान् अर्थ लाभ होता है, इसे तिर्यग्वणिज्या कहते हैं। 3. वधक व शिकारी लोगों को यह बताना कि हिरण, सूअर व पक्षी आदि अमुक देशमें अधिक होते हैं, ऐसा वचन वधकोपदेश है। 4. खेती आदि करनेवालों से यह कहना कि पृथ्वी का अथवा जल, अग्नि, पवन, वनस्पति आदि का आरम्भ इस उपाय से करना चाहिए। ऐसा कथन आरम्भकोपदेश है। इस प्रकार के पाप संयुक्त वचन पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड है। </p> | ||
<p>( चारित्रसार पृष्ठ 16/5)।</p> | <p>( चारित्रसार पृष्ठ 16/5)।</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 142 विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्। पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥142॥ </p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 142 विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्। पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥142॥ </p> | ||
<p>= विना प्रयोजन किसी पुरुष को आजीविका के कारण, विद्या, वाणिज्य, लेखनकला, खेती, नौकरी और शिल्प आदिक नाना प्रकार के काम तथा हुनर करने का उपदेश देना, पापोपदेश अनर्थदण्ड कहलाता है। पापोपदेश अनर्थदण्ड के त्याग का नाम ही अनर्थदण्डव्रत कहलाता है।</p> | <p class="HindiText">= विना प्रयोजन किसी पुरुष को आजीविका के कारण, विद्या, वाणिज्य, लेखनकला, खेती, नौकरी और शिल्प आदिक नाना प्रकार के काम तथा हुनर करने का उपदेश देना, पापोपदेश अनर्थदण्ड कहलाता है। पापोपदेश अनर्थदण्ड के त्याग का नाम ही अनर्थदण्डव्रत कहलाता है।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 345 जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्जपमुहेसु। पुरसित्थी-संजोए अणत्थ-दंडोहवे विदिओ। </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 345 जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्जपमुहेसु। पुरसित्थी-संजोए अणत्थ-दंडोहवे विदिओ। </p> | ||
<p>= कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरह का तथा स्त्री-पुरुष के समागम का जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा अनर्थदण्ड है।</p> | <p class="HindiText">= कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरह का तथा स्त्री-पुरुष के समागम का जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा अनर्थदण्ड है।</p> | ||
<p> सागार धर्मामृत अधिकार 5/7 पापोपदेशं यद्ववाक्यं, हिंसाकृत्यादिसंश्रयम्। तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठ्यां प्रसज्जयेत् ॥7॥ </p> | <p class="SanskritText">सागार धर्मामृत अधिकार 5/7 पापोपदेशं यद्ववाक्यं, हिंसाकृत्यादिसंश्रयम्। तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठ्यां प्रसज्जयेत् ॥7॥ </p> | ||
<p>= हिंसा, खेती और व्यापार आदि को विषय करनेवाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है इसलिए अनर्थदण्डव्रत का इच्छुक श्रावक हिंसा, खेती और व्यापार आदिसे आजीविका करनेवाले, व्याध, ठग वगैरह के लिए उस पापोपदेश को नहीं देवें और कथा-वार्तालाप वगैरह में उस पापोपदेश को प्रसंग में नहीं लावें।</p> | <p class="HindiText">= हिंसा, खेती और व्यापार आदि को विषय करनेवाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है इसलिए अनर्थदण्डव्रत का इच्छुक श्रावक हिंसा, खेती और व्यापार आदिसे आजीविका करनेवाले, व्याध, ठग वगैरह के लिए उस पापोपदेश को नहीं देवें और कथा-वार्तालाप वगैरह में उस पापोपदेश को प्रसंग में नहीं लावें।</p> | ||
<p>3. प्रमादाचरित अनर्थदण्ड</p> | <p>3. प्रमादाचरित अनर्थदण्ड</p> | ||
<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 80 क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च प्रमादाचर्यां प्रभाषन्ते ॥80॥ </p> | <p class="SanskritText">रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 80 क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च प्रमादाचर्यां प्रभाषन्ते ॥80॥ </p> | ||
<p>= बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के आरम्भ करने को, वनस्पति छेदने को, पर्यटन करने को और दूसरों को पर्यटन कराने को भी प्रमादचर्या नामा अनर्थदण्ड कहते हैं। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 346)।</p> | <p class="HindiText">= बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के आरम्भ करने को, वनस्पति छेदने को, पर्यटन करने को और दूसरों को पर्यटन कराने को भी प्रमादचर्या नामा अनर्थदण्ड कहते हैं। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 346)।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम्। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम्। </p> | ||
<p>= बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नामका अनर्थदण्ड है। </p> | <p class="HindiText">= बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नामका अनर्थदण्ड है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/14) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/2)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/14) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/2)।</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 143 भूखननवृक्षमोट्ठनशाड्वलदलनाम्बुसेवनादीनि। निष्कारण न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च। </p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 143 भूखननवृक्षमोट्ठनशाड्वलदलनाम्बुसेवनादीनि। निष्कारण न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च। </p> | ||
<p>= बिना प्रयोजन जमीन का खोदना, वृक्षादि को उखाड़ना, दूब आदिक हरी घासको रौंदना या खोदना, पानी खींचना, फल, फूल, पत्रादि का तोड़ना इत्यादिक पाप क्रियाओं का करना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है। </p> | <p class="HindiText">= बिना प्रयोजन जमीन का खोदना, वृक्षादि को उखाड़ना, दूब आदिक हरी घासको रौंदना या खोदना, पानी खींचना, फल, फूल, पत्रादि का तोड़ना इत्यादिक पाप क्रियाओं का करना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है। </p> | ||
<p> सागार धर्मामृत अधिकार 5/10 प्रमादचर्यां विफलक्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम्। खातव्याघातविध्यापासेकच्छेदादि नाचरेत् ॥10॥ </p> | <p class="SanskritText">सागार धर्मामृत अधिकार 5/10 प्रमादचर्यां विफलक्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम्। खातव्याघातविध्यापासेकच्छेदादि नाचरेत् ॥10॥ </p> | ||
<p>= अनर्थदण्ड का त्यागी श्रावक पृथिवीके खोदनेरूप किवाड़ वगैरह के द्वारा वायु के प्रतिबन्ध करने रूप, जलादि से अग्नि को बुझाने रूप, भूमि वगैरह में जलके फेंकने तथा वनस्पति के छेदने आदि रूप प्रमादचर्या को नहीं करे।</p> | <p class="HindiText">= अनर्थदण्ड का त्यागी श्रावक पृथिवीके खोदनेरूप किवाड़ वगैरह के द्वारा वायु के प्रतिबन्ध करने रूप, जलादि से अग्नि को बुझाने रूप, भूमि वगैरह में जलके फेंकने तथा वनस्पति के छेदने आदि रूप प्रमादचर्या को नहीं करे।</p> | ||
<p>4. हिंसादान अनर्थदण्ड</p> | <p>4. हिंसादान अनर्थदण्ड</p> | ||
<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 77 परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृङ्गशृङ्गलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ॥77॥ </p> | <p class="SanskritText">रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 77 परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृङ्गशृङ्गलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ॥77॥ </p> | ||
<p>= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सींगी, शांकल आदि हिंसा के कारणों के माँगे देने को पण्डित जन हिंसादान नामा अनर्थदण्ड कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सींगी, शांकल आदि हिंसा के कारणों के माँगे देने को पण्डित जन हिंसादान नामा अनर्थदण्ड कहते हैं।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 विषकण्टकशस्त्राग्निरज्जुकशादण्डादिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम्। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 विषकण्टकशस्त्राग्निरज्जुकशादण्डादिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम्। </p> | ||
<p>= विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक, और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिंसाप्रदान नामा अनर्थदण्ड है </p> | <p class="HindiText">= विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक, और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिंसाप्रदान नामा अनर्थदण्ड है </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/16) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/3)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/16) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/3)।</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 144 असिधेनुविषहुताशनलाङ्गलकरवालकार्मुकादीनाम्। वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यन्तात्। </p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 144 असिधेनुविषहुताशनलाङ्गलकरवालकार्मुकादीनाम्। वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यन्तात्। </p> | ||
<p>= असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसा के उपकरणों को दूसरों को माँगा देने का त्याग करना, हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड है।</p> | <p class="HindiText">= असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसा के उपकरणों को दूसरों को माँगा देने का त्याग करना, हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड है।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 347 मज्जार-पहुदि-धरणं आउह-लोहादि-विक्कणं जं च। लक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दण्डो हवे तुरिओ ॥347॥ </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 347 मज्जार-पहुदि-धरणं आउह-लोहादि-विक्कणं जं च। लक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दण्डो हवे तुरिओ ॥347॥ </p> | ||
<p>= बिलावादि हिंसक जन्तुओं का पालना, लोहे तथा अस्त्र-शस्त्रों का देना-लेना और लाख, विष वगैरह का लेना-देना चौथा अनर्थदण्ड है।</p> | <p class="HindiText">= बिलावादि हिंसक जन्तुओं का पालना, लोहे तथा अस्त्र-शस्त्रों का देना-लेना और लाख, विष वगैरह का लेना-देना चौथा अनर्थदण्ड है।</p> | ||
<p> सागार धर्मामृत अधिकार 5/8 हिंसादानविषास्त्रादि-हिंसाङ्गस्पर्शनं त्यजेत्। पाकाद्यर्थं च नाग्न्यादिदाक्षिण्याविषयेऽर्पयेत्। </p> | <p class="SanskritText">सागार धर्मामृत अधिकार 5/8 हिंसादानविषास्त्रादि-हिंसाङ्गस्पर्शनं त्यजेत्। पाकाद्यर्थं च नाग्न्यादिदाक्षिण्याविषयेऽर्पयेत्। </p> | ||
<p>= विष या हथियार आदि हिंसा के कारणभूत पदार्थों का देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड व्रत कहलाता है। उस हिंसादान अनर्थदण्ड को छोड़ देना चाहिए। जिससे अपना व्यवहार है ऐसे पुरुषों से भिन्न पुरुषों के विषय में पाकादि के लिए अग्नि नहीं देवे।</p> | <p class="HindiText">= विष या हथियार आदि हिंसा के कारणभूत पदार्थों का देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड व्रत कहलाता है। उस हिंसादान अनर्थदण्ड को छोड़ देना चाहिए। जिससे अपना व्यवहार है ऐसे पुरुषों से भिन्न पुरुषों के विषय में पाकादि के लिए अग्नि नहीं देवे।</p> | ||
<p>5. दुःश्रुति अनर्थदण्ड</p> | <p>5. दुःश्रुति अनर्थदण्ड</p> | ||
<p> रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 79 आरम्भसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥79॥ </p> | <p class="SanskritText">रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 79 आरम्भसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥79॥ </p> | ||
<p>= आरम्भ, परिग्रह, दुःसाहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, गर्व, कामवासना आदिसे चित्त को क्लेषित करनेवाले शास्त्रों का सुनना-वाँचना सो दुःश्रुति नामा अनर्थदण्ड है।</p> | <p class="HindiText">= आरम्भ, परिग्रह, दुःसाहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, गर्व, कामवासना आदिसे चित्त को क्लेषित करनेवाले शास्त्रों का सुनना-वाँचना सो दुःश्रुति नामा अनर्थदण्ड है।</p> | ||
<p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः। </p> | <p class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः। </p> | ||
<p>= हिंसा और राग आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नामका अनर्थदण्ड है। </p> | <p class="HindiText">= हिंसा और राग आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नामका अनर्थदण्ड है। </p> | ||
<p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/4)।</p> | <p>(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/4)।</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 145 रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम्। न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥145॥ </p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 145 रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम्। न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥145॥ </p> | ||
<p>= रागद्वेष आदिक विभाव भावों के बढ़ानेवाली, अज्ञान भावसे भरी हुई दुष्ट कथाओं को सुनना, बनाना, एकत्रित करना, या सीखना आदि का त्याग करने का नाम दुःश्रुति अनर्थदण्ड व्रत है।</p> | <p class="HindiText">= रागद्वेष आदिक विभाव भावों के बढ़ानेवाली, अज्ञान भावसे भरी हुई दुष्ट कथाओं को सुनना, बनाना, एकत्रित करना, या सीखना आदि का त्याग करने का नाम दुःश्रुति अनर्थदण्ड व्रत है।</p> | ||
<p> कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 348 ज सवणं सत्थाणं भंडण-वासियरण-काम-सत्थाणं। परदोसाणं ज तहा अणत्थ-दण्डो हवे चरिमो ।348। </p> | <p class="SanskritText">कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 348 ज सवणं सत्थाणं भंडण-वासियरण-काम-सत्थाणं। परदोसाणं ज तहा अणत्थ-दण्डो हवे चरिमो ।348। </p> | ||
<p>= जिन शास्त्रों या पुस्तकों में गन्दे मजाक, वशीकरण, कामभोग वगैरह का वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषों की चर्चा वार्ता सुनना पाँचवाँ अनर्थदण्ड है।</p> | <p class="HindiText">= जिन शास्त्रों या पुस्तकों में गन्दे मजाक, वशीकरण, कामभोग वगैरह का वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषों की चर्चा वार्ता सुनना पाँचवाँ अनर्थदण्ड है।</p> | ||
<p> सागार धर्मामृत अधिकार 5/9 चित्तकालुष्यकृत्काम-हिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम्। न दुःश्रुतिमपध्यानं, नार्तरौद्रात्म चान्वियात् ॥9॥ </p> | <p class="SanskritText">सागार धर्मामृत अधिकार 5/9 चित्तकालुष्यकृत्काम-हिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम्। न दुःश्रुतिमपध्यानं, नार्तरौद्रात्म चान्वियात् ॥9॥ </p> | ||
<p>= अनर्थदण्डव्रत का इच्छुक श्रावक चित्तमें कालुष्यता करनेवाला जो काम तथा हिंसा आदिक हैं तात्पर्य जिनके ऐसे शास्त्रों के रूप दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड को नहीं करे और आर्त तथा रौद्र ध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदण्ड को नहीं करे।</p> | <p class="HindiText">= अनर्थदण्डव्रत का इच्छुक श्रावक चित्तमें कालुष्यता करनेवाला जो काम तथा हिंसा आदिक हैं तात्पर्य जिनके ऐसे शास्त्रों के रूप दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड को नहीं करे और आर्त तथा रौद्र ध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदण्ड को नहीं करे।</p> | ||
<p>3. अनर्थदण्डव्रत के अतिचार</p> | <p>3. अनर्थदण्डव्रत के अतिचार</p> | ||
<p> तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/32 कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि। </p> | <p class="SanskritText">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/32 कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि। </p> | ||
<p>= 1. हास्ययुक्त अशिष्ट वचन का प्रयोग. 2. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे वचन का प्रयोग, 3. बेकार बोलते रहना, 4. प्रयोजन के बिना कोई न कोई तोड़-फोड़ करते रहना या काव्यादिका चिन्तवन करते रहना, 5. प्रयोजन न होनेपर भी भोग-परिभोग की सामग्री एकत्रित करना या रखना, ये पाँच अनर्थदण्ड व्रत के अतिचार हैं। </p> | <p class="HindiText">= 1. हास्ययुक्त अशिष्ट वचन का प्रयोग. 2. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे वचन का प्रयोग, 3. बेकार बोलते रहना, 4. प्रयोजन के बिना कोई न कोई तोड़-फोड़ करते रहना या काव्यादिका चिन्तवन करते रहना, 5. प्रयोजन न होनेपर भी भोग-परिभोग की सामग्री एकत्रित करना या रखना, ये पाँच अनर्थदण्ड व्रत के अतिचार हैं। </p> | ||
<p>(र. क. श्रा./81)</p> | <p>(र. क. श्रा./81)</p> | ||
<p>4. भोगपभोग परिमालव्रत व भोगोपभोग आनर्थक्य नामक अतिचार में अन्तर</p> | <p>4. भोगपभोग परिमालव्रत व भोगोपभोग आनर्थक्य नामक अतिचार में अन्तर</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 7/32,6-7/556/29 यावताऽर्थे न उपभोगपरिभोगौ प्रकल्प्येतेतस्य तावानर्थ इत्युच्यते, ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम् ।6। ...स्यादेतत्-उपभोगपरिभोगव्रतेऽन्तर्भवतीति पौनरुक्त्यमासज्यत इति; तन्न किं कारणम्। तदर्थानवधारणात्। इच्छावशात् उपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रहः सावद्यप्रत्याख्यानं चेति तदुक्तम्, इह पुनः कल्प्यस्यैव आधिक्यमित्यतिक्रम इत्युच्यते। नन्वेवमपितद्व्रतातिचारान्तर्भावात् इदं वचनमनर्थकम्। नानर्थकम्; सचित्ताद्यतिक्रमवचनात्। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 7/32,6-7/556/29 यावताऽर्थे न उपभोगपरिभोगौ प्रकल्प्येतेतस्य तावानर्थ इत्युच्यते, ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम् ।6। ...स्यादेतत्-उपभोगपरिभोगव्रतेऽन्तर्भवतीति पौनरुक्त्यमासज्यत इति; तन्न किं कारणम्। तदर्थानवधारणात्। इच्छावशात् उपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रहः सावद्यप्रत्याख्यानं चेति तदुक्तम्, इह पुनः कल्प्यस्यैव आधिक्यमित्यतिक्रम इत्युच्यते। नन्वेवमपितद्व्रतातिचारान्तर्भावात् इदं वचनमनर्थकम्। नानर्थकम्; सचित्ताद्यतिक्रमवचनात्। </p> | ||
<p>= जिसके जितने उपभोग और परिभोग के पदार्थों से काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। <b>प्रश्न</b> - इसका तो उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें अन्तर्भाव हो जाता है अतः इससे पुनरुक्तता प्राप्त होती है? <b>उत्तर</b> - नहीं होती, क्योंकि इसका अर्थ अन्य है। उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें तो इच्छानुसार प्रमाण किया जाता है और सावद्य का परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकता का विचार है। जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकता से अधिक है तो अतिचार है। <b>प्रश्न</b> - तब इसका अन्तर्भाव भोगपरिभोग-परिमाणव्रत के अतिचार में हो जानेसे यह कथन निरर्थक है? <b>उत्तर</b> - निरर्थक नहीं है क्योंकि वहाँ सचित्त सम्बन्ध आदि रूपसे मर्यादातिक्रम विवक्षित है, अतः इसका वहाँ कथन नहीं किया।</p> | <p class="HindiText">= जिसके जितने उपभोग और परिभोग के पदार्थों से काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। <b>प्रश्न</b> - इसका तो उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें अन्तर्भाव हो जाता है अतः इससे पुनरुक्तता प्राप्त होती है? <b>उत्तर</b> - नहीं होती, क्योंकि इसका अर्थ अन्य है। उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें तो इच्छानुसार प्रमाण किया जाता है और सावद्य का परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकता का विचार है। जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकता से अधिक है तो अतिचार है। <b>प्रश्न</b> - तब इसका अन्तर्भाव भोगपरिभोग-परिमाणव्रत के अतिचार में हो जानेसे यह कथन निरर्थक है? <b>उत्तर</b> - निरर्थक नहीं है क्योंकि वहाँ सचित्त सम्बन्ध आदि रूपसे मर्यादातिक्रम विवक्षित है, अतः इसका वहाँ कथन नहीं किया।</p> | ||
<p>5. अनर्थदण्डव्रत का प्रयोजन</p> | <p>5. अनर्थदण्डव्रत का प्रयोजन</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 7/21,22/549/19 दिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थकं चङ्क्रमणादिविषयोपसेवनं च निष्प्रयोजनं न कर्तव्यमित्यतिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थं मध्येऽनर्थदण्डवचनं क्रियते। </p> | <p class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 7/21,22/549/19 दिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थकं चङ्क्रमणादिविषयोपसेवनं च निष्प्रयोजनं न कर्तव्यमित्यतिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थं मध्येऽनर्थदण्डवचनं क्रियते। </p> | ||
<p>= पहले कहे गये दिग्व्रत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत में स्वीकृत मर्यादामें भी निरर्थक गमन आदि तथा विषय सेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्ति की सूचना के लिए बीचमें अनर्थदण्डविरति का ग्रहण किया है।</p> | <p class="HindiText">= पहले कहे गये दिग्व्रत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत में स्वीकृत मर्यादामें भी निरर्थक गमन आदि तथा विषय सेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्ति की सूचना के लिए बीचमें अनर्थदण्डविरति का ग्रहण किया है।</p> | ||
<p>6. अनर्थदण्डव्रत का महत्त्व</p> | <p>6. अनर्थदण्डव्रत का महत्त्व</p> | ||
<p> पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 147 एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥147॥ </p> | <p class="SanskritText">पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 147 एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥147॥ </p> | ||
<p>= जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी अनर्थदण्डों को जानकर उनका त्याग करता है, वह निरन्तर निर्दोष अहिंसाव्रत का पालन करता है।</p> | <p class="HindiText">= जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी अनर्थदण्डों को जानकर उनका त्याग करता है, वह निरन्तर निर्दोष अहिंसाव्रत का पालन करता है।</p> | ||
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Revision as of 13:46, 10 July 2020
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 74 आभ्यन्तरं दिगवधेरपार्थिकेभ्यः सपापयोगेभ्यः। विरमणमनर्थदण्डव्रतं विदुर्व्रतधराग्रण्यः।
= दिशाओं की मर्यादा के भीतर-भीतर प्रयोजन रहित पापों के कारणों से विरक्त होने को व्रतधारियों में अग्रगण्य पुरुष अनर्थदण्ड व्रत कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/359 असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः।
= उपकार न होकर जो प्रवृत्ति केवल पाप का कारण है, वह अनर्थदण्ड है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/214/547/26)।
चारित्रसार पृष्ठ 16/4 प्रयोजनं विना पापादानहेत्वनर्थदण्डः।
= बिना ही प्रयोजन के जितने पाप लगते हों उन्हें अनर्थदण्ड कहते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 343 कज्जं किं पि ण साहदि णिच्चं पावं करेदि जो अत्थो। सो खलु हवदि अणत्थो पंच-पयारो वि सो विविहो॥
= जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सधता नहीं केवल पाप बन्धता है उसे अनर्थ कहते हैं।
वसुनन्दि श्रावकाचार गाथा 216 अय-दण्ड-पास-विक्कय-कूड-तुलामाण-कूरसत्ताणं। जं संगहो ण कीरइ तं जाण गुणव्वयं तदियं।
= लोहे के शस्त्र तलवार कुदाली वगैरह के तथा दण्ड और पाश (जाल) आदि के बेचने का त्याग करना, झूठी तराजु तथा कूट मान आदि के बाँटों को कम नहीं रखना तथा बिल्ली, कुत्ता आदि क्रूर प्राणियों का संग्रह नहीं करना सो यह तीसरा अनर्थदण्ड त्याग नाम का गुणव्रत जानना चाहिए ॥216॥ (गुण. श्रा. 142)।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/6 पीडा पापोपदेशाद्यैर्देहाद्यर्थाद्विनाङ्गिनाम्। अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्डव्रतं मतम्।
= अपने तथा अपने कुटुम्बी जनों के शरीर, वचन तथा मन सम्बन्धी प्रयोजन के बिना, पापोपदेशादिक के द्वारा प्राणियों को पीड़ा नहीं देना, अनर्थदण्ड का त्याग अनर्थ दण्डव्रत माना गया है।
1. अनर्थदण्ड के भेद
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 75 पापोपदेशहिंसादानापध्यानदुःश्रुतीः पञ्च। प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः।
= दण्डको नहीं धरनेवाले गणधरादिक आचार्य-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या इन पाँचों को अनर्थदण्ड कहते हैं।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360) (राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/5) ( चारित्रसार पृष्ठ 16/4)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 141-146 अपध्यान ।141।, पापोपदेश ।142।, प्रमादाचरित ।143।, हिंसादान ।144।, दुःश्रुति ।145। द्युतक्रीड़ा ।146।
चारित्रसार पृष्ठ 16/5 पापोपदेशश्चतुर्विधः-क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरम्भकोपदेशश्च।
= पापोपदेश चार प्रकार का है - क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधकोपदेशः, आरम्भकोपदेश। (दुःश्रुति चार प्रकार की है-स्त्रीकथा, भोगकथा, चोरकथा व राजकथा - देखें कथा ) ।
2. अपध्यानादि विशेष अनर्थदण्डों के लक्षण
1. अपध्यान अनर्थदण्ड - देखें अपध्यान ।
2. पापोपदेश अनर्थदण्ड
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 76 तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम्। कथाप्रसङ्गप्रसवः स्मर्त्तव्यः पाप उपदेशः ॥76॥
= तिर्यग्वणिज्या, क्लेशवणिज्या, हिंसा, आरंभ, ठगाई आदिकी कथाओं के प्रसंग उठाने को पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड जानना चाहिए।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 7/21/60)
राजवार्तिक अध्याय 7/21/549/7 क्लेशतिर्यग्वणिज्यावधकारम्भादिषु पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः। तद्यथा अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थ लाभो भवतीति क्लेशवणिज्या। गोमहिष्यादीन् अमुत्र गृहीत्वा अन्यत्र देशे व्यवहारे कृते भूरिवित्तलाभ इति तिर्यग्वणिज्या। वागुरिकसौकरिकशाकुनिकादिभ्यो मृगवराहशकुन्तप्रभृतयोऽमुष्मिन् देशे सन्तीति वचनं वधकोपदेशः। आरम्भकेभ्यः कृषीवलादिभ्यः क्षित्युदकज्वलनपवनवनस्पत्यारम्भोऽनेनोपायेन कर्तव्यः इत्याख्यानमारम्भकोपदेशः। इत्येवं प्रकारं पापसंयुतं वचनं पापोपदेशः।
= क्लेशवणिज्या, तिर्यग्वणिज्या, वधक तथा आरम्भादिकमें पाप संयुक्त वचन पापोपदेश कहलाता है। वह इस प्रकार कि-1. इस देशमें दास-दासी बहुत सुलभ हैं। उनको अमुक देशमें ले जाकर बेचने से महान् अर्थ लाभ होता है। इसे क्लेशवणिज्या कहते हैं। 2. गाय, भैंस आदि पशु अमुक स्थानसे ले जाकर अन्यत्र देशमें व्यवहार करने से महान् अर्थ लाभ होता है, इसे तिर्यग्वणिज्या कहते हैं। 3. वधक व शिकारी लोगों को यह बताना कि हिरण, सूअर व पक्षी आदि अमुक देशमें अधिक होते हैं, ऐसा वचन वधकोपदेश है। 4. खेती आदि करनेवालों से यह कहना कि पृथ्वी का अथवा जल, अग्नि, पवन, वनस्पति आदि का आरम्भ इस उपाय से करना चाहिए। ऐसा कथन आरम्भकोपदेश है। इस प्रकार के पाप संयुक्त वचन पापोपदेश नाम का अनर्थदण्ड है।
( चारित्रसार पृष्ठ 16/5)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 142 विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम्। पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥142॥
= विना प्रयोजन किसी पुरुष को आजीविका के कारण, विद्या, वाणिज्य, लेखनकला, खेती, नौकरी और शिल्प आदिक नाना प्रकार के काम तथा हुनर करने का उपदेश देना, पापोपदेश अनर्थदण्ड कहलाता है। पापोपदेश अनर्थदण्ड के त्याग का नाम ही अनर्थदण्डव्रत कहलाता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 345 जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसु-पालण-वणिज्जपमुहेसु। पुरसित्थी-संजोए अणत्थ-दंडोहवे विदिओ।
= कृषि, पशुपालन, व्यापार वगैरह का तथा स्त्री-पुरुष के समागम का जो उपदेश दिया जाता है वह दूसरा अनर्थदण्ड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/7 पापोपदेशं यद्ववाक्यं, हिंसाकृत्यादिसंश्रयम्। तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठ्यां प्रसज्जयेत् ॥7॥
= हिंसा, खेती और व्यापार आदि को विषय करनेवाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है इसलिए अनर्थदण्डव्रत का इच्छुक श्रावक हिंसा, खेती और व्यापार आदिसे आजीविका करनेवाले, व्याध, ठग वगैरह के लिए उस पापोपदेश को नहीं देवें और कथा-वार्तालाप वगैरह में उस पापोपदेश को प्रसंग में नहीं लावें।
3. प्रमादाचरित अनर्थदण्ड
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 80 क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च प्रमादाचर्यां प्रभाषन्ते ॥80॥
= बिना प्रयोजन पृथिवी, जल, अग्नि, और पवन के आरम्भ करने को, वनस्पति छेदने को, पर्यटन करने को और दूसरों को पर्यटन कराने को भी प्रमादचर्या नामा अनर्थदण्ड कहते हैं। ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 346)।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिच्छेदनभूमिकुट्टनसलिलसेचनाद्यवद्यकर्म प्रमादाचरितम्।
= बिना प्रयोजन के वृक्षादि का छेदना, भूमि का कूटना, पानी का सींचना आदि पाप कार्य प्रमादाचरित नामका अनर्थदण्ड है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/14) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/2)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 143 भूखननवृक्षमोट्ठनशाड्वलदलनाम्बुसेवनादीनि। निष्कारण न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च।
= बिना प्रयोजन जमीन का खोदना, वृक्षादि को उखाड़ना, दूब आदिक हरी घासको रौंदना या खोदना, पानी खींचना, फल, फूल, पत्रादि का तोड़ना इत्यादिक पाप क्रियाओं का करना प्रमादचर्या अनर्थदण्ड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/10 प्रमादचर्यां विफलक्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम्। खातव्याघातविध्यापासेकच्छेदादि नाचरेत् ॥10॥
= अनर्थदण्ड का त्यागी श्रावक पृथिवीके खोदनेरूप किवाड़ वगैरह के द्वारा वायु के प्रतिबन्ध करने रूप, जलादि से अग्नि को बुझाने रूप, भूमि वगैरह में जलके फेंकने तथा वनस्पति के छेदने आदि रूप प्रमादचर्या को नहीं करे।
4. हिंसादान अनर्थदण्ड
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 77 परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृङ्गशृङ्गलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ॥77॥
= फरसा, तलवार, खनित्र, अग्नि, आयुध, सींगी, शांकल आदि हिंसा के कारणों के माँगे देने को पण्डित जन हिंसादान नामा अनर्थदण्ड कहते हैं।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 विषकण्टकशस्त्राग्निरज्जुकशादण्डादिहिंसोपकरणप्रदानं हिंसाप्रदानम्।
= विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, रस्सी, चाबुक, और लकड़ी आदि हिंसा के उपकरणों का प्रदान करना हिंसाप्रदान नामा अनर्थदण्ड है
(राजवार्तिक अध्याय 7/21, 21/549/16) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/3)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 144 असिधेनुविषहुताशनलाङ्गलकरवालकार्मुकादीनाम्। वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यन्तात्।
= असि, धेनु, जहर, अग्नि, हल, करवाल, धनुष आदि अनेक हिंसा के उपकरणों को दूसरों को माँगा देने का त्याग करना, हिंसाप्रदान अनर्थदण्ड है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 347 मज्जार-पहुदि-धरणं आउह-लोहादि-विक्कणं जं च। लक्खा-खलादि-गहणं अणत्थ-दण्डो हवे तुरिओ ॥347॥
= बिलावादि हिंसक जन्तुओं का पालना, लोहे तथा अस्त्र-शस्त्रों का देना-लेना और लाख, विष वगैरह का लेना-देना चौथा अनर्थदण्ड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/8 हिंसादानविषास्त्रादि-हिंसाङ्गस्पर्शनं त्यजेत्। पाकाद्यर्थं च नाग्न्यादिदाक्षिण्याविषयेऽर्पयेत्।
= विष या हथियार आदि हिंसा के कारणभूत पदार्थों का देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड व्रत कहलाता है। उस हिंसादान अनर्थदण्ड को छोड़ देना चाहिए। जिससे अपना व्यवहार है ऐसे पुरुषों से भिन्न पुरुषों के विषय में पाकादि के लिए अग्नि नहीं देवे।
5. दुःश्रुति अनर्थदण्ड
रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक 79 आरम्भसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥79॥
= आरम्भ, परिग्रह, दुःसाहस, मिथ्यात्व, द्वेष, राग, गर्व, कामवासना आदिसे चित्त को क्लेषित करनेवाले शास्त्रों का सुनना-वाँचना सो दुःश्रुति नामा अनर्थदण्ड है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय /7/21/360 हिंसारागादिप्रवर्धनदुष्टकथाश्रवणशिक्षणव्यापृतिरशुभश्रुतिः।
= हिंसा और राग आदि को बढ़ानेवाली दुष्ट कथाओं का सुनना और उनकी शिक्षा देना अशुभश्रुति नामका अनर्थदण्ड है।
(राजवार्तिक अध्याय 7/21,21/549/17) ( चारित्रसार पृष्ठ 17/4)।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 145 रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम्। न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥145॥
= रागद्वेष आदिक विभाव भावों के बढ़ानेवाली, अज्ञान भावसे भरी हुई दुष्ट कथाओं को सुनना, बनाना, एकत्रित करना, या सीखना आदि का त्याग करने का नाम दुःश्रुति अनर्थदण्ड व्रत है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 348 ज सवणं सत्थाणं भंडण-वासियरण-काम-सत्थाणं। परदोसाणं ज तहा अणत्थ-दण्डो हवे चरिमो ।348।
= जिन शास्त्रों या पुस्तकों में गन्दे मजाक, वशीकरण, कामभोग वगैरह का वर्णन हो उनका सुनना और परके दोषों की चर्चा वार्ता सुनना पाँचवाँ अनर्थदण्ड है।
सागार धर्मामृत अधिकार 5/9 चित्तकालुष्यकृत्काम-हिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम्। न दुःश्रुतिमपध्यानं, नार्तरौद्रात्म चान्वियात् ॥9॥
= अनर्थदण्डव्रत का इच्छुक श्रावक चित्तमें कालुष्यता करनेवाला जो काम तथा हिंसा आदिक हैं तात्पर्य जिनके ऐसे शास्त्रों के रूप दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड को नहीं करे और आर्त तथा रौद्र ध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदण्ड को नहीं करे।
3. अनर्थदण्डव्रत के अतिचार
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 7/32 कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि।
= 1. हास्ययुक्त अशिष्ट वचन का प्रयोग. 2. कायकी कुचेष्टा सहित ऐसे वचन का प्रयोग, 3. बेकार बोलते रहना, 4. प्रयोजन के बिना कोई न कोई तोड़-फोड़ करते रहना या काव्यादिका चिन्तवन करते रहना, 5. प्रयोजन न होनेपर भी भोग-परिभोग की सामग्री एकत्रित करना या रखना, ये पाँच अनर्थदण्ड व्रत के अतिचार हैं।
(र. क. श्रा./81)
4. भोगपभोग परिमालव्रत व भोगोपभोग आनर्थक्य नामक अतिचार में अन्तर
राजवार्तिक अध्याय 7/32,6-7/556/29 यावताऽर्थे न उपभोगपरिभोगौ प्रकल्प्येतेतस्य तावानर्थ इत्युच्यते, ततोऽन्यस्याधिक्यमानर्थक्यम् ।6। ...स्यादेतत्-उपभोगपरिभोगव्रतेऽन्तर्भवतीति पौनरुक्त्यमासज्यत इति; तन्न किं कारणम्। तदर्थानवधारणात्। इच्छावशात् उपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रहः सावद्यप्रत्याख्यानं चेति तदुक्तम्, इह पुनः कल्प्यस्यैव आधिक्यमित्यतिक्रम इत्युच्यते। नन्वेवमपितद्व्रतातिचारान्तर्भावात् इदं वचनमनर्थकम्। नानर्थकम्; सचित्ताद्यतिक्रमवचनात्।
= जिसके जितने उपभोग और परिभोग के पदार्थों से काम चल जाये वह उसके लिए अर्थ है, उससे अधिक पदार्थ रखना उपभोगपरिभोगानर्थक्य है। प्रश्न - इसका तो उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें अन्तर्भाव हो जाता है अतः इससे पुनरुक्तता प्राप्त होती है? उत्तर - नहीं होती, क्योंकि इसका अर्थ अन्य है। उपभोग-परिभोगपरिमाणव्रतमें तो इच्छानुसार प्रमाण किया जाता है और सावद्य का परिहार किया जाता है, पर यहाँ आवश्यकता का विचार है। जो संकल्पित भी है पर यदि आवश्यकता से अधिक है तो अतिचार है। प्रश्न - तब इसका अन्तर्भाव भोगपरिभोग-परिमाणव्रत के अतिचार में हो जानेसे यह कथन निरर्थक है? उत्तर - निरर्थक नहीं है क्योंकि वहाँ सचित्त सम्बन्ध आदि रूपसे मर्यादातिक्रम विवक्षित है, अतः इसका वहाँ कथन नहीं किया।
5. अनर्थदण्डव्रत का प्रयोजन
राजवार्तिक अध्याय 7/21,22/549/19 दिग्देशयोरुत्तरयोश्चोपभोगपरिभोगयोरवधृतपरिमाणयोरनर्थकं चङ्क्रमणादिविषयोपसेवनं च निष्प्रयोजनं न कर्तव्यमित्यतिरेकनिवृत्तिज्ञापनार्थं मध्येऽनर्थदण्डवचनं क्रियते।
= पहले कहे गये दिग्व्रत तथा देशव्रत तथा आगे कहे जाने वाले उपभोग-परिभोग परिमाणव्रत में स्वीकृत मर्यादामें भी निरर्थक गमन आदि तथा विषय सेवन आदि नहीं करना चाहिए, इस अतिरेकनिवृत्ति की सूचना के लिए बीचमें अनर्थदण्डविरति का ग्रहण किया है।
6. अनर्थदण्डव्रत का महत्त्व
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक 147 एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयमहिंसाव्रतं लभते ॥147॥
= जो पुरुष इस प्रकार अन्य भी अनर्थदण्डों को जानकर उनका त्याग करता है, वह निरन्तर निर्दोष अहिंसाव्रत का पालन करता है।